Tuesday, July 29, 2025

असमंजस की स्थिति और लोगों की सलाह

 

टू बी ऑर नॉट टू बी हालांकि ये लाइन है तो एक विश्व प्रसिद्ध नाटक की पर मामला तो हमारी लाईफ से ही जुड़ा हुआ है.जीवन में अक्सर ऐसे मौके आते हैं जब हम कन्फ्यूजन या असमंजस की स्थिति में होते हैं. क्या करूँ?यानि टू बी ऑर नॉट टू बी. कभी रिश्तों में कभी करियर में तो कभी अपनी लाईफ में अक्सर ऐसा होता है और हमें कुछ समझ में नहीं आता कि किया क्या जाए.करियर में आपका इंटरेस्ट तो टीचिंग में है पर पेरेंट्स चाहते हैं कि आप  रेडियो में अपना करियर बनायें.शादी अपनी मर्जी से करना चाहते हैं पर पेरेंट्स को परेशानी होगी .चैटिंग से पढ़ाई में डिस्टर्बेंस होता है पर चैटिंग किये बिना हम रह भी नहीं पाते,वगैरह वगैरह. जैसे जैसे जिंदगी आगे बढ़ती है वैसे हमारे कन्फ्यूजन का दायरा भी बढ़ता जाता है.

 मुझसे अक्सर लोग सलाह मांगते हैं और तब मुझे बड़ी परेशानी होती है कि क्या मुझे वाकई सलाह देनी चाहिए हमारे एक मित्र एक शहर में अकेले रहते हैं एक दिन उन्होंने मुझसे सलाह माँगी कि वो मकान बदलना चाहते हैं.मैंने पूछा क्यूँ, तो वो बोले कि उन्हें बहुत अकेलापन लगता है.मैंने कहा ठीक है अपने किसी दोस्त के साथ रह लो या किसी ऐसी जगह मकान ले लो जहाँ आपके परिचित रहते हों. तब उनका जवाब था उन्हें ज्यादा दुलार पसंद नहीं है.जाहिर है वो कन्फ्यूज्ड हैं.वैसे भी कन्फ्यूजन एक ऐसी समस्या है जिसका इलाज समय रहते नहीं किया गया तो इसका सीधा असर हमारे व्यक्तित्व  पर पड़ता है.लेक्चर से आप बोर होते हैं और ज्ञान का खर्रा आपको और कन्फ्यूज करता है तो मैं जो कुछ कहूँगा वो आपके जीवन  से ही जोड़  कर के कहूँगा.

 चैटिंग पर भी जब आपको कुछ नहीं समझ आता तो आप भी हम्मम् कर के रह जाते हैं.ये हम्मम् का मामला वाकई बड़ा कन्फयूजिंग है,इसका कोई न कोई  सल्यूशन तो होना चाहिए. अब कन्फ्यूजन के सल्यूशन की तलाश में अगर किसी से सलाह मांगेंगे और उस पर अमल नहीं करेंगे तो परिणाम  कैसे निकलेगा.

अब ऐसा होता ही क्यूँ है.चलिए इस कन्फ्यूजन को दूर ही कर दिया जाए.कन्फ्यूजन अगर है तो उससे निपटने के दो रास्ते हैं. पहला किसी की राय ले ली जाए पर अक्सर होता है कि लोग इतने लोगों से राय ले लेते हैं कि कन्फ्यूजन घटने की बजाय और बढ़ जाता है.

ज्यादा लोगों से राय लेने का मतलब ये भी है कि आप जिससे सलाह ले रहे हैं. उस पर आपको पूरा भरोसा नहीं है.जब भरोसा नहीं है तो सलाह लेने का क्या फायदा  और अगर सलाह ले रहे हैं  तो उसे मानना चाहिए.बार बार सलाह लेकर अगर आप मानेंगे नहीं तो कोई भी आपको सही सलाह नहीं देगा. क्योंकि  उसे पता है कि आप किसी और के पास इस मुद्दे पर राय लेने जायेंगे.दूसरा तरीका है शांत दिमाग से उस समस्या के बारे में सोचा जाए जिसमें आपको कन्फ्यूजन है फिर अपने जीवन की सीमाओं  को ध्यान में रखते हुए अपना आंकलन किया जाए.तब कोई निर्णय लिया जाए पर इसके लिए पहले आपको अपने आप पर पूरा भरोसा होना चाहिए. क्योंकि  अपने निर्णय के लिए आप खुद जिम्मेदार होंगे वैसे जिन्दगी में फेसबुक स्टेटस अपडेट की तरह एडिट का कोई ऑप्शन नहीं होता जो बीत जाता है वो बीत ही जाता है.जब भी कभी कोई कन्फ्यूजन हो तो उससे आप ही अपने आप को बाहर निकाल सकते हैं चाहे किसी की सलाह लेकर या अपने आप पर भरोसा रखकर.

प्रभात खबर में 29/07/2025 को प्रकाशित 

Friday, July 18, 2025

बारिश के मौसम में दोस्तों की याद

 

बारिश के मौसम में सिर्फ पानी नहीं बरसता भावनाएं भी बरसती हैं. एहसास से भीगे एक ऐसे ही मौसम में मैं थोडा फलसफाना हुआ जा रहा हूँ.ज़िन्दगी का असल मतलब तो रिश्ते बनाने और निभाने में ही है.ज़िन्दगी कैसी भी हो पर खूबसूरत तो है पर इसकी असल खूबसूरती तो रिश्तों से ही है न अच्छा सोचिये जब बारिश होती है तो इसका लुत्फ तो आप तभी उठा सकते हैं जब आपके आस पास लोग हों या उनकी यादें हो सोचिये तो जरा कि बारिश हो रही हो और आपके आस पास न लोग हों और न कोई यादें तब क्या आप ज़िन्दगी की बारिश का मजा ले पायेंगे. मैं भी सोच रहा हूँ कितने लोग मिले बिछड़े सब मुझे याद नहीं हैं पर कुछ दोस्त ऐसे भी हैं जो अब मेरे साथ नहीं हैं पर  उनकी यादें मेरे साथ हैं जिनके साथ का मज़ा मैं बारिश के इस मौसम में उठा रहा हूँ.

बारिश का मौसम हमेशा नहीं रहता वैसे रिश्ते कोई भी हों हमेशा एक जैसे नहीं रहते. अब दोस्ती को ही ले लीजिये न ये रिश्ता इसलिए ख़ास है क्योंकि सामाजिक रूप से इसको निभाने का कोई मानक नहीं है ऐसे में ये रिश्ता बहुत नाज़ुक  हो जाता है. मैं थोडा विस्तार से समझाता हूँ भाई चाचाचाचीनानाताऊ से कैसे बिहेव करना हमें बचपन से सिखाया जाता है पर दोस्ती करना और उसे निभाना हमें कभी नहीं सिखाया जाता है. फिर भी बाकी रिश्तों में ये रिश्ता सबसे ख़ास होता है, क्योंकि दोस्ती हम किसी से पूछ के नहीं करते ये तो बस हो जाती है. दोस्तों में कोई तो हमारा ख़ास दोस्त जरुर  होता है. हमारा सबसे बड़ा राजदारजिसको हम प्राथमिकता  देते हैं. दोस्ती का इम्तिहान तो तब शुरू होता है जब ज़िन्दगी में नए दोस्त बनते हैं.यहाँ कहानी में थोडा ट्विस्ट है कई बार हम जिसे अपना बेस्ट फ्रैंड समझ रहे होते हैं वो बहुतों का बेस्ट फ्रैंड होता है तब शुरू होती हैं समस्या.अब भाई उस दोस्त को सबसे दोस्ती निभानी है और हम हैं कि चाहते हैं वो हमें उतनी प्राथमिकता ,केयर दे जितनी हम उसे देते हैंतब शुरू होता है इस रिश्ते का असली इम्तिहान.

इसलिए दोस्ती जब दरकती है तो कष्ट बहुत ज्यादा होता है क्योंकि इस रिश्ते के चलने या न चलने के पीछे सिर्फ और सिर्फ हम ही जिम्मेदार होते हैं,भाई दोस्ती तो हम ही ने की थी. आप समझ रहें न रिश्ते कोई भी हों अटेंशन चाहते हैं पर ऐसी स्थिति  आने पर आप जबरदस्ती किसी दोस्त से दोस्ती नहीं पा सकते तो क्यू न ऐसी दोस्ती को एक खूबसूरत मोड़ देकर अपने हाल पर छोड़ दें पर बात इतनी आसान भी नहीं है वैसे कभी आपने सोचा ऐसा क्यूँ हुआ ? आप रिश्ते में डिमांडिंग हो रहे थे और किसी भी रिश्ते में डिमांड नहीं की जाती है. रिश्ते तो वही चलते हैं जिनमें प्यार, अपनापन और भरोसा अपने आप मिल जाता है, माँगा नहीं जाता और अगर दोस्ती में आपको इन सब चीजों की मांग करनी पड़ रही है तो समझ लीजिये कि आपने सही शख्स से दोस्ती नहीं की है. दोस्ती देने का नाम है आपने अपना काम किया पर बगैर किसी अपेक्षा के अपनी कद्र खुद कीजिये. जो दोस्त आपकी कद्र न करे उसके जीवन से चुपचाप निकल जाइए जिससे कल किसी बारिश में आप जब पीछे मुड़ कर देखें तो ये पछतावा न हो कि आपके पास दोस्ती की यादों का एल्बम सूना है.

 प्रभात खबर में 18/07/2025 को प्रकाशित 


Thursday, July 10, 2025

याद बहुत आते हैं वो दूरदर्शन वाले दिन

 क्या आप दूरदर्शन के जमाने को याद करते हैं? वो दौर जब घरों में एक ही टीवी होता था और रिमोट के लिए बच्चों में खींचतान आम बात थी। बच्चे स्कूल से आते ही शक्तिमान को देखने के लिए टीवी स्क्रीन के सामने जुट जाते थे, चित्रहार की धुन का पूरा परिवार मिलकर लुत्फ उठाता था और रामायण, महाभारत के प्रसारण के समय तो मोहल्लों की गलियाँ तक खाली हो जाया करती थीं। वो पल अब सिर्फ यादों में रह गये हैं। अब हर किसी के हाथ में अपनी एक छोटी स्क्रीन है। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने टीवी को अब जेब में समेट दिया है। अब फिल्मों के प्रीमियर देखने के लिए किसी खास समय का इंतजार नहीं करना पड़ता। जो देखना है, जब देखना है बस अब एक क्लिक की दूरी पर है। इस ओटीटी और स्ट्रीमिंग वीडियोज की आई बाढ़ ने पारंपरिक टेलीविजन इंडस्ट्री को झकझोर कर रख दिया है। दर्शक अब पारंपरिक टीवी को छोड़कर ज्यादा निजी और इंटरैक्टिव अनुभव के लिए सोशल मीडिया और ओटीटी एप्स का रुख कर रहे हैं। टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक 2024 में डीटीएच सेवाओं के सक्रिय सब्सक्राइबर करीब 4 मिलियन कम हो गये। वहीं साल 2024 में भारत में ओटीटी उपयोगकर्ताओं की संख्या करीब 54 करोड़ पहुँच गई है जो साल 2023 की तुलना में 14 प्रतिशत अधिक है। नैल्सेन जैसी वैश्विक कंपनियों के मुताबिक भारत दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ स्ट्रीमिंग बाजार बन रहा है। फरवरी 2025 में लॉन्च हुए जियो हॉटस्टार प्लेटफॉर्म ने 28 करोड़ पेड सब्सक्राइबर्स का आंकड़ा पार कर लिया है। जियो हॉटस्टार ने भारत में दिग्गज स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम (दो करोड़ सब्सक्राइबर्स) और नेटफ्लिक्स (1 करोड़ सब्सक्राइबर्स) को काफी पीछे छोड़ दिया है।

पिछले कुछ वर्षों में ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की लोकप्रियता जिस रफ्तार से बढ़ी है, उसी तेजी से केबल और डीटीएच सब्सक्रिप्शन की गिरावट दर्ज की गई है। इसका एक बड़ा कारण है—दर्शकों की बदलती प्राथमिकताएं। आज का दर्शक कंटेंट सिर्फ देखने भर के लिए नहीं देखता, वह उसे अपने समय, सुविधा और मन:स्थिति के अनुसार चुनना चाहता है। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने न केवल यह आज़ादी दी है, बल्कि कंटेंट की विविधता और संवेदनशीलता के लिहाज़ से भी पारंपरिक टेलीविज़न को पीछे छोड़ दिया है।  कुछ समय पहले की ही बात है जब रविवार को सेट मैक्स , जी सिनेमा जैसे चैनल्स पर हमें ढाई घंटे की फिल्म देखने में हमें चार घंटे लग जाते थे, क्योंकि हर 10 मिनट पर 5 मिनट का एक विज्ञापन आ जाता था। कभी-कभी तो लगता था फिल्म से ज्यादा हम डिटॉल, सर्फ एक्सेल और फेयर एंड लवली का एड देख रहे हैं। वहीं आज का युवा वर्ग जो पंद्रह सेकेंड की इंस्टाग्राम रील देखता है और अगर वो रील लंबी हो जाए तो वीडियो को स्किप कर देता है। ऐसे में युवा दर्शकों का अटेंशन स्पैन इतना कम हो गया है कि उन्हें लंबे विज्ञापन, धीमा नैरेटिव और इंटरवल जैसे टीवी के क्लासिक फॉर्मेट उबाऊ लगते हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स दर्शकों की इसी प्रवृत्ति को ध्यान में रख कर विज्ञापन मुक्त अनुभव या कम विज्ञापन वाले सब्सक्रिप्शन मॉडल पेश कर रहे हैं। क्योंकि युवा पीढ़ी जो इंटरनेट और सोशल मीडिया के साथ बड़ी हुई है, अब रिमोट कंट्रोल और फिक्स्ड टाइम स्लॉट में नहीं बंधना चाहती।  जहाँ एक ओर पारंपरिक टीवी पर सेंसर बोर्ड और ब्रॉडकास्टिंग नियमों का कड़ा हस्तक्षेप रहता था, वहीं ओटीटी पर किसी तरह की सेंसरशिप नहीं है। जिससे ओटीटी फिल्में और सीरीज कई सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर खुलकर बात कर सकती हैं। इसका सकारात्मक परिणाम यह हुआ है कि कहानियाँ अब सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं है वे समाज की जटिलताओं, धार्मिक विविधता और राजनीतिक विमर्श जैसे मुद्दों को भी केंद्र में ला रही है। हालांकि इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ एक नई चुनौती भी सामने आई है। कई बार कंटेंट की अश्लीलता, अनावश्यक नग्नता और अत्यधिक हिंसा को लेकर विवाद खड़े हुए हैं। जिसके कारण कई सामाजिक संगठन ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के लिए नैतिक सीमाएं तय करने की माँग कर रहे हैं।

टेलीविजन और ओटीटी में सिर्फ तकनीक का नहीं सोच का भी अंतर है, पारंपरिक टीवी जो एक परिवार का सामूहिक अनुभव था वो अब व्यक्ति की निजी स्क्रीन हो गया है। आज की पीढ़ी दोस्तों और परिवार के साथ बैठकर तय समय पर कुछ देखने की बजाय, अकेले में अपने मोबाइल या लैपटॉप पर मनचाहा कंटेंट देखना पसंद करती है। सैद्धान्तिक तौर पर देखा जाये तो कम विज्ञापन, कहीं भी किसी भी समय कंटेंट देखने की आजादी के चलते व्यक्ति के पास काफी समय बचना चाहिए था मगर अब मनोरंजन का समय सीमित नहीं रहा है वो हमारे हर खाली पल में घुस गया है। ऑफिस का ब्रेक हो या रात की नींद से पहले का समय हर जगह ओटीटी प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया एप्स हमारी जिंदगी में घुस गये हैं। बिंज वॉचिंग आज की हकीकत बन गई है। अब दर्शक हफ्तेभर इंतजार नहीं करते कि अगला एपिसोड कब आएगा, वो एक ही दिन में छह-छह घंटे की वेब सीरीज़ खत्म कर देते हैं। उन्हें लगता है कि ये मनोरंजन है, लेकिन असल में ये आदत दिमाग को थकाने वाली और नुकसानदायक है। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने हमे चुनने की आजादी तो दी है, मगर ऑटो प्ले नेक्स्ट एपिसोड, सजेस्टेड फॉर यू जैसे मनोवैज्ञानिक ट्रिगर का उपयोग करके हमे बिंज वॉच में फंसा लेते हैं। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ सेंट्रल फ्लोरिडा में हुए एक अध्ययन के मुताबिक बिंज वॉचिंग से चिंता, अवसाद और नींद की गुणवत्ता में गिरावट हो सकती है। नेल्सैन के कन्ज्यूमर इंटेलिजेंस सर्वे के मुताबिक करीब 66 प्रतिशत प्रतिभागी लगातार 5 घंटे से अधिक बिंज वॉचिंग करते हैं। गूगल के पूर्व डिज़ाइन एथिसिस्ट  ट्रिस्टन हैरिस के मुताबिक इन प्लेटफॉर्म्स का बिज़नेस मॉडल ही यह है कि लोग लगातार स्क्रीन पर बने रहें ताकि उनका मुनाफा बढ़ता रहे। एरिज़ोना स्टेट यूनिवर्सिटी के चुन शाओ ने अपनी रिसर्च में पाया कि लोग हर बार नेटफ्लिक्स इसलिए नहीं देखते कि उन्हें कोई शो देखना है। बल्कि वे अकेलापन महसूस कर रहे होते हैं या बस किसी चीज़ से ध्यान हटाना चाहते हैं। वहीं निरंतर स्क्रीन देखने और असीमित चुनाव ने लोगों में फोमो और चॉइस पैरालिसिस जैसी मानसिक स्थितियों ने जन्म दिया है। सोशल मीडिया वीडियोज और ट्रेंड के चलते लोग इस दबाव में रहते हैं कि वे हर नए कंटेंट को देखें, ताकि कहीं वे किसी चर्चा या ट्रेंड से बाहर न रह जाएं। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि लोग केवल इसलिए किसी शो को देखते हैं क्योंकि वो ट्रेंड कर रहा था, भले ही वो उन्हें पसंद न आए। अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोशियन के अनुसार फोमो  एक तरह के डिसिजन फटीग को जन्म देता है , यह तब होता है जब विकल्प इतने हों कि दिमाग थक जाये।

कुछ साल पहले जब ओटीटी प्लेटफॉर्म कई वायदे के साथ आये थे मसलन लंबे-चौड़े बंडल पैक से छुटकारा, मनचाही फिल्में और वेब सीरीज वो भी विज्ञापनों के बिना, कब क्या और कितना देखना है यह हक अब दर्शकों का होगा। मगर जैसे-जैसे समय गुजरा ये प्लेटफॉर्म भी वही पुराने फार्मुले पर निकल पड़े। जिस तरीके से एक दौर में स्टार, सोनी, जी जैसे बड़े ब्रॉडकार्टर्स अपने चैनलों का सब्सक्रिप्शन बेचते थे, ठीक उसी तरह अब हर ओटीटी प्लेटफॉर्म अपने-अपने कंटेंट का पैक लेकर बैठा है। नेटफ्लिक्स का अपना सब्सक्रिप्शन है, प्राइम पर सारी फिल्में सब्सक्रिप्शन के बाद भी नहीं मिलती , कुछ फिल्में देखने के लिए रेंट नाऊ का बटन दिया है। जियो हॉटस्टार ने भी विज्ञापन और बिना विज्ञापन वाले दोनों तरह के सब्सक्रिप्शन उतारे हैं।  किसी एप पर आपको क्रिकेट मिलेगा, तो किसी पर सास-बहू सीरियल, तो वहीं कोरियन ड्रामा देखना है तो वो अलग ओटीटी पर मिलेगा। तो सवाल यही है कि क्या हम फिर उसी जगह आ गए, जहाँ से चले थे। फर्क बस इतना है कि पहले रिमोट से चैनल को बदलने की आजादी थी अब एप बदलने की है। सोशल मीडिया, रील्स, मीम्स, फिल्में, वेब सीरीज से लेकर बिंज वॉचिंग तक, हर खाली पल को भरने के लिए आज एक स्क्रॉल, एक क्लिक और नया प्लेटफॉर्म मौजूद है। कभी जो मनोरंजन था अब आदत बन रहा है, और यही आदत धीरे-धीरे हमें मानसिक रूप से अस्वस्थ कर रही है। हर पल फोमो, सुझाव और ट्रैंड में बने रहने की दौड़ में हम सुकून की तलाश भूल गये हैं और बस बिना सोचे-समझे कुछ भी देख रहे हैं। ओटीटी और स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म ने दर्शकों को कंटेंट चुनने की आज़ादी जरूर दी है, लेकिन कंटेंट की इस बाढ़ में सही चुनाव करना दर्शकों के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। दूसरी ओर, ये बदलाव हमारे पुराने टीवी देखने के उस मज़ेदार दौर को भी पीछे छोड़ आया है, जब परिवार साथ बैठकर एक ही स्क्रीन पर कहानी का हिस्सा बनता था। मनोरंजन अब ज्यादा निजी और अकेलेपन के दूर भागने का एक जरिया हो गया है। यह समय है कि हम सचेत रूप से अपने समय और ध्यान को नियंत्रित करें हर समय बिंज वॉचिंग, सतही रील्स में आनंद ढूंढने के बजाय, कुछ समय प्रकृति, रिश्तों और आत्मविकास में बितायें। तभी हम मानसिक सुकून और असली खुशी की तलाश कर पाएंगे।
अमर उजाला में 07/10/2025 को प्रकाशित 

Tuesday, July 8, 2025

ग्लोबल पावर बनता भारत

 

दिग्गज भारत को एआई की दुनिया का वर्ल्‍ड लीडर बता रहे हैं|एक समय था जब किसी राष्ट्र की शक्ति केवल उसकी सैन्य क्षमता और आर्थिक संसाधनों से मापी जाती थी। युद्ध और व्यापार पर नियंत्रण ही किसी राष्ट्र के शक्ति प्रदर्शन का एकमात्र तरीका था। लेकिन समय के साथ शक्ति की परिभाषा भी बदल गई है, आज के दौर में किसी राष्ट्र की ताकत इस बात पर निर्भर करती है कि वह अपने विचारों, संस्कृति और मूल्यों के जरिये दुनिया को कैसे आकर्षित कर सकता है। सॉफ्ट पॉवर’ शब्द का प्रयोग अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में किया जाता है जिसके तहत कोई राज्य परोक्ष रूप से सांस्कृतिक अथवा वैचारिक साधनों के माध्यम से किसी अन्य देश के व्यवहार अथवा हितों को प्रभावित करता है। इसमें आक्रामक नीतियों या मौद्रिक प्रभाव का उपयोग किये बिना अन्य राज्यों को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है। सॉफ्ट पॉवर’ की अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिका के प्रसिद्ध राजनीतिक विशेषज्ञ जोसेफ न्ये द्वारा किया गया था।

एक ऐसी ताकत जिसे न तो संख्याओं में मापा जा सकता है न ही किसी हथियार या दबाव से हासिल किया जा सकता है। यह किसी राष्ट्र की श्रेष्ठता साबित करने का साधन नहीं बल्कि उसे दूसरों के लिए आकर्षक बनाने का एक जरिया है। अमेरिका ने एक दौर में अपनी सॉफ्ट पावर को हॉलीवुड, मैकडॉनल्ड्स, कोका-कोला और पॉप म्यूजिक के ज़रिए पूरी दुनिया में फैलाया। वहीं दक्षिण कोरिया, जापान और चीन जैसे देश भी दर्शन,के-पॉप, ड्रामा, तकनीक और एनीमेटेड फिल्मों के जरिये अपना वर्चस्व बनाने में लगे हुए हैं। यह भारत की बढ़ती साख का ही प्रमाण है कि जी20, एससीओ और ब्रिक्स जैसे मंचों पर भारत एक अहम भूमिका निभा रहा है। शायद आपको याद हो जब भारत में पहली बार स्टारबक्स खुला था, इसकी दीवानगी लोगों के सिर चढ़कर बोल रही थी। ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने कभी अमेरिका की धरती पर कदम नहीं रखा है, लेकिन वहाँ बसने का सपने देखते हैं। आखिर ऐसा क्या है जो लोगों को किसी राष्ट्र के विचार, भाषा और संस्कृति की ओर इस कदर आकर्षित करता है। ऐसे में बीते कुछ दशक पर नजर डालें तो भारत भी उसी राह पर तेजी से बढ़ रहा है। बॉलीवुड गाने यूरोप से लेकर अफ्रीका तक गूंज रहे हैं, योग, आयुर्वेद ने अमेरिका और यूरोप को भारतीय जीवनशैली से जोड़ दिया है। भारतीय धर्म, संस्कृति और लोकतांत्रिक मूल्यों को आज दुनिया भर में सराहा जा रहा है।ब्रांड फाइनेंस की ग्लोबल सॉफ्ट पावर इंडेक्स 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने दुनियाभर में सॉफ्ट पावर के मामले में 29वाँ स्थाान हासिल किया है। जिनमें कला और मनोरंजन में 7वां, कल्चर हैरिटेज में 19वां और भोजन के मामले में 8वां स्थान हासिल किया है। यह आंकड़े बात को दिखाते हैं कि भारत ने सिनेमा से लेकर विविध व्यंजनों तक वैश्विक संस्कृति पर गहरा असर डाला है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस भी भारत की एक सफल कूटनीति और बढ़ती सॉफ्ट पावर का प्रतीक है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित अतंरराष्ट्रीय योग दिवस अब 192 से भी अधिक देशों में मनाया जाता है।कभी भारत में योग को केवल आध्यात्मिक साधना समझा जाता था, लेकिन आज दुनिया के हर कोने में योग सेंटर्स खुल गये हैं। भारतीय फिल्मों ने भी सॉफ्ट पावर में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, फिल्मों ने भारतीय संस्कृति, रीति रिवाज फैशन और संगीत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय किया है। राज कपूर की फिल्में जिनका एक समय सोवियत रूस में गहरी छाप छोड़ी थी से लेकर दंगल, बाहुबली और आरआरआर जैसी फिल्मों ने कई देशों में कमाल बॉक्सऑफिस कर देश की सॉफ्ट पावर बढ़ाने में योगदान दिया है। नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम जैसे स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स के आने से भारतीय फिल्मों और सीरीज की उपलब्धता दुनियाभर में कई भाषाओं में बढ़ गई हैं।  जहाँ एक समय हॉलीवुड फिल्मों में भारतीयों को नकारात्मक, मजाकिया या रूढ़ीवादी तौर पर छोटे किरदार दिये जाते थे। वहीं आज उन फिल्मों ने भारतीय लीड, मजबूत और गंभीर किरदारों के रूप में सामने आते हैं। सीटाटेल, क्वांटिको, लाइफ ऑफ पाई, मिस मार्वेल जैसी फिल्में इसकी उदाहरण हैं।

विज्ञान और तकनीकी  के क्षेत्र में भी भारत अपना परचम लहरा रहा है। गिटहब की एक रिपोर्ट के मुताबिक जेनरेटिव एआई डेवलपर्स की संख्या के मामले में भारत दुनिया में दूसरे स्थान पर है। वहीं 2028 तक भारत अमेरिका को पीछे छोड़ पहला स्थान हासिल कर लेगा। दुनियाभर की कई बड़ी टेक कंपनियों में भारतीयों ने गहरी छाप छोड़ी है। हुरुन ग्लोबल इंडियन लिस्ट के मुताबिक 1 ट्रिलियन डॉलर अधिक राजस्व वाली 35 कंपनियों में भारतीय मूल के सीईओ काबिज हैं। स्पेस टेक के क्षेत्र में भी इसरो के चंद्रयान और मंगलयान मिशन, कमर्शियल उपग्रह प्रक्षेपण सेवाओं से भारत अंतरिक्ष महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। कोविड महामारी के दौरान भारत ने वैश्विक समुदाय की सहायता के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाये, चिकित्सा आपूर्ति,वेंटिलेटर, पीपीई किट और वैक्सीन डिपलॉमेसी से जरिये भारत को अपने मूल्यों के लिए विश्व भर से सराहना मिली। डिजिटल इंफ्रा जैसे यूपीआई जैसे प्लेटफॉर्म्स को नेपाल, भूटान और यूएई जैसे देशों में लॉन्च किया गया है, और धीरे धीरे इसका अन्य देशों में भी विस्तार किया जा रहा है। वहीं जलवायु परिवर्तन औऱ सतत विकास वैश्विक एजेंडे को लेकर भारत ग्रीन टेक्नोलॉजी  के क्षेत्र में अगुआई करते हुए 2030 तक 500 गीगावॉट नवीनीकरण ऊर्जा उत्पादन का महत्वकांक्षी लक्ष्य रखा है। इस दिशा में भारत ने फ्रांस के साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की नींव रखी, जिसमें 120 से अधिक देश शामिल होकर सौर ऊर्जा के वैश्विक विस्तार को गति दे रहे हैं। विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 2024 तक भारत के बाहर 3.54 करोड़ अनिवासी भारतीय यानी एनआरआई और भारतीय मूल के लोग यानी पीआईओ रह रहे हैं। जो वैश्विक स्तर पर भारतीय संस्कृति, व्यंजन, भाषा और परंपराओं को फैला रहे हैं। भारतीय समुदाय ने न केवल खुद को व्यावसायिक रूप से स्थापित किया है बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रो में भी प्रभावी भूमिका निभाई है।हालांकि भारत के एक सॉफ्ट पावर बनने की राह आसान नहीं है, इसमें ढेरों चुनौतियाँ भी हैं। भारत ने अपनी सॉफ्ट पावर कूटनीति में योग,आयुर्वेद, बौद्ध धर्म, क्रिकेट, प्रवासी, फिल्में, भोजन और गाँधीवादी आदर्श आदि को शामिल किया है, मगर यह काफी नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में भारत, अमेरिका, यूरोप और अन्य कई देशों की तुलना में काफी पीछे हैं। भारत जिसके पास नालंदा, तक्षशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों की विरासत रही है, आज उच्च शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के जूझ रहा है। 

क्यूएस वर्ल्ड रैंकिंग के मुताबिक टॉप 200 विश्वविद्यालयों की लिस्ट में भारत के मात्र तीन कॉलेज आते हैं। वहीं ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2024 में भारत 39वें स्थान पर रहा है। 140 करोड़ की जनसंख्या वाला भारत प्रति व्यक्ति आय के मामले में 141 वें, हैप्पीनेस इंडेक्स में 135वें और ग्लोबल हंगर इडेक्स में 101वें स्थान पर है, जो कि काफी चिंताजनक है। बीते दो दशक में भारत की स्थिति में सुधार तो हुआ है , मगर आंतरिक समस्याएं जैसे प्रदूषण, गरीबी, बेरोजगारी आदि से देश की छवि को नुकसान पहुँचता है। भारत को सॉफ्ट पावर बनने के लिए सांस्कृतिक कूटनीति को प्रोत्साहित करना होगा। जिसके लिए भारतीय संस्कृति, कला, संगीत, दर्शन आदि को विश्व में लोकप्रिय बनाना, स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाना, साथ ही सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से भारत की सकारात्मक छवि को प्रस्तुत करना। हाल ही में प्रसार भारती का वर्ल्ड ऑडियो विजुअल और एंटरटेनमेंट समिट वेव्स और ओटीटी प्लेटफॉर्म भारत की सांस्कृतिक और मीडिया सॉफ्ट पावर को आगे बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।भले ही भारत की सॉफ्ट पावर बनने की यात्रा में कई प्रकार की चुनौतियाँ हैं, लेकिन भारतीय नैरेटिव को मजबूती से प्रस्तुत करना इस दिशा में एक निर्णायक कदम हो सकता है। सॉफ्ट पावर केवल संस्कृति के आदान प्रदान का मामला नहीं है, यह एक लंबी और सतत प्रक्रिया है जिसमें जिसमें लोकतंत्र, मानवाधिकार और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रचार-प्रसार अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि सॉफ्ट पावर तभी काम करती है जब वह प्रामाणिक और सच्ची हो। अगर भारत इसे सही दिशा में आगे बढ़ाता है तो आने वाले वर्षों में यह न केवल एक सॉफ्ट पावर के रूप में बल्कि एक विश्व गुरु के रूप में भी उभर कर सामने आ सकता है।

दैनिक जागरण में 08/07/2025 को प्रकाशित 

Friday, June 27, 2025

डिजीटल कला की सुरक्षा की नयी तकनीक

 

समय के साथ कला के स्वरूप और माध्यम बदल रहे हैं कला हमेशा से इंसानी सभ्यता की पहचान रही है। कभी गुफाओं की दीवारों पर उकेरी गई चित्रकारीतो कभी कैनवास पर बनाई गई कोई जीवंत पेंटिंग । मगर इस डिजिटल दौर में कला की मौलिकता और स्वामित्व एक बड़ी चुनौती बन गई है। इंटरनेट पर किसी भी तस्वीरसंगीत या वीडियो को पलभर में कॉपी किया जा सकता हैजिससे कलाकार को उसका हक नहीं मिल पाता है। इस समस्या के हल के लिए एनएफटी यानी नॉन फंजिबल टोकन एक नए समाधान के रूप में उभरा है। जिसने कलासंगीतगेमिंग सहित कई क्षेत्रों में एक नई क्रांति ला दी है। एनएफटी एक तरह का डिजिटल सर्टिफिकेट हैजो यह साबित करता है कि किसी डिजिटल संपत्ति का असली मालिक कौन है। यह डिजिटल संपत्ति डिजिटल आर्टफोटोवीडियोजीआईएफसंगीत और यहाँ तक की किसी सोशल मीडिया पोस्ट किसी भी रूप में हो सकती है। 
 एनएफटी ब्लॉकचेन तकनीक पर आधारिक टोकन हैजिसमें डिजिटल कला को पहले एक टोकन के रूप में परिवर्तित किया जाता है और बाद में क्रिप्टोकरेंसी का उपयोग करके उस टोकन को खरीदा या बेचा जाता है। यह टोकन इस बात को सुनिश्चित करता है कि किसी कला का असली रचनाकार या मालिक कौन है। इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है जैसे पहले किसी दुर्लभ या नायाब पेंटिंग या वस्तु  को नीलामी के जरिये खरीदा-बेचा जाता था और खरीददार को उसके साथ एक स्वामित्व का प्रमाणपत्र भी दिया जाता थाठीक उसी प्रकार एनएफटी में अगर डिजिटल पेंटिंग को खरीदा जाता है तो उसे उसका एक यूनिक स्वामित्व प्रमाण मिलता है जिससे उस वर्चुअल प्रॉपर्टी के असली रचनाकार और मालिक को ट्रेस किया जाता जा सकता है। यह कई कंप्यूटरों के नेटवर्क में फैला होता हैजिससे इसे हैक या बदला नहीं जा सकता। जब कोई कलाकार अपनी डिजिटल कला को एनएफटी में बदलता हैतो ब्लॉकचेन पर उसका स्थायी रिकॉर्ड बन जाता है। जो उसकी मौलिकता और स्वामित्व की गारंटी देता है। हर बार जब वह एनएफटी बेचा जाता हैतो इसका पूरा विवरण ब्लॉकचेन में दर्ज होता हैजिससे कोई भी इसकी प्रमाणिकता को सत्यापित कर सकता है।
 रिसर्च एंड मार्केट्स संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2024 तक एनएफटी का कुल  वैश्विक बाजार 35 बिलियन डॉलर था और 2032 तक यह बाजार 264 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। हालांकि भारत में एनएफटी बाजार अभी शुरुआती चरण में है। स्टैस्टिका की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2025 के अंत तक भारत में एनएफटी बाजार करीब 77 मिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। जो कि वैश्विक बाजार के मुकाबले काफी कम है। हालांकि भारत में डिजिटल कला का बाजार तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन एनएफटी पर कानूनी और नियामक ढांचे की अस्पष्टताक्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध और टैक्स संबंधी अनिश्चितताओं के कारण भारत में एनएफटी का विकास कुछ हद तक सीमित रहा है। भारत में बॉलीवुड सेलिब्रेटी भी एनएफटी पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैंबॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन ने साल 2021 में अपने पिता की काव्य रचना मधुशाला के ऑडियो संस्करण के संग्रह को करीब 7 करोड़ में नीलाम किया था। इसके अलावा कलाकार इशिता बनर्जी ने भगवान विष्णु पर बनी अपनी डिजिटल कलाकृति को करीब ढाई लाख में बेचा था। एनएफटी का एक फायदा और है जब कोई कलाकर अपनी एनएफटी बेचता हैतो हर बार जब वह एनएफटी रीसेल होती हैतब मूल कलाकार को एक निश्चित रॉयल्टी भी प्राप्त होती है।
 कुल मिलाकर एनएफटी भविष्य में कलामीडिया और डिजिटल अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह कलाकारों को उनकी रचनाओं के लिए एक बाजार देने के साथ-साथ उसकी मौलिकता और स्वामित्व की सुरक्षा भी सुनिश्चित करता है। हालांकि इसके लिए ब्लॉकचेन की स्थिरताकानूनी स्पष्टता और व्यापक स्वीकार्यता बेहद आवश्यक होगी। अगर इन चुनौतियों का समाधान किया जाता है तो एनएफटी डिजिटल क्रियेटिविटी के परिदृश्य को नया आकार देकरकलाकारों और निवेशकों के लिए असीम संभावनाओं के द्वार को खेल सकता है ।
प्रभात खबर में 27/06/2025 को प्रकाशित 

Friday, June 6, 2025

डिजीटल उपनिवेशवाद का खतरा

 
स्मार्टफोन से लेकर सोशल मीडिया तक देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताना-बाना तेजी से डिजिटल हो रहा है। इसमे कोई दो राय नहीं है कि डिजिटलीकरण हमारे लिए सुविधासंपर्क और समृद्धि के नए रास्ते खोल रहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या हम सचमुच इस डिजिटल क्रांति के सूत्रधार हैंया फिर बस किसी और के बनाए डिजिटल तंत्र के उपभोक्ता बनकर रह गए हैंएक समय था जब औपनिवेशिक ताकतों ने दुनिया पर कब्जा जमाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया थाफिर बारी आई सॉफ्ट पावर यानी संस्कृतिभाषामीडिया और कूटनीति के जरिये अपना प्रभाव बनाने की। अब यह दौर डिजिटल उपनिवेशवाद का हैजहाँ किसी देश की शक्ति केवल सैन्य बल या सांस्कृतिक प्रभाव से नहीं बल्कि डेटा पर नियंत्रण से तय होती है। स्टैस्टिका के मुताबिक भारत में 90 करोड़ से अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं और यह संख्या हर दिन बढ़ रही है। 
दुनिया की शीर्ष 10 टेक प्लेटफॉर्म्स गूगलफेसबुकइंस्टाग्रामअमेजनएक्स आदि पर भारतीय उपभोक्ताओं की भारी संख्या है। लेकिन इनमें से एक भी कंपनी भारतीय नहीं हैं। हमारे लोगों का डेटा भारत में नहीं बल्कि विदेशी कंपनियों के नियंत्रण में है। यह एक तरह के डिजिटल उपनिवेशवाद को जन्म दे रहा है। जहाँ सूचना और डेटा पर नियंत्रण कुछ गिनी चुनी वैश्विक कंपनियों के हाथों में केंद्रित हो रही है। इन कंपनियों का नियंत्रण मुख्य रूप से अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों के हाथों में है। जिससे भारत का डिजिटल भविष्य बाहरी शक्तियों की नीतियों और व्यावसायिक हितों पर निर्भर होता जा रहा है। सोशल मीडिया के इस्तेमाल के मामले में 47 करोड़ यूजर्स के साथ भारत , चीन के बाद विश्व में दूसरा स्थान रखता है। देश में फेसबुकइंस्टाग्रामव्हाट्सअपएक्स और यूट्यूब जैसे वैश्विक प्लेटफॉर्म्स सबसे अधिक प्रचलित हैं। मगर  ये कंपनियाँ न केवल हमारे डेटा का आर्थिक शोषण कर रही ही हैंबल्कि भारत की चुनाव प्रणालीन्यायिक फैसलों और समाज में वैचारिक ध्रुवीकरण को भी प्रभावित कर रही हैं। हैरानी की बात यह है कि 140 करोड़ लोगों के इस देश में कोई भी ऐसा देशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं हैजो इन विदेशी को एप्स के सामने खड़ा हो सके।
पिछले कुछ सालों में इन विदेशी प्लेटफॉर्म्स ने देश के सामने कई तरह की चुनौतियाँ पेश की हैं। जिनमें डेटा सुरक्षाफेक न्यूज और पक्षपातपूर्ण प्रचार जैसे मुद्दे शामिल हैं। भारत जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैयहाँ की चुनावी प्रक्रिया में भी इन कंपनियों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा है। संस्था ईको की रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल सम्पन्न हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मेटा प्लेटफॉर्म्स पर चुनावी पेड प्रचार और शेडो विज्ञापनों के जरिये राजनीतिक पार्टियों को लाभ पहुँचाने के आरोप लगे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक इन प्लेटफॉर्म्स ने ऐसे कई विज्ञापनों को प्रमोट किया जो चुनावी नियमों का उल्लंघन और भ्रामक जानकारी दे रहे थे।  ऐसा ही मामला साल 2018 में आए कैम्ब्रिज एनालिटिका स्कैंडल ने भी यह उजागर किया था कि कैसे ये विदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स भारतीय मतदाताओं के डेटा का दुरुपयोग कर सकते हैं। वहीं फेक न्यूज के मामले में साल 2023 में यूनेस्को इपसोस द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक , देश में शहरी क्षेत्रों के 64 प्रतिशत लोगों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को गलत सूचनाओं और फेक न्यूज का प्राथमिक स्रोत मानाइन फेक न्यूज के प्रसार में खासकर फेसबुकव्हाट्सअप और एक्स इनमें प्रमुख भूमिका निभाते नजर आये। फेसबुक की इंटरनल रिपोर्ट कम्यूनल कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंडिया के मुताबिक, 2020 में हुए दिल्ली दंगों में फेसबुक और व्हाट्सएप पर 22 हजार से अधिक ऐसे पोस्ट्स और ग्रुप्स पाये गयेजिनमें सांप्रदायिक नफरत फैलाई जा रही थी। इसी तरह के मामला 2021 में ट्विटर पर भी सामने आया जब भारत सरकार ने हिंसा फैलने की आशंका में किसान आंदोलन से जुड़े कुछ अकाउंट्स और ट्ववीट्स को हटाने के निर्देश दिये थे। लेकिन तब ट्विटर ने पूरी तरह से इसके अनुपालन से इंकार कर दिया था।
मुश्किल बात यह है कि यह विदेशी कंपनियाँ भारत में काम करने के बावजूद पूरी तरह से भारतीय कानून के अधीन नहीं है और अक्सर अपनी वैश्विक नीतियों का हवाला देकर बच निकलती हैं। और बात सिर्फ यह नहीं है कि ये विदेशी कंपनियां भारत में प्रभाव बना रही हैंबल्कि आर्थिक दृष्टि से भी यह देश को बड़ा नुकसान पहुँचा रही हैं। उदाहरण के लिएमेटा और एक्स जैसे प्लेटफार्म भारत में विज्ञापन से अरबों डॉलर कमाई करते हैंलेकिन उनका एक बड़ा हिस्सा विदेशी देशों में चला जाता है। मेटा की इंडिया यूनिट की हाल की जारी आर्थिक रिपोर्ट के मुताबिक भारत से मेटा जिसमें फेसबुकव्हाट्सअपइंस्टाग्राम शामिल हैंने इस साल भारत से 22 हजार करोड़ रुपये से अधिक के राजस्व की कमाई की है। लेकिन इसका कोई प्रत्यक्ष लाभ सीधे भारतीय अर्थव्यवस्था को नहीं मिलता है।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के अलावा एक बड़ी चुनौती इन कंपनियों के क्लाउड स्टोरेज और डेटा सेंटर्स को लेकर भी है। भारतीय सरकार और कंपनियाँ बड़े पैमाने पर गूगल ड्राइवअमेजन एडब्लूएसएजोर जैसे क्लाउड स्टोरेज पर निर्भर हैंयानी भारत का संवेदनशील डेटा अपने देश में न होकर विदेशो में संग्रहित होता है। जो देश की सुरक्षा और संप्रभुता पर एक बड़ा खतरा है। जुलाई 2024 में माइक्रोसॉफ्ट के क्लाउड स्टोरेज में गड़बड़ी होने से पूरे देश का आईटी सिस्टम 12 घंटे के लिए ठप पड़ गया। अचानक आई एक तकनीकी खामी के कारण देश में डिजिटल बैंकिंगरेलवेमेट्रोएयरपोर्ट्सऑनलाइन सेवाएं और कई अन्य महत्वपूर्ण प्रणालियां ठप पड़ गईं। जिससे ने केवल रोजमर्रा की जिंदगी घंटो प्रभावित रही बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी गहरा आघात पहुँचा। वहीं इस घटना से रूस और चीन पर कोई असर नहीं दिखाई दिया। दरअसल इन देशों ने 2002 के बाद अपनी स्वतंत्र तकनीकी संरचना विकसित कीजिसमें अपने क्लाउड सिस्टमऑपरेटिंग सिस्टम और सर्च इंजन शामिल हैं। चीन ने अपने डिजिटल प्रबंधन के लिए स्वेदेशी प्लेटफॉर्म्स जैसे वी-चैटवीबो और डोइन जैसे एप्स को विकसित किया है। वहीं रूस ने वीकेओड्नोकलास्निकी  जैसे प्लेटफॉर्म्स विकसित किये हैं। जो इन देशों को सूचना प्रवाह पर निगरानी रखने और अमेरिकी प्लेटफॉर्म्स पर निर्भर होने से बचाते हैं।  अब जरूरी यह है कि भारत को भी चीन और रूस की तरह अपना स्वेदशी सोशल मीडिया और डिजिटल ईकोसिस्टम बनाने की ओर कदम उठाना चाहिए।  हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत में पहले कभी स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बनाने की कोशिश नहीं हुईशेयरचैट और कू जैसे प्लेटफॉर्म्स ने एक समय भारतीय बाजार में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की थी मगर लोगों और सरकार के अपेक्षाकृत कम समर्थन के कारण इनका वैश्विक दिग्गजों से मुकाबला करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया।
तकनीकी नवाचारों के मामले में भारत की स्थिति में पिछले कुछ सालों में काफी सुधार आया है। हाल ही में आई ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2024 रैकिंग में 133 देशों में भारत ने 39वां स्थान हासिल किया है,जो देश की बढ़ती तकनीकी और डिजिटल क्षमता का प्रमाण हैहालांकि इसमें अभी भी काफी सुधार की आवश्यकता है। आज भारत में तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में कई बड़े कदम उठाये जा रहे हैं। आधारयूपीआई और कोविन जैसे स्वदेशी प्लेटफॉर्म्स ने यह साबित कर दिखाया है कि हम तकनीकी चुनौतियों को कैसे संभाल सकते हैं। अगर भारत अपना तकनीकी इकोसिस्टम विकसित करता है तो यह देश पर थोपे जा रहे डिजिटल उपनिवेशवाद का मुकाबला करने के लिए कड़ा कदम होगा। क्योंकि डिजिटल उपनिवेशवाद केवल एक तकनीकी मुद्दा नहीं बल्कि एक सामाजिकआर्थिक और राजनीतिक चुनौती भी है। हमें अपनी डिजिटल संप्रभुता बनाए रखने के लिए डेटा की सुरक्षास्थानीय नवाचार का समर्थ और विदेशी तकनीकी कंपनियों की जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी। अब अगर हमने तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम नहीं उठाए तो एक नया डिजिटल उपनिवेशवाद देश पर हावी हो सकता है।
दैनिक जागरण में 06/06/2025 को प्रकाशित 

Wednesday, June 4, 2025

क्या एआई ने मेटावर्स की चमक फीकी की है

 

जरा सोचिए आप अपने घर में सोफे पर बैठे हैं, और उसी वक्त वक्त न्यूयॉर्क में एक मीटिंग में हिस्सा ले रहे हैं, टोक्यो में किसी आर्ट गैलरी में घूम रहें हैं और फिर दिल्ली में दोस्तों के साथ गपशप कर रहे हैं। यह न तो कोई सपना है और न ही कोई साइंस फिक्शन फिल्म का दृश्य बल्कि हकीकत में संभव हो रहा है। ये मेटावर्स है जहाँ तकनीक के जरिए आप एक वर्चुअल दुनिया में दाखिल होते हैं। दरअसल मेटावर्स एक आभासी डिजिटल दुनिया का कॉन्सेप्ट है, जिसमें आप वर्चुअल अवतार बनकर घूम सकते हैं, लोगों से मिल सकते हैं। यह इंटरनेट का अगला संस्करण है।  जहाँ लोग केवल स्क्रीन पर वेबसाइट नहीं देखते बल्कि खुद एक आभासी दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं।

मेटावर्स की अवधारणा सबसे पहले साइंस फिक्शन लेखक नील स्टीफेंसन ने 1992 में अपनी किताब स्नो क्रैश में की थी। इस किताब में उन्होंने एक ऐसी काल्पनिक दुनिया का खाका खींचा था, जहां लोग अपने घरों की चारदीवारी में रहकर एक वर्चुअल रियलिटी में अपना जीवन जीते हैं। यह अवधारणा उस समय के मुताबिक भले ही काल्पनिक और दूर की बात लग सकती है, लेकिन तेजी से हो रही तकनीकी प्रगति ने इस कल्पना को सच कर दिखाया है। आज वर्चुअल रियलिटी और ऑगमेंटेड रियलिटी जैसी तकनीक के जरिये मेटावर्स हकीकत हो चला है। आप इसे ऐसे भी समझ सकते हैं जैसे आप किसी गेम की वर्चुअल दुनिया में हो, लेकिन मेटावर्स  किसी गेम से कहीं ज्यादा है। यह एक तरह का डिजिटल स्पेस है, जहाँ आप अपनी वर्चुअल पहचान बना सकते हैं, काम कर सकते हैं, मिल सकते हैं, शॉपिंग कर सकते हैं, और भी बहुत कुछ कर सकते हैं।
ग्रैंड व्यू रिसर्च के मुताबिक साल 2024 तक वैश्विक मेटावर्स मार्केट करीब 105 अरब डॉलर था वहीं साल 2030 तक यह बाजार 1.1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। आज कंपनियाँ गेमिंग, शिक्षा, स्वास्थ्य, शॉपिंग और मार्केटप्लेस से जु़ड़े मेटवर्स के क्षेत्र में बड़ा निवेश कर रही हैं। फेसबुक जो अब मेटा के नाम से जाना जाता है , ने मेटावर्स में अपनी प्रमुख भूमिका निभाई है। अक्तूबर 2021 में मार्क जकरबर्ग ने मेटावर्स से प्रेरित होकर फेसबुक का नाम मेटा कर दिया। और अपनी मेटावर्स यूनिट में करीब 10 बिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया। शुरुआत में सेकंड लाइफ जैसे प्लेटफार्मों को मेटावर्स के पहले उदाहरण के रूप में देखा गया, जहां खिलाड़ी एक वर्चुअल पहचान के साथ संवाद कर सकते थे।
रिपोर्ट्स के मुताबिक गेमिंग एप्लिकेशन मेटावर्स बाजार का सबसे बड़ा हिस्सा है। रोब्लोक्स, एपिक गेम जैसी कंपनियों ने इस क्षेत्र में भारी निवेश किया है। हाल में ही लाइफस्टाइल ब्रांड नाइके ने रोब्लोक्स पर नाइकलैंड नाम से एक वर्चुअल स्थान बनाया था  जिसके कुछ ही महीनों में 6 मिलियन से अधिक उपयोगकर्ता हो गए। वहीं डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में भी मेटावर्स को तेजी से अपनाया जा रहा है। साल 2024 में मेटा ने विक्ट्रीएक्सआर के साथ मिलकर यूरोप के विश्वविद्यालयों के डिजिटल ट्विन वर्चुअल कैंपस तैयार किये हैं। डिजिटल ट्विन कैंपस के जरिये छात्र यूनिवर्सिटीज के भौतिक परिसर का आभासी अनुकरण करते हुए रिमोट क्लास ले सकते हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र में भी मेटावर्स की भूमिका बढ़ रही है, कंपनियाँ वीआर तकनीक पर आधारित टेलीहेल्थ सेवाएं दे रही हैं। जहाँ मरीज का वर्चुअल वातावरण में इलाज किया जा रहा है। कई बड़े ब्रांड्स जैसे गुची, वालमार्ट कोका-कोला ने मेटावर्स में वर्चुअल शोरुम बनाए हैं। वालमॉर्ट और जीकिट ग्राहकों को कपड़ों के वर्चुअल ट्रॉयल की सुविधा दे रही हैं। कंसल्टिंग फर्म मैकिन्जी के मुताबिक मेटावर्स आधारित ई-कॉमर्स अवसर साल 2030 तक 2.5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। वहीं मेटावर्स पर लोग एनएफटी के जरिये लोग डिजिटल संपत्तियों में भी निवेश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए एक्सेंचर ने अपने नए कर्मचारियों की ऑनबोर्डिंग के लिए एक वर्चुअल ऑफिस एनथ फ्लोर बनाया है।
भारत जो डिजिटल क्रांति के दौर से गुजर रहा है, मेटावर्स की इस जादुई दुनिया में तेजी से कदम रख रहा है। संस्था मार्केट रिसर्च फ्यूचर के मुताबिक 2025 में भारत का मेटावर्स बाजार करीब 9 बिलियन डॉलर का है जो 2034 तक बढ़कर 167 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी मंत्रालय ने एआई, वीआर तकनीकों के स्टार्टअप संवर्धन के लिए एक्स आर स्टार्टअप प्रोग्राम की शुरुआत की है। जिसमें अमेरिकी कंपनी मेटा भी सहभागिता दे रहा है। इसके साथ ही मंत्रालय ने आईआईटी भुवनेश्वर में वीआई और एआर सेंटर ऑफ एक्सीलेंस स्थापित किया है। जिससे इस क्षेत्र में नवाचार और शोध को गति मिल रही है। हाल ही में टीवी प्रोग्राम शार्क टैंक पर आए एक मेटावर्स स्टार्टअप एप लोका ने भी देश के लोगों में मेटावर्स के प्रति जागरूकता फैलाई है। इसके अलावा मेटावर्स का क्रेज आम लोगों में भी काफी लोकप्रिय हो रहा है। अफैक्स डॉट कॉम की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल युग मेटावर्स नामक एक प्लेटफॉर्म पर एक कपल ने शादी भी की थी, जिसने काफी सुर्खियाँ बटोरी थी। वहीं अगले कुछ सालों में बड़े मंदिरों और ऐतिहासिक जगहों के भी वर्चुअल मेटावर्स बनाने पर काम किया जा रहै है।  वहीं शिक्षा के क्षेत्र में आईआईटी गुवाहाटी द्वारा वीआर प्लेटफॉर्म ज्ञानधारा को केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से पीएम श्री स्कूलों में लागू किया जा रहा है। हालांकि भारत में डिजिटल अवसंरचना और इंटरनेट पहुंच की सीमाएं मेटावर्स के विकास में कुछ रुकावटें पैदा कर रही दरअसल भारत में 60 प्रतिशत से अधिक उपयोगकर्ता शहरी क्षेत्रों से हैं। जबकि ग्रामीण भारत में वीआर, एआर तकनीक और हाई स्पीड इंटरनेट की पहुँच सीमित है। ट्राई ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि ग्रामीण एवं दूरदराज क्षेत्रों में पर्याप्त बैंडविड्थ के बिना मेटावर्स तक पहुँच मुमकिन नहीं होगी। फिलहाल भारत में अधिकांश इंटरनेट कनेक्शन कम गति या उच्च लैटेन्सी वाले हैं, जो रियल टाइम वीआर, एआर अनुभव के लिए पर्याप्त नहीं है। वहीं एआर, वीआर हेडसेट, इमर्सिव डिस्प्ले और अन्य हार्डवेयर काफी महंगे हैं। भारत में अभी मेटावर्स तकनीक अपने शुरुआती दिनों में है।
हालांकि मेटावर्स में डेटा की गोपनीयता और डिजिटल लत जैसे मुद्दे भी उभर रहे हैं। विशेषज्ञों ने मेटावर्स में सुरक्षा, नैतिकता और स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताएं व्यक्त की हैं। हाल ही में ब्रिटेन में एक 16 वर्षीय लड़की के साथ वर्चुअल वातावरण में उत्पीड़न का मामला सामने आया, जिसने मेटावर्स में सुरक्षा और निगरानी के गंभीर सवाल खड़े किए हैं। इसके साथ ही मेटावर्स में लंबे समय तक रहने से डिजिटल एडिक्शन का भी खतरा बढ़ा है। लंबे समय तक वीआर हैडसेट पहने रहने से लोगों को सिम्युलेटर सिकनेस या साइबर सिकनेस भी हो सकती है। यह एक प्रकार का मोशन सिकनेस है जिसमें जिसमें उपयोगकर्ताओं को VR अनुभवों के दौरान चक्कर आना, मतली, सिरदर्द, और थकान जैसी समस्याएँ होती हैं।
मेटावर्स के लिए खरबों डॉलर का निवेश किया जा रहा है, लेकिन यह अभी भी अस्थिर है और इसमें कई जोखिम हैं। कोविड महामारी के समय जब सभी लोग अपने घरों में कैद थे, तब दुनिया की सभी दिग्गज कंपनियाँ मेटावर्स में भारी निवेश को लेकर उत्साहित थीं। लेकिन आंकड़े दर्शाते हैं कि कुछ कंपनियों ने अपने निवेश का अवलोकन करना शुरु कर दिया है। मार्क जकरबर्ग की मेटा की रियलिटी लैब्स ने 2020 से अबतक करीब 60 बिलियन से अधिक का नुकसान उठाया है। 2025 की पहली तिमाही में कंपनी ने करीब 4 बिलियन डॉलर का घाटा दर्ज किया है।  एआई और मशीन लर्निंग, जो पहले से ही मेटावर्स के मुकाबले ज्यादा प्रभावी साबित हो रहे हैं जिसके कारण कंपनियों ने इस मेटावर्स के मुकाबले एआई पर अपना निवेश बढ़ा दिया है। इन तमाम संभावनाओं और चुनौतियों के बावजूद मेटावर्स अभी भी एक उभरती हुई अवधारणा है। भले ही मेटावर्स अपनी शुरुआती चरण में है, पर यह शिक्षा, स्वास्थ्य, वर्कप्लेस और सामाजिक जुड़ाव को पूरी तरह से पुनर्परिभाषित कर सकता है।
अमर उजाला में 06/04/2025 को प्रकाशित 

पसंद आया हो तो