Friday, June 6, 2025

डिजीटल उपनिवेशवाद का खतरा

 
स्मार्टफोन से लेकर सोशल मीडिया तक देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताना-बाना तेजी से डिजिटल हो रहा है। इसमे कोई दो राय नहीं है कि डिजिटलीकरण हमारे लिए सुविधासंपर्क और समृद्धि के नए रास्ते खोल रहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या हम सचमुच इस डिजिटल क्रांति के सूत्रधार हैंया फिर बस किसी और के बनाए डिजिटल तंत्र के उपभोक्ता बनकर रह गए हैंएक समय था जब औपनिवेशिक ताकतों ने दुनिया पर कब्जा जमाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया थाफिर बारी आई सॉफ्ट पावर यानी संस्कृतिभाषामीडिया और कूटनीति के जरिये अपना प्रभाव बनाने की। अब यह दौर डिजिटल उपनिवेशवाद का हैजहाँ किसी देश की शक्ति केवल सैन्य बल या सांस्कृतिक प्रभाव से नहीं बल्कि डेटा पर नियंत्रण से तय होती है। स्टैस्टिका के मुताबिक भारत में 90 करोड़ से अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं और यह संख्या हर दिन बढ़ रही है। 
दुनिया की शीर्ष 10 टेक प्लेटफॉर्म्स गूगलफेसबुकइंस्टाग्रामअमेजनएक्स आदि पर भारतीय उपभोक्ताओं की भारी संख्या है। लेकिन इनमें से एक भी कंपनी भारतीय नहीं हैं। हमारे लोगों का डेटा भारत में नहीं बल्कि विदेशी कंपनियों के नियंत्रण में है। यह एक तरह के डिजिटल उपनिवेशवाद को जन्म दे रहा है। जहाँ सूचना और डेटा पर नियंत्रण कुछ गिनी चुनी वैश्विक कंपनियों के हाथों में केंद्रित हो रही है। इन कंपनियों का नियंत्रण मुख्य रूप से अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों के हाथों में है। जिससे भारत का डिजिटल भविष्य बाहरी शक्तियों की नीतियों और व्यावसायिक हितों पर निर्भर होता जा रहा है। सोशल मीडिया के इस्तेमाल के मामले में 47 करोड़ यूजर्स के साथ भारत , चीन के बाद विश्व में दूसरा स्थान रखता है। देश में फेसबुकइंस्टाग्रामव्हाट्सअपएक्स और यूट्यूब जैसे वैश्विक प्लेटफॉर्म्स सबसे अधिक प्रचलित हैं। मगर  ये कंपनियाँ न केवल हमारे डेटा का आर्थिक शोषण कर रही ही हैंबल्कि भारत की चुनाव प्रणालीन्यायिक फैसलों और समाज में वैचारिक ध्रुवीकरण को भी प्रभावित कर रही हैं। हैरानी की बात यह है कि 140 करोड़ लोगों के इस देश में कोई भी ऐसा देशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं हैजो इन विदेशी को एप्स के सामने खड़ा हो सके।
पिछले कुछ सालों में इन विदेशी प्लेटफॉर्म्स ने देश के सामने कई तरह की चुनौतियाँ पेश की हैं। जिनमें डेटा सुरक्षाफेक न्यूज और पक्षपातपूर्ण प्रचार जैसे मुद्दे शामिल हैं। भारत जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैयहाँ की चुनावी प्रक्रिया में भी इन कंपनियों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा है। संस्था ईको की रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल सम्पन्न हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मेटा प्लेटफॉर्म्स पर चुनावी पेड प्रचार और शेडो विज्ञापनों के जरिये राजनीतिक पार्टियों को लाभ पहुँचाने के आरोप लगे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक इन प्लेटफॉर्म्स ने ऐसे कई विज्ञापनों को प्रमोट किया जो चुनावी नियमों का उल्लंघन और भ्रामक जानकारी दे रहे थे।  ऐसा ही मामला साल 2018 में आए कैम्ब्रिज एनालिटिका स्कैंडल ने भी यह उजागर किया था कि कैसे ये विदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स भारतीय मतदाताओं के डेटा का दुरुपयोग कर सकते हैं। वहीं फेक न्यूज के मामले में साल 2023 में यूनेस्को इपसोस द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक , देश में शहरी क्षेत्रों के 64 प्रतिशत लोगों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को गलत सूचनाओं और फेक न्यूज का प्राथमिक स्रोत मानाइन फेक न्यूज के प्रसार में खासकर फेसबुकव्हाट्सअप और एक्स इनमें प्रमुख भूमिका निभाते नजर आये। फेसबुक की इंटरनल रिपोर्ट कम्यूनल कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंडिया के मुताबिक, 2020 में हुए दिल्ली दंगों में फेसबुक और व्हाट्सएप पर 22 हजार से अधिक ऐसे पोस्ट्स और ग्रुप्स पाये गयेजिनमें सांप्रदायिक नफरत फैलाई जा रही थी। इसी तरह के मामला 2021 में ट्विटर पर भी सामने आया जब भारत सरकार ने हिंसा फैलने की आशंका में किसान आंदोलन से जुड़े कुछ अकाउंट्स और ट्ववीट्स को हटाने के निर्देश दिये थे। लेकिन तब ट्विटर ने पूरी तरह से इसके अनुपालन से इंकार कर दिया था।
मुश्किल बात यह है कि यह विदेशी कंपनियाँ भारत में काम करने के बावजूद पूरी तरह से भारतीय कानून के अधीन नहीं है और अक्सर अपनी वैश्विक नीतियों का हवाला देकर बच निकलती हैं। और बात सिर्फ यह नहीं है कि ये विदेशी कंपनियां भारत में प्रभाव बना रही हैंबल्कि आर्थिक दृष्टि से भी यह देश को बड़ा नुकसान पहुँचा रही हैं। उदाहरण के लिएमेटा और एक्स जैसे प्लेटफार्म भारत में विज्ञापन से अरबों डॉलर कमाई करते हैंलेकिन उनका एक बड़ा हिस्सा विदेशी देशों में चला जाता है। मेटा की इंडिया यूनिट की हाल की जारी आर्थिक रिपोर्ट के मुताबिक भारत से मेटा जिसमें फेसबुकव्हाट्सअपइंस्टाग्राम शामिल हैंने इस साल भारत से 22 हजार करोड़ रुपये से अधिक के राजस्व की कमाई की है। लेकिन इसका कोई प्रत्यक्ष लाभ सीधे भारतीय अर्थव्यवस्था को नहीं मिलता है।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के अलावा एक बड़ी चुनौती इन कंपनियों के क्लाउड स्टोरेज और डेटा सेंटर्स को लेकर भी है। भारतीय सरकार और कंपनियाँ बड़े पैमाने पर गूगल ड्राइवअमेजन एडब्लूएसएजोर जैसे क्लाउड स्टोरेज पर निर्भर हैंयानी भारत का संवेदनशील डेटा अपने देश में न होकर विदेशो में संग्रहित होता है। जो देश की सुरक्षा और संप्रभुता पर एक बड़ा खतरा है। जुलाई 2024 में माइक्रोसॉफ्ट के क्लाउड स्टोरेज में गड़बड़ी होने से पूरे देश का आईटी सिस्टम 12 घंटे के लिए ठप पड़ गया। अचानक आई एक तकनीकी खामी के कारण देश में डिजिटल बैंकिंगरेलवेमेट्रोएयरपोर्ट्सऑनलाइन सेवाएं और कई अन्य महत्वपूर्ण प्रणालियां ठप पड़ गईं। जिससे ने केवल रोजमर्रा की जिंदगी घंटो प्रभावित रही बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी गहरा आघात पहुँचा। वहीं इस घटना से रूस और चीन पर कोई असर नहीं दिखाई दिया। दरअसल इन देशों ने 2002 के बाद अपनी स्वतंत्र तकनीकी संरचना विकसित कीजिसमें अपने क्लाउड सिस्टमऑपरेटिंग सिस्टम और सर्च इंजन शामिल हैं। चीन ने अपने डिजिटल प्रबंधन के लिए स्वेदेशी प्लेटफॉर्म्स जैसे वी-चैटवीबो और डोइन जैसे एप्स को विकसित किया है। वहीं रूस ने वीकेओड्नोकलास्निकी  जैसे प्लेटफॉर्म्स विकसित किये हैं। जो इन देशों को सूचना प्रवाह पर निगरानी रखने और अमेरिकी प्लेटफॉर्म्स पर निर्भर होने से बचाते हैं।  अब जरूरी यह है कि भारत को भी चीन और रूस की तरह अपना स्वेदशी सोशल मीडिया और डिजिटल ईकोसिस्टम बनाने की ओर कदम उठाना चाहिए।  हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत में पहले कभी स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बनाने की कोशिश नहीं हुईशेयरचैट और कू जैसे प्लेटफॉर्म्स ने एक समय भारतीय बाजार में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की थी मगर लोगों और सरकार के अपेक्षाकृत कम समर्थन के कारण इनका वैश्विक दिग्गजों से मुकाबला करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया।
तकनीकी नवाचारों के मामले में भारत की स्थिति में पिछले कुछ सालों में काफी सुधार आया है। हाल ही में आई ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2024 रैकिंग में 133 देशों में भारत ने 39वां स्थान हासिल किया है,जो देश की बढ़ती तकनीकी और डिजिटल क्षमता का प्रमाण हैहालांकि इसमें अभी भी काफी सुधार की आवश्यकता है। आज भारत में तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में कई बड़े कदम उठाये जा रहे हैं। आधारयूपीआई और कोविन जैसे स्वदेशी प्लेटफॉर्म्स ने यह साबित कर दिखाया है कि हम तकनीकी चुनौतियों को कैसे संभाल सकते हैं। अगर भारत अपना तकनीकी इकोसिस्टम विकसित करता है तो यह देश पर थोपे जा रहे डिजिटल उपनिवेशवाद का मुकाबला करने के लिए कड़ा कदम होगा। क्योंकि डिजिटल उपनिवेशवाद केवल एक तकनीकी मुद्दा नहीं बल्कि एक सामाजिकआर्थिक और राजनीतिक चुनौती भी है। हमें अपनी डिजिटल संप्रभुता बनाए रखने के लिए डेटा की सुरक्षास्थानीय नवाचार का समर्थ और विदेशी तकनीकी कंपनियों की जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी। अब अगर हमने तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम नहीं उठाए तो एक नया डिजिटल उपनिवेशवाद देश पर हावी हो सकता है।
दैनिक जागरण में 06/06/2025 को प्रकाशित 

Wednesday, June 4, 2025

क्या एआई ने मेटावर्स की चमक फीकी की है

 

जरा सोचिए आप अपने घर में सोफे पर बैठे हैं, और उसी वक्त वक्त न्यूयॉर्क में एक मीटिंग में हिस्सा ले रहे हैं, टोक्यो में किसी आर्ट गैलरी में घूम रहें हैं और फिर दिल्ली में दोस्तों के साथ गपशप कर रहे हैं। यह न तो कोई सपना है और न ही कोई साइंस फिक्शन फिल्म का दृश्य बल्कि हकीकत में संभव हो रहा है। ये मेटावर्स है जहाँ तकनीक के जरिए आप एक वर्चुअल दुनिया में दाखिल होते हैं। दरअसल मेटावर्स एक आभासी डिजिटल दुनिया का कॉन्सेप्ट है, जिसमें आप वर्चुअल अवतार बनकर घूम सकते हैं, लोगों से मिल सकते हैं। यह इंटरनेट का अगला संस्करण है।  जहाँ लोग केवल स्क्रीन पर वेबसाइट नहीं देखते बल्कि खुद एक आभासी दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं।

मेटावर्स की अवधारणा सबसे पहले साइंस फिक्शन लेखक नील स्टीफेंसन ने 1992 में अपनी किताब स्नो क्रैश में की थी। इस किताब में उन्होंने एक ऐसी काल्पनिक दुनिया का खाका खींचा था, जहां लोग अपने घरों की चारदीवारी में रहकर एक वर्चुअल रियलिटी में अपना जीवन जीते हैं। यह अवधारणा उस समय के मुताबिक भले ही काल्पनिक और दूर की बात लग सकती है, लेकिन तेजी से हो रही तकनीकी प्रगति ने इस कल्पना को सच कर दिखाया है। आज वर्चुअल रियलिटी और ऑगमेंटेड रियलिटी जैसी तकनीक के जरिये मेटावर्स हकीकत हो चला है। आप इसे ऐसे भी समझ सकते हैं जैसे आप किसी गेम की वर्चुअल दुनिया में हो, लेकिन मेटावर्स  किसी गेम से कहीं ज्यादा है। यह एक तरह का डिजिटल स्पेस है, जहाँ आप अपनी वर्चुअल पहचान बना सकते हैं, काम कर सकते हैं, मिल सकते हैं, शॉपिंग कर सकते हैं, और भी बहुत कुछ कर सकते हैं।
ग्रैंड व्यू रिसर्च के मुताबिक साल 2024 तक वैश्विक मेटावर्स मार्केट करीब 105 अरब डॉलर था वहीं साल 2030 तक यह बाजार 1.1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। आज कंपनियाँ गेमिंग, शिक्षा, स्वास्थ्य, शॉपिंग और मार्केटप्लेस से जु़ड़े मेटवर्स के क्षेत्र में बड़ा निवेश कर रही हैं। फेसबुक जो अब मेटा के नाम से जाना जाता है , ने मेटावर्स में अपनी प्रमुख भूमिका निभाई है। अक्तूबर 2021 में मार्क जकरबर्ग ने मेटावर्स से प्रेरित होकर फेसबुक का नाम मेटा कर दिया। और अपनी मेटावर्स यूनिट में करीब 10 बिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया। शुरुआत में सेकंड लाइफ जैसे प्लेटफार्मों को मेटावर्स के पहले उदाहरण के रूप में देखा गया, जहां खिलाड़ी एक वर्चुअल पहचान के साथ संवाद कर सकते थे।
रिपोर्ट्स के मुताबिक गेमिंग एप्लिकेशन मेटावर्स बाजार का सबसे बड़ा हिस्सा है। रोब्लोक्स, एपिक गेम जैसी कंपनियों ने इस क्षेत्र में भारी निवेश किया है। हाल में ही लाइफस्टाइल ब्रांड नाइके ने रोब्लोक्स पर नाइकलैंड नाम से एक वर्चुअल स्थान बनाया था  जिसके कुछ ही महीनों में 6 मिलियन से अधिक उपयोगकर्ता हो गए। वहीं डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में भी मेटावर्स को तेजी से अपनाया जा रहा है। साल 2024 में मेटा ने विक्ट्रीएक्सआर के साथ मिलकर यूरोप के विश्वविद्यालयों के डिजिटल ट्विन वर्चुअल कैंपस तैयार किये हैं। डिजिटल ट्विन कैंपस के जरिये छात्र यूनिवर्सिटीज के भौतिक परिसर का आभासी अनुकरण करते हुए रिमोट क्लास ले सकते हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र में भी मेटावर्स की भूमिका बढ़ रही है, कंपनियाँ वीआर तकनीक पर आधारित टेलीहेल्थ सेवाएं दे रही हैं। जहाँ मरीज का वर्चुअल वातावरण में इलाज किया जा रहा है। कई बड़े ब्रांड्स जैसे गुची, वालमार्ट कोका-कोला ने मेटावर्स में वर्चुअल शोरुम बनाए हैं। वालमॉर्ट और जीकिट ग्राहकों को कपड़ों के वर्चुअल ट्रॉयल की सुविधा दे रही हैं। कंसल्टिंग फर्म मैकिन्जी के मुताबिक मेटावर्स आधारित ई-कॉमर्स अवसर साल 2030 तक 2.5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। वहीं मेटावर्स पर लोग एनएफटी के जरिये लोग डिजिटल संपत्तियों में भी निवेश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए एक्सेंचर ने अपने नए कर्मचारियों की ऑनबोर्डिंग के लिए एक वर्चुअल ऑफिस एनथ फ्लोर बनाया है।
भारत जो डिजिटल क्रांति के दौर से गुजर रहा है, मेटावर्स की इस जादुई दुनिया में तेजी से कदम रख रहा है। संस्था मार्केट रिसर्च फ्यूचर के मुताबिक 2025 में भारत का मेटावर्स बाजार करीब 9 बिलियन डॉलर का है जो 2034 तक बढ़कर 167 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी मंत्रालय ने एआई, वीआर तकनीकों के स्टार्टअप संवर्धन के लिए एक्स आर स्टार्टअप प्रोग्राम की शुरुआत की है। जिसमें अमेरिकी कंपनी मेटा भी सहभागिता दे रहा है। इसके साथ ही मंत्रालय ने आईआईटी भुवनेश्वर में वीआई और एआर सेंटर ऑफ एक्सीलेंस स्थापित किया है। जिससे इस क्षेत्र में नवाचार और शोध को गति मिल रही है। हाल ही में टीवी प्रोग्राम शार्क टैंक पर आए एक मेटावर्स स्टार्टअप एप लोका ने भी देश के लोगों में मेटावर्स के प्रति जागरूकता फैलाई है। इसके अलावा मेटावर्स का क्रेज आम लोगों में भी काफी लोकप्रिय हो रहा है। अफैक्स डॉट कॉम की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल युग मेटावर्स नामक एक प्लेटफॉर्म पर एक कपल ने शादी भी की थी, जिसने काफी सुर्खियाँ बटोरी थी। वहीं अगले कुछ सालों में बड़े मंदिरों और ऐतिहासिक जगहों के भी वर्चुअल मेटावर्स बनाने पर काम किया जा रहै है।  वहीं शिक्षा के क्षेत्र में आईआईटी गुवाहाटी द्वारा वीआर प्लेटफॉर्म ज्ञानधारा को केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से पीएम श्री स्कूलों में लागू किया जा रहा है। हालांकि भारत में डिजिटल अवसंरचना और इंटरनेट पहुंच की सीमाएं मेटावर्स के विकास में कुछ रुकावटें पैदा कर रही दरअसल भारत में 60 प्रतिशत से अधिक उपयोगकर्ता शहरी क्षेत्रों से हैं। जबकि ग्रामीण भारत में वीआर, एआर तकनीक और हाई स्पीड इंटरनेट की पहुँच सीमित है। ट्राई ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि ग्रामीण एवं दूरदराज क्षेत्रों में पर्याप्त बैंडविड्थ के बिना मेटावर्स तक पहुँच मुमकिन नहीं होगी। फिलहाल भारत में अधिकांश इंटरनेट कनेक्शन कम गति या उच्च लैटेन्सी वाले हैं, जो रियल टाइम वीआर, एआर अनुभव के लिए पर्याप्त नहीं है। वहीं एआर, वीआर हेडसेट, इमर्सिव डिस्प्ले और अन्य हार्डवेयर काफी महंगे हैं। भारत में अभी मेटावर्स तकनीक अपने शुरुआती दिनों में है।
हालांकि मेटावर्स में डेटा की गोपनीयता और डिजिटल लत जैसे मुद्दे भी उभर रहे हैं। विशेषज्ञों ने मेटावर्स में सुरक्षा, नैतिकता और स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताएं व्यक्त की हैं। हाल ही में ब्रिटेन में एक 16 वर्षीय लड़की के साथ वर्चुअल वातावरण में उत्पीड़न का मामला सामने आया, जिसने मेटावर्स में सुरक्षा और निगरानी के गंभीर सवाल खड़े किए हैं। इसके साथ ही मेटावर्स में लंबे समय तक रहने से डिजिटल एडिक्शन का भी खतरा बढ़ा है। लंबे समय तक वीआर हैडसेट पहने रहने से लोगों को सिम्युलेटर सिकनेस या साइबर सिकनेस भी हो सकती है। यह एक प्रकार का मोशन सिकनेस है जिसमें जिसमें उपयोगकर्ताओं को VR अनुभवों के दौरान चक्कर आना, मतली, सिरदर्द, और थकान जैसी समस्याएँ होती हैं।
मेटावर्स के लिए खरबों डॉलर का निवेश किया जा रहा है, लेकिन यह अभी भी अस्थिर है और इसमें कई जोखिम हैं। कोविड महामारी के समय जब सभी लोग अपने घरों में कैद थे, तब दुनिया की सभी दिग्गज कंपनियाँ मेटावर्स में भारी निवेश को लेकर उत्साहित थीं। लेकिन आंकड़े दर्शाते हैं कि कुछ कंपनियों ने अपने निवेश का अवलोकन करना शुरु कर दिया है। मार्क जकरबर्ग की मेटा की रियलिटी लैब्स ने 2020 से अबतक करीब 60 बिलियन से अधिक का नुकसान उठाया है। 2025 की पहली तिमाही में कंपनी ने करीब 4 बिलियन डॉलर का घाटा दर्ज किया है।  एआई और मशीन लर्निंग, जो पहले से ही मेटावर्स के मुकाबले ज्यादा प्रभावी साबित हो रहे हैं जिसके कारण कंपनियों ने इस मेटावर्स के मुकाबले एआई पर अपना निवेश बढ़ा दिया है। इन तमाम संभावनाओं और चुनौतियों के बावजूद मेटावर्स अभी भी एक उभरती हुई अवधारणा है। भले ही मेटावर्स अपनी शुरुआती चरण में है, पर यह शिक्षा, स्वास्थ्य, वर्कप्लेस और सामाजिक जुड़ाव को पूरी तरह से पुनर्परिभाषित कर सकता है।
अमर उजाला में 06/04/2025 को प्रकाशित 

Friday, May 23, 2025

आर्थिकी में एआई का योगदान

 
कभी दुनिया में आईटी आउटसोर्सिंग के नाम से पहचाने जाने वाला भारत अब डिजिटल क्रांति की नई इबारत लिख रहा है। सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में अपने कौशल के दम पर भारत ने वैश्विक पहचान बनाई है,और अब भारतीय डेवेलपर्स आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में भी भारत को सिरमौर बनाने की राह में जुटे हुए हैं। हाल ही में आई गिटहब की एक रिपोर्ट के मुताबिक जेनेरेटिव एआई के क्षेत्र में भारत दुनिया में दूसरे पायदान पर पहुँच गया है और अनुमान है कि 2028 तक भारत कुल डेवेलपर्स की संख्या के मामले अमेरिका को पीछ छोड़ पहला स्थान हासिल कर लेगा। रिपोर्ट के मुताबिक गिटहब प्लेटफार्म पर भारतीय डेवेलपर्स की संख्या 2024 में 28 प्रतिशत बढ़कर 1.7 करोड़ के पार पहुँच गई है। दरअसल जेनरेटिव एआई का मतलब ऐसी एआई प्रणाली से है जिसमें न्यूरल नेटवर्कमशीन लर्निंग जैसी तकनीक की मदद से टेक्स्ट,इमेजऑ़डियो आदि प्रकार के नए डेटा का सृजन होता है। न्यूरल नेटवर्क सीखे गए पैर्टन और नियमों के आधार पर आउटपुट उपलब्ध कराता हैजो हूबहू मानव निर्मित कंटेंट जैसा होता है। 2023 में प्रकाशित ब्लूमबर्ग इंटेलिजेंस की एक रिपोर्ट के अनुसार ओwपन एआई के चैट जीपीटी और गूगल के बार्ड जैसे नवाचारों के आने से जेनरेटिव एआई के बाजार में भूचाल आ गया है। अगले 10 सालों में जेनरेटिव एआई का बाजार दुनियाभर में 1.3 ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ने की संभावना है।
 जिसमें भारत एक अहम भूमिका निभाता दिखेगा। रिसर्च संस्था ईवाई की द एआई आइडिया ऑफ इंडिया शीर्षक से छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक यदि भारत विभिन्न क्षेत्रों में जेनरेटिव एआई तकनीक का पूरी तरह से उपयोग करता है तो 2030 तक जेन-एआई भारतीय अर्थव्यवस्था में 359-438 बिलियन डॉलर का अतिरिक्त योगदान दे सकता है। पिछले दो दशक में भारत ने आईटी के क्षेत्र में काफी प्रगति की हैआज अमेरिका की सिलिकन वैली से लेकर लंदन और सिडनी तक भारतीय इंजीनियर्स ने अपना योगदान दिया है। वहीं भारतीय सरकार की नीतियों जैसे डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसी मुहिम से भी अब भारत में तकनीकी नवाचारों का ईको-सिस्टम बनाने की कवायद तेज हो गई है। जिनमे आईटी क्षेत्रसेमीकंडक्टर निर्माण और एआई से जुड़े उद्योग लगाये जा रहे हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक एआई तकनीक का इस्तेमाल कृषिस्वास्थ्य सेवाशिक्षा और मीडिया जैसे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर किया जा सकता हैजिससे भारत को इन क्षेत्रों में उल्लेखनीय सुधार देखने को मिल सकता है। हाल ही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग और आईआईटी बॉम्बे द्वारा भारतजेन नाम से एक भारतीय जेनरेटिव एआई की शुरुआत की गईजिसके तहत नागरिकों को विभिन्न भाषाओं में जेनरेटिव एआई उपलब्ध कराया जाएगा। आज देश में जेनरेटिव एआई स्टार्टअप्स की संख्या में भी एक तीव्र वृद्धि दर्ज की जा रही है। बीते माह आई नैसकॉम की इंडियाज जेनरेटिव एआई  स्टार्टअप लैंडस्केप 2024 रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक साल में जेनरेटिव एआई से जुड़े स्टार्टप्स की संख्या 66 से 240 पहुँच गई है। 

भारत की सिलिकन वैली के नाम से प्रसिद्ध बेंगलुरु भारत के जेन-आई स्टार्टअप का प्रमुख केंद्र बना हुआ हैजो देश में कुल 43 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है। वहीं अहमदाबादपुणेसूरत और कोलकाता जैसे शहर भी तेजी से उभरते हुए केंद्र बन रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एआई रिसर्च में भी भारत का कद लगातार बढ़ रहा है। अमेरिकाजर्मनी और जापान जैसे देशों के साथ मिलकर भारत एआई की चुनौतियों और अवसरों को हल करने के लिए सक्रिय रूप से काम कर रहा है। एन एआई अपरच्यूनिटी फॉर इंडिया रिपोर्ट में गूगल ने भारत में डायबिटिक रेटिनोपैथी एआई मॉडल उपलब्ध कराने की घोषणा की है। इसकी मदद से अगले 10 साल में एआई असिस्टेंट स्क्रीनिंग की सुविधा दी जाएगी। वहीं गूगल भारतीय कंपनियों के साथ मिलकर खेती की उपज बढ़ाने के लिए एआई मॉडल का भी निर्माण कर रहा है।इसके साथ ही दिग्गज चिप निर्माता एनवीडिया ने भी रिलायंस इंडस्ट्रीज के साथ भारत में एआई इंफ्रास्ट्रकचर के निर्माण करने की घोषणा की है। दोनों कंपनियों ने भारत में एआई कम्प्यूटिंग इंफ्रा और नवाचार केंद्र बनाने के लिए एक समझौता किया है। भारत सरकार ने भी देश में एआई स्टार्टअप को सशक्त बनाने के लिए इस साल इंडिया एआई मिशन को मंजूरी दी थीजिसके लिए कैबिनेट ने करीब 10 हजार करोड़ की राशि जारी की थी। इस कदम से एआई नवाचार में देश को ग्लोबल लीडर बनने में काफी मदद मिलेगी। वहीं भारत में एआई का बढ़ता प्रसार रोजगार के लिए बड़ा संकट बन सकता हैखासकर उन क्षेत्रों में जहाँ मशीनीकरण कार्यों को आसान बना रहा है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार एआई और ऑटोमेशन के कारण आने वाले सालों में लाखों पारंपरिक नौकरियों पर संकट आ सकता है।

 इसके बदले नए तकनीकी और विश्लेषणात्मक कौशल की माँग की वृद्धि होगीजिसके लिए सरकार और निजी क्षेत्र को मिलकर रीस्किलिंग प्रोग्राम्स चलाने पर भी ध्यान देना चाहिए।देश का डिजिटल विकास और एआई में निवेश यह भरपूर संकेत देता है कि आने वाले कुछ सालों में भारत एआई के क्षेत्र में एक महाशक्ति के रूप में उभर सकता है। यह न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करेगाबल्कि वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति को मजबूती देगा। अगर भारत अपने तकनीकी संसाधनों और नवाचारों को सही दिशा में इस्तेमाल करता है,तो एआई के क्षेत्र में अग्रणी बनने के साथ-साथ पूरी दुनिया में इसका नेतृत्व भी कर सकता है। हालांकि भारतीय तकनीकी शिक्षा संस्थान और कई कंपनियाँ इस दिशा में काम कर रही हैंताकि भविष्य में कार्यबल को एआई-सक्षम उद्योगों के लिए तैयार किया जा सके। इसके साथ ही सुरक्षा के मोर्चे पर भी साइबर हमलोंडीपफेक्स और फेक न्यूज के प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए एक तंत्र की आवश्यकता है।

दैनिक जागरण में 23/05/2025 को प्रकाशित 

Wednesday, May 21, 2025

सॉफ्ट पावर भी कमाल की चीज है

 

भारत की सॉफ्ट पावर वैश्विक मंच पर तेजी से उभर रही है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) शिखर सम्मेलन की सह-अध्यक्षता की, जिसने भारत को एआई क्षेत्र में अग्रणी के रूप में प्रस्तुत किया। पहले किसी राष्ट्र की शक्ति उसकी सैन्य और आर्थिक क्षमता से मापी जाती थी, लेकिन आज सॉफ्ट पावर, यानी संस्कृति, विचारों और मूल्यों के माध्यम से प्रभाव डालने की क्षमता, राष्ट्र की ताकत का पैमाना है। अमेरिकी राजनीतिक विशेषज्ञ जोसेफ न्ये ने सॉफ्ट पावर की अवधारणा को प्रतिपादित किया, जो बिना दबाव या आक्रामकता के अन्य देशों को प्रभावित करने का साधन है। यह किसी राष्ट्र को आकर्षक बनाने का जरिया है, जिसे न संख्याओं में मापा जा सकता है और न ही हथियारों से हासिल किया जा सकता है।

मेरिका ने हॉलीवुड, मैकडॉनल्ड्स और पॉप म्यूजिक के जरिए अपनी सॉफ्ट पावर का विस्तार किया। दक्षिण कोरिया, जापान और चीन ने के-पॉप, एनीमे और तकनीक से वैश्विक प्रभाव बनाया। भारत भी इस दिशा में तेजी से बढ़ रहा है। जी20, एससीओ और ब्रिक्स जैसे मंचों पर भारत की भूमिका उसकी बढ़ती साख को दर्शाती है। बॉलीवुड, योग, आयुर्वेद और भारतीय व्यंजनों ने वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता हासिल की है। ब्रांड फाइनेंस की ग्लोबल सॉफ्ट पावर इंडेक्स 2024 के अनुसार, भारत ने सॉफ्ट पावर में 29वां स्थान हासिल किया, जिसमें कला और मनोरंजन में 7वां, सांस्कृतिक विरासत में 19वां और भोजन में 8वां स्थान शामिल है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस, जिसे 192 से अधिक देशों में मनाया जाता है, भारत की सॉफ्ट पावर का प्रतीक है।

भारतीय सिनेमा ने भी सॉफ्ट पावर को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। राज कपूर की फिल्मों से लेकर दंगल, बाहुबली और आरआरआर तक ने वैश्विक बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाई। नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम जैसे प्लेटफॉर्म्स ने भारतीय फिल्मों और सीरीज को विश्व स्तर पर पहुंचाया। हॉलीवुड में अब भारतीय किरदारों को मजबूत और गंभीर भूमिकाओं में दिखाया जाता है, जैसे सीटाटेल और मिस मार्वेल।

विज्ञान और तकनीक में भी भारत अग्रणी है। गिटहब की रिपोर्ट के अनुसार, जेनरेटिव एआई डेवलपर्स की संख्या में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है और 2028 तक अमेरिका को पीछे छोड़ सकता है। इसरो के चंद्रयान और मंगलयान मिशनों ने भारत को अंतरिक्ष महाशक्ति के रूप में स्थापित किया। कोविड महामारी के दौरान भारत की वैक्सीन डिप्लोमेसी और यूपीआई जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने वैश्विक प्रशंसा अर्जित की। जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में, भारत ने अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की स्थापना की, जिसमें 120 से अधिक देश शामिल हैं।

हालांकि, चुनौतियां भी कम नहीं हैं। शिक्षा में भारत, अमेरिका और यूरोप से पीछे है। क्यूएस वर्ल्ड रैंकिंग में टॉप 200 विश्वविद्यालयों में भारत के केवल तीन संस्थान हैं। ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2024 में भारत 39वें स्थान पर है। प्रति व्यक्ति आय, हैप्पीनेस इंडेक्स और ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति चिंताजनक है। गरीबी, प्रदूषण और बेरोजगारी जैसे मुद्दे देश की छवि को प्रभावित करते हैं।

भारत को सॉफ्ट पावर के रूप में स्थापित करने के लिए सांस्कृतिक कूटनीति, शिक्षा, स्वास्थ्य और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर ध्यान देना होगा। प्रसार भारती का वेव्स समिट और ओटीटी प्लेटफॉर्म इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। सॉफ्ट पावर केवल संस्कृति का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि लोकतंत्र, मानवाधिकार और प्रामाणिक मूल्यों का प्रसार है। यदि भारत इस दिशा में सही कदम उठाए |

प्रभात खबर में 21/05/2025 को प्रकाशित 

Tuesday, May 20, 2025

इन्फ्ल्युंसर भी तो निष्पक्ष हों

 

इस डिजिटल होते दौर में सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक नया मंच प्रदान किया है। आज इस मंच का प्रभाव इतना व्यापक हो चुका है कि आम जनता से लेकर बड़ी-बड़ी कंपनियाँहर कोई इसका इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कर रहा है। इस कड़ी में सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स इस बदलाव के सबसे बड़े वाहक बने हैं। आजकल कुछ भी खरीदने से पहले हम सबसे पहले इन इंफ्लुएंसर्स की राय और समीक्षा देखते हैं । मोबाइल से लेकर क्रीम तक कौन सा उत्पाद खरीदना चाहिए ये लोग यूट्यूब रिव्यू या इंस्टाग्राम रील देखकर तय करते हैं। यह एक तरह की इंफ्लुएंसर्स मार्केटिंग संस्कृति है जिसने पारंपरिक मार्केटिंग के तौर तरीकों पीछे छोड़ दिया है। इंफ्लुएंसर अब केवल उत्पादों का प्रचार ही नहीं करते बल्कि उपभोक्ताओं के भरोसे और निर्णय प्रक्रिया को गहराई से प्रभावित करते है।
 यही वजह है कि आज हर ब्रांड अपनी डिजिटल पहचान को मजबूत करने के लिए इन इंफ्लुएंसर्स का सहारा ले रहा है। अक्सर हम सभी के साथ ऐसा होता है कि किसी आकर्षक विज्ञापन को देखकर हम किसी उत्पाद को खरीदने का मन बना लेते हैंलेकिन जब सोशल मीडिया पर उसके नकारात्मक रिव्यू देखते हैंतो हमारा विचार बदल जाता है। कई बार इंफ्लुएंसर्स की नकारात्मक समीक्षा ब्रांड्स और कंपनियों को नागवार गुजरती है। और वे उस इंफ्लुएंसर पर मानहानि या कानूनी दबाव बनाने की कोशिश करते हैं। हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने इस बहस में हस्तक्षेप करते हुए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि किसी ब्रांड की आलोचना वैज्ञानिक तथ्योंप्रमाणों और उपभोक्ता हितों पर आधारित हो तो उसे मानहानि नहीं माना जा सकता।
इतना ही नहीं कोर्ट ने व्यंग्य और अतिशयोक्ति को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में स्वीकार किया है। दरअसल सैंस न्यूट्रिशन प्राइवेट लिमिटेड नामक एक कंपनी ने चार यूट्यूबर्स के खिलाफ मानहानि का केस किया था। इन यूट्यूबर्स ने अपने चैनल्स पर हेल्थ और न्यूट्रिशन से जुड़े मुद्दों पर चर्चा करते हुए कंपनी के प्रोडक्ट्स की गुणवत्ता और उनके विज्ञापन दावों पर सवाल उठाए थे। जिसके बाद कंपनी ने इनके खिलाफ मानहानि का दावा कर अदालत का दरवाजा खटखटाया था। मगर मामले की सुनवाई के दौरान दिल्ली हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि  सोशल मीडिया पर तथ्य आधारित आलोचना कोई अपराध नहीं बल्कि अभिव्यक्ति का अधिकार है। इस फैसले के ने यह भी साफ कर दिया कि सोशल मीडिया अब केवल व्यक्तिगत राय तक सीमित नहीं हैबल्कि यह एक विशाल जनसंवाद और उपभोक्ता संवाद का मंच बन चुका है। 
वेबसाइट स्टेस्टिका के मुताबिक भारत में सोशल मीडिया यूजर्स की संख्या करीब 50 करोड़ पहुँच चुकी है।  वहीं केपीएमजी इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 80 लाख कंटेंट क्रिएटर्स हैं जिनमें वीडियो स्ट्रीमर्स,इन्फ़्लुएन्सेर्स और ब्लॉगर्स शामिल हैं।  डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी आईक्यूब्स वायर के अनुसारकरीब 35% ग्राहक सोशल मीडिया पोस्ट और रील्स देखकर ही अपने खरीदारी के फैसले लेते हैंजबकि मेट्रो शहरों में यह आँकड़ा 80% से भी ऊपर है। दिलचस्प बात यह है कि लोग अब बड़े-बड़े सेलेब्रिटी इन्फ्लुएंसर्स के बजाय उन पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं जिनके फॉलोअर्स की संख्या कम है। ऑडियंस ऑउटलुक फोरकॉस्ट 2025 रिपोर्ट के मुताबिक 84 प्रतिशत लोग एक मिलियन से कम फॉलोवर्स वाले इंफ्लुएंसर्स पर ज्यादा भरोसा करते हैं। एफैलेबल एआई इंफ्लुएंसर मार्केटिंग फर्म के अनुसारभारत में अब ब्रांड्स का रुझान माइक्रो और नैनो इंफ्लुएंसर्स की ओर तेजी से बढ़ रहा है। माइक्रो इंफ्लुएंसर्स वे होते हैं जिनके फॉलोअर्स की संख्या 10 से 50 हजार के बीच होती हैजबकि नैनो इंफ्लुएंसर्स के फॉलोअर्स 10 हजार से कम होते हैं। ब्रांड्स इन्हें बेहतर इंगेजमेंट दर और अपेक्षाकृत कम खर्च के कारण चुनते हैं। हाईप ऑडिटर की रिपोर्ट के अनुसार इंफ्लुएंसर मार्केटिंग पर औसतन हर 1 डॉलर खर्च करने पर ब्रांड्स को करीब 4 डॉलर का रिटर्न मिलता है। 
यहीं कारण है कि ब्रांड्स अब अपने मार्केटिंग बजट का एक बड़ा हिस्सा इंफ्लुएंसर्स पर खर्च कर रहे हैं।फॉर्चुन बिजनेस के आंकड़ें बताते हैं कि 2024 तक दुनियाभर में इंफ्लुएंसर मार्केटिंग का कुल बाजार 20 बिलियन डॉलर को पार कर चुका है वहीं 2032 तक इसके 70 बिलियन डॉलर तक पहुँचने की उम्मीद है। हाल ही में भारत में लाइफस्टाइलगेमिंगस्वास्थ्यऔर शिक्षा जैसे क्षेत्रों में कई इंफ्लुएंसर्स की तादाद काफी बढ़ गई है। इंफ्लुएंसर्स मार्केटिंग फर्म क्वोरूज की हालिया रिपोर्ट के अनुसारभारत में इन्फ्लुएंसर्स की संख्या में पिछले चार वर्षों में 322% की वृद्धि हुई है। साल 2020 में देशभर में 9.62 लाख इंफ्लुएंसर थे वहीं 2024 तक ये आंकड़ा 40 लाख के करीब पहुँच गया है। जिसमें फैशन और ब्यूटी के क्षेत्र में सबसे ज्यादा बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। लाइफस्टाइल इंफ्लुएंसर्स पर की गई एक स्टडी कांतर इंफ्लुएंसर प्लेबुक 2025 के अनुसार भारत में 67% लोग पारंपरिक विज्ञापनों की तुलना में फैशन और ब्यूटी प्रोडक्ट्स के लिए इंफ्लुएंसर की सिफारिशों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। इंफ्लुएंसर्स आमतौर पर दो तरीके से किसी ब्रांड या प्रोडक्ट का प्रचार करते हैं। एक तो पेड और स्पॉन्सर्ड पोस्ट के जरिएजिसमें ब्रांड्स उन्हें पैसे देकर अपने प्रोडक्ट का प्रचार करवाते हैंऔर दूसरा स्वतंत्र समीक्षा  के ज़रिएजिसमें इंफ्लुएंसर ईमानदारी से अपने  अनुभव उस प्रोडक्ट के लिए साझा करते हैं। हालांकि ग्राहक अक्सर पेड और स्पॉन्सर्ड वीडियो पर कम भरोसा करते हैं। यूएसए में किये गए मार्केटिंग चार्ट्स के एक सर्वे के मुताबिक 47 प्रतिशत लोग पेड इन्फ्लुएंसर्स की बातों को अविश्वसनीय मानते हैं। इसके विपरीतस्वतंत्र और निष्पक्ष रिव्यू को उपभोक्ता अधिक प्रामाणिक और भरोसेमंद मानते हैंक्योंकि उन्हें इसमें व्यावसायिक पक्षपात की संभावना कम लगती है। 
 यही कारण है कि जब इंफ्लुएंसर किसी उत्पाद की ईमानदार समीक्षा करता है चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक तो उपभोक्ता उसे विशेष महत्व देते हैं। इस संदर्भ में रेवंत हिमतसिंका उर्फ फूडफार्मर का मामला उल्लेखनीय है। साल 2023 में उन्होंने इंस्टाग्राम पर एक वीडियो में कैडबरी बॉर्नवीटा में मौजूद चीनी और अन्य तत्वों को बच्चों के लिए हानिकारक बताया था। जवाब में कैडबरी ने उन्हें कानूनी नोटिस भेजाऔर दबाव में आकर उन्हें वीडियो हटाना पड़ा था। हालांकि इस घटना ने सोशल मीडिया पर व्यापक बहस छेड़ दी थी और उपभोक्ताओं और अन्य इंफ्लुएंसर्स ने रेवंत के समर्थन में आवाज भी उठाई। दिल्ली हाईकोर्ट के हालिया फैसले ने इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया हैजो इंफ्लुएंसर्स को तथ्य और वैज्ञानिक आधारित आलोचना करने की आजादी देता है। आज इंफ्लुएंसर मार्केटिंग एक शक्तिशाली उपकरण बन चुका है जो ब्रांड्स और उपभोक्ताओं के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी की भूमिका निभा रहा है। वहीं जैसे-जैसे इंफ्लुएंसर्स की भूमिका उपभोक्ता व्यवहार को आकार देने में और अहम होती जा रही है वैसे-वैसे  उनके लिए निर्भीकनिष्पक्ष और स्वतंत्र बने रहना जरूरी हो गया है। क्योंकि सोशल मीडिया का दायरा बढ़ने के साथ इंफ्लुएंसर्स की जिम्मेदारी भी बढ़ रही है।भारत में इनका भविष्य क्या होगा इसका फैसला समय को करना है |

  अमर उजाला में  20/05/2025 को प्रकाशित लेख 


Friday, April 18, 2025

एआई फोटो टूल्स से जुड़ी चिंता

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अब फिर से घिब्ली आर्ट ट्रैंड पर है। हजारो लोग हैशटैग्स के साथ अपनी घिब्ली स्टाइल में बदली तस्वीरें साझा कर रहे हैं। अब एआई के इस फीचर की मदद से लोग किसी भी तस्वीर को इसी घिब्ली आर्ट शैली में बदल सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि यह ट्रेंड भारत और दक्षिण एशियाई देशों में अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक लोकप्रिय हो रहा है। अगर गूगल ट्रेंड्स के आंकड़ों पर नजर डालें, तो यह अंतर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। बीते कुछ दिनों में अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और चीन जैसे देशों में इस ट्रेंड का रुचि स्कोर 100 में से महज 4-5 के आसपास रहा, जबकि भारत और दक्षिण एशियाई देशों में यह स्कोर 85 से 100 के बीच दर्ज किया गया। यह दर्शाता है कि भारत में यह ट्रेंड वैश्विक स्तर की तुलना में कहीं अधिक तेजी से फैल रहा है। हालांकि भारत में सोशल मीडिया पर चेहरा बदलने और खुद को नए अवतार में देखने का क्रेज कोई नई बात नहीं है। पिछले दस सालों में फोटो संपादन और चेहरे पर  फिल्टर लगाने वाले एप्स की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। 2015 के शुरुआत में ब्यूटीप्लस, बीवनसिक्स, टूनमी  का क्रेज रहा, जिसपर लोग अपनी तस्वीरों को एडिट कर अधिक आकर्षक बना सकते थे। इसके बाद स्नैपचैट और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म्स ने फेस फिल्टर का ट्रेंड शुरू किया, जिसने डिजिटल रूप से चेहरे के हावभाव और रंग-रूप को बदलने की सुविधा दी। इसी तरह साल 2017 में लॉन्च फेसएप ने भी उम्र बदलने और लिंग बदलने जैसे फीचर्स के साथ खूब सुर्खियाँ बटोरी।  यह प्रवृत्ति भारत में अन्य देशों की तुलना में अधिक प्रचलित दिखाई देती है। इसके पीछे कई मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारण हैं। भारत में भी जापानी एनिमे और घिब्ली फिल्मों का बड़ा प्रभाव रहा है। वहीं कार्टून चैनल्स और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने इस सांस्कृतिक प्रभाव को और बढ़ाया है। जापानी एनिमेटेड ओटीटी प्लेटफॉर्म क्रंचीरोल ने भारत को अमेरिका के बाद दूसरा सबसे बड़ा बाजार बताया है। इंडस्ट्री डेटा के मुताबिक भारत में 10 करोड़ से अधिक लोग इन एनिमेटेड फिल्मों और सीरीज देखते हैं।

डब्लूएचओ के मुताबिक भारत की 65 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है, यह युवा आबादी तकनीक और ट्रैंड्स के प्रति ज्यादा संवेदनशील है। एरिक एरिक्सन की आइडेंटिटी वर्सेज रोल कन्फ्यूजन थ्योरी के मुताबिक युवावस्था में लोग अपनी पहचान को परिभाषित करने के  लिए नए-नए तरीके आजमाते हैं। फोटो संपादन भी इसी प्रक्रिया का एक डिजिटल रूप हो सकता है। क्योंकि सोशल मीडिया पर लाइक्स और कमेंट्स के रूप में मिलने वाली त्वरित प्रक्रियाएं स्वीकृति और पहचान की तलाश को और मजबूत करती हैं। समाजशास्त्री शैरी टर्कल अपनी किताब अलोन टूगेदर में बताती हैं कि लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अपनी तस्वीरों को एडिट करके और ट्रेंडिंग कंटेंट पोस्ट करके दूसरों की स्वीकृति पाने का प्रयास करते हैं। वहीं इस ट्रैंड की लोकप्रियता के पीछे एस्केपिसिज्म यानी यथार्थ से पलायन की प्रवृत्ति भी एक कारण हो सकता है। डिजिटल युग में लोग रोजमर्रा की परेशानियों, तनाव और सामाजिक दबाव से बचने के लिए काल्पनिक दुनिया की शरण लेने लगते हैं। जाने-माने मनोवैज्ञानिक और मीडिया थ्योरिस्ट जॉन फिस्के के मुताबिक लोग अपनी वास्तविकता से असंतुष्ट होने पर फिक्शन, फैंटेसी और एनीमेशन जैसी चीजों को देखते हैं। ठीक इसी तरह, सोशल मीडिया पर घिब्ली आर्ट फिल्टर का क्रेज भी एक डिजिटल एस्केपिज़्म का रूप है। ट्रैंड्स के फैलने का एक बड़ा कारण फोमो है , यानी फियर ऑफ मिसिंग आउट। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर जब कोई नया ट्रेंड वायरल होता है तो लोग इसे अपनाने के लिए एक अनकही प्रतिस्पर्धा महसूस करते हैं। टेक्नोलॉजिकल फोरकास्टिंग फॉर सोशल चेंज के एक शोध के मुताबिक फोमो एक मजबूत मनोवैज्ञानिक ट्रिगर की तरह है, जो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लोगों के व्यवहार को प्रभावित करता है।

घिब्ली आर्ट ट्रेंड जैसे एआई-आधारित फोटो एडिटिंग टूल्स ने हमारे सामने डेटा प्राइवेसी और साइबर सुरक्षा जैसी भी कई समस्याएं खड़ी कर दी हैं। कई बार हम इन एप्स और प्लेटफॉर्म्स पर अपनी तस्वीरें बिना कुछ सोचे-समझे डाल देते हैं। हमें लगता है कि एआई से अपनी तस्वीरें जनरेट करना मजेदार काम है, मगर यह डेटा लीक, आइडेंटिटी चोरी और साइबर धोखाधड़ी जैसी समस्याओ को जन्म दे सकता है। कुछ साल पहले भारत में सुर्खियों में रहे फेसएप एप्लिकेशन पर डाटा चोरी के आरोप लगे थे, जिसके बाद इसे कई देशों में बैन तक कर दिया गया था। इसी तरह क्लीयरव्यू एआई नाम की एक कंपनी पर बिना इजाजत सोशल मीडिया साइट्स से 3 अरब तस्वीरें चुराने का आरोप लगा था, यह डाटा पुलिस और प्राइवेट कंपनियों को बेचा गया था। मेटा, गूगल जैसी कंपनियों पर लगातार आरोप लगते रहे हैं कि वे अपने यूजर्स की तस्वीरों का उपयोग अपने एआई मॉडल्स को ट्रेन करनेके लिए करती हैं ऐसे में हम अगर अपनी तस्वीरे खुद कई तरह की वेबाइट्स और एआई पर अपलोड करेंगे तो ये कंपनियाँ उसका और भी व्यापक इस्तेमाल कर सकती है। स्टेस्टिका की एक रिपोर्ट के अनुसार, फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी का बाजार करीब 5.73 बिलियन डॉलर का है वहीं 2031 तक ये बाजार 15 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। वहीं एआई के बढ़ते उपयोग ने डीपफेक ़ टेक्नोलॉजी को भी उन्नत कर दिया है। यानी शायद आप जो तस्वीरें सोशल मीडिया पर लोगों को दिखाने के लिए कर रहे हैं उनका इस्तेमाल किसी और मकसद से भी किया जा सकता है। कुछ साल पहले सोशल मीडिया पर कई ऐसी वेबसाइट्स और एप्स वायरल हुए जो दावा करते थे कि वे आपकी जुड़वा शक्ल वाले व्यक्ति को खोज सकते हैं। यूजर्स को अपनी तस्वीर अपलोड करनी होती थी, और AI के जरिए वे दुनिया भर में उनके जैसे दिखने वाले लोगों को ढूंढने का दावा करते थे। लेकिन, कुछ समय बाद ये साइट्स अचानक गायब हो गईं। आखिर इन कंपनियों का असली मकसद क्या था और ये कंपनियाँ यूजर्स का डेटा लेकर कहां चली गईं? आज हम पिमआईज जैसी वेबसाइट्स किसी भी व्यक्ति की फोटो मात्र अपलोड करके उस व्यक्ति का पूरा डिजिटल रिकॉर्ड निकाल सकतेहैं जिसका सीधा मतलब है कि स्टॉकिंग, ब्लैकमेलिंग और साइबर क्राइम के मामले बढ़ सकते हैं। अब जरूरत है कि सरकार और टेक कंपनियाँ डेटा सुरक्षा और फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी के गैर कानूनी इस्तेमाल पर सख्त कानून बनाये। और लोगों को भी बिना सोचे-समझे अपनी निजी तस्वीरें सोशल मीडिया और एआई-आधारित टूल्स पर अपलोड करने से पहले सतर्क रहने की जरूरत है। टेक्नोलॉजी के साथ-साथ हमें भी स्मार्ट होने की जरूरत है क्योंकि सवाल यह नहीं है कि एआई आपके लिए कितना फायदेमंद है बल्कि यह है कि आप इसे कितना समझदारी से इस्तेमाल कर रहे हैं।

दैनिक जागरण में 18/04/25 को प्रकाशित 

 

Tuesday, April 15, 2025

मोबाईल पर अनगिनत स्क्रॉल का खेल

 मोबाईल पर अनगिनत स्क्रॉल्स का खेल एक तरह का डिजिटल नशा है जो हमारे दिमाग को धीमा, सुस्त और निष्क्रिय बना रहा है। हाल ही में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी वर्ड ऑफ द ईयर के लिए चुना गया 'ब्रेन रॉट' शब्द डिजिटल दौर की इसी गंभीर प्रवृत्ति को उजागर करता है।यह शब्द हमारी उस मानसिक स्थिति को दर्शाता है जो हम घंटों तक स्क्रीन से चिपके रहते हैं और बेमतलब का कंटेंट स्क्रॉल करते है। 

2024 तक 5.17 अरब यूजर्स सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर एक्टिव हैं। वहीं भारत में यह आंकड़ा 46 करोड़ पहुँच गया है। आईआईएम अहमदाबाद के एक शोध के मुताबिक भारत में रोजाना लोग 3 घंटे से अधिक समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं, जो वैश्विक औसत से कहीं अधिक है। वहीं आज की पीढ़ी जिसे जेन जी और जेन अल्फा कहा जाता है, अकसर अपने दिन का बड़ा हिस्सा सिर्फ रील्स देखते हुए गुजार देते हैं। 

जैसे ही खाली समय देखा , और शुरू कर दी अनगिनत बेतुके वीडियोज की स्क्रॉलिंग। इस तरह की आदत का असर उनकी कार्य क्षमता, मानसिक शांति और फैसले लेने पर भी पड़ता है। भारत की बात करें तो शॉर्ट वीडियोज एप में इंस्टाग्राम सबसे ज्यादा उपयोग किया जाने वाला प्लेटफॉर्म हैं। वर्ल्ड पॉपुलेशन रिव्यू के रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 39 करोड़ इंस्टाग्राम यूजर्स हैं। इंस्टाग्राम रील्स जैसे कंटेंट की आदत युवाओं में ध्यान अवधि को कम कर रही है। मनोवैज्ञानिक और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर ग्लोरिया मार्क के अनुसार शॉर्ट फॉर्म कंटेंट देखने से लोगों की ध्यान अवधि 47 सेकेंड से भी कम हो गई।

अगर हम डाटा पर आधारित गणना करें तो रोजाना घंटे रील देखने पर हम पूरे साल में एक महीने सिर्फ रील्स के सामने बैठकर बर्बाद कर देंगेजो किसी और काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था।पर आखिर हम इस अनगिनत स्क्रॉलिंग के जाल में फंसते कैसे हैंअसल में हर नई और दिलचस्प रील देखने पर हमारे दिमाग डोपामीन रिलीज करता है। डोपामीन एक तरह का न्यूरोट्रांसमीटर हैजिसे खुशी और संतुष्टि का हॉर्मोन कहा जाता है। जब भी हम कोई मनोरंजक रील देखते हैंतो हमारा दिमाग इसे एक छोटे इनाम की तरह लेता है और हमें अच्छा महसूस कराता है। 

यह सिर्फ डोपामीन के खेल तक सीमित नहीं हैदरअसल यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की सोची-समझी रणनीति है कि हम इन रील्स के जाल में उलझे रहें और स्क्रीन से अपनी नजरें न हटाएं। इंटरफेस डिजाइनिंग से लेकर ऑटो-प्ले वीडियोलाइक्स बटनऔर पर्सनलाइज्ड एल्गोरिदम जैसे फीचर इसे और ताकतवर बनाते हैं।सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अनगिनत स्क्रॉलिंग का यह फीचर एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग बॉटमलेस सूप बाउल पर आधारित है। जिसमें बताया गया था कि यदि किसी इंसान को खुद-ब-खुद भरने वाले सूप बाउल दिये जाएं तो वे सामान्य बाउल की तुलना में 73 प्रतिशत अधिक सूप पी जाते हैं भले ही उन्हें भूख न हो। ठीक इसी तरह रील्स की फीड जो लगातार रीफिल होती हैजो हमारे दिमाग के डोपामीन रिवार्ड सिस्टम को चालाकी से प्रभावित करती है। और हम एक चक्र में फंसकर अंतहीन स्क्रॉलिंग करते रहते हैं। ऑनलाइन अर्थव्यवस्था में सारा खेल यूजर्स के क्लिक और समय बिताने के माध्यम से मापा जाता है। लैनियर लॉ फर्म की एक रिपोर्ट के मुताबिक जो किशोर रोजाना तीन से अधिक घंटे सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं उनमें अवसादचिंता और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम बढ़ जाता है। है। हमारा दिमाग जो कभी विचारों और कल्पनाओं का स्रोत हुआ करता था अब इन छोटे-छोटे डोपामीन रिवार्ड्स का गुलाम बनता जा रहा है। लेकिन हर चेतावनी के बाद एक अवसर जरूर आता हैजहाँ फिर से खुद को तलाशने का मौका मिलता है।

प्रभात खबर में 15/04/2025 को प्रकाशित 

 

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