Saturday, February 15, 2025
गिग वर्कर्स भी हमारे समाज का हिस्सा हैं
Thursday, February 13, 2025
फर्जी समाचारों के लिए फैक्ट चेकिंग व्यवस्था
हालांकि मेटा के इस कदम को कई विशेषज्ञ आलोचनात्मक नजरों से देख रहे हैं और इसे राजनीतिक दबाव के चलते लिया गया फैसला बता रहे हैं। इस निर्णय की घोषणा नए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शपथ ग्रहण से ठीक पहले होना भी इस फैसले को कटघरे में खड़ा करता है। नया कम्यूनिटी नोट्स मॉडल, माइक्रो ब्लॉगिंग साइट एक्स के सामुदायिक नोट्स कार्यक्रम की तरह काम करेगा। जिसे ट्विटर ने 2021 में बर्डवॉच नाम से शुरू किया था। इसके तहत यूजर्स पोस्ट्स पर नोट्स जोड़ सकते हैं और यूजर्स की रेटिंग्स से कंटेंट की गुणवत्ता सुनिश्चित की जाती है। पांरपरिक फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम के विपरीत नोट्स को कर्मचारियों या एक्सपर्ट्स द्वारा संपादित नहीं किया जाता, यह पूरी तरह यूजर्स पर निर्भर है। कंपनी के मुताबिक थर्ड पार्टी फैक्ट-चेकिंग में विशेषज्ञों का पूर्वाग्रह, पक्षपाती रवैया हो सकता है, जिससे वे एक पक्ष की ओर झुक सकते हैं।यह बदलाव खासतौर पर भारत जैसे देश में फेक न्यूज के प्रसार को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। साल 2024 में विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में फेक न्यूज और गलत सूचना प्रसार के जोखिम के मामले में भारत पहले स्थान पर है। देश में फैक्ट चैकिंग पेशेवरों की माँग लगातार बढ़ रही है, वहीं इन संस्थानों का एक बड़ा हिस्सा मेटा की वित्तीय सहायता पर निर्भर है।
थर्ड पार्टी फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम के बंद होने से इन संस्थानों की आर्थिक स्थिरता पर भी खतरा मंडरा रहा है, जिससे फर्जी खबरों और गलत सूचनाओं के प्रसार को रोकने में चुनौतियाँ काफी बढ़ सकती हैं। हालांकि अभी कंपनी ने भारत में इस प्रोग्राम को बंद करने की घोषणा नहीं की है, लेकिन इस कदम से इन फैक्ट चैकिंग संस्थानों की चिंता बढ़ गई है। इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस और साइबरपीस द्वारा किये गये एक शोध ने भारत में बढ़ते फेक न्यूज प्रसार और डीपफेक जैसी चिंताओं को लेकर बड़ा खुलासा किया है। अध्ययन के मुताबिक गलत सूचना के प्रसार के मामले में सोशल मीडिया एक प्रमुख स्त्रोत है। सोशल मीडिया पर फैलने वाली फेक न्यूज में 46 प्रतिशत राजनीति से जुड़े, 16.8 प्रतिशत धर्म से जुड़े और 33.6 प्रतिशत सामान्य मुद्दे हैं। शोध में ट्विटर 61 प्रतिशत और फेसबुक 34 प्रतिशत फेक न्यूज फैलाने वाले प्रमुख प्लेटफ़ॉर्म के रूप में पहचाने गये। वहीं 2019 में माइक्रोसॉफ्ट के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि भारत में 64% इंटरनेट यूजर्स ने फर्जी खबरों का सामना किया है, जो विश्व स्तर पर सबसे अधिक है। पीआईबी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2024 में देश में 583 भ्रामक समाचारों की पहचान की गई, जिनमें से 36 प्रतिशत खबरें सरकारी योजनाओं से जुड़ी थीं। पिछले कुछ सालों में कई बार ये फर्जी खबरें लोगों के लिये जानलेवा भी साबित हुई, उदाहरण के लिए अमेरिकन जर्नल ऑफ ट्रापिकल मेडिसिन एंड हाइजीन में छपे एक शोध के मुताबिक कोविड महामारी के दौरान कई तरह की अफवाहों और गलत सूचनाओं के चलते करीब 800 लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। वहीं भारत में 2018 में झारखंड और उत्तर प्रदेश में सोशल मीडिया पर अफवाह फैलने पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ गई थी। सीएए आंदोलन, दिल्ली दंगे और किसान आंदोलन के वक्त भी अफवाहों से स्थिति तनावपूर्ण हो गई थी।
पर आखिर मेटा के इस फैसले के क्या खतरे हो सकते हैं? दरअसल एक्सपर्ट्स और फैक्ट चैकर्स के बिना अप्रशिक्षित यूजर्स को फेक न्यूज की पहचान करने में कठिनाई हो सकती है, और निगरानी के बगैर राजनीतिक या प्रोपागेंडा आधारित कंटेंट प्लेटफॉर्म पर हावी हो सकता है जो बड़ी जनसंख्या को प्रभावित भी कर सकता है। आज के दौर में फे़सबुक और वाट्सऐप जैसे प्लेटफॉर्म्स पर फ़ेक न्यूज़ और ग़लत सूचनाओं की बाढ़ आई हुई है। किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं, यह बड़ी चिंता का विषय है। तटस्थ और फैक्ट चेक के बिना के कंटेंट से राजनीतिक पार्टियों और विचारों को हेरफेर और ध्रुवीकरण करने का मौका मिल सकता है, विशेष रूप से यह बहुसंख्यकवादी विचारों को लागू कर सकता है। ऐसा देखा गया है कि कई बार फेक न्यूज को आंकने में मुख्यधारा की मीडिया तक चकमा खा जाती है, ऐसे में पेशेवर फैक्ट चैकर्स, पत्रकारों और एक्सपर्ट्स को छोड़ आम यूजर्स पर यह जिम्मेदारी डालना खतरनाक हो सकता है। और एआई, डीप फेक के दौर में फेक न्यूज के खिलाफ चल रहा दुनियाभर में संघर्ष कमजोर हो सकता है। भारत जैसे देश में जहाँ सांस्कृतिक और राजनीतिक विविधता कम्यूनिटी फैक्ट चैकिंग को चुनौतीपूर्ण बनाती है, क्योंकि जटिल मुद्दों, भाषणों की सटीक व्याख्या के लिए पेशेवर विशेषज्ञों की आवश्यकता जरूरी रहती है । इंडिया टुडे फ़ैक्ट चेक, द क्विंट,बूम, एल्ट न्यूज जैसी भारतीय फैक्ट चैकिंग संस्थाओं के लिए मेटा के थर्ड पार्टी चैकिंग प्रोग्राम का हिस्सा फंडिंग का अहम स्रोत है अगर यह बंद हो जाता है तो हजारों फैक्ट चैकर्स के लिए रोजगार का संकट भी खड़ा हो सकता है और अब इन संस्थाओं को अन्य वैकल्पिक वित्तीय स्रोत भी बनाने होंगे। ऐसे में भले ये कंपनियाँ अपनी जिम्मेदारी से भागने की कोशिश कर रही हों, यह जिम्मेदारी अब सरकार और पत्रकारों और स्वतंत्र फैक्ट चैकर्स की है कि वह कैसे मीडिया की विश्वसनीयता सुनिश्चित करते हैं और झूठे दावों, खबरों और अफवाहों को सामने लाकर फेक न्यूज के मकड़जाल का सामना करते हैं।
दैनिक जागरण में 13/02/2024 को प्रकाशित
Friday, January 31, 2025
प्रैंक वीडियो को लेकर सजगता जरुरी
आजकल फेसबुक, इंस्टाग्राम, और यूट्यूब पर
संगीत के बाद सबसे अधिक देखे जाने वाले वीडियो में फनी वीडियो या प्रैंक वीडियो
सबसे लोकप्रिय हैं। इंसान सदियों से एक दूसरे के साथ मजाक करता आ रहा है। जब हमें
पहली बार यह एहसास हुआ कि अपनी सामाजिक शक्ति का हेर फेर करके दूसरों की कीमत पर
मजाक उड़ाया जा सकता है, तब से प्रैंक
या मजाक सांस्कृतिक मानकों द्वारा निर्धारित होते आए हैं, जिसमें टीवी, रेडियो, और इंटरनेट भी शामिल हैं। लेकिन जब सांस्कृतिक और व्यावसायिक मानक
मजाक करते वक्त आपस में टकराते हैं और उन्हें जनमाध्यमों का साथ मिल जाता है, तो इसके परिणाम भयानक
हो सकते हैं।
दिसंबर 2012 में, जैसिंथा सल्दान्हा नाम की एक भारतीय
मूल की ब्रिटिश नर्स ने एक प्रैंक कॉल के बाद आत्महत्या कर ली थी। इसके बाद दुनिया
भर में बहस छिड़ गई कि इस तरह के मजाक को किसी के साथ करना और फिर उसे रेडियो, टीवी, या इंटरनेट के माध्यम से लोगों तक
पहुंचाना कितना जायज है।
दुनिया
में ऑनलाइन प्रैंक वीडियो की शुरुआत यूट्यूब और फेसबुक जैसी साइट्स के आने से पहले
हुई थी। साल 2002 में, एक इंटरैक्टिव फ्लैश वीडियो स्केयर प्रैंक के नाम से पूरे इंटरनेट पर
फैल गया था। थॉमस हॉब्स उन पहले दार्शनिकों में से थे जिन्होंने माना कि मजाक के
बहुत सारे कार्यों में से एक यह भी है कि लोग अपने स्वार्थ के लिए मजाक का
इस्तेमाल सामाजिक शक्ति पदानुक्रम को अस्त-व्यस्त करने के लिए करते हैं।
सैद्धांतिक रूप से, मजाक की
श्रेष्ठता के सिद्धांतों को मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के बीच संघर्ष और शक्ति
संबंधों के संदर्भ में समझा जा सकता है। विद्वानों ने स्वीकार किया कि संस्कृतियों
में, मजाक और प्रैंक का इस्तेमाल अक्सर हिंसा को सही
ठहराने और मजाक के लक्ष्य को अमानवीय बनाने के लिए किया जाता है। इन सारी अकादमिक
चर्चाओं के बीच भारत में इंटरनेट पर मजाक का शिकार हुए लोगों की चिंताएं गायब हैं।
सबसे
मुख्य बात सही और गलत के बीच का फर्क मिटना है, जो सही है उसे गलत मान लेना और जो गलत है उसे सही मान लेना। जिस गति
से देश में इंटरनेट पैर पसार रहा है, उस गति
से लोगों में डिजिटल साक्षरता नहीं आ रही है, इसलिए निजता के अधिकार जैसी आवश्यक बातें कभी विमर्श का मुद्दा नहीं
बनतीं। किसी ने किसी से फोन पर बात की और अपना मजाक उड़ाया, यह मामला तब तक व्यक्तिगत रहा। फिर वही वार्तालाप इंटरनेट के माध्यम
से सार्वजनिक हो गया। जिस कंपनी के सौजन्य से यह सब हुआ, उसे हिट्स, लाइक्स, और पैसा मिला, पर जिस व्यक्ति
के कारण यह सब हुआ, उसे क्या मिला? यह सवाल अक्सर नहीं पूछा जाता। इंटरनेट पर ऐसे सैकड़ों ऐप हैं, जिनको डाउनलोड करके आप मजाकिया वीडियो देख सकते हैं और ये वीडियो आम
लोगों ने ही अचानक बना दिए हैं। कोई व्यक्ति रोड क्रॉस करते वक्त मेन होल में गिर
जाता है और उसका फनी वीडियो इंटरनेट पर वायरल हो जाता है और फिर अनंतकाल तक के लिए
सुरक्षित भी हो जाता है।
मजाकिया
और प्रैंक वीडियो पर कहकहे लगाइए, पर जब
उन्हें इंटरनेट पर डालना हो, तो क्या जाएगा
और क्या नहीं, इसका फैसला कोई सरकार नहीं, हमें और आपको करना है। इसी निर्णय से तय होगा कि भविष्य का हमारा समाज
कैसा होगा।
Thursday, January 23, 2025
सबकी चिंता बने प्रदूषण
दुर्भाग्य से भारत में विकास की जो
अवधारणा लोगों के मन में है उसमें प्रकृति कहीं भी नहीं है,हालाँकि
हमारी विकास की अवधारणा पश्चिम की विकास सम्बन्धी अवधारणा की ही नकल है पर
स्वच्छ पर्यावरण के प्रति जो उनकी जागरूकता है उसका अंश मात्र भी हमारी विकास के
प्रति जो दीवानगी है उसमें नहीं दिखती है |
तथ्य यह भी है कि बढ़ते तापमान और
मृत्यु दर के लगभग-सर्वनाश पूर्ण परिदृश्य की खुली भविष्य वाणी कर रहे है, लेकिन
हम भविष्य में इसके लिए उतनी मुस्तैदी से तैयार न हो रहे हैं | प्रदूषण
की समस्या को केवल एक आपदा या सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में देखा जा रहा
है, बल्कि
होना यह चाहिए कि इसे समाज के अलग-अलग क्षेत्रों जैसे श्रम, पेयजल, कृषि
और बिजली के विभागों के लिए भी चिंता का विषय होना चाहिए | इससे
जलवायु परिवर्तन की समस्या सबकी समस्या बनेगी जिससे अलग अलग स्तरों पर इससे
निपटने के लिए गहन विचार होगा |
प्रभात खबर में 23/01/2025 को प्रकाशित
Friday, January 17, 2025
अंतहीन रील्स और साल के तीस दिन
यह शब्द हमारी उस मानसिक स्थिति को दर्शाता है जो हम घंटों तक स्क्रीन से चिपके रहते हैं और बेमतलब का कंटेंट स्क्रॉल करते है। ब्रेन रॉट शब्द का पहली बार उपयोग 1854 में हेनरी डेविड थोरों ने अपनी किताब वॉल्डेन में किया था। जहाँ उन्होंने एक कटाक्ष के रूप में इसका इस्तेमाल किया था। ब्रेन रॉट का शाब्दिक अर्थ देखा जाये तो ब्रेन का अर्थ होता है दिमाग और रॉट का मतलब सड़न, यानि दिमाग की सड़न। वहीं, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, ब्रेन रॉट का मतलब है सोशल मीडिया पर अनगिनत घटिया ऑनलाइन सामग्री को बहुत ज्यादा देखने से किसी व्यक्ति की मानसिक या बौद्धिक स्थिति में गिरावट। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ लगातार अव्यवस्थित, बेकार और बेतुकी सामग्री की खपत से दिमाग न केवल थका हुआ महसूस करता है बल्कि उसके सोचने समझने की क्षमता भी कम हो जाती है।स्टैस्टिका की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की आधी से अधिक आबादी सोशल मीडिया का उपयोग करती है। 2024 तक 5.17 अरब यूजर्स सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर एक्टिव हैं। वहीं भारत में यह आंकड़ा 46 करोड़ पहुँच गया है। आईआईएम अहमदाबाद के एक शोध के मुताबिक भारत में रोजाना लोग 3 घंटे से अधिक समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं, जो वैश्विक औसत से कहीं अधिक है। वहीं आज की पीढ़ी जिसे जेन जी और जेन अल्फा कहा जाता है, अकसर अपने दिन का बड़ा हिस्सा सिर्फ रील्स देखते हुए गुजार देते हैं। जैसे ही खाली समय देखा , और शुरू कर दी अनगिनत बेतुके वीडियोज की स्क्रॉलिंग। इस तरह की आदत का असर उनकी कार्य क्षमता, मानसिक शांति और फैसले लेने पर भी पड़ता है। भारत की बात करें तो शॉर्ट वीडियोज एप में इंस्टाग्राम सबसे ज्यादा उपयोग किया जाने वाला प्लेटफॉर्म हैं। वर्ल्ड पॉपुलेशन रिव्यू के रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 39 करोड़ इंस्टाग्राम यूजर्स हैं। इंस्टाग्राम रील्स जैसे कंटेंट की आदत युवाओं में ध्यान अवधि को कम कर रही है। मनोवैज्ञानिक और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर ग्लोरिया मार्क के अनुसार शॉर्ट फॉर्म कंटेंट देखने से लोगों की ध्यान अवधि 47 सेकेंड से भी कम हो गई।
वहीं इन कुछ सेकेंड्स की रील्स ने लोगों की ध्यान अवधि को कम करने के साथ- साथ हमारे सोचने, समझने की आदतों पर भी प्रभाव डाले हैं। उदाहरण के लिए कभी- कभी सोशल मीडिया रील्स में देखी गई चीजें जैसे गाने, डायलॉग्स या जोक्स जो हम फीड पर देखते हैं, हम उन्हें अपने दिमाग में दोहराते रहते हैं। मसलन कोई मीम या गाना जो रील्स पर सुना है, वो न चाहते हुए भी दिन भर याद आता है और ऐसा सिर्फ आपके साथ ही नहीं हर रील स्क्रॉलर के साथ होता है। अगर हम डाटा पर आधारित गणना करें तो रोजाना 2 घंटे रील देखने पर हम पूरे साल में एक महीने सिर्फ रील्स के सामने बैठकर बर्बाद कर देंगे, जो किसी और काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था।पर आखिर हम इस अनगिनत स्क्रॉलिंग के जाल में फंसते कैसे हैं? असल में हर नई और दिलचस्प रील देखने पर हमारे दिमाग डोपामीन रिलीज करता है। डोपामीन एक तरह का न्यूरोट्रांसमीटर है, जिसे खुशी और संतुष्टि का हॉर्मोन कहा जाता है। जब भी हम कोई मनोरंजक रील देखते हैं, तो हमारा दिमाग इसे एक छोटे इनाम की तरह लेता है और हमें अच्छा महसूस कराता है।
एक रील देखने के बाद हमें लगता है कि अगली रील शायद और बेहतर होगी। यह डोपामीन की छोटी- छोटी डोज लगातार हमें स्क्रॉल करते रहने पर मजबूर करती है। और यह सिर्फ डोपामीन के खेल तक सीमित नहीं है, दरअसल यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की सोची-समझी रणनीति है कि हम इन रील्स के जाल में उलझे रहें और स्क्रीन से अपनी नजरें न हटाएं। इंटरफेस डिजाइनिंग से लेकर ऑटो-प्ले वीडियो, लाइक्स बटन, और पर्सनलाइज्ड एल्गोरिदम जैसे फीचर इसे और ताकतवर बनाते हैं।सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अनगिनत स्क्रॉलिंग का यह फीचर एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग बॉटमलेस सूप बाउल पर आधारित है। जिसमें बताया गया था कि यदि किसी इंसान को खुद-ब-खुद भरने वाले सूप बाउल दिये जाएं तो वे सामान्य बाउल की तुलना में 73 प्रतिशत अधिक सूप पी जाते हैं भले ही उन्हें भूख न हो। ठीक इसी तरह रील्स की फीड जो लगातार रीफिल होती है, जो हमारे दिमाग के डोपामीन रिवार्ड सिस्टम को चालाकी से प्रभावित करती है। और हम एक चक्र में फंसकर अंतहीन स्क्रॉलिंग करते रहते हैं। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में मीडिया प्रोफेसर नताशा शूल अपनी किताब एडिक्शन बाय डिजाइन में कहती हैं कि मेटा, ट्विटर और अन्य कंपनियों के प्लेटफॉर्म्स को इस तरीके से डिजाइन किया गया है कि वे अपने यूजर्स को स्लॉट मशीन और जुअे के खेलों की तरह लती बना देती हैं। क्योंकि ऑनलाइन अर्थव्यवस्था में सारा खेल यूजर्स के क्लिक और समय बिताने के माध्यम से मापा जाता है। लैनियर लॉ फर्म की एक रिपोर्ट के मुताबिक जो किशोर रोजाना तीन से अधिक घंटे सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं उनमें अवसाद, चिंता और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम बढ़ जाता है। वहीं यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के शोध के अनुसार सोशल मीडिया के उपयोग को सीमित शॉर्ट-फॉर्म कंटेंट की लत से पीड़ित बच्चों के दिमाग का पैर्टन नशे की लत के समान होते हैं, जो बच्चों में अकेलेपन और अवसाद को जन्म देते हैं।इस तरह ब्रेन रॉट शब्द को ऑक्सफोर्ड वर्ड ऑफ द ईयर बनाने से एक नई बहस छिड़ गई है। ब्रेन रॉट केवल एक चेतावनी नहीं बल्कि हमारे समय की एक अद्दश्य त्रासदी का आईना दिखाता है। और उस मानसिक दिवालियावन को उजागर करता है जिसके पीछे अंतहीन स्क्रॉलिंग, एडिक्शन जैसी चीजें छिपी है। हमारा दिमाग जो कभी विचारों और कल्पनाओं का स्रोत हुआ करता था अब इन छोटे-छोटे डोपामीन रिवार्ड्स का गुलाम बनता जा रहा है। लेकिन हर चेतावनी के बाद एक अवसर जरूर आता है, जहाँ फिर से खुद को तलाशने का मौका मिलता है। हमें समझना होगा कि हमारा दिमाग प्रकृति का दिया एक अनमोल उपहार है, जो सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि रचनात्मकता, संवाद और गहराई से सोचने के लिए रचा गया है।
Tuesday, January 7, 2025
स्कूली शिक्षा में इंटरनेट का नियंत्रित उपयोग
2000 के 2010 के दशक की शुरुआत तक, हाई स्पीड
इंटरनेट और सोशल मीडिया ऐप्स से लैस स्मार्टफोन हर तरफ फैल गये।भारत भी इसमें
अपवाद नहीं है |दुनिया
में दुसरे नम्बर पर सबसे ज्यादा मोबाईल धारकों वाले देश में बच्चे मोबाईल के साथ
क्या कर रहे हैं|इसकी
चिंता किसी को नहीं है |बच्चों
के ध्यान भटकाने के लिए सिर्फ फोन ही नहीं, बल्कि असली(रीयल) खेल आधारित
बचपन का खत्म हो जाना भी एक बड़ा कारण है|भारत में यह बदलाव २००० के दशक से शुरु हुआ
जब अभिभावकों ने अपने बच्चों की किडनैपिंग और अनजान खतरों से बचाने के लिए भय
आधारित पैरंटिंग करना शुरू कर दिया , जिसका परिणाम हुआ कि बच्चों के
अपने खेलने का समय घटता चला गया और उनकी गतिविधियों पर माता पिता का नियंत्रण बढ़
गया।इसका दूसरा बड़ा कारण शहरों में खेल के मैदानों का खत्म हो जाना भी है |अनियोजित
शहरीकरण ने बच्चों के खेलने की जगह खत्म कर दी |इसका असर बच्चों के मोबाईल स्क्रीन
में खो जाने में हुआ |
आज के बच्चे और
उनके माता-पिता एक तरह के डिफेंस मोड में फंसे हुए हैं, जिससे बच्चे चुनौतियों का सामना करने, जोखिम
उठाने और नई चीजें एक्सप्लोर करने से वंचित रह जाते हैं, जो उनको मानसिक रूप से मजबूत करने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए जरूरी
है।यहाँ एक विरोधाभास है असल में माता-पिता को अपने बच्चों को वैसी ही
परिस्थितियाँ देनी चाहिए जैसे एक माली अपने पौधों को स्वाभाविक रूप से बढ़ने
और विकसित होने के लिए देता है| पर यहाँ अभिभावक हम
अपने बच्चों को एक बढ़ई की तरह, बड़ा कर रहे हैं जो अपने
सांचों को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में आकार देता है। असली दुनिया में हम
अपने बच्चों को अधिक सुरक्षा प्रदान करते हैं लेकिन डिजिटल दुनिया में उन्हें अपने
हाल पर छोड़ देते हैं,जो कि उनके लिए खतरनाक साबित हो रहा
है। स्मार्टफोन और अत्याधिक सुरक्षात्मक पालन पोषण के इस मिश्रण ने बचपन की संरचना
को बदल दिया है और नई मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दिया है। जिनमें जीवन के
प्रति असुरक्षा , कम नींद आना और नशे की लत शामिल
हैं।
तथ्य यह भी है
कि हम सभी ने बहुत लंबे समय तक बिना फोन के और बिना माता-पिता से त्वरित संपर्क
किये, ठीक ठाक जीवन जीया और काम किया है |।संयुक्त राष्ट्र की शिक्षा, विज्ञान और
संस्कृति एजेंसी यूनेस्को ने कहा कि इस बात के प्रमाण मिले हैं कि मोबाइल फोन का
अत्यधिक उपयोग शैक्षणिक प्रदर्शन में कमी से जुड़ा है तथा स्क्रीन के अधिक समय का
बच्चों की भावनात्मक स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।यूनेस्को ने अपनी 2023 ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटर रिपोर्ट में कहा कि डिजिटल तकनीक ने शिक्षा में
स्वाभाविक रूप से मूल्य जोड़ा है, यह प्रदर्शित करने के
लिए बहुत कम मजबूत शोध हुए हैं। अधिकांश साक्ष्य निजी शिक्षा कंपनियों द्वारा
वित्त पोषित थे जो डिजिटल शिक्षण उत्पाद बेचने की कोशिश कर रही थीं। इसने कहा कि
दुनिया भर में शिक्षा नीति पर उनका बढ़ता प्रभाव "चिंता का कारण" है।
इस रिपोर्ट में
चीन का हवाला दिया गया है , जिसने कहा कि उसने शिक्षण उपकरण के रूप में डिजिटल उपकरणों के उपयोग के
लिए सीमाएँ निर्धारित की हैं, उन्हें कुल शिक्षण समय के 30 प्रतिशत तक सीमित कर दिया है, और छात्रों से नियमित रूप से स्क्रीन ब्रेक लेने की अपेक्षा की जाती है|फोन लोगों में सीखने की क्षमता को भी कर सकते हैं, कई अध्ययनों में पाया गया कि स्कूल में फोन का इस्तेमाल एकाग्रता को कम
करता है, और फोन का इस्तेमाल सिर्फ उपयोगकर्ता को ही
नहीं प्रभावित करता। इसके लिए फोन फ्री स्कूल आन्दोलन की संस्थापक साबिने पोलाक
ने सेकेंड "हैंड स्मोक" टर्म इजाद किया है। जिस तरह किसी व्यक्ति
के द्वारा छोड़ा गया सिगरेट का धुआं पास खड़े व्यक्ति को नुकसान पहुँचाता है, उसी तरह भले किसी छात्र के पास फोन न हो, वो
फिर भी क्लास में दूसरों द्वारा फोन के इस्तेमाल किये जाने से प्रभावित होता है।
वहीं यह उपकरण शिक्षकों के लिए भी तनावपूर्ण होते हैं|भारत
में इस दिशा में अभी तक कोई ठोस पहल न होना चिना का विषय है |
इसके कई कारण भी
है जिसमें तकनीक का अचानक हमारे जीवन में आना और छा जाना भी शामिल है| जहाँ माता पिता और उनके बेटे बेटियाँ एक साथ मोबाइल फोन चलाना सीख रहे हैं |इस समस्या से बचने के प्रमुख तरीकों कि वे अपने बच्चों को स्मार्टफोन देने
में देरी करें और स्कूल इस निर्णय में उनका समर्थन करें। अपने बच्चों पर नजर रखने
के लिए माता-पिता फ्लिप फोन, स्मार्ट वॉच, ट्रैकिंग डिवाइसेस जैसे उपकरणों की मदद ले सकते हैं। नैतिक शिक्षा जैसे
विषयों में फोन और सोशल मीडिया का इस्तेमाल ,अपनी निजता
कैसे बचाएं,साइबर बुलींग जैसे
विषयों को जोड़ा जाना आवश्यक है |अब बच्चों को जीवन जीने
के तौर तरीके सिखाने के साथ सोशल मीडिया
मैनर भी सिखाये जाएँ |
दैनिक जागरण में 07/01/2025 को प्रकाशित
Tuesday, December 24, 2024
डिजीटल उपनिवेशवाद से मुक्ति
स्टेस्टिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 90 करोड़ के पार पहुँच गई है, और इस संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। वहीं सोशल मीडिया के इस्तेमाल के मामले में 47 करोड़ यूजर्स के साथ भारत , चीन के बाद विश्व में दूसरा स्थान रखता है। भारत में फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सअप, एक्स और यूट्यूब जैसे वैश्विक प्लेटफॉर्म्स सबसे अधिक प्रचलित हैं। लेकिन इनमें से अधिकांश कंपनियों का नियंत्रण पश्चिमी देशों, मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के हाथों में है। हैरानी की बात यह है कि 140 करोड़ लोगों के इस देश में किसी भी देशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं है, जो इन विदेशी को एप्स के सामने खड़ा हो सके। भारत वैश्विक स्तर पर सबसे बड़े और तेजी से बढ़ते डिजिटल बाजारो में से एक हैं, यूएस और चीन के बाद भारत डिजिटल प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तीसरा सबसे बड़ा बाजार है। तकनीकी नवाचारों के मामले में भारत की स्थिति में पिछले कुछ सालों में काफी सुधार आया है। हाल ही में आई ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2024 रैकिंग में 133 देशों में भारत ने 39वां स्थान हासिल किया है,जो देश की बढ़ती तकनीकी और डिजिटल क्षमता का प्रमाण है, हालांकि इसमें अभी भी काफी सुधार की आवश्यकता है।
पिछले कुछ सालों में इन विदेशी प्लेटफॉर्म्स पर डेटा सुरक्षा, फेक न्यूज और पक्षतापूर्ण प्रचार का प्रभाव बढा है। भारत जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, यहाँ की चुनावी प्रक्रिया में भी इन कंपनियों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा है। हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मेटा प्लेटफॉर्म्स पर चुनावी पेड प्रचार और शेडो विज्ञापनों के जरिये राजनीतिक पार्टियों को लाभ पहुँचाने के आरोप लगे हैं। संस्था ईको की रिपोर्ट के मुताबिक इन प्लेटफॉर्म्स ने ऐसे कई विज्ञापनों को प्रमोट किया जो चुनावी नियमों का उल्लंघन और भ्रामक जानकारी दे रहे थे। साल 2018 में आए कैम्ब्रिज एनालिटिका स्कैंडल ने भी यह उजागर किया था कि कैसे ये विदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स भारतीय मतदाताओं के डेटा का दुरुपयोग कर सकते हैं। चुनावी प्रक्रिया को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के लिए स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की जरूरत काफी बढ़ जाती है।
सााल 2023 में यूनेस्को इपसोस द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक , देश में शहरी क्षेत्रों के 64 प्रतिशत लोगों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को गलत सूचनाओं और फेक न्यूज का प्राथमिक स्रोत माना, इन फेक न्यूज के प्रसार में खासकर फेसबुक, व्हाट्सअप और एक्स इनमें प्रमुख भूमिका निभाते नजर आये। वहीं सांप्रदायिक हिंसा और दंगों के मामले में भी सोशल मीडिया एक बड़ी वजह के रूप में सामने आया है। फेसबुक की इंटरनल रिपोर्ट कम्यूनल कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंडिया के मुताबिक, 2020 में हुए दिल्ली दंगों में फेसबुक और व्हाट्सएप पर 22 हजार से अधिक ऐसे पोस्ट्स और ग्रुप्स पाये गये, जिनमें सांप्रदायिक नफरत फैलाई जा रही थी। इसी तरह के मामला 2021 में ट्विटर पर भी सामने आया जब भारत सरकार ने हिंसा फैलने की आशंका में किसान आंदोलन से जुड़े कुछ अकाउंट्स और ट्ववीट्स को हटाने के निर्देश दिये थे। लेकिन तब ट्विटर ने पूरी तरह से इसके अनुपालन से इंकार कर दिया था। ट्विटर ने दलील दी कि यह उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता और एंड टू एंड एन्क्रिपशन का उल्लंघन करेगा। इसके साथ ही व्हाट्सएप जो कि मेटा स्वामित्व में है ने भी आईटी नियम 2021 के कुछ नियमों की अव्हेलना की थी।
हाल ही में पूर्व सीजीआई डी.वाई.चंद्रचूण ने सोशल मीडिया के न्यायपालिका के बढ़ते प्रभाव पर चिंता जाहिर की है। चंद्रचूड़ ने कहा कि कुछ सोशल मीडिया समूह, जनभावना के जरिये न्यायाधीशों पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। हाल में एक्स और मेटा प्लेटफॉर्म्स पर फैसलों की ट्रोलिंग और जनभावनाओं के जरिये अप्रत्यक्ष दबाव बनाने के मामले काफी बढ़ गये हैं। मुश्किल बात यह है कि यह विदेशी कंपनियाँ भारत में काम करने के बावजूद पूरी तरह से भारतीय कानून के अधीन नहीं है और अक्सर अपनी वैश्विक नीतियों का हवाला देकर बच निकलती हैं। बात सिर्फ यह नहीं है कि ये विदेशी कंपनियां भारत में प्रभाव बना रही हैं, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी यह देश को बड़ा नुकसान पहुँचा रही हैं। उदाहरण के लिए, मेटा और एक्स जैसे प्लेटफार्म भारत में विज्ञापन से अरबों डॉलर कमाई करते हैं, लेकिन उनका एक बड़ा हिस्सा विदेशी देशों में चला जाता है। मेटा की इंडिया यूनिट की हाल की जारी आर्थिक रिपोर्ट के मुताबिक भारत से मेटा जिसमें फेसबुक, व्हाट्सअप, इंस्टाग्राम शामिल हैं, ने इस साल भारत से 22 हजार करोड़ रुपये से अधिक के राजस्व की कमाई की है। लेकिन इसका कोई प्रत्यक्ष लाभ सीधे भारतीय अर्थव्यवस्था को नहीं मिलता है।
अब समय आ गया है जब भारत को चीन और रूस जैसे देशों से सीख लेकर अपने स्वदेशी सोशल मीडिया का इकोसिस्टम बनाने की और कदम उठाना चाहिए। चीन ने अपने डिजिटल प्रबंधन के लिए स्वेदेशी प्लेटफॉर्म्स जैसे वी-चैट, वीबो और डोइन जैसे एप्स को विकसित किया है। वहीं रूस ने वीके, ओड्नोकलास्निकी जैसे प्लेटफॉर्म्स विकसित किये हैं। जो इन देशों को सूचना प्रवाह पर निगरानी रखने और अमेरिकी प्लेटफॉर्म्स पर निर्भर होने से बचाते हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत में पहले कभी स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बनाने की कोशिश नहीं हुई, शेयरचैट और कू जैसे प्लेटफॉर्म्स ने एक समय भारतीय बाजार में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की थी मगर लोगों और सरकार के अपेक्षाकृत कम समर्थन के कारण इनका वैश्विक दिग्गजों से मुकाबला करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया।
आज भारत में तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में कई बड़े कदम उठाये जा रहे हैं। आधार, यूपीआई, और कोविन जैसे स्वदेशी प्लेटफॉर्म्स ने यह साबित कर दिखाया है कि हम तकनीकी चुनौतियों को कैसे संभाल सकते हैं। तमाम चुनौतियों के बाद भी अगर
भारत अपनी सोशल
मीडिया प्रणाली विकसित करता है, जो यह देश पर
थोपे जा रहे डिजिटल उपनिवेशवाद का मुकाबला करने में बड़ा कदम होगा। अगर नागरिकों
और सरकार का समर्थन प्राप्त हो तो स्वदेशी मोशल मीडिया के लिए विशाल संभावनाएं
हैं। जिससे भारत इस वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आगे आ सके और डिजिटल उपनिवेशवाद से
मुकाबला कर सके ।
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 24/12/24 को प्रकाशित