Friday, June 6, 2025
डिजीटल उपनिवेशवाद का खतरा
Wednesday, June 4, 2025
क्या एआई ने मेटावर्स की चमक फीकी की है
Friday, May 23, 2025
आर्थिकी में एआई का योगदान
Wednesday, May 21, 2025
सॉफ्ट पावर भी कमाल की चीज है
अमेरिका ने हॉलीवुड, मैकडॉनल्ड्स और पॉप म्यूजिक के जरिए अपनी सॉफ्ट पावर का विस्तार किया। दक्षिण कोरिया, जापान और चीन ने के-पॉप, एनीमे और तकनीक से वैश्विक प्रभाव बनाया। भारत भी इस दिशा में तेजी से बढ़ रहा है। जी20, एससीओ और ब्रिक्स जैसे मंचों पर भारत की भूमिका उसकी बढ़ती साख को दर्शाती है। बॉलीवुड, योग, आयुर्वेद और भारतीय व्यंजनों ने वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता हासिल की है। ब्रांड फाइनेंस की ग्लोबल सॉफ्ट पावर इंडेक्स 2024 के अनुसार, भारत ने सॉफ्ट पावर में 29वां स्थान हासिल किया, जिसमें कला और मनोरंजन में 7वां, सांस्कृतिक विरासत में 19वां और भोजन में 8वां स्थान शामिल है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस, जिसे 192 से अधिक देशों में मनाया जाता है, भारत की सॉफ्ट पावर का प्रतीक है।
भारतीय सिनेमा ने भी सॉफ्ट पावर को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। राज कपूर की फिल्मों से लेकर दंगल, बाहुबली और आरआरआर तक ने वैश्विक बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाई। नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम जैसे प्लेटफॉर्म्स ने भारतीय फिल्मों और सीरीज को विश्व स्तर पर पहुंचाया। हॉलीवुड में अब भारतीय किरदारों को मजबूत और गंभीर भूमिकाओं में दिखाया जाता है, जैसे सीटाटेल और मिस मार्वेल।
विज्ञान और तकनीक में भी भारत अग्रणी है। गिटहब की रिपोर्ट के अनुसार, जेनरेटिव एआई डेवलपर्स की संख्या में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है और 2028 तक अमेरिका को पीछे छोड़ सकता है। इसरो के चंद्रयान और मंगलयान मिशनों ने भारत को अंतरिक्ष महाशक्ति के रूप में स्थापित किया। कोविड महामारी के दौरान भारत की वैक्सीन डिप्लोमेसी और यूपीआई जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने वैश्विक प्रशंसा अर्जित की। जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में, भारत ने अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की स्थापना की, जिसमें 120 से अधिक देश शामिल हैं।
हालांकि, चुनौतियां भी कम नहीं हैं। शिक्षा में भारत, अमेरिका और यूरोप से पीछे है। क्यूएस वर्ल्ड रैंकिंग में टॉप 200 विश्वविद्यालयों में भारत के केवल तीन संस्थान हैं। ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2024 में भारत 39वें स्थान पर है। प्रति व्यक्ति आय, हैप्पीनेस इंडेक्स और ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति चिंताजनक है। गरीबी, प्रदूषण और बेरोजगारी जैसे मुद्दे देश की छवि को प्रभावित करते हैं।
भारत को सॉफ्ट पावर के रूप में स्थापित करने के लिए सांस्कृतिक कूटनीति, शिक्षा, स्वास्थ्य और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर ध्यान देना होगा। प्रसार भारती का वेव्स समिट और ओटीटी प्लेटफॉर्म इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। सॉफ्ट पावर केवल संस्कृति का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि लोकतंत्र, मानवाधिकार और प्रामाणिक मूल्यों का प्रसार है। यदि भारत इस दिशा में सही कदम उठाए |
प्रभात खबर में 21/05/2025 को प्रकाशित
Tuesday, May 20, 2025
इन्फ्ल्युंसर भी तो निष्पक्ष हों
Friday, April 18, 2025
एआई फोटो टूल्स से जुड़ी चिंता
डब्लूएचओ के मुताबिक भारत की 65 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है, यह युवा आबादी तकनीक और ट्रैंड्स के प्रति ज्यादा संवेदनशील है। एरिक एरिक्सन की आइडेंटिटी वर्सेज रोल कन्फ्यूजन थ्योरी के मुताबिक युवावस्था में लोग अपनी पहचान को परिभाषित करने के लिए नए-नए तरीके आजमाते हैं। फोटो संपादन भी इसी प्रक्रिया का एक डिजिटल रूप हो सकता है। क्योंकि सोशल मीडिया पर लाइक्स और कमेंट्स के रूप में मिलने वाली त्वरित प्रक्रियाएं स्वीकृति और पहचान की तलाश को और मजबूत करती हैं। समाजशास्त्री शैरी टर्कल अपनी किताब अलोन टूगेदर में बताती हैं कि लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अपनी तस्वीरों को एडिट करके और ट्रेंडिंग कंटेंट पोस्ट करके दूसरों की स्वीकृति पाने का प्रयास करते हैं। वहीं इस ट्रैंड की लोकप्रियता के पीछे एस्केपिसिज्म यानी यथार्थ से पलायन की प्रवृत्ति भी एक कारण हो सकता है। डिजिटल युग में लोग रोजमर्रा की परेशानियों, तनाव और सामाजिक दबाव से बचने के लिए काल्पनिक दुनिया की शरण लेने लगते हैं। जाने-माने मनोवैज्ञानिक और मीडिया थ्योरिस्ट जॉन फिस्के के मुताबिक लोग अपनी वास्तविकता से असंतुष्ट होने पर फिक्शन, फैंटेसी और एनीमेशन जैसी चीजों को देखते हैं। ठीक इसी तरह, सोशल मीडिया पर घिब्ली आर्ट फिल्टर का क्रेज भी एक डिजिटल एस्केपिज़्म का रूप है। ट्रैंड्स के फैलने का एक बड़ा कारण फोमो है , यानी फियर ऑफ मिसिंग आउट। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर जब कोई नया ट्रेंड वायरल होता है तो लोग इसे अपनाने के लिए एक अनकही प्रतिस्पर्धा महसूस करते हैं। टेक्नोलॉजिकल फोरकास्टिंग फॉर सोशल चेंज के एक शोध के मुताबिक फोमो एक मजबूत मनोवैज्ञानिक ट्रिगर की तरह है, जो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लोगों के व्यवहार को प्रभावित करता है।
घिब्ली आर्ट ट्रेंड जैसे एआई-आधारित फोटो एडिटिंग टूल्स ने हमारे सामने डेटा प्राइवेसी और साइबर सुरक्षा जैसी भी कई समस्याएं खड़ी कर दी हैं। कई बार हम इन एप्स और प्लेटफॉर्म्स पर अपनी तस्वीरें बिना कुछ सोचे-समझे डाल देते हैं। हमें लगता है कि एआई से अपनी तस्वीरें जनरेट करना मजेदार काम है, मगर यह डेटा लीक, आइडेंटिटी चोरी और साइबर धोखाधड़ी जैसी समस्याओ को जन्म दे सकता है। कुछ साल पहले भारत में सुर्खियों में रहे फेसएप एप्लिकेशन पर डाटा चोरी के आरोप लगे थे, जिसके बाद इसे कई देशों में बैन तक कर दिया गया था। इसी तरह क्लीयरव्यू एआई नाम की एक कंपनी पर बिना इजाजत सोशल मीडिया साइट्स से 3 अरब तस्वीरें चुराने का आरोप लगा था, यह डाटा पुलिस और प्राइवेट कंपनियों को बेचा गया था। मेटा, गूगल जैसी कंपनियों पर लगातार आरोप लगते रहे हैं कि वे अपने यूजर्स की तस्वीरों का उपयोग अपने एआई मॉडल्स को ट्रेन करनेके लिए करती हैं ऐसे में हम अगर अपनी तस्वीरे खुद कई तरह की वेबाइट्स और एआई पर अपलोड करेंगे तो ये कंपनियाँ उसका और भी व्यापक इस्तेमाल कर सकती है। स्टेस्टिका की एक रिपोर्ट के अनुसार, फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी का बाजार करीब 5.73 बिलियन डॉलर का है वहीं 2031 तक ये बाजार 15 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। वहीं एआई के बढ़ते उपयोग ने डीपफेक ़ टेक्नोलॉजी को भी उन्नत कर दिया है। यानी शायद आप जो तस्वीरें सोशल मीडिया पर लोगों को दिखाने के लिए कर रहे हैं उनका इस्तेमाल किसी और मकसद से भी किया जा सकता है। कुछ साल पहले सोशल मीडिया पर कई ऐसी वेबसाइट्स और एप्स वायरल हुए जो दावा करते थे कि वे आपकी जुड़वा शक्ल वाले व्यक्ति को खोज सकते हैं। यूजर्स को अपनी तस्वीर अपलोड करनी होती थी, और AI के जरिए वे दुनिया भर में उनके जैसे दिखने वाले लोगों को ढूंढने का दावा करते थे। लेकिन, कुछ समय बाद ये साइट्स अचानक गायब हो गईं। आखिर इन कंपनियों का असली मकसद क्या था और ये कंपनियाँ यूजर्स का डेटा लेकर कहां चली गईं? आज हम पिमआईज जैसी वेबसाइट्स किसी भी व्यक्ति की फोटो मात्र अपलोड करके उस व्यक्ति का पूरा डिजिटल रिकॉर्ड निकाल सकतेहैं जिसका सीधा मतलब है कि स्टॉकिंग, ब्लैकमेलिंग और साइबर क्राइम के मामले बढ़ सकते हैं। अब जरूरत है कि सरकार और टेक कंपनियाँ डेटा सुरक्षा और फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी के गैर कानूनी इस्तेमाल पर सख्त कानून बनाये। और लोगों को भी बिना सोचे-समझे अपनी निजी तस्वीरें सोशल मीडिया और एआई-आधारित टूल्स पर अपलोड करने से पहले सतर्क रहने की जरूरत है। टेक्नोलॉजी के साथ-साथ हमें भी स्मार्ट होने की जरूरत है क्योंकि सवाल यह नहीं है कि एआई आपके लिए कितना फायदेमंद है बल्कि यह है कि आप इसे कितना समझदारी से इस्तेमाल कर रहे हैं।
दैनिक जागरण में 18/04/25 को प्रकाशित
Tuesday, April 15, 2025
मोबाईल पर अनगिनत स्क्रॉल का खेल
2024 तक 5.17 अरब यूजर्स सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर एक्टिव हैं। वहीं भारत में यह आंकड़ा 46 करोड़ पहुँच गया है। आईआईएम अहमदाबाद के एक शोध के मुताबिक भारत में रोजाना लोग 3 घंटे से अधिक समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं, जो वैश्विक औसत से कहीं अधिक है। वहीं आज की पीढ़ी जिसे जेन जी और जेन अल्फा कहा जाता है, अकसर अपने दिन का बड़ा हिस्सा सिर्फ रील्स देखते हुए गुजार देते हैं।
जैसे ही खाली समय देखा , और शुरू कर दी अनगिनत बेतुके वीडियोज की स्क्रॉलिंग। इस तरह की आदत का असर उनकी कार्य क्षमता, मानसिक शांति और फैसले लेने पर भी पड़ता है। भारत की बात करें तो शॉर्ट वीडियोज एप में इंस्टाग्राम सबसे ज्यादा उपयोग किया जाने वाला प्लेटफॉर्म हैं। वर्ल्ड पॉपुलेशन रिव्यू के रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 39 करोड़ इंस्टाग्राम यूजर्स हैं। इंस्टाग्राम रील्स जैसे कंटेंट की आदत युवाओं में ध्यान अवधि को कम कर रही है। मनोवैज्ञानिक और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर ग्लोरिया मार्क के अनुसार शॉर्ट फॉर्म कंटेंट देखने से लोगों की ध्यान अवधि 47 सेकेंड से भी कम हो गई।
अगर हम डाटा पर आधारित गणना करें तो रोजाना 2 घंटे रील देखने पर हम पूरे साल में एक महीने सिर्फ रील्स के सामने बैठकर बर्बाद कर देंगे, जो किसी और काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था।पर आखिर हम इस अनगिनत स्क्रॉलिंग के जाल में फंसते कैसे हैं? असल में हर नई और दिलचस्प रील देखने पर हमारे दिमाग डोपामीन रिलीज करता है। डोपामीन एक तरह का न्यूरोट्रांसमीटर है, जिसे खुशी और संतुष्टि का हॉर्मोन कहा जाता है। जब भी हम कोई मनोरंजक रील देखते हैं, तो हमारा दिमाग इसे एक छोटे इनाम की तरह लेता है और हमें अच्छा महसूस कराता है।
यह सिर्फ डोपामीन के खेल तक सीमित नहीं है, दरअसल यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की सोची-समझी रणनीति है कि हम इन रील्स के जाल में उलझे रहें और स्क्रीन से अपनी नजरें न हटाएं। इंटरफेस डिजाइनिंग से लेकर ऑटो-प्ले वीडियो, लाइक्स बटन, और पर्सनलाइज्ड एल्गोरिदम जैसे फीचर इसे और ताकतवर बनाते हैं।सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अनगिनत स्क्रॉलिंग का यह फीचर एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग बॉटमलेस सूप बाउल पर आधारित है। जिसमें बताया गया था कि यदि किसी इंसान को खुद-ब-खुद भरने वाले सूप बाउल दिये जाएं तो वे सामान्य बाउल की तुलना में 73 प्रतिशत अधिक सूप पी जाते हैं भले ही उन्हें भूख न हो। ठीक इसी तरह रील्स की फीड जो लगातार रीफिल होती है, जो हमारे दिमाग के डोपामीन रिवार्ड सिस्टम को चालाकी से प्रभावित करती है। और हम एक चक्र में फंसकर अंतहीन स्क्रॉलिंग करते रहते हैं। ऑनलाइन अर्थव्यवस्था में सारा खेल यूजर्स के क्लिक और समय बिताने के माध्यम से मापा जाता है। लैनियर लॉ फर्म की एक रिपोर्ट के मुताबिक जो किशोर रोजाना तीन से अधिक घंटे सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं उनमें अवसाद, चिंता और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम बढ़ जाता है। है। हमारा दिमाग जो कभी विचारों और कल्पनाओं का स्रोत हुआ करता था अब इन छोटे-छोटे डोपामीन रिवार्ड्स का गुलाम बनता जा रहा है। लेकिन हर चेतावनी के बाद एक अवसर जरूर आता है, जहाँ फिर से खुद को तलाशने का मौका मिलता है।
प्रभात खबर में 15/04/2025 को प्रकाशित