Thursday, December 4, 2025

हमेशा ऑन लाइन रहने की कीमत

 

डिजिटल संचार जहाँ एक ओऱ संवाद को तात्कालिक और सुलभ बना रहा हैवहीं दूसरी ओर यह हमारी निजी और कामकाजी जिंदगी की सीमाओं को धुंधला कर रहा है। मसलन व्हाट्सएपमेटा के स्वामित्व वाला मैसेजिंग एप्लिकेशन आज वैश्विक संचार का पर्याय बन गया है। स्टैस्टिका के आंकड़ों के मुताबिक विश्वभर में करीब 2.7 अरब और भारत में 50 करोड़ से अधिक लोग इस एप का इस्तेमाल करते हैं। यह अब मात्र व्यक्तिगत चैट तक सीमित नहीं रहा  है बल्कि एक व्यावसायिक पारिस्थितिकी तंत्र बन चुका है। हालांकि हमें इस सुविधा की एक कीमत चुकानी पड़ रही है। हमेशा ऑन रहने की संस्कृति ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जहाँ काम के घंटे अनिश्चित हो गये हैं। दफ्तर का समय खत्म होने के बाद भी व्हाट्सएप पर बॉस या सहकर्मियों के मैसेज आना आम बात हो गई है और अनजाने में ये तात्कालिकता और हर समय उपलब्ध रहने की प्रवृत्ति लोगों में तनावचिंता और बर्नआउट का एक प्रमुख कारण बन रही है। अब काम केवल वो जगह नहीं रह गई जहाँ आप रोज 9 से 5 जाते हैं बल्कि एक ऐसी गतिविधि हो गई है जिसे आप लगातार करते हैं।

 अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट भी इस बात पर प्रकाश डालती है कि डिजिटल उपकरणों का उपयोग करने वाले कर्मचारी न केवल अधिक घंटे काम करते हैंबल्कि अपने काम और जीवन के बीच संघर्ष का अनुभव करते हैं। व्हाट्सएप 'डिजिटल प्रेजेंटिज्मनाम की इस नई घटना को जन्म देता है जहाँ कर्मचारी दफ्तर में न होने पर भी ऑनलाइन उपलब्ध रहने के लिए मजबूर महसूस करते हैं। यह ईमेल प्रवृत्ति के ठीक विपरीत है जहाँ कर्मचारी को सोचने और जवाब देने के लिए पर्याप्त समय मिलता था। व्हाट्सएप का 'ब्लू टिकऔर 'लास्ट सीनफीचर इस दबाव को और बढ़ा देता हैजिससे एक अलिखित अपेक्षा पैदा होती है कि संदेश देख लिया गया है तो उसका तुरंत जवाब भी दिया जाना चाहिए।

 इसके साथ ही वाह्ट्सएप जैसे इंस्टेंट मैसेजिंग प्लेटफॉर्म पर  बातचीत में इमोजीस्टिकर और शब्दों को छोटा करके बोलना आम है। चूंक लिखित चैट में चेहरे के भावआवाज का भार और शारीरिक संकेत नहीं मिलते हैं तो पाठक को बहुत कुछ अनुमान लगाना पढ़ता है। एक बॉस द्वारा भेजा गये साधारण अंगूठे का इमोजी के कर्मचारी कई अर्थ निकाल सकता हैजिससे उसे संदेश के मूल को समझने के लिए अतिरिक्त मानसिक ऊर्जा लगती है। एक औपचारिक ईमेल के माध्यम से किये गए अतिरिक्त काम के अनुरोध करना आसान होता हैलेकिन वहीं अनुरोध अगर व्हाट्एप पर एक अनौपचारिकमैत्रीपूर्ण संदेश के रूप में आता है तो उसे मना करना असभ्य लग सकता है। एटलैसिएन की रिपोर्ट बताती है कि अस्पष्ट ईमेल या चैट की वजह से हर साल कर्मचारी औसतन 40 घंटे बर्बाद कर देते हैं।

 हमारा मस्तिष्क एक समय में एक ही कार्य पर  गहराई से ध्यान केंद्रित करने के लिए बना हैलेकि व्हाट्सएप हमें लगातार कोड स्विचिंग के लिए मजबूर करता हैएक पल में ऑफिस का कोई महत्वपूर्ण काम वहीं  दूसरे पल फैमिली ग्रुप पर  व्यक्तिगत चैट। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोध से पता चलता है कि निरंतर मल्टीटास्किंग हमारी कार्यशील मेमोरी  को कमजोर करती है और अंतत: बर्नआउट की ओऱ ले जाती है। यूँ तो ये घटना वैश्विक है लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में सामाजिक आर्थिक कारक इसे कही अधिक गंभीर चुनौती बना देते हैं।

 हालांकि अब समय आ गया है जब लोगों और कंपनियों को इसके समाधान की दिशा में सक्रियता से काम करना होगा। कंपनियों को एक विस्तृत कम्यूनिकेश चार्टर या नीति बनाने कि आवश्यकता है जिसमें यह स्पष्ट रूप से परिभाषित हो कि किस संचार के लिए कौन सा प्लेटफॉर्म उपयोग किया जाए। साथ ही अपेक्षित प्रतिक्रिया का समयटाइम को डिस्कनेक्ट इसकी भी नीतियाँ बनाई जानी आवश्यक है।

प्रभात खबर में 04/12/2025 को प्रकाशित 

 

Tuesday, December 2, 2025

आपकी पसंद के अनुरूप जवाब

 "जो तुमको हो पसंदवही बात कहेंगेतुम दिन को अगर रात कहोरात कहेंगे… 1970 में आई फिल्म सफर का यह मशहूर गीत आज के इस तकनीकी दौर की एक डरावनी हकीकत बन रहा है।

 क्या हो अगर आपके पास एक ऐसा सलाहकार है जो आपकी हर बात से सहमत है। वह आपकी हर राय को सही ठहराता हैआपके हर नैतिक संदेह को सही होने का प्रमाण पत्र देता है। पहली नजर में यह सुखद लग सकता है मगर गहराई में सोचें तो यह इंसान को उसके बौद्धिक पतन की ओर ले जा सकता है। दुर्भाग्य से एआई विशेष रूप से एलएलएम मॉडल्स तेजी से इसी वास्तविकता की ओर बढ़ रहे हैं। हाल ही में स्टैंडफोर्ड और कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक चौंकाने वाला खुलासा किया है। प्रकाशित ताजा शोध में सामने आया है कि एआई सिस्टम इंसानों की तुलना में 50 प्रतिशत से भी अधिक चापलूस होते हैं। चैटजीपीटीजैमिनीग्रोक समेत 11 से अधिक एआई सिस्टम पर किये गए इस शोध में पाया गयाकि ये मॉडल्स अक्सर वही बात करते हैं जो लोग सुनना चाहते हैं। आसान भाषा में समझे को एआई आपकी नजरों में अच्छा बनने के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ के पेश करता है। शोधकर्ताओं ने इस व्यवहार को एआई साइकोफैंसी या एआई चापलूसी का नाम दिया है।

 हालांकि पहली नजर में एआई का चापलूसी व्यवहार किसी तरह की तकनीकी खामी लग सकता हैमगर विशेषज्ञ इसे एक सचेत डिजाइन का परिणाम बताते हैंजो हमारे मनोविज्ञान के साथ खिलवाड़ कर रहा है। हमारे दिमाग में यह सवाल भी खड़ा होता हैकि आखिर एक मशीन को चापलूसी करने की क्या जरूरत हैउसे कौन सा हमसे प्रमोशन चाहिए या कौन सा चुनाव लड़ना है। असल में यह सब सिखाने के तरीके का नतीजा है। इन एआई मॉडल्स को अक्सर इंसानों द्वारा दिए गए फीडबैक से सिखाया जाता हैइसे तकनीकी भाषा में आरएलएचएफ कहते हैं। आसान शब्दों में समझे तो जब एआई जवाब देता है तो इंसानी परीक्षक उसे रेटिंग देते हैं। अगर एआईव्यक्ति के सवालों का रूखा जवाब दे या कहे आप गलत हो तो लोग उसे खराब रेटिंग देते हैं। और वहीं एआई अगर प्यार सेचापलूस बातें करे तो उसे अच्छी रेटिंग मिलती है। बस फिर क्या मशीन को भी उतनी अक्ल आ गई कि फाइव स्टार रेटिंग चाहिए तो मालिक की हाँ में हाँ मिलाते रहो । क्योंकि एआई को सच बोलने का इनाम नहीं मिलता बल्कि आपको खुश रखने का इनाम मिलता है।

 साथ ही इसके पीछे कंपनियों का बढ़ता मुनाफा भी एक कारण है। गूगलमेटाओपनएआई जैसी बड़ी कंपनियाँ चाहती हैं कि आप उनके मॉडल्स पर अधिक से अधिक समय बिताएँ। आप खुद सोचिए आप किस दोस्त के पास बार-बार जाना पसंद करेंगेजो हर बात पर आपकी गलतियाँ निकालता हो याजो ये कहे जो तुम कहो वही सही है।

जाहिर है हम दूसरे वाले के पास जाएंगे। एआई कंपनियाँ इसी मनोविज्ञान का फायदा उठा रही हैं। एक ऐसा चैटबॉट जो आपको वैलिडेट करता होवह आपको अपना आदी बना लेता है। ग्रैंड व्यू रिसर्च के मुताबिक साल 2024 में एलएलएम मॉडल्स का राजस्व करीब 6 बिलियन डॉलर था जो 2030 में बढ़कर करीब 35 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। इसके साथ ही कंसल्टिंग फर्म बेन एंड कपंनी के मुताबिक 2030 तक एआई की वैश्विक माँग को पूरा करने के लिए करीब 2 ट्रिलियन डॉलर के निवेश की आवश्यकता है। ऐसे में कंपनियाँ अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए इंसान से उसकी सबसे कीमती चीज यानी समय चाहती है। वेबसाइट आर्जिव पर प्रकाशित एक प्रीप्रिंट अध्ययन के मुताबिक 85 प्रतिशत एआई यूजर्स प्रतिदिन चैटजीपीटी या अन्य किसी एआई चैटबॉट का इस्तेमाल करते हैं। भारत में यूथ की आवाज और वाईएलएसी की एक सर्वे में पाया गया कि किशोर और युवा तनाव या अकेलापन दूर करने के लिए एआई का भावनात्मक समर्थन लेते हैं।

 लेकिन ये चैटबॉट्स हमारे दिमाग के साथ क्या खेल खेल रहे हैंहमें यह समझना बहुत जरूरी है। मसलन अगर आपने गुस्से में अपने परिवार में किसी को कुछ बुरा-भला कह दियाऔर आपके मन में थोड़ा संदेह है कि शायद आपने गलत किया। जब आप एआई से इस बारे में पूछते हैं तो वह कहता है कि गुस्सा आना तो स्वाभाविक हैशायद आपके परिवार वालों ने ही आपको यह करने पर मजबूर किया हो। फिर क्या हमे क्लीन चिट मिल गई । यानी मशीन अब इंसानी रिश्तों को खत्म रखने की ताकत रख रही है। ब्रूकिंग्स की एक रिपोर्ट के मुतााबिक एआई चापलूसी से कई तरह के सामाजिक और नैतिक खतरें सामने आये हैं। हम पहले से ही सोशल मीडिया पर अपनी पसंद की चीजें देखते के आदी हो चुके हैं और एआई इस इको चैंबर को और भी संकरा बना रहा है। यह एक तरह के डिजिटल ब्रेनवॉश की तरह भी काम कर सकता है। मसलन एआई को पता है कि आपको कैसे खुश करना हैंतो अगर उसे कोई उत्पाद आपको बेचना हो तो वह धीरे-धीरे आपको कोई प्रोडेक्ट खरीदनेकिसी विचारधारा से जुड़ने के लिए भी मना सकता है। हालांकि दुनियाभर में बढ़ रही चिंताओं को लेकर अब कंपनियों ने भी इस पर  कदम उठाने की पहल की है। इस साल मई में चैट जीपीटी ने अपना जीपीटी 4o अपडेट को वापस लिया और मॉडल की चापलूसी कम करने के लिए एक प्रशिक्षण आधारित उपाय भी लागू किये। हालांकि जब तक कंपनियाँ पूरी तरह से यह काम नहीं करती तब तक यह जिम्मेदारी हमारे ऊपर है।

 हमें यानी आम यूज़र्स को अपनी अक्ल का इस्तेमाल बंद नहीं करना चाहिए। हमें यह याद रखना होगा कि चैटजीपीटी या कोई भी एआई कोई ज्ञानी महात्मा नहीं है। वह एक सॉफ्टवेयर है जो शब्दों का खेल खेल रहा है। जब भी एआई आपकी बहुत ज्यादा तारीफ करे या आपको किसी गलत काम के लिए भी सही ठहराएतो आपके कान खड़े हो जाने चाहिए। आपको खुद से सवाल पूछना चाहिए कि "क्या यह सच बोल रहा है या सिर्फ मुझे खुश कर रहा है?" साथ ही हमें यह समझना ज़रूरी है कि हम तकनीक का इस्तेमाल अपनी मदद के लिए कर रहे हैंन की तकनीक की गुलामी करने के लिए ।


दैनिक जागरण में 02/12/2025 को प्रकाशित लेख 

Friday, November 7, 2025

डिजीटल दौर की समस्याएं

 
डिजिटल संचार जहाँ एक ओऱ संवाद को तात्कालिक और सुलभ बना रहा हैवहीं दूसरी ओर यह हमारी निजी और कामकाजी जिंदगी की सीमाओं को धुंधला कर रहा है। मसलन व्हाट्सएपमेटा के स्वामित्व वाला मैसेजिंग एप्लिकेशन आज वैश्विक संचार का पर्याय बन गया है। स्टैस्टिका के आंकड़ों के मुताबिक विश्वभर में करीब 2.7 अरब और भारत में 50 करोड़ से अधिक लोग इस एप का इस्तेमाल करते हैं। यह अब मात्र व्यक्तिगत चैट तक सीमित नहीं रहा  है बल्कि एक व्यावसायिक पारिस्थितिकी तंत्र बन चुका है। हालांकि हमें इस सुविधा की एक कीमत चुकानी पड़ रही है। हमेशा ऑन रहने की संस्कृति ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जहाँ काम के घंटे अनिश्चित हो गये हैं। दफ्तर का समय खत्म होने के बाद भी व्हाट्सएप पर बॉस या सहकर्मियों के मैसेज आना आम बात हो गई है और अनजाने में ये तात्कालिकता और हर समय उपलब्ध रहने की प्रवृत्ति लोगों में तनावचिंता और बर्नआउट का एक प्रमुख कारण बन रही है। अब काम केवल वो जगह नहीं रह गई जहाँ आप रोज 9 से 5 जाते हैं बल्कि एक ऐसी गतिविधि हो गई है जिसे आप लगातार करते हैं।
 
साल 2023 में आई स्लैक की स्टेट ऑफ वर्क रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में 53 प्रतिशत डेस्क वर्कर्स काम के बाद भेजे गए संदेशों का जवाब देने का दबाव महसूस करते हैं। सैन्सेस वाइड द्वारा किये एक सर्वे के मुताबिक 88 प्रतिशत भारतीय कर्मचारियों से नियमित रूप से काम के घंटों के बाद भी उनसे काम से संबंधित संपर्क किया जाता है। यह तब भी जारी रहता है जब वे बीमारी की छुट्टी या सार्वजनिक छुट्टियों पर भी हों। वहीं इस पर लोगों ने बताया कि काम के बाद मैसेज का जवाब न देने पर प्रमोशन पर नकारात्मक असर भी पड़ता है।
 
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट भी इस बात पर प्रकाश डालती है कि डिजिटल उपकरणों का उपयोग करने वाले कर्मचारी न केवल अधिक घंटे काम करते हैंबल्कि अपने काम और जीवन के बीच संघर्ष का अनुभव करते हैं। व्हाट्सएप 'डिजिटल प्रेजेंटिज्मनाम की इस नई घटना को जन्म देता है जहाँ कर्मचारी दफ्तर में न होने पर भी ऑनलाइन उपलब्ध रहने के लिए मजबूर महसूस करते हैं। यह ईमेल प्रवृत्ति के ठीक विपरीत है जहाँ कर्मचारी को सोचने और जवाब देने के लिए पर्याप्त समय मिलता था। व्हाट्सएप का 'ब्लू टिकऔर 'लास्ट सीनफीचर इस दबाव को और बढ़ा देता हैजिससे एक अलिखित अपेक्षा पैदा होती है कि संदेश देख लिया गया है तो उसका तुरंत जवाब भी दिया जाना चाहिए।
 
इसके साथ ही वाह्ट्सएप जैसे इंस्टेंट मैसेजिंग प्लेटफॉर्म पर  बातचीत में इमोजीस्टिकर और शब्दों को छोटा करके बोलना आम है। चूंक लिखित चैट में चेहरे के भावआवाज का भार और शारीरिक संकेत नहीं मिलते हैं तो पाठक को बहुत कुछ अनुमान लगाना पढ़ता है। एक बॉस द्वारा भेजा गये साधारण अंगूठे का इमोजी के कर्मचारी कई अर्थ निकाल सकता हैजिससे उसे संदेश के मूल को समझने के लिए अतिरिक्त मानसिक ऊर्जा लगती है। एक औपचारिक ईमेल के माध्यम से किये गए अतिरिक्त काम के अनुरोध करना आसान होता हैलेकिन वहीं अनुरोध अगर व्हाट्एप पर एक अनौपचारिकमैत्रीपूर्ण संदेश के रूप में आता है तो उसे मना करना असभ्य लग सकता है। एटलैसिएन की रिपोर्ट बताती है कि अस्पष्ट ईमेल या चैट की वजह से हर साल कर्मचारी औसतन 40 घंटे बर्बाद कर देते हैं।
 
हमारा मस्तिष्क एक समय में एक ही कार्य पर  गहराई से ध्यान केंद्रित करने के लिए बना हैलेकि व्हाट्सएप हमें लगातार कोड स्विचिंग के लिए मजबूर करता हैएक पल में ऑफिस का कोई महत्वपूर्ण काम वहीं  दूसरे पल फैमिली ग्रुप पर  व्यक्तिगत चैट। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोध से पता चलता है कि निरंतर मल्टीटास्किंग हमारी कार्यशील मेमोरी  को कमजोर करती है और अंतत: बर्नआउट की ओऱ ले जाती है। यूँ तो ये घटना वैश्विक है लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में सामाजिक आर्थिक कारक इसे कही अधिक गंभीर चुनौती बना देते हैं। इस प्रवृत्ति का असर निजी रिश्तों पर भी पड़ा है। परिवार या दोस्तों के साथ बिताया जाने वाला समय अब लगातार ऑफिस के संदेशों से बाधित होता है। परिणामस्वरूप रिश्तों में यह शिकायत आम हो चली है कि लोग “हमेशा फ़ोन पर व्यस्त रहते हैं” या “रात देर तक भी ऑफिस का काम निपटाते रहते हैं।मनोवैज्ञानिकों इस घटना को टेक्नोफेरेंस कहते हैं जिसका सीधा अर्थ है तकनीक द्वारा व्यक्तिगत संबंधों में पैदा की जाने वाली बाधा। इस तरह व्हाट्सएप सरीखे डिजिटल संचार ने न केवल काम और निजी जिंदगी की सीमाएं धुंधली की हैं बल्कि निजी संबंधों को भी प्रभावित किया है।
 
भारत में लाखोंलघुमध्यम उद्यमों और असंगठित क्षेत्र के लिए व्हाट्सएप न केवल एक मैसेजिंग एप है बल्कि उनका पूरा बिजनेस सूट है। यह उनका CRM, ऑर्डर मैनेजमेंट सिस्टममार्केटिंग टूल और ग्राहक सहायता केंद्र है। यह निर्भरता इतनी गहरी है कि इससे डिस्कनेक्ट होने का मतलब अक्सर व्यवसाय से डिस्कनेक्ट होना है। यह स्थिति फ्रांसस्पेन और इटली जैसे कई यूरोपीय देशों से बिलकुल विपरीत हैजहाँ राइट टू डिस्कनेक्ट" कानून कर्मचारियों को काम के घंटों के बाद पेशेवर संदेशों को अनदेखा करने का कानूनी अधिकार देते हैं। हालांकि भारत में इस कानून पर कई बार बहस तो हुई है मगर इसे यहाँ लागू करना एक जटिल चुनौती बनी हुई है। 2018 में भारतीय संसद एनसीपी नेता सुप्रिया सुले ने राइट टू डिस्कनेक्ट को लेकर एक निजी सदस्य विधेयक पेश किया थाहालांकि यह विधेयक पारित नहीं हो सकामगर इसने एक नई चर्चा को जन्म जरूर दिया। भारत जैसे देश में जहाँ विशाल असंगठितसेवा आधारित अर्थव्यवस्था और नौकरी असुरक्षा जैसी चुनौतियाँ मौजूद हैंऐसे में इस तरह के कानून को लागू करना भी जटिल है। हालांकि अब समय आ गया है जब लोगों और कंपनियों को इसके समाधान की दिशा में सक्रियता से काम करना होगा। कंपनियों को एक विस्तृत कम्यूनिकेश चार्टर या नीति बनाने कि आवश्यकता है जिसमें यह स्पष्ट रूप से परिभाषित हो कि किस संचार के लिए कौन सा प्लेटफॉर्म उपयोग किया जाए। साथ ही अपेक्षित प्रतिक्रिया का समयटाइम को डिस्कनेक्ट इसकी भी नीतियाँ बनाई जानी आवश्यक है। साथ ही व्यक्तिगत स्तर पर कर्मचारियों को भी डिजिटल वेलनेस की आवश्यकता है जिसमें काम के बाद वर्क ग्रुप्स को म्यूट करनासंचार के लिए आधिकारिक चैनल का ही उपयोग करना तथा अपनी सीमाओं को विनम्रतापूर्वक अपनी टीम और कंपनी तक पहुँचाना। क्योंकि यदि हम अभी काम और जिंदगी के बीच संतुलन बनाने में विफल होते हें तो हम न केवल अपने मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत रिश्तों को हानि पहुँचा रहे हैं बल्कि एक ऐसी पीढ़ी को जन्म दे रहे हैं जो हमेशा कनेक्टेड रहने के बावजूद असली जिंदगी से कट जाएगी।
दैनिक जागरण में 07/11/2025 को प्रकाशित 
 

Wednesday, November 5, 2025

जेन जी और बेड रॉटिंग संस्कृति

 

इस तेजी से डिजिटल होती संस्कृति में हमारी पीढ़ी एक बड़े विरोधाभास से जूझ रही है। यूँ कहने को तो हम इंसानी सभ्यता की सबसे ज्यादा कनेक्टेड पीढ़ी हैं लेकिन फिर भी सबसे ज्यादा अकेली है। ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया, रील्स की शोर-शराबे वाली दुनिया ने हमें अंदर से थका दिया है। इसी थकान और तनाव से बचने के लिए आज की जेन जी पीढ़ी ने एक नया तरीका ढूंढ लिया है जिसे बेड रॉटिंग कहते हैं। यह शब्द सुनने में जितना अजीब लगता है इसका अर्थ उतना ही सीधा है। इसका मतलब है जानबूझकर घंटों या दिनभर बिस्तर पर पड़े रहना और निष्क्रिय गतिविधियों में लिप्त रहना जैसे फोन स्क्रॉल करना, फिल्म देखना या बस लेटे रहना। हालांकि जेन जी इसे सेल्फ केयर यानी आत्म देखभाल का नया और क्रांतिकारी तरीका बताते हैं। भारत में हैशटैग बेड रॉटिंग पर आज लाखों व्यूज इस बात का सबूत है कि अब यह आदत भारतीय युवाओं के जीवन में भी गहरी पैठ बना रही है। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या यह सच में तनाव या बर्नआउट से लड़ने का एक कारगर तरीका है या फिर अपने जीवन से मुँह मोड़ लेना एक खतरनाक बहाना जो व्यक्ति को अवसाद और निष्क्रियता के अंधेरे कुएँ में धकेल रहा है।

बेड रॉटिंग शब्द का पहली बार इस्तेमाल 2023 में एक अमेरिकी टिकटॉक यूजर ने अपने वीडियो में किया था। देखते-देखते यह शब्द जेन जी शब्दावली का हिस्सा हो गया , जो हफ्ते में एक दिन बेड रॉटिंग करके एंटी प्रोडेक्टिविटी और सेल्फ केयर जीवन शैली को अपनाने लगे। दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक भी युवाओं की इस प्रवृत्ति के प्रति अपनी दिलचस्पी जाहिर कर रहे हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक बेड रॉटिंग के पीछे कई कारण हैं, एक ओर बदलती जीवनशैली और बढ़ता तनाव इसका एक कारण है वहीं दूसरी ओर छात्रों के बीच हसल कल्चर भी इसमें बड़ी भूमिका निभा रहा है। ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी की मनोचिकित्सक निकोले होलिंग्सहेड बताती है कि हमारा समाज हमेशा से खुद को व्यस्त करने और अत्यधिक उत्पादक होने पर जोर देता है। ऐसे में उस सामाजिक दबाव को  जो हर पल कुछ न कुछ उत्पादक करने के लिए मजबूर करता है, को आज के युवा खारिज कर रहे हैं।

लेकिन इसके पीछे एक जटिल और गंभीर समस्या भी उभर रही है। मनोवैज्ञानिक इसे सिर्फ आराम नहीं बल्कि एक तरह के इमोशनल शटडॉउन की तरह भी देखते हैं, जहाँ व्यक्ति अपनी भावनाओं, तनाव और जिम्मेदारियों से बचने के लिए बिस्तर को एक सुरक्षित किले की तरह इस्तेमाल करने लगता है। जिससे मानसिक थकावट, बेचैनी, अवसाद जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। भारत और दुनियाभर में मानसिक स्वास्थ्य के आंकड़े चिंताजनक हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार लगभग 10 प्रतिशत वयस्क किसी न किसी प्रकार के मानसिक विकार से ग्रसित हैं वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रति एक लाख जनसंख्या पर करीब 21 आत्महत्याएं होती हैं जो वैश्विक औसत से कहीं अधिक है। साल 2024 में आई विश्व खुशहाली रिपोर्ट में भारत ने 118वां स्थान प्राप्त किया था जो कि मानसिक चिंता को दर्शाता है।

हाल ही में ऑस्ट्रैलिया की एक मनोवैज्ञानिक संस्था जीएम5 की ओर से तेलंगाना और कर्नाटक के स्कूली छात्रों का सर्वेक्षण किया गया। रिपोर्ट के मुताबिक 24 प्रतिशत छात्रों में किसी न किसी तरह की मानसिक संकट के लक्षण मिले वहीं 6 से 10 प्रतिशत ऐसे छात्र मिले जो गंभीर या अति गंभीर श्रेणी में आते हैं जिन्हे तत्काल सहायता की आवश्यकता है। ऐसा ही एक रिपोर्ट रिसर्च संस्था सेपियंस लैब की ओर से भी जारी की गई । जिसमें कोविड महामारी के बाद 18-24 साल के भारतीय युवाओं में मानसिक स्वास्थ्य की जुड़ी समस्याओं  का उल्लेख था। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2020 में इस आयु वर्ग का औसत एमएचक्यू यानी मेंटल हेल्थ क्वोशियंट 28 था जो 2023 में गिरकर 20 हो गया साथ ही ज्यादातर युवाओं में किसी न किसी प्रकार की मानसिक समस्या मिली। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में साल 2024 में सामने आये एक बहुराष्ट्रीय शोध के मुताबिक दुनियाभर के किशोर प्रतिदिन औसतन 8 से 10 घंटे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग करने, वीडियो गेम खेलने जैसी गतिहीन गतिविधियों में बिता रहे हैं।

हालांकि भारत में बेड रॉटिंग को लेकर सोशल मीडिया पर लगातार ट्रैंड बना हुआ है , कुछ युवा इसके लिए एक्सटेंशन ऑफ द स्लीप, स्लीप वीकेंड या वीकेंड कोमा जैसे शब्दों का भी प्रयोग करते हैं। आज कल छुट्टियाँ घूमने फिरने या परिवार के साथ वक्त बिताने का समय नहीं रहीं बल्कि बिस्तर पर पड़े रहने का बहाना बन गई हैं । आज की जेन-ज़ी पीढ़ी अपने कमरे की चारदीवारी में सिमटकर, मोबाइल या लैपटॉप की स्क्रीन के सामने पूरा दिन बिताना ज्यादा सहज महसूस करती है। खाना ऑर्डर करना हो तो ऑनलाइन, दोस्तों से बात करनी हो तो ऑनलाइन, जैसे वास्तविक दुनिया से जुड़ने की उनकी इच्छा धीरे-धीरे मिटती जा रही हो। दरअसल आज का युवा सूचनाओं के ऐसे महासागर में जी रहा है, जो कभी शांत नहीं होता, अंतहीन फीड्स, नेटफ्लिक्स, असीमित कंटेंट यह सब मिलकर डिजिटल ओवरस्टिम्यूलेशनका माहौल बनाते हैं। जिससे दिमाग को कभी आराम नहीं मिलता और बिस्तर एक आरामदायक ठिकाना बन जाता है। वहीं सोशल मीडिया पर सेल्फ केयर की गलत व्याख्या से इसे और अधिक बल मिलता है।

कभी-कभार भले बिस्तर पर आराम करना शरीर और दिमाग को तरोताजा कर सकता है, लेकिन एक नियमित आदत से गंभीर परिणाम हो सकते हैं। बेड रॉटिंग से न्यूरोट्रांसमीटर्स विशेषकर डोपामिन और सेरोटोनिन के स्तर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इनकी कमी से मोटिवेशन में गिरावट, उदासी, और ऊर्जा की कमी महसूस होती है , जो व्यक्ति को और निष्क्रिय बनाती है, और अंत में यह एक दुष्चक्र हो जाता है जिससे उदासी और बढ़ जाती है और उदासी से निष्क्रियता । पर इसका ये मतलब नहीं है कि हमें आराम नहीं करना चाहिए। तनावपूर्ण जीवन से एक ब्रेक लेना और खुद को रिचार्ज करना अत्यंत आवश्यक है। हालांकि इसके साथ घर के बाहर निकलना, शारीरिक क्रियाएं करना, दोस्तों या परिवार के लोगों से बात करना भी उतना ही जरूरी है। आखिर में हमें एक संतुलन की आवश्यकता है जहाँ हम बिस्तर पर लेटकर फोन स्क्रॉल करने के बजाय, किताबें पढ़ना, संगीत सुनना या मेडिटेशन जैसी चीजें भी कर सकते हैं। इससे व्यक्ति में निष्क्रियता कम और सक्रियता बढ़ेगी। और यदि कोई इस चक्र से बाहर नहीं निकल पा रहा है तो किसी मनोवैज्ञानिक या काउंसलर से बात करने में तनिक भी संकोच नहीं करना चाहिए। तभी हम अपनी युवा पीढ़ी को एक स्वस्थ, उत्पादक और खुशहाल भविष्य दे पाएंगे।
अमर उजाला में  05/11/2025 को प्रकाशित 

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Monday, October 13, 2025

स्वदेशी मैसेजिंग एप अरट्टै की बढ़ती लोकप्रियता

 

पिछले दिनों देश के डिजीटल मेसेजिंग  इकोसिस्टम में एक ऐसा बवंडर मचा जिसने सारी दुनिया में मशहूर हो चुके व्हाट्स एप के नीति नियंताओं के माथे पर पसीने की बूंदें ला दी. वो है  भारत का देशी मेसेजिंग एप 'अरट्टै' .प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 'स्वदेशी तकनीक' अपनाने की अपील (15 अगस्त 2025, 30 अगस्त 2020), तथा मंत्रियों और उद्योगपतियों के अभियान की वजह से अक्टूबर 2025 के पहले तीन दिनों में अरट्टै 7.5 मिलियन डाउनलोड के आंकड़े तक पहुंच गया—जहां रोजाना साइन-अप्स 3,000 से बढ़कर 3,50,000 तक जा पहुंचे। वर्तमान में अरट्टै के 1 मिलियन से अधिक मासिक सक्रिय प्रयोगकर्ताओं  हैं, जबकि व्हाट्सएप के भारत में मासिक सक्रिय प्रयोगकर्ताओं  की संख्या 535.8 मिलियन से अधिक है.यहाँ तक ऐसी भी घटनाएँ भी लोगों ने फेसबुक पर साझा की जब उन लोगों ने अरट्टै की खूबियाँ गिनाते हुए पोस्ट लिखी तो उनका अकाउंट कुछ घंटों के लिए सस्पेंड कर दिया गया .हालंकि इस तथ्य की पुष्टि नहीं हो पाई है फिर भी अरट्टै ने एक चुनौती तो जरुर पेश की है.
'अरट्टैको समझने से पहले ज़ोहो को समझना ज़रूरी है। यह कोई नई स्टार्टअप नहींबल्कि एक स्थापित भारतीय टेक्नोलॉजी दिग्गज कम्पनी है जो दुनिया भर में कारोबार करती है. ज़ोहो का इकोसिस्टम सिर्फ एक ऐप तक सीमित नहीं है। यह ज़ोहो मेल (ईमेल सेवा)ज़ोहो राइटर (डॉक्यूमेंट)ज़ोहो शीट (स्प्रेडशीट) और ज़ोहो शो (प्रेजेंटेशन) जैसे दर्जनों सॉफ्टवेयर एप्लीकेशन का एक मजबूत सूट प्रदान करता है।इसको हम गूगल सूट जैसा भी समझ सकते हैं पर  कंपनी की प्रसिद्धि उसकी गोपनीयता-केंद्रित और विज्ञापन-मुक्त नीतियों पर बनी है.जहाँ गूगल और मेटा (फेसबुक) जैसी टेक कम्पनियां प्रयोगकर्ताओं के आंकड़ों और उनको दिखाए जाने वाले विज्ञापनों पर केन्द्रित हैं वहीं  ज़ोहो फिलहाल प्रयोगकर्ताओं  के डाटा का ऐसा इस्तेमाल नहीं कर रही हैं और भारत का डाटा भारत में ही रहेगा .इसी दुनिया  का नया सदस्य है 'अरट्टै', जिसका तमिल में अर्थ है 'गपशप'। यह ऐप उन सभी बुनियादी फीचर्स के साथ आता है जिनकी आप एक मैसेजिंग ऐप से उम्मीद करते हैं - टेक्स्ट मैसेजवॉयस और वीडियो कॉल, 1000 सदस्यों तक के ग्रुप चैट और मल्टीमीडिया शेयरिंग।
भारत की एप इकोनोमी बहुत तेजी से बढ़ रही है जबकि चीन राजस्व और उपभोग के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा बाजार बना हुआ है। वहीं अमेरिकन कम्पनियां एप निर्माण के मामले में शायद सबसे ज्यादा इनोवेटिव (नवोन्मेषी) हैं। भारत सबसे ज्यादा प्रति माह एप इंस्टाल करने और उसका प्रयोग करने के मामले में अव्वल है। भारतीय एप परिदृश्य का नेतृत्व टेलीकॉम दिग्गज एयरटेल और जिओ करते हैंयद्यपि स्ट्रीमिंग कम्पनियाँ जैसे नोवी डिजिटलजिओ सावन और पेटीएमफोन पे और फ्लिप्कार्ट जैसी ई-कॉमर्स साइट्स ने अपने आप को वैश्विक परिदृश्य पर भी स्थापित किया है।फोर्टी टू मैटर्स डॉट कॉम के अनुसार गूगल प्ले स्टोर पर कुल अक्टूबर 2025 तक गूगल प्ले स्टोर पर कुल 2,083,249 ऐप्स उपलब्ध हैंजिनमें भारतीय ऐप्स की संख्या 89,083 बनी हुई हैजो कुल ऐप्स का करीब 4.3% है। कुल ऐप पब्लिशर्स की संख्या 611,857 हैजिनमें 15,541 भारतीय ऐप पब्लिशर्स हैं—यह सभी पब्लिशर्स का करीब 2.5% है।
 
आंकड़ों के नजरिये से देश में उपभोक्ताओं की उपलब्धता के हिसाब से भारतीय ऐप की संख्या अब भी बहुत कम है।वैश्विक परिदृश्य में आंकड़ों के विश्लेषण से कई रोचक तथ्य सामने आते हैं.फोर्टी टू मैटर्स वेबसाईट के मुताबिक़ प्ले स्टोर पर भारतीय ऐप्स की औसत डाउनलोड संख्या 574,860 हैजबकि प्ले स्टोर पर सभी ऐप्स की औसत डाउनलोड संख्या 492,020 है.यह भी भारतीय ऐप विकासकों के लिए एक सकारात्मक आंकड़ा है. प्ले स्टोर पर उपलब्ध कुल भारतीय ऐप्स की औसत रेटिंग 2.75 हैजबकि प्ले स्टोर पर सभी ऐप्स की औसत रेटिंग लगभग 1.99 हैयानी भारतीय ऐप्स की गुणवत्ता वैश्विक औसत से थोड़ी बेहतर मानी जा सकती है.
किसी भी भारतीय कम्पनी का मोबाइल इतनी ग्लोबल रीच नहीं रखता। भारत चीन के बाद दुनिया में सबसे बड़ा मोबाइल बाजार हैपर कोई भी भारतीय कम्पनी मोबाइल बाजार में अपना स्थान नहीं बना पाई।ऐप बाजार में भारत के पिछड़े होने का एक बड़ा कारण कोडिंग की पढ़ाई देर से शुरू होना भी है .हालाँकि नयी शिक्षा नीति 2020 ने इस अंतर को पाटने की कोशिश की है पर इसका परिणाम साल 2030  के बाद दिखेगा.
 
ऐसे में 'अरट्टैवाकई व्हाट्सएप को कितनी कड़ी टक्कर दे पायेगा यह कहना अभी मुश्किल है .जैसे  व्हाट्सएप का एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन हर मैसेजकॉलफोटो और वीडियो को इतना सुरक्षित बनाता है कि कोई तीसरा  खुद व्हाट्सएप इन्हें पढ़ या सुन नहीं सकता। वहीं अरट्टै में यह सुरक्षा सिर्फ वॉयस और वीडियो कॉल तक सीमित हैटेक्स्ट मैसेज के लिए नहीं। जिनके लिए डिजिटल गोपनीयता सबसे ज़रूरी है,उन लोगों का भरोसा 'अरट्टै' को अभी जीतना होगा.दूसरा मैसेजिंग ऐप्स की सबसे बड़ी ताकत होता है उनका यूज़र नेटवर्क। “सभी  कोई व्हाट्सएप पर है!” ऐसे में क्यों कोई नया यूज़र उस ऐप पर जाने का जोखिम उठाएजहाँ उसके दोस्त-परिवार, , रिश्तेदार कोई है ही नहींइस  नेटवर्क इफेक्ट को तोड़ना किसी भी नए ऐप के लिए पानी पर चलने  जैसा है.
करोड़ों भारतीय व्हाट्सएप के डिजाइन और फीचर्स के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि उन्हें किसी नए प्लेटफॉर्म पर जाने के लिए  राजी करना बहुत मुश्किल काम है। एक बार जो डिजिटल आदतें बन जाती हैंउनको  बदलना बेहद धीमा और जटिल काम  है. जैसे कू व हाईक जैसे स्वदेशी ऐप्स को शुरुआती उत्साहसरकारी समर्थनऔर ट्विटर विवादों के चलते खूब डाउनलोड तो मिलेलेकिन टिकाऊ सफलता हासिल नहीं हो सकी. अरट्टै के पास ज़ोहो की तकनीकी क्षमताभारत केंद्रित सर्विसऔर प्रमोटर्स का समर्थन तो है. लेकिन प्रयोगकर्ताओं  को प्लेटफॉर्म बदलने के लिए ठोस कारण देनालोगों की निजता की गारंटी  देना और लगातार नवाचार ही अरट्टै जैसे एप के  भविष्य का निर्धारण करेगा.
प्रभात खबर में 13/10/2024 को प्रकाशित 

Thursday, October 9, 2025

डिजिटल तकनीक से जुड़ी चुनौतियाँ और सम्भावनाएं

 

डिजीटल तकनीक जरा सोचिए आप अपने घर में सोफे पर बैठे हैं, और उसी वक्त वक्त न्यूयॉर्क में एक मीटिंग में हिस्सा ले रहे हैं,टोक्यो में किसी आर्ट गैलरी में घूम रहें हैं और फिर दिल्ली में दोस्तों के साथ गपशप कर रहे हैं। यह न तो कोई सपना है और न ही कोई साइंस फिक्शन फिल्म का दृश्य बल्कि हकीकत में संभव हो रहा है।ये मेटावर्स है जहाँ तकनीक के जरिए आप एक वर्चुअल दुनिया में दाखिल होते हैं। 
दरअसल मेटावर्स एक आभासी डिजिटल दुनिया का कॉन्सेप्ट है, जिसमें आप वर्चुअल अवतार बनकर घूम सकते हैं, लोगों से मिल सकते हैं। यह इंटरनेट का अगला संस्करण है।  जहाँ लोग केवल स्क्रीन पर वेबसाइट नहीं देखते बल्कि खुद एक आभासी दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं।

मेटावर्स की अवधारणा सबसे पहले साइंस फिक्शन लेखक नील स्टीफेंसन ने 1992 में अपनी किताब स्नो क्रैश में की थी। इस किताब में उन्होंने एक ऐसी काल्पनिक दुनिया का खाका खींचा था, जहां लोग अपने घरों की चारदीवारी में रहकर एक वर्चुअल रियलिटी में अपना जीवन जीते हैं। यह अवधारणा उस समय के मुताबिक भले ही काल्पनिक और दूर की बात लग सकती है, लेकिन तेजी से हो रही तकनीकी प्रगति ने इस कल्पना को सच कर दिखाया है। आज वर्चुअल रियलिटी और ऑगमेंटेड रियलिटी जैसी तकनीक के जरिये मेटावर्स हकीकत हो चला है। आप इसे ऐसे भी समझ सकते हैं जैसे आप किसी गेम की वर्चुअल दुनिया में हो, लेकिन मेटावर्स  किसी गेम से कहीं ज्यादा है। यह एक तरह का डिजिटल स्पेस है, जहाँ आप अपनी वर्चुअल पहचान बना सकते हैं, काम कर सकते हैं, मिल सकते हैं, शॉपिंग कर सकते हैं, और भी बहुत कुछ कर सकते हैं।
ग्रैंड व्यू रिसर्च के मुताबिक साल 2024 तक वैश्विक मेटावर्स मार्केट करीब 105 अरब डॉलर था वहीं साल 2030 तक यह बाजार 1.1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। आज कंपनियाँ गेमिंग, शिक्षा, स्वास्थ्य, शॉपिंग और मार्केटप्लेस से जु़ड़े मेटवर्स के क्षेत्र में बड़ा निवेश कर रही हैं। फेसबुक जो अब मेटा के नाम से जाना जाता है , ने मेटावर्स में अपनी प्रमुख भूमिका निभाई है। अक्तूबर 2021 में मार्क जकरबर्ग ने मेटावर्स से प्रेरित होकर फेसबुक का नाम मेटा कर दिया। और अपनी मेटावर्स यूनिट में करीब 10 बिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया। शुरुआत में सेकंड लाइफ जैसे प्लेटफार्मों को मेटावर्स के पहले उदाहरण के रूप में देखा गया, जहां खिलाड़ी एक वर्चुअल पहचान के साथ संवाद कर सकते थे।
रिपोर्ट्स के मुताबिक गेमिंग एप्लिकेशन मेटावर्स बाजार का सबसे बड़ा हिस्सा है। रोब्लोक्स, एपिक गेम जैसी कंपनियों ने इस क्षेत्र में भारी निवेश किया है। हाल में ही लाइफस्टाइल ब्रांड नाइके ने रोब्लोक्स पर नाइकलैंड नाम से एक वर्चुअल स्थान बनाया था  जिसके कुछ ही महीनों में 6 मिलियन से अधिक उपयोगकर्ता हो गए। वहीं डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में भी मेटावर्स को तेजी से अपनाया जा रहा है। साल 2024 में मेटा ने विक्ट्रीएक्सआर के साथ मिलकर यूरोप के विश्वविद्यालयों के डिजिटल ट्विन वर्चुअल कैंपस तैयार किये हैं। डिजिटल ट्विन कैंपस के जरिये छात्र यूनिवर्सिटीज के भौतिक परिसर का आभासी अनुकरण करते हुए रिमोट क्लास ले सकते हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र में भी मेटावर्स की भूमिका बढ़ रही है, कंपनियाँ वीआर तकनीक पर आधारित टेलीहेल्थ सेवाएं दे रही हैं। जहाँ मरीज का वर्चुअल वातावरण में इलाज किया जा रहा है। कई बड़े ब्रांड्स जैसे गुची, वालमार्ट कोका-कोला ने मेटावर्स में वर्चुअल शोरुम बनाए हैं। वालमॉर्ट और जीकिट ग्राहकों को कपड़ों के वर्चुअल ट्रॉयल की सुविधा दे रही हैं। कंसल्टिंग फर्म मैकिन्जी के मुताबिक मेटावर्स आधारित ई-कॉमर्स अवसर साल 2030 तक 2.5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। वहीं मेटावर्स पर लोग एनएफटी के जरिये लोग डिजिटल संपत्तियों में भी निवेश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए एक्सेंचर ने अपने नए कर्मचारियों की ऑनबोर्डिंग के लिए एक वर्चुअल ऑफिस एनथ फ्लोर बनाया है।
भारत जो डिजिटल क्रांति के दौर से गुजर रहा है, मेटावर्स की इस जादुई दुनिया में तेजी से कदम रख रहा है। संस्था मार्केट रिसर्च फ्यूचर के मुताबिक 2025 में भारत का मेटावर्स बाजार करीब 9 बिलियन डॉलर का है जो 2034 तक बढ़कर 167 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी मंत्रालय ने एआई, वीआर तकनीकों के स्टार्टअप संवर्धन के लिए एक्स आर स्टार्टअप प्रोग्राम की शुरुआत की है। जिसमें अमेरिकी कंपनी मेटा भी सहभागिता दे रहा है। इसके साथ ही मंत्रालय ने आईआईटी भुवनेश्वर में वीआई और एआर सेंटर ऑफ एक्सीलेंस स्थापित किया है। जिससे इस क्षेत्र में नवाचार और शोध को गति मिल रही है। हाल ही में टीवी प्रोग्राम शार्क टैंक पर आए एक मेटावर्स स्टार्टअप एप लोका ने भी देश के लोगों में मेटावर्स के प्रति जागरूकता फैलाई है। इसके अलावा मेटावर्स का क्रेज आम लोगों में भी काफी लोकप्रिय हो रहा है। अफैक्स डॉट कॉम की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल युग मेटावर्स नामक एक प्लेटफॉर्म पर एक कपल ने शादी भी की थी, जिसने काफी सुर्खियाँ बटोरी थी। वहीं अगले कुछ सालों में बड़े मंदिरों और ऐतिहासिक जगहों के भी वर्चुअल मेटावर्स बनाने पर काम किया जा रहै है।  वहीं शिक्षा के क्षेत्र में आईआईटी गुवाहाटी द्वारा वीआर प्लेटफॉर्म ज्ञानधारा को केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से पीएम श्री स्कूलों में लागू किया जा रहा है। हालांकि भारत में डिजिटल अवसंरचना और इंटरनेट पहुंच की सीमाएं मेटावर्स के विकास में कुछ रुकावटें पैदा कर रही दरअसल भारत में 60 प्रतिशत से अधिक उपयोगकर्ता शहरी क्षेत्रों से हैं। जबकि ग्रामीण भारत में वीआर, एआर तकनीक और हाई स्पीड इंटरनेट की पहुँच सीमित है। ट्राई ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि ग्रामीण एवं दूरदराज क्षेत्रों में पर्याप्त बैंडविड्थ के बिना मेटावर्स तक पहुँच मुमकिन नहीं होगी। फिलहाल भारत में अधिकांश इंटरनेट कनेक्शन कम गति या उच्च लैटेन्सी वाले हैं, जो रियल टाइम वीआर, एआर अनुभव के लिए पर्याप्त नहीं है। वहीं एआर, वीआर हेडसेट, इमर्सिव डिस्प्ले और अन्य हार्डवेयर काफी महंगे हैं। भारत में अभी मेटावर्स तकनीक अपने शुरुआती दिनों में है।
हालांकि मेटावर्स में डेटा की गोपनीयता और डिजिटल लत जैसे मुद्दे भी उभर रहे हैं। विशेषज्ञों ने मेटावर्स में सुरक्षा, नैतिकता और स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताएं व्यक्त की हैं। हाल ही में ब्रिटेन में एक 16 वर्षीय लड़की के साथ वर्चुअल वातावरण में उत्पीड़न का मामला सामने आया, जिसने मेटावर्स में सुरक्षा और निगरानी के गंभीर सवाल खड़े किए हैं। इसके साथ ही मेटावर्स में लंबे समय तक रहने से डिजिटल एडिक्शन का भी खतरा बढ़ा है। लंबे समय तक वीआर हैडसेट पहने रहने से लोगों को सिम्युलेटर सिकनेस या साइबर सिकनेस भी हो सकती है। यह एक प्रकार का मोशन सिकनेस है जिसमें जिसमें उपयोगकर्ताओं को VR अनुभवों के दौरान चक्कर आना, मतली, सिरदर्द, और थकान जैसी समस्याएँ होती हैं।
मेटावर्स के लिए खरबों डॉलर का निवेश किया जा रहा है, लेकिन यह अभी भी अस्थिर है और इसमें कई जोखिम हैं। कोविड महामारी के समय जब सभी लोग अपने घरों में कैद थे, तब दुनिया की सभी दिग्गज कंपनियाँ मेटावर्स में भारी निवेश को लेकर उत्साहित थीं। लेकिन आंकड़े दर्शाते हैं कि कुछ कंपनियों ने अपने निवेश का अवलोकन करना शुरु कर दिया है। मार्क जकरबर्ग की मेटा की रियलिटी लैब्स ने 2020 से अबतक करीब 60 बिलियन से अधिक का नुकसान उठाया है। 2025 की पहली तिमाही में कंपनी ने करीब 4 बिलियन डॉलर का घाटा दर्ज किया है।  एआई और मशीन लर्निंग, जो पहले से ही मेटावर्स के मुकाबले ज्यादा प्रभावी साबित हो रहे हैं जिसके कारण कंपनियों ने इस मेटावर्स के मुकाबले एआई पर अपना निवेश बढ़ा दिया है। इन तमाम संभावनाओं और चुनौतियों के बावजूद मेटावर्स अभी भी एक उभरती हुई अवधारणा है। भले ही मेटावर्स अपनी शुरुआती चरण में है, पर यह शिक्षा, स्वास्थ्य, वर्कप्लेस और सामाजिक जुड़ाव को पूरी तरह से पुनर्परिभाषित कर सकता है।
दैनिक जागरण में 09/10/2025 को प्रकाशित 

Wednesday, October 8, 2025

इस माईक्रो ड्रामा के आप भी किरदार

भारत आज दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ मोबाइल इंटरनेट का बाजार है। औसतन हर व्यक्ति दिन में लगभग पाँच घंटे अपनी स्क्रीन से चिपका रहता है। यह सिर्फ एक आदत नहीं बल्कि हमारे समय, ध्यान और जीवनशैली पर तकनीक की गहरी पकड़ का संकेत है। पर सवाल यह है कि इन पाँच घंटों में हम देख क्या रहे हैं? लंबी फीचर फिल्में और टीवी धारावाहिक धीरे-धीरे हाशिए पर जा रहे हैं। आज का युवा सब कुछ शॉर्ट फॉर्म में चाहता है, चाहे मनोरंजन हो, भावनाएं हों या कहानियाँ। रील्स देखते-देखते उसकी ध्यान अवधि में लगातार गिरावट हो रही है, नतीजन घंटे भर के सीरियल पर गौर करना अब बड़ी चुनौती हो गई है। इस बदलते परिदृश्य को समझते हुए कंटेंट निर्माताओं ने हमारे सामने एक नया विकल्प पेश किया है, माइक्रो ड्रामा। यानी कुछ ही मिनटों में पूरी हो जाने वाली कहानियाँ, जिनमें सस्पेंस भी है, इमोशन भी और क्लाइमेक्स भी।

माइक्रो ड्रामा जिसे लोग वर्टिकल माइक्रो वेब-सीरीज भी कहते हैं, असल में स्मार्टफोन के लिए बनी एक नई कंटेंट स्टाइल है। ये छोटे-छोटे एपिसोड होते हैं, जिनकी समय अवधि 1-2 मिनट होती है। सबसे खास बात यह है कि ये वीडियो हॉरिजॉन्टल नहीं बल्कि पोर्ट्रेट मोड में बनाए जाते हैं ताकि इन्हें मोबाइल स्क्रीन पर आसानी से देखा जा सके। हर एपिसोड तेज रफ्तार, डायलॉग्स और ट्विस्ट से भरा होता है। कि देखने वाले को अगली कड़ी देखने का मन हो जाए। अमेरिका और चीन जैसे देशों में यह नया कंटेंट फॉर्मेट बाजार का रूप ले चुका है। चीन में इसका विस्तार सबसे ज्यादा हुआ है। समाचार एजेंसी शिन्हुआ के मुताबिक साल 2024 के अंत तक माइक्रो ड्रामा का बाजार 7 अरब डॉलर से भी अधिक हो गया है। यानी माइक्रो ड्रामा ने चीन के बॉक्स ऑफिस से भी अधिक राजस्व इकठ्ठा कर लिया। चीनी प्लेटफॉर्म क्वाइशोउ पर हर दिन 27 करोड़ लोग माइक्रो ड्रामा देखते हैं। इसी तरह अमेरिका में भी इन एप्स ने करीब डेढ़ अरब डॉलर का राजस्व हासिल किया है। भारत में भी इस माइक्रो ड्रामा फॉर्मेट ने अपने पैर पसारने शुरु कर दिए हैं। वेन्चर इन्टेलिजेंस के आंकड़ों के मुताबिक साल 2024 में माइक्रो ड्रामा ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने करीब 28 मिलियन डॉलर की रकम जुटाई वहीं इस साल जुलाई तक ही 44 मिलियन डॉलर का निवेश हासिल किया है। फाइनेंशनियल एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत का माइक्रो-ड्रामा बाजार अगले पाँच सालों में 5 से 10 अरब डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है। उदाहरण के लिए भारत में माइक्रो ड्रामा प्लेटफॉर्म कुकू टीवी ने एक साल के भीतर ही 5 करोड़ से अधिक डाउनलोड्स दर्ज किये हैं। इसी तरह रील टीवी,पॉकेट टीवी रील शॉर्ट, फ्लिकरील्स जैसे कई प्लेटफॉर्म भी इस नए शॉर्ट वीडियो फॉर्मेट में उतरे हैं। दिग्गज एंटरटेंनमेंट प्लेयर जैसे जी, टीवीएफ, एमएक्स प्लेयर जैसे बड़े प्लेटफॉर्म भी इसमें काफी निवेश कर रहे हैं। जी ने हाल ही में अपने वर्टिकल एप बुलेट को लॉन्च किया है।

कंपनियों के लगातार निवेश से साफ है कि यह नया फॉर्मेट अब महज़ एक ट्रेंड नहीं बल्कि आने वाले मनोरंजन उद्योग की मुख्य धारा बनने की ओर बढ़ रहा है। भारत में इस साल तक इंटरनेट उपयोगकर्ताओं ने 80 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया है। हाल ही में एक इंटरनेट के इस्तेमाल से जुड़ा एक चौकाने वाला आंकड़ा सामने आया है। कंसल्टिंग फर्म बर्नस्टीन की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में दूसरी और तीसरी श्रेणी के शहरों के इंटरनेट यूजर्स महीने में औसतन 35-40 जीबी डाटा का उपयोग करते हैं। जबकि मेट्रो शहरों में यह आंकड़ा 30 जीबी से भी कम है। ऐसे में माइक्रो ड्रामा बनाने वाले एप्स अपना ध्यान इन शहरों के लोगों पर ज्यादा कर रहे हैं। मसलन अलग-अलग भारतीय भाषा, संस्कृति और ऐसी कहानियाँ जिससे कोई भी जुड़ जाए। इन ड्रामों में ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं होती है, कई बार ये पारंपरिक धारावाहिकों की तरह बिना तर्क और बे सिर-पैर के भी दिखाई देते हैं। जिससे छोटे शहरों और कस्बों में माइक्रो ड्रामा अच्छी लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं। दिलचस्प बात यह भी है कि महिलाओं की हिस्सेदारी भी इसके दर्शक वर्ग में लगातार बढ़ रही है। दर्शक अक्सर बस या मेट्रो में सफर के दौरान, बिस्तर पर सोने से पहले या छोटे-छोटे ब्रेक में इन्हें देखकर अपना खाली समय भरते हैं।

हालांकि ये माइक्रो ड्रामा बड़े बजट, बड़े सेट या बड़े एक्टर्स के मोहताज नहीं होते हैं। बस अच्छी कहानी और कुछ ठीक-ठाठ कलाकारों से भी काम चल जाता है। फिल्म इंडस्ट्री में पहचान बनाने की राह देख रहे एक्टर्स-इंफ्लुएंसर्स के लिए भी यह एक अच्छा मंच है। साथ ही इसे बनाने में खर्च भी काफी कम होता है और शूटिंग भी जल्दी खत्म हो जाती है। इसलिए कंटेंट इडस्ट्री और प्लेटफॉर्म्स इस तरह के कंटेंट पर अच्छा खासा निवेश कर रहे हैं। अब तो इंस्टाग्राम रील्स और यूट्यूब शॉर्ट्स पर इन्फुलएंसर्स और कंटेंट क्रियेटर्स खुद का माइक्रो ड्रामा बना रहे हैं। वे अपने लंबे वीडियो को छोटे-छोटे क्लिप्स में काटकर हर क्लिप का अंत ऐसा रखते कि लगे अगले पार्ट में क्या होगा। इससे दर्शक खुद ही अगले पार्ट के लिए बेताब हो जाते है। हालांकि इस तरह के कंटेंट से क्रियेटर्स पर अब दबाव भी बना है कि कैसे कम समय में इतना कुछ कैसे दिखाया जाये। गाने पर लिप्सिंग, छोटे संदेश या इन्फॉर्मेटिव वीडियो तो करना आसान है, मगर एक मिनट में कोई कहानी या ड्रामा दिखाना काफी मुश्किल भी है। वह भी इतनी तेजी से कि दर्शक बीच में स्क्रॉल न कर दे। इसका मतलब है कि क्रियेटर को अब निर्देशक की तरह कहानी में इमोशन भी डालने है, सस्पेंस भी रचना है और क्लाइमेक्स भी  गढ़ना है वो भी चंद मिनटों में ।

हालांकि माइक्रो ड्रामे की लोकप्रियता के साथ-साथ उनकी कंटेंट गुणवत्ता पर प्रश्न उठते हैं। चूंकि प्रोडक्शन तेज और बजट कम होता है, तो कई बार कहानियाँ सतही और बिना मतलब की होती है। आलोचक कहते हैं इनमें कई बार इनमें विवादित और अश्लील कंटेंट का भी उपयोग होता है। साथ ही चीन और अमेरिका की तरह भारत का दर्शक वर्ग अभी कंटेंट के लिए ज्यादा पैसे चुकाने का आदी नहीं है। भारत में इन देशों की तर्ज पर अभी हर एपिसोड के लिए भुगतान और फ्रीमियम जैसे मॉडल उतने सहज नहीं है। हालांकि कुकू टीवी जैसे एप्स अपने सब्सक्रिपशन मॉडल और कुछ एप्स अपने विज्ञापन मॉडल के जरिए पैसा बनाने की कोशिश कर रहे हैं, मगर यह अभी उतने कारगर नहीं है। अंत में माइक्रो ड्रामा न सिर्फ क्रिएटर्स और प्लेटफॉर्म्स के लिए नए अवसर खोल रहा है बल्कि दर्शकों की बदलती आदतों को भाँप कर मनोरंजन का नया फॉर्मेट भी परोस रहा है। छोटे एपिसोड, तेज़ और सस्पेंस भरी कहानी और मोबाइल-फ्रेंडली डिजाइन ने इसे डिजिटल दर्शकों के बीच बेहद लोकप्रिय बना दिया है। साथ ही भविष्य में यह बड़े बजट वाले प्रोजेक्ट्स का भी हिस्सा बन सकता है। इन शॉर्ट फॉर्म कंटेंट ने यह तो साफ कर दिया है कि सोशल मीडिया के दौर में कहानी कहने का तरीका बदल गया है , अब स्क्रीन छोटी है, समय म है लेकिन दर्शकों को मनोरंजन भरपूर और पहले से अधिक चाहिए।
अमर उजाला में  08/10/2025  को प्रकाशित लेख 

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