Tuesday, December 17, 2024

तकनीक से जुडी चुनौतियाँ

 


जहाँ एक ओर यह तकनीक संचार को त्वरित और सुलभ बना रही हैवहीं दूसरी ओर इसका प्रभाव मानवीयता पर भी पड़ा है। संचार में मानवीय भावनाएँआवाज़ की गर्माहटऔर चेहरों के भाव धीरे-धीरे गायब होते जा रहे हैं। जो समस्याओं को सुलझाने के बजाय और बिगाड़ रही है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स हों या हमारे जीवन को आसान बनाने वाली ऑनलाइन कंपनियाँ ये हमारे जीवन का आज अहम हिस्सा बन गई है। चाहे अमेजन जैसे ई-कॉमर्स प्लेटफार्म सामान मंगाना हो या ऊबर,ओला जैसी कैब सर्विस से कहीं जानाइन एप बेस्ड कंपनियों ने हमारे रोजाना के कामों को सरल और सुविधाजनक बना दिया है। मगर इसका एक और पहलू भी हैइन तकनीकों और ऑनलाइन सेवाओं के फायदे के साथ कुछ चुनौतियाँ और समस्याएं भी जुड़ी हुई हैं। इन प्लेटफार्म्स पर हमारे पास सीधे और व्यक्तिगत संपर्क की कमी होती हैजिससे हमारी समस्याओं का समाधान मुश्किल हो जाता है। सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म फेसबुकजिसने भारत में 32 करोड़ यूज़र्स का आंकड़ा पार कर लिया हैउपयोगकर्ताओं की समस्याओं के समाधान के लिए केवल हेल्पसपोर्ट और रिपोर्ट जैसी सुविधाएं प्रदान करता है जो कि एक प्री डिसायडेड एक तरफा तंत्र के अलावा कुछ भी नहीं है। 

उदाहरण के लिएयदि आप अमेज़न या फ्लिपकार्ट से कोई उत्पाद खरीदते हैं और वह ख़राब निकलता हैतो आपको अकसर चैटबॉट से ही मदद मिलती है। इसके बादवास्तविक कस्टमर सर्विस प्रतिनिधि से संपर्क करने के लिए घंटों इंतजार करना पड़ता है। इसी तरहअगर फूड डिलीवरी ऐप पर आपके ऑर्डर में खराब या गलत भोजन आता हैतो आपको स्वचालित सपोर्ट और लंबे इंतजार का सामना करना पड़ता है। इन प्लेटफार्म पर स्वचालित सहायता और सीमित विकल्पों के कारणकई बार समस्या मिनटों में सुलझने की बजाय घंटों तक उलझी रहती है।

यह स्थिति ग्राहक को इतना निराश कर देती है कि उन्हें अंततः सोशल मीडिया पर अपने मुद्दे उठाने पड़ते हैं।  मगर ग्राहक सेवा क्षेत्र में तकनीक के बढ़ते इस्तेमाल से इन नौकरियों पर खतरा मंडरा रहा है। बड़ी कंपनियों ने ग्राहक सेवा में वेटिंग टाइम को कम करने के लिए लाइव चैट का विकल्प दिया। जिसमें ग्राहकों को अपनी समस्याएं लिख कर देने के लिए प्रेरित किया जाने लगा। और धीरे-धीरे मौखिक संचार को कम कर कंपनियों ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस चैटबॉट्स को तरजीह देनी शुरू कर दीइससे कंपनियों को ग्राहक सेवा में खर्च कम पड़ रहा है। इस कटौती की शुरुआत कॉल सेंटर एग्जीक्यूटिव की संख्या घटाने से शुरू कर दी गई है।

वहीं विशेषज्ञ ये मानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बढ़ते प्रभाव से अधिकांश कॉल सेंटर्स का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।  कई ऐप्स कॉल हेल्पलाइन की लिंक तक पहुँचने की प्रक्रिया को इतना जटिल बना देते हैं कि ग्राहकों को मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है।

 न्यू वाइस मीडिया द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसारखराब ग्राहक सेवा के कारण हर साल करीब 75 बिलियन डॉलर के व्यापार की हानि होती है। तकनीक के अंधाधुंध प्रयोग से मानवीय संवाद का स्थान एक निर्जीव तंत्र ने ले लिया हैजहाँ अब समस्याओं का समाधान मशीनों और बिना मौखिक संवाद से बातचीत द्वारा किया जाता है वहीं यह सिर्फ व्यापार और ग्राहक सेवा तक ही सीमित नहीं हैबल्कि इसका असर हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों पर भी पड़ रहा है। तकनीक जब हमारे संचार के हर पहलू को नियंत्रित करती है तो हम अपनी मानवीय संवेदनाओं से दूर होते जाते हैं। यह एक महत्वपूर्ण समय है जब हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि तकनीक हमें उलझाने के बजाय हमारे जीवन को सुगम बनाए।

 प्रभात खबर में 17/12/2024 को प्रकाशित 

 

 


Thursday, December 5, 2024

बच्चों को मोबाईल मैनर तो सिखाएं

 

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने 16 साल तक की आयु के बच्चों के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करने पर पाबंदी लगाने की घोषणा कर दी है। कानून के तहत सोशल मीडिया के इस्तेमाल के खिलाफ कड़े कदम उठाये गये हैं। इस कानून में प्रावधान किया गया है कि अगर बच्चों ने सोशल मीडिया का उपयोग किया तो उनके परिजनों पर 5 करोड़ रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा। ऑस्ट्रेलिया की सरकार के इस फैसले ने पूरे विश्व में सोशल मीडिया और बच्चों के इस्तेमाल को लेकर चिंता और विचारों की एक बहस छेड़ दी हैजिसमें बच्चों की सुरक्षामानसिक स्वास्थ्यऔर डिजिटल स्वतंत्रता जैसे मुद्दे शामिल हैं।कॉमन सेंस मीडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 10 साल की उम्र में आज 42 प्रतिशत बच्चों के पास स्मार्टफोन है. 12 साल की उम्र तक यह 71 प्रतिशत तक पहुंच जाता है और 14 की उम्र तक 91 प्रतिशत बच्चों के हाथ में मोबाइल फोन होता है|इस डिजिटल दुनिया ने हमारे युवाओं में चिंता,डिप्रेशन और आत्महत्या जैसी विकृतियों से भर दिया है। 2000 के 2010 के दशक की शुरुआत तकहाई स्पीड इंटरनेट और सोशल मीडिया ऐप्स से लैस स्मार्टफोन हर तरफ फैल गये।भारत भी इसमें अपवाद नहीं है |दुनिया में दुसरे नम्बर पर सबसे ज्यादा मोबाईल धारकों वाले देश में बच्चे मोबाईल के साथ क्या कर रहे हैं|इसकी चिंता किसी को नहीं है |

के ध्यान भटकाने के लिए सिर्फ फोन ही नहींबल्कि असली(रीयल)  खेल आधारित बचपन का खत्म हो जाना भी एक बड़ा कारण है|भारत में यह बदलाव २००० के दशक से  शुरु हुआ जब अभिभावकों ने अपने बच्चों की किडनैपिंग और अनजान खतरों से बचाने के लिए भय आधारित पैरंटिंग करना शुरू कर दिया , जिसका परिणाम हुआ  कि बच्चों के अपने खेलने का समय घटता चला गया और उनकी गतिविधियों पर माता पिता का नियंत्रण बढ़ गया।इसका दूसरा बड़ा कारण शहरों में खेल के मैदानों का खत्म हो जाना भी है |अनियोजित शहरीकरण ने बच्चों के खेलने की जगह खत्म कर दी |इसका असर बच्चों के मोबाईल स्क्रीन में खो जाने में हुआ |

आज के बच्चे और उनके माता-पिता एक तरह के डिफेंस मोड में फंसे हुए हैंजिससे बच्चे चुनौतियों का सामना करनेजोखिम उठाने और नई चीजें एक्सप्लोर करने से वंचित रह जाते हैंजो उनको  मानसिक रूप से मजबूत करने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए जरूरी है।यहाँ एक विरोधाभास है असल में माता-पिता को अपने बच्चों को वैसी ही परिस्थितियाँ देनी चाहिए जैसे  एक माली अपने पौधों को स्वाभाविक रूप से बढ़ने और विकसित होने के लिए देता हैपर यहाँ अभिभावक हम अपने बच्चों को एक बढ़ई की तरहबड़ा कर रहे हैं जो अपने सांचों को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में आकार देता है। असली  दुनिया में हम अपने बच्चों को अधिक सुरक्षा प्रदान करते हैं लेकिन डिजिटल दुनिया में उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं,जो कि उनके लिए खतरनाक साबित हो रहा है। स्मार्टफोन और अत्याधिक सुरक्षात्मक पालन पोषण के इस मिश्रण ने बचपन की संरचना को बदल दिया है और नई मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दिया है। जिनमें जीवन के प्रति असुरक्षा , कम नींद आना और नशे की लत शामिल हैं। 

तथ्य यह भी है कि हम सभी ने बहुत लंबे समय तक बिना फोन के और बिना माता-पिता से त्वरित संपर्क कियेठीक ठाक जीवन जीया और काम किया है |।संयुक्त राष्ट्र की शिक्षाविज्ञान और संस्कृति एजेंसी यूनेस्को ने कहा कि इस बात के प्रमाण मिले हैं कि मोबाइल फोन का अत्यधिक उपयोग शैक्षणिक प्रदर्शन में कमी से जुड़ा है तथा स्क्रीन के अधिक समय का बच्चों की भावनात्मक स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।यूनेस्को ने अपनी 2023 ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटर रिपोर्ट में कहा कि डिजिटल तकनीक ने शिक्षा में स्वाभाविक रूप से मूल्य जोड़ा हैयह प्रदर्शित करने के लिए बहुत कम मजबूत शोध हुए हैं। अधिकांश साक्ष्य निजी शिक्षा कंपनियों द्वारा वित्त पोषित थे जो डिजिटल शिक्षण उत्पाद बेचने की कोशिश कर रही थीं। इसने कहा कि दुनिया भर में शिक्षा नीति पर उनका बढ़ता प्रभाव "चिंता का कारण" है।

इस रिपोर्ट में  चीन का हवाला दिया गया  है , जिसने कहा कि उसने शिक्षण उपकरण के रूप में डिजिटल उपकरणों के उपयोग के लिए सीमाएँ निर्धारित की हैंउन्हें कुल शिक्षण समय के 30 प्रतिशत  तक सीमित कर दिया हैऔर छात्रों से नियमित रूप से स्क्रीन ब्रेक लेने की अपेक्षा की जाती है|फोन लोगों में सीखने की क्षमता को भी कर सकते हैंकई अध्ययनों में पाया गया कि स्कूल में फोन का इस्तेमाल एकाग्रता को कम करता हैऔर फोन का इस्तेमाल सिर्फ उपयोगकर्ता को ही नहीं प्रभावित करता। इसके लिए फोन फ्री स्कूल आन्दोलन  की संस्थापक साबिने पोलाक ने  सेकेंड "हैंड स्मोक" टर्म इजाद किया है। जिस तरह किसी व्यक्ति के द्वारा छोड़ा गया सिगरेट का धुआं पास खड़े व्यक्ति को नुकसान पहुँचाता हैउसी तरह भले किसी छात्र के पास फोन न होवो फिर भी क्लास में दूसरों द्वारा फोन के इस्तेमाल किये जाने से प्रभावित होता है। वहीं यह उपकरण शिक्षकों के लिए भी तनावपूर्ण होते हैं|भारत में इस दिशा में अभी तक कोई ठोस पहल न होना चिना का विषय है |

इसके कई कारण भी है जिसमें तकनीक का अचानक हमारे जीवन में आना और छा जाना भी शामिल हैजहाँ माता पिता और उनके बेटे बेटियाँ एक साथ मोबाइल फोन चलाना सीख रहे हैं |इस समस्या से बचने के प्रमुख तरीकों कि वे अपने बच्चों को स्मार्टफोन देने में देरी करें और स्कूल इस निर्णय में उनका समर्थन करें। अपने बच्चों पर नजर रखने के लिए माता-पिता फ्लिप फोनस्मार्ट वॉचट्रैकिंग डिवाइसेस जैसे उपकरणों की मदद ले सकते हैं। नैतिक शिक्षा जैसे विषयों में फोन और सोशल मीडिया का इस्तेमाल ,अपनी निजता कैसे बचाएं,साइबर बुलींग  जैसे विषयों को जोड़ा जाना आवश्यक है |अब बच्चों को जीवन जीने के तौर तरीके  सिखाने के साथ मोबाईल मैनर भी सिखाये जाएँ |

 अमर उजाला में 05/12/2024 को प्रकाशित 

Thursday, November 28, 2024

तकनीक की आड़ में पलते अपराध

 इस बदलते दौर में तकनीक ने हमारे जीवन को कई तरह से आसान और सुविधाजनक बनाया हैलेकिन इसके साथ ही मानवीय संवेदनाओं पर गहरे घाव भी किये हैं। जैसे-जैसे तकनीकी प्रगति हो रही हैहमारे समाज में संवेदन हीनताहिंसा और आपराधिक गतिविधियों का एक नया चेहरा उभर रहा है। अब अपराधियों के पास डिजिटल तकनीक के रूप में एक ऐसा हथियार हैजिससे वे अपनी घिनौनी मंशाओं को पूरा करने के लिए बेतहाशा इस्तेमाल कर रहे हैं। इसी तकनीक की आड़ में एक नया अपराध तेजी से फल-फूल रहा है- रेप वीडियोज को खरीदने-बेचने का कारोबार। अपराधी डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का सहारा लेकर ऐसे घिनौने अपराधों के वीडियोज को रिकॉर्ड करउन्हें न केवल बेच रहे हैंबल्कि एक पूरा काला कारोबार खड़ा कर चुके हैं। हालांकि यह केवल अपराधियों तक ही सीमित नहीं हैबल्कि समाज का एक तबका भी इसका एक हिस्सा बन गया हैजो ऐसे वीडियोज को इंटरनेट पर खोजता और देखता है।

 कोलकाता के आरजी मेडिकल कॉलेज की महिला डॉक्टर की हत्या और रेप के मामले के खबरों में आने के बाद गूगल ट्रेंड्स पर पीड़िता के नाम से रेप वीडियो की खोजों में वृद्धि देखी गई। इससे पहले भीजेडीएस नेता प्रज्वल रेवन्ना के कथित सेक्स स्कैंडल केस में भी इसी तरह का पैर्टन सामने आया थाजहाँ गूगल और पॉर्न साइट्स पर मामले से जुड़े वीडियो देखने की कोशिश की गई। इस तरह के वीडियो देखने वालों को महज कौतहुल या सेंशेलेनल कंटेंट की तलाश की आड़ में बरी नहीं किया जा सकता। इस तरह से सर्च करने वाले लोगों में एक गहरी संवेदनहीनता झलकती हैजिसमें वे पीड़िता का दर्द और उसकी पीड़ा को महज एक मनोरंजन का साधन समझ लेते हैं। भारत में रेप और असहमति से बनाये गये इन सेक्स वीडियोज का बड़ा कारोबार हैइसकी जड़ें शहरों के ठिकानों से लेकर ऑनलाइन बाजारों तक फैली हुई हैं। पहले ये वीडियो देश के कस्बों और शहरों के एक कोने में सीडी और पेन ड्राइव के माध्यम से बेचे जाते थे। लेकिन इंटरनेट के आने के साथयह काला कारोबार अब इन्हीं इन्क्रिप्टेड ऐप्स पर चला गया हैजहाँ एक बार ऑनलाइन हो जाने के बाद क्लिप्स को रोकना संभव नहीं है। 

वाहट्सअपटेलीग्राम जैसे मैसेजिंग ऐप्स पर एन्क्रिप्शन की आड़ में इस तरह के वीडियो के लिंक खुलेआम बेचे जा रहे हैं। फैक्ट चैकिंग संस्था बूम की एक रिपोर्ट के मुताबिक इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म्स पर भी ये अपराधी अपनी पैठ जमाये हुए हैं। इंस्टाग्राम से ये अपराधी लिंक के जरिये प्राइवेट टेलीग्राम चैनल पर ले जाते हैं जहाँ यह काला कारोबार होता है। वहीं रिपोर्ट में कहा गया है कि सोशल मीडिया साइट्स पर अगर आप ऐसे एक आपत्तिजनक पेज को फॉलो करते हैं तो एल्गोरिदम और भी इसी तरह के अकाउंट आपको सुझाता है। लिंक के लिए यूपीआईइंस्टेंट पे से भुगतान करने के बाद इच्छुक सब्सक्राइबर को टैराबॉक्स और क्लाउड एग्रीगेटर ऐप्स की ओर ले जाया जाता है। जहां वे इन अवैध और अमानवीय सामग्री तक पहुँच कर उसे डाउनलोड कर सकते हैं। एक बार डाउनलोडिंग के बाद इसे ट्रेस करना या रोकना लगभग असंभव हो जाता है। साल 2023 में सूचना और प्रसारण मंत्रालयभारत सरकार ने सोशल मीडिया साइट्स जैसे फेसबुकयूट्यूब और टेलीग्राम जैसी कंपनियों को इस तरह की सामग्री के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए नोटिस जारी किया था। इसके बाद यूट्यूब ने अपनी नई कम्युनिटी गाइड लाइन्स के मुताबिक अक्टूबर से दिसंबर माह के बीच करीब 25 लाख वीडियो को अपने प्लेटफॉर्म से हटाया था।

मनोचिकित्सक मानते हैं कि इस तरह की सामग्री देखने से व्यक्ति की यौन और हिंसा के प्रति सामान्य दृष्टि विकृत हो गई है। भारत जैसे देश में जहां यौन शिक्षा की कमी भी इस समस्या को और गंभीर कर देती इस समस्या का समाधान हम सिर्फ कानून से नहीं , बल्कि जागरूकता लाकर ही कर सकते हैं। ताकि हम न केवल इस तरह की सामग्री को नकारेबल्कि इसके खिलाफ खड़े  हों। हमें समझना होगा कि इस तरह का हर क्लिकहर शेयर किसी की जिंदगी को तबाह कर सकता है।

 प्रभात खबर में 28/11/24 को प्रकाशित 


Monday, November 18, 2024

एआई अनुसंधान में भारत का बढ़ता कद


कभी दुनिया में आईटी आउटसोर्सिंग के नाम से पहचाने जाने वाला भारत अब डिजिटल क्रांति की नई इबारत लिख रहा है। सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में अपने कौशल के दम पर भारत ने वैश्विक पहचान बनाई है,और अब भारतीय डेवेलपर्स आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में भी भारत को सिरमौर बनाने की राह में जुटे हुए हैं। हाल ही में आई गिटहब की एक रिपोर्ट के मुताबिक जेनेरेटिव एआई के क्षेत्र में भारत दुनिया में दूसरे पायदान पर पहुँच गया है और अनुमान है कि 2028 तक भारत कुल डेवेलपर्स की संख्या के मामले अमेरिका को पीछ छोड़ पहला स्थान हासिल कर लेगा। रिपोर्ट के मुताबिक गिटहब प्लेटफार्म पर भारतीय डेवेलपर्स की संख्या 2024 में 28 प्रतिशत बढ़कर 1.7 करोड़ के पार पहुँच गई है। दरअसल जेनरेटिव एआई का मतलब ऐसी एआई प्रणाली से है जिसमें न्यूरल नेटवर्क, मशीन लर्निंग जैसी तकनीक की मदद से टेक्स्ट,इमेज, ऑ़डियो आदि प्रकार के नए डेटा का सृजन होता है। न्यूरल नेटवर्क सीखे गए पैर्टन और नियमों के आधार पर आउटपुट उपलब्ध कराता है, जो हूबहू मानव निर्मित कंटेंट जैसा होता है। 2023 में प्रकाशित ब्लूमबर्ग इंटेलिजेंस की एक रिपोर्ट के अनुसार ओwपन एआई के चैट जीपीटी और गूगल के बार्ड जैसे नवाचारों के आने से जेनरेटिव एआई के बाजार में भूचाल आ गया है। अगले 10 सालों में जेनरेटिव एआई का बाजार दुनियाभर में 1.3 ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ने की संभावना है।

 जिसमें भारत एक अहम भूमिका निभाता दिखेगा। रिसर्च संस्था ईवाई की द एआई आइडिया ऑफ इंडिया शीर्षक से छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक यदि भारत विभिन्न क्षेत्रों में जेनरेटिव एआई तकनीक का पूरी तरह से उपयोग करता है तो 2030 तक जेन-एआई भारतीय अर्थव्यवस्था में 359-438 बिलियन डॉलर का अतिरिक्त योगदान दे सकता है। पिछले दो दशक में भारत ने आईटी के क्षेत्र में काफी प्रगति की है, आज अमेरिका की सिलिकन वैली से लेकर लंदन और सिडनी तक भारतीय इंजीनियर्स ने अपना योगदान दिया है। वहीं भारतीय सरकार की नीतियों जैसे डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसी मुहिम से भी अब भारत में तकनीकी नवाचारों का ईको-सिस्टम बनाने की कवायद तेज हो गई है। जिनमे आईटी क्षेत्र, सेमीकंडक्टर निर्माण और एआई से जुड़े उद्योग लगाये जा रहे हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक एआई तकनीक का इस्तेमाल कृषि, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और मीडिया जैसे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर किया जा सकता है, जिससे भारत को इन क्षेत्रों में उल्लेखनीय सुधार देखने को मिल सकता है। हाल ही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग और आईआईटी बॉम्बे द्वारा भारतजेन नाम से एक भारतीय जेनरेटिव एआई की शुरुआत की गई, जिसके तहत नागरिकों को विभिन्न भाषाओं में जेनरेटिव एआई उपलब्ध कराया जाएगा। आज देश में जेनरेटिव एआई स्टार्टअप्स की संख्या में भी एक तीव्र वृद्धि दर्ज की जा रही है। बीते माह आई नैसकॉम की इंडियाज जेनरेटिव एआई  स्टार्टअप लैंडस्केप 2024 रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक साल में जेनरेटिव एआई से जुड़े स्टार्टप्स की संख्या 66 से 240 पहुँच गई है। 

भारत की सिलिकन वैली के नाम से प्रसिद्ध बेंगलुरु भारत के जेन-आई स्टार्टअप का प्रमुख केंद्र बना हुआ है, जो देश में कुल 43 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है। वहीं अहमदाबाद, पुणे, सूरत और कोलकाता जैसे शहर भी तेजी से उभरते हुए केंद्र बन रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एआई रिसर्च में भी भारत का कद लगातार बढ़ रहा है। अमेरिका, जर्मनी और जापान जैसे देशों के साथ मिलकर भारत एआई की चुनौतियों और अवसरों को हल करने के लिए सक्रिय रूप से काम कर रहा है। एन एआई अपरच्यूनिटी फॉर इंडिया रिपोर्ट में गूगल ने भारत में डायबिटिक रेटिनोपैथी एआई मॉडल उपलब्ध कराने की घोषणा की है। इसकी मदद से अगले 10 साल में एआई असिस्टेंट स्क्रीनिंग की सुविधा दी जाएगी। वहीं गूगल भारतीय कंपनियों के साथ मिलकर खेती की उपज बढ़ाने के लिए एआई मॉडल का भी निर्माण कर रहा है।इसके साथ ही दिग्गज चिप निर्माता एनवीडिया ने भी रिलायंस इंडस्ट्रीज के साथ भारत में एआई इंफ्रास्ट्रकचर के निर्माण करने की घोषणा की है। दोनों कंपनियों ने भारत में एआई कम्प्यूटिंग इंफ्रा और नवाचार केंद्र बनाने के लिए एक समझौता किया है। भारत सरकार ने भी देश में एआई स्टार्टअप को सशक्त बनाने के लिए इस साल इंडिया एआई मिशन को मंजूरी दी थी, जिसके लिए कैबिनेट ने करीब 10 हजार करोड़ की राशि जारी की थी। इस कदम से एआई नवाचार में देश को ग्लोबल लीडर बनने में काफी मदद मिलेगी। वहीं भारत में एआई का बढ़ता प्रसार रोजगार के लिए बड़ा संकट बन सकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ मशीनीकरण कार्यों को आसान बना रहा है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार एआई और ऑटोमेशन के कारण आने वाले सालों में लाखों पारंपरिक नौकरियों पर संकट आ सकता है।

 इसके बदले नए तकनीकी और विश्लेषणात्मक कौशल की माँग की वृद्धि होगी, जिसके लिए सरकार और निजी क्षेत्र को मिलकर रीस्किलिंग प्रोग्राम्स चलाने पर भी ध्यान देना चाहिए।देश का डिजिटल विकास और एआई में निवेश यह भरपूर संकेत देता है कि आने वाले कुछ सालों में भारत एआई के क्षेत्र में एक महाशक्ति के रूप में उभर सकता है। यह न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करेगा, बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति को मजबूती देगा। अगर भारत अपने तकनीकी संसाधनों और नवाचारों को सही दिशा में इस्तेमाल करता है,तो एआई के क्षेत्र में अग्रणी बनने के साथ-साथ पूरी दुनिया में इसका नेतृत्व भी कर सकता है। हालांकि भारतीय तकनीकी शिक्षा संस्थान और कई कंपनियाँ इस दिशा में काम कर रही हैं, ताकि भविष्य में कार्यबल को एआई-सक्षम उद्योगों के लिए तैयार किया जा सके। इसके साथ ही सुरक्षा के मोर्चे पर भी साइबर हमलों, डीपफेक्स और फेक न्यूज के प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए एक तंत्र की आवश्यकता है।

 अमर उजाला में 18/11/24 को प्रकाशित 

Friday, November 15, 2024

असली दुनिया से दूर ले जा रहे स्मार्टफोन

 

पिछले कुछ दशकों में तकनीक का हमारे जीवन पर गहरा असर हुआ है। तकनीक के बेजा इस्तेमाल ने हमारी आदतों, सोच और संज्ञानात्मक क्षमताओं में परिवर्तन लाया है। स्मार्टफोन, टैबलेट, लैपटॉप जैसे डिजिटल डिवाइस आज हर व्यक्ति की जीवनशैली का एक हिस्सा हो चले हैं। एक समय था जब खाली समय में किताबें पढ़ना, पत्र लिखना एक प्रचलित शौक हुआ करते थे, पर अब वह समय बिंज वॉचिंग, रील स्क्रॉलिंग और वीडियोज देखने में गुजरता है। विजुअल मीडिया खासकर शॉर्ट वीडियो ने हमारे देखने-सुनने के अनुभव को इतना मनोरंजक बना दिया है कि कई लोगों के लिए पढ़ना एक पुराने जमाने की बात लगता है। इस बदलाव का असर हमारे संज्ञानात्मक विकास और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है, जो आज के शोधकर्ताओं के लिए एक चिंता का विषय बन गया है।बॉस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, 2010 में जहां लोग औसतन 2 घंटे फोन पर बिताते थे, वहीं 2024 में यह समय बढ़कर लगभग 4.9 घंटे हो गया है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में एक स्मार्टफोन उपयोगकर्ता दिन में औसतन 80 बार अपना फोन चेक करता है, जिनमें से ज्यादातर बार वह इसे किसी जरूरत से नहीं बल्कि सिर्फ आदतन करता है।

 इनमें से कई बार फोन चेक करने की आदत में सुबह उठने के 15 मिनट के भीतर फोन देखना भी शामिल है। यह आंकड़ा दिखाता है कि हम अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा डिजिटल स्क्रीन के सामने बिता रहे हैं। और उसका अधिकांश हिस्सा सिर्फ विजुअल कंटेट देखने में बिता रहे हैं। इस बढ़ते स्क्रीन टाइम और विजुअल कंटेंट के बढ़ते उपभोग से ना केवल हमारी पढ़ने लिखने की आदतें कम हो रही हैं बल्कि एक साथ ध्यान केंद्रित करने की क्षमता भी असर हो रहा है।स्मार्टफोन और विजुअल कंटेंट के बेतहाशा इस्तेमाल से हमारी किसी चीज़ पर ध्यान देने और समझने की क्षमता कम होती जा रही है। माइक्रोसॉफ्ट का एक अध्ययन बताता है कि डिजिटल लाइफस्टाइल की वजह से इंसानों की ध्यान अवधि एक गोल्डफिश से भी कम हो गई है! वहीं, कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर डॉ. ग्लोरिया मार्क का मानना है कि शॉर्ट वीडियो ऐप्स ने इस कमी को और भी बढ़ा दिया है। असल में, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे यूट्यूब और इंस्टाग्राम को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि हमारा दिमाग केवल छोटे और संक्षिप्त कंटेंट को एक बार में ही झट से पकड़ने के लिए तैयार हो जाए।  इसका सबसे बड़ा खतरा ये है कि ये प्लेटफॉर्म हमें इन कंटेंट की इतनी आदत डाल देते हैं कि इनसे दूर रहना मुश्किल हो जाता है।  जिससे हमें लंबे, जटिल और शब्दों से भरी किताबें, क्लासरूम के लंबे लेक्चर्स ऊबाऊ लगने लगते हैं और हमारा मस्तिष्क उन्हें पहले की तरह अच्छे से प्रोसेस नहीं कर पाता है। 

इन शॉर्ट वीडियो प्लेटफॉर्म पर जब हमें कुछ उबाऊ लगता है, तो हमारे पास अनगिनत स्क्रॉल का विकल्प होता है, लेकिन असल जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं होता है।पीयू रिसर्च सेंटर के एक सर्वे के मुताबिक सोशल मीडिया के लगातार इस्तेमाल से छात्रों को कई बार पढ़ाई पर फोकस करने और काम पर ध्यान केंद्रित करने में मुश्किल महसूस होती है। सर्वे के मुताबिक 31% किशोरों ने माना कि वे क्लास में अपना ध्यान खो बैठते हैं क्योंकि उनका ध्यान बार-बार फोन चेक करने में रहता है, और 49% का कहना था कि उन्हें क्लासरूम में ज्यादा देर लेक्चर सुनना उबाऊ लगता है। रिपोर्ट में एक खास बात पर जोर दिया गया है कि अब किताबें पढ़ना पहले जितना आसान नहीं रह गया  है, जानकारी याद रखना एक चुनौती की तरह हो गया है जिससे लोगों में झुंझलाहट बढ़ गई है।भारत में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे -5 के आंकड़े दिखाते हैं कि लोग पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार, मैगजीन, और टीवी से मिलने वाली खबरों की तरफ अपनी रुचि खोते जा रहे हैं। लोगों की रुचि अब चीजों को डिजिटली देखने और सुनने की ओर बढ़ रही है। रॉयटर्स की 2023 डिजिटल  रिपोर्ट के एक सर्वे के  मुताबिक 71 प्रतिशत भारतीय ऑनलाइन समाचार देखना पसंद करते हैं वहीं केवल 29% लोगों का ही रुझान अखबार पढ़ने में है। वहीं इंडियन रीडरशिप सर्वे के मुताबिक 2026 तक ऑनलाइन न्यूज कारोबार 70 करोड़ भारतीयों तक पहुँच सकता है जबकि प्रिंट मीडिया का कारोबार 20 प्रतिशत तक घटने की संभावना है। खबरों के अलावा युवा पाठक अब ई-बुक्स और ऑडियोबुक्स को किताबों की तुलना में अधिक पसंद कर रहे हैं। सिरकाना बुकस्कैन की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2023 में 2022 के मुकाबले प्रिंट किताबों की बिक्री में 2.6 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। वहीं रिसर्च संस्था स्टेस्टिका के मुताबिक भारत में ऑडियोबुक का बाजार हर साल 10.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। ये आंकड़े दिखाते हैं कि लोगों का रुझान अब पढ़ने और लिखने के बजाये देखने की और सुनने की ओर बढ़ रहा है। विजुअल और ऑडियो मीडिया के इस बढ़ते बाजार का असर शिक्षा के क्षेत्र में भी नजर आता है। किताबों और लेखों की जगह अब वीडियो लेक्चर्स ने ली है। 

दिग्गज ऑनलाइन लर्निंग प्लेटफॉर्म यूडेमी के मुताबिक उनके प्लेफॉर्म पर इस समय 130 मिलियन से अधिक छात्र पढ़ाई करते हैं वहीं भारत की दिग्गज कंपनी अनएकेडमी पर 5 मिलियन से अधिक एक्टिव लर्नस मौजूद हैं। यूट्यूब पर तो यह आंकड़ा कहीं अधिक हो जाता है। दरअसल विजुअल और ऑडियो माध्यम से जानकारी को समझना और सीखना आसान हो जाता है। मगर छात्र किताबों को छोड़कर सिर्फ वीडियो लेक्चर्स पर निर्भर हो जायेंगे, तो इससे उनकी गहरी समझ पर असर पड़ सकता है। किताबें लोगों में विश्लेषण करने की क्षमता, एकाग्रता और एक गहरी सोच निर्माण करती है जो सिर्फ इन वीडियो लेक्चर्स से नहीं हो सकता है। लेकिन अगर यह सिलसिला यूं ही चलता रहा, तो हमारे पढ़ने और लिखने का कौशल सिर्फ शैक्षणिक कामों तक ही सीमित हो जाएगा। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि किताबें पढ़ने से हमारी सोच, कल्पना और समझ बढ़ती है जिससे मनुष्य में तर्कशीलता और सृजनात्मकता आती है। हम अगर सिर्फ विजुअल और ऑडियो कंटेंट पर  निर्भर हो गए, तो हमारी सोचने और समझने की ताकत कमजोर हो सकती है। इसलिए हमें वक्त-वक्त पर अपने फोन से कुछ समय ब्रेक लेकर किताबों, लेखन और गहन अध्ययन के जरिए अपनी मानसिक क्षमता को बेहतर बनाना चाहिए। इस तरह हम दोनों दुनिया के फायदों का लाभ उठा सकते हैं और एक समग्र विकास की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।

नवभारत टाईम्स में 15/11/2024 को प्रकाशित 

Tuesday, November 5, 2024

एआइ का पर्यावरण पर दुष्प्रभाव

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानि कृत्रिम बुद्धिमत्ता अब  हमारे दैनिक जीवन का एक अहम हिस्सा बनती जा रही हैं। वर्चुअल असिस्टेंट से लेकर स्मार्ट होम तक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हर जगह है। चाहे चैट जीपीटी जैसे एआई जनित प्लेटफार्म पर हमे जटिल प्रश्नों के हल जानना हो या गूगल और एलेक्सा जैसे वर्चुअल असिस्टेंट्स पर अपनी आवाज भर से कोई काम कराना होआर्टिफिशियल इंटेलिजेंस धीरे धीरे हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बनने की ओर अग्रसर है। मगर क्या इस अचंभित कर देने वाली तकनीक के कुछ और पहलू हो सकते हैंजो भविष्य में पर्यावरण और मानव सभ्यता के लिए हानिकारक साबित हो सकते हैं?इस साल जारी हुई गूगल की वार्षिक पर्यावरण रिपोर्ट में चौकाने वाले आंकड़े सामने आये हैंसाल 2022  के मुकाबले 2023 में गूगल के डाटा सेंटर पर कार्बन उत्सर्जन फुटप्रिंट में तेरह प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है । यह वृद्धि मूल रूप से उसके डेटा सेंटरों और आपूर्ति श्रृंखलाओं में बिजली की खपत बढ़ने के कारण हुई। कंपनी का कहना है कि साल 2023 में उसके डेटा सेंटरों ने पहले की तुलना में 17 प्रतिशत अधिक बिजली का उपयोग किया और एआई टूल्स का उपयोग होने के कारण यह वृद्धि आने वाले सालों में और बढ़ेगी।जाहिर है कि एआई के उपयोग कई क्षेत्रों में परिवर्तनकारी बदलाव लाने के लिए किया जा रहा हैजिनमें जलवायु परिवर्तन से जुड़े समाधान भी शामिल हैं। लेकिन बढ़ती एआई तकनीक ने एक भारी कार्बन उत्सर्जन फुटप्रिंट जैसी समस्या उत्पन्न कर दी है। अध्ययनों से पता चलता है कि एआई चैटबॉट चैट-जीपीटी पर पूछी गई एक साधारण क्वेरीगूगूल खोज की तुलना में 10 से 33 गुना अधिक ऊर्जा का उपयोग करती है। वहीं इमेज आधारित प्लेटफार्म पर इससे कहीं अधिक ऊर्जा खर्च होती है।  

 दरअसल एआई मॉडल सामान्य गूगल खोज की तुलना में अधिक डेटा को प्रोसेस और फिल्टर करते हैं, अधिक काम का मतलब है कि कंप्यूटर को डेटा प्रोसेसिंग, स्टोरिंग और रिट्रीविंग के समय अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होगी। वहीं अधिक काम करने से उत्पन्न गर्मी को कम करने के लिए डेटा सेंटर्स पर अधिक शक्तिशाली एयर कंडीशनिंग  और अन्य ठंडे उपाय किये जाते हैं।यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया रिवरसाइड के एक अध्ययन के मुताबिक़ साल 2022 में, गूगल ने अपने डेटा केंद्रों को ठंडा रखने के लिए लगभग 20 बिलियन लीटर ताजे पानी का उपयोग किया। वहीं बीते साल माइक्रोसॉफ्ट की जल खपत में पिछले वर्ष की तुलना में 34 प्रतिशत की वृद्धि हुई। वर्तमान में डेटा सेंटर्स की खपत वैश्विक बिजली की खपत का 1 से 1.3 प्रतिशत है, मगर जैसे जैसे एआई टूल्स का उपयोग बढ़ेगा यह खपत भी बढ़ती जाएगी। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी IEA के अनुसार 2 तक यह आंकड़ा दोगुना होकर 3 प्रतिशत तक जा सकता है। इसके विपरीत, बढ़ते इलेक्ट्रिक वाहनों के बावजूद, ई-वाहनों की वैश्विक बिजली खपत मात्र 0.5% है। वहीं कई कई देशों में डेटा सेंटर्स की ऊर्जा खपत उनकी राष्ट्रीय माँग की दहाई हिस्सेदारी तक पहुँच गई है। आयरलैंड जैसे देश जहाँ टैक्स में छूट और प्रोत्साहन के कारण डेटा सेंटर्स की संख्या असामान्य रूप से अधिक है, आयरलैंड सेंट्रल स्टैटिक्स ऑफिस रिपोर्ट 2023 के अनुसार   यह हिस्सेदारी 18 प्रतिशत पहुँच गई |

 भारत में भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डेटा सेंटर्स का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। हालांकि भारत में डेटा सेंटर्स की ऊर्जा और जल खपत के आंकड़े अभी सीमित हैंलेकिन आने वाले वर्षों में AI के बढ़ते उपयोग के साथयह स्थिति बदल सकती है।भारत की सिलिकॉन वैलीबेंगलुरु पानी की भारी कमी से जूझ रही हैशहर में डिजिटल बुनियादी ढांचे को संचालित करने वाले डेटा केंद्रों के चलते यहाँ यह समस्या और बढ़ गई है। अकेले बेंगलुरु में डेटा सेंटर्स की संख्या सोलह  है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक बेंगलुरु के अलावा दिल्लीचैन्नई और मुंबई जैसे महानगरों में भी डेटा सेंटर्स में पानी की खपत बढ़ गई है। भारत में स्थापित डेटा केंद्रों की क्षमता 2 हजार मेगावॉट से 2029 तक  4.77 हजार मेगावाट तक पहुँचने की उम्मीद है। जिससे पहले से पानी की कमी से जूझ रहे भारत के सिलिकन वैली की डिजिटल महत्वाकांक्षाओं पर  संकट खड़ा हो जाएगा। 

इस समस्या के समाधान के लिए गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों डेटा केंद्रों के शीतलन के लिए  अपशिष्ट जल को पुनर्नवीनीकृत कर इस्तेमाल कर रही हैं। वहीं भारतीय डेटा केंद्र अभी भी ताजे  पानी की आपूर्ति पर निर्भर हैं।यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि   केवल बिजली खपत की बात नहीं हैंडेटा सेंटर्स को ठंडा रखने के लिए पानी के संसाधनों की माँग बढ़ती जा रही है। जो भविष्य में भारत के जल संसाधनों पर दबाव डाल सकती है। हालांकि डेटा सेंटर्स पर पानी की खपत को लेकर अभी पर्याप्त डेटा सामने नहीं आया हैडेन मोइन्स रिवर पर एसोसिएटेड प्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका के आयोवा शहर में OpenAI के GPT-4 मॉडल को सेवा देने वाला एक डेटा सेंटर उस जिले की पानी की आपूर्ति का करीब 6 प्रतिशत  उपयोग करता है। वहीं इस मामले में कुछ विशेषज्ञों ने एक वैकल्पिक दृष्टिकोण पेश किया है| 

बॉस्टन कंसल्टिंग ग्रुप के  एक अध्ययन के अनुसार,  AI के कॉर्पोरेट और औद्योगिक कामों के उपयोग से 2030 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 5-10 प्रतिशत की कमी हो सकती है वहीं 1.3 ट्रिलियन से 2.6 ट्रिलियन डॉलर के राजस्व की भी बचत हो सकती है।

 इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुएहमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के विकास के साथ-साथ इसके पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों पर भी ध्यान देना चाहिए। जिससे हम एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए एआई के फायदों का लाभ उठा सकते हैं और इसके पर्यावरणीय असर को कम कर सकते हैं। ऐसा कर हम एक बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकते हैंजहाँ तकनीक और प्रकृति दोनों के बीच तालमेल बना रहे।

दैनिक जागरण में ०५/११/२०२४ को प्रकाशित 

Wednesday, October 23, 2024

जिन्दगी में कभी हार न माने

 मैं जब दुखी होता  हूँ तो गाने सुनता हूँ और तुरंत फीलिंग हैप्पी वाला मामला हो जाता है  फिर गाने तो मूड बना ही देते हैं.मैं आजकल रमैया वस्तावैया का गाना  खूब सुन रहा हूँ  जीने लगा हूँ पहले से ज्यादा तुम पर मरने लगा हूँ आप कहेंगे मैं कौन सा बड़ा काम कर रहा हूँ .कहानी में सस्पेंस है मैं नए गाने कम ही सुनता हूँ. हमें तो ज्यादा अच्छा फिल्म गाईड का ये गाना लगता है आज फिर जीने की तमन्ना है आज फिर मरने का इरादा है आपने ध्यान दिया दोनों गाने में मर कर जीने की बात की जा रही है लेकिन फिर भी कितनी खुशी  है. क्योंकि वो प्यार में मर रहे हैं.पर जिन्दगी में कभी कभी कुछ ऐसा हो जाता है कि मूड ठीक ही नहीं होता. जैसे दोस्तों से अनबन, ब्रेकअप या कोई और तनाव. उसके बाद मन में न जाने कैसे नकारात्मक ख्याल आते हैं. जैसे दुनिया बेकार है .मेरे जीने का क्या फायदा. पर रिश्तों में मिली नाकामी के आगे अगर आपके  सारे सपने हार मान गए और आप ऐसे किसी ख्यालों में डूब रहे हैं तो ये आपकी  हार नहीं ये आपके सपनों की हार है. अरे आप हमेशा इश्क वाले लव के चक्कर में पड़ कर क्यूँ घनचक्कर बन जाते हैं. जिंदगी में और भी रिश्ते हैं जिनको हमारी जरुरत होती है. मरना ,जिंदगी के साथ अन्याय है क्योंकि जी रहे हैं तभी तो मर रहे हैं किसी के प्यार में. तो जब तक जिंदगी जियेंगे नहीं किसी के प्यार में कैसे मरेंगे.
रिश्ते कभी एक जैसे नहीं रहते उनका एहसासउनका रूप बदलता रहता है तो अगर आपको आपके प्यार का जवाब,प्यार से नहीं मिल रहा है तो कोई बात नहीं ये तो आप भी मानते हैं न कि जो होता है अच्छे के लिए होता है.आप जिसके प्यार में पागल होकर मरने की सोच रहे हैं वो आपके लायक था ही नहीं तो अच्छा ही हुआ न क्योंकि ऐसे लोग आपके जीवन में रहते तो और ज्यादा टेंशन देते तो आपको ब्रेकअप की पार्टी कर डालनी चाहिए न कि अपने अंदर सुसाइडल टेंडेंसीज को पैदा होने देना चाहिए.
प्यार की पींग जिंदगी की जंग में किसी पर मर कर ही बढ़ाई जा सकती है न कि खुद को मारकर. जिंदगी के सफ़र में हर क़दम पर आपको नयी चाल चलनी होती है...आगे बढ़ने का रास्ता तैयार करना होता है..जिसके लिए सबसे जरूरी है जिंदा रहना. दौड़ में जितने लम्बे समय तक बने रहेंगे.....उतने ज्यादा दांव आप पर लगेंगे और तब आपके काम यही अनुभव आयेंगे. सिर्फ़ फिल्मों में ही नहीं असल ज़िंदगी के भी कई ऐसे किस्से हैं, इमरोज़ और अमृता प्रीतम से लेकर नीना और क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स हों या रतन टाटा.ये सब प्यार में पड़े और असफल भी रहे.अगर कहें कि प्यार में मिली असफलता ही इनकी ताक़त बन गयी तो गलत न होगा. प्यार की असफलता को जिंदगी की सफलता से जोड़ दीजिए और फिर देखिये कि आप पर मरने वाले कितने लोग हो जायेंगे लेकिन इसके लिए थोडा इन्तजार करना होगा क्यूंकि सफलता नूडल्स की तरह दो मिनट में तैयार नहीं होती हैं .जहाँ इश्क की राहें जुदा हो जाएँ.उसे सूफ़ियाना मोड़ देकर छोड़ दीजिये. डर्टी पिक्चर का वो गाना याद करिए तो जरा ...तेरे वास्ते मेरा इश्क सूफ़ियाना.ताकि जब भी कभी फुरसत के लम्हे मिलें तो यही यादें आकर आपकी पीठ सहलाएं.

प्रभात खबर में 23/10/2024 को प्रकाशित 

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