Friday, January 17, 2025

अंतहीन रील्स और साल के तीस दिन

 

19वीं शताब्दी में चीन में अफीम का कारोबार अपने चरम पर था। एक तरफ ब्रिटिश औपनिवेशिक ताकतों ने अफीम के नशे का फायदा उठाकर चीन की अर्थव्यवस्था को न केवल तबाह किया बल्कि अपनी हर शर्तें मानने पर मजबूर किया। अफीम युद्ध के दौरान चीनी नागरिकों के लिए अफीम एक नशे के साथ एक मानसिक बीमारी भी बन गया था और यह नशा आगे चलकर चीन के राजनीतिक और सांस्कृतिक पतन का एक कारण बना। जिस तरह एक समय अफीम का नशा लोगों की मानसिक स्थिति को प्रभावित करता था उसी तरह आज 21 वीं शताब्दी में हम सोशल मीडिया के नशे के घिर गये हैं। हम हर वक्त अपनी आंखें फोन की स्क्रीन पर गड़ाये रहते हैं, और बाहरी दुनिया में क्या हो रहा उसका ख्याल भी नहीं रहता। शॉर्ट वीडियोज या रील्स का नशा कुछ यूं है कि हर बार आप 'बस एक और वीडियो' सोचकर स्क्रॉल करते हैं और घंटे भर अंतहीन रील्स की दुनिया में खो जाते हैं।स्क्रीन पर अनगिनत स्क्रॉल्स का खेल एक तरह का डिजिटल नशा है जो हमारे दिमाग को धीमा, सुस्त और निष्क्रिय बना रहा है। हाल ही में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी वर्ड ऑफ द ईयर के लिए चुना गया 'ब्रेन रॉट' शब्द डिजिटल दौर की इसी गंभीर प्रवृत्ति को उजागर करता है। 

यह शब्द हमारी उस मानसिक स्थिति को दर्शाता है जो हम घंटों तक स्क्रीन से चिपके रहते हैं और बेमतलब का कंटेंट स्क्रॉल करते है। ब्रेन रॉट शब्द का पहली बार उपयोग 1854 में हेनरी डेविड  थोरों ने अपनी किताब वॉल्डेन में किया था। जहाँ उन्होंने एक कटाक्ष के रूप में इसका इस्तेमाल किया था। ब्रेन रॉट का शाब्दिक अर्थ देखा जाये तो ब्रेन का अर्थ होता है दिमाग और रॉट का मतलब सड़न, यानि दिमाग की सड़न। वहीं, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, ब्रेन रॉट का मतलब है सोशल मीडिया पर अनगिनत घटिया ऑनलाइन सामग्री को बहुत ज्यादा देखने से किसी व्यक्ति की मानसिक या बौद्धिक स्थिति में गिरावट। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ लगातार अव्यवस्थित, बेकार और बेतुकी सामग्री की खपत से दिमाग न केवल थका हुआ महसूस करता है बल्कि उसके सोचने समझने की क्षमता भी कम हो जाती है।स्टैस्टिका की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की आधी से अधिक आबादी सोशल मीडिया का उपयोग करती है। 2024 तक 5.17 अरब यूजर्स सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर एक्टिव हैं। वहीं भारत में यह आंकड़ा 46 करोड़ पहुँच गया है। आईआईएम अहमदाबाद के एक शोध के मुताबिक भारत में रोजाना लोग 3 घंटे से अधिक समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं, जो वैश्विक औसत से कहीं अधिक है। वहीं आज की पीढ़ी जिसे जेन जी और जेन अल्फा कहा जाता है, अकसर अपने दिन का बड़ा हिस्सा सिर्फ रील्स देखते हुए गुजार देते हैं। जैसे ही खाली समय देखा , और शुरू कर दी अनगिनत बेतुके वीडियोज की स्क्रॉलिंग। इस तरह की आदत का असर उनकी कार्य क्षमता, मानसिक शांति और फैसले लेने पर भी पड़ता है। भारत की बात करें तो शॉर्ट वीडियोज एप में इंस्टाग्राम सबसे ज्यादा उपयोग किया जाने वाला प्लेटफॉर्म हैं। वर्ल्ड पॉपुलेशन रिव्यू के रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 39 करोड़ इंस्टाग्राम यूजर्स हैं। इंस्टाग्राम रील्स जैसे कंटेंट की आदत युवाओं में ध्यान अवधि को कम कर रही है। मनोवैज्ञानिक और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर ग्लोरिया मार्क के अनुसार शॉर्ट फॉर्म कंटेंट देखने से लोगों की ध्यान अवधि 47 सेकेंड से भी कम हो गई।

वहीं इन कुछ सेकेंड्स की रील्स ने लोगों की ध्यान अवधि को कम करने के साथ-  साथ हमारे सोचने, समझने की आदतों पर भी प्रभाव डाले हैं। उदाहरण के लिए कभी- कभी  सोशल मीडिया रील्स में देखी गई चीजें जैसे गाने, डायलॉग्स या जोक्स जो हम फीड पर देखते हैं, हम उन्हें अपने दिमाग में दोहराते रहते हैं। मसलन कोई मीम या गाना जो रील्स पर सुना है, वो न चाहते हुए भी दिन भर याद आता है और ऐसा सिर्फ आपके साथ ही नहीं हर रील स्क्रॉलर के साथ होता है। अगर हम डाटा पर आधारित गणना करें तो रोजाना 2 घंटे रील देखने पर हम पूरे साल में एक महीने सिर्फ रील्स के सामने बैठकर बर्बाद कर देंगे, जो किसी और काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था।पर आखिर हम इस अनगिनत स्क्रॉलिंग के जाल में फंसते कैसे हैं? असल में हर नई और दिलचस्प रील देखने पर हमारे दिमाग डोपामीन रिलीज करता है। डोपामीन एक तरह का न्यूरोट्रांसमीटर है, जिसे खुशी और संतुष्टि का हॉर्मोन कहा जाता है। जब भी हम कोई मनोरंजक रील देखते हैं, तो हमारा दिमाग इसे एक छोटे इनाम की तरह लेता है और हमें अच्छा महसूस कराता है। 

एक रील देखने के बाद हमें लगता है कि अगली रील शायद और बेहतर होगी। यह डोपामीन की छोटी- छोटी डोज लगातार हमें स्क्रॉल करते रहने पर मजबूर करती है। और यह सिर्फ डोपामीन के खेल तक सीमित नहीं है, दरअसल यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की सोची-समझी रणनीति है कि हम इन रील्स के जाल में उलझे रहें और स्क्रीन से अपनी नजरें न हटाएं। इंटरफेस डिजाइनिंग से लेकर ऑटो-प्ले वीडियो, लाइक्स बटन, और पर्सनलाइज्ड एल्गोरिदम जैसे फीचर इसे और ताकतवर बनाते हैं।सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अनगिनत स्क्रॉलिंग का यह फीचर एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग बॉटमलेस सूप बाउल पर आधारित है। जिसमें बताया गया था कि यदि किसी इंसान को खुद-ब-खुद भरने वाले सूप बाउल दिये जाएं तो वे सामान्य बाउल की तुलना में 73 प्रतिशत अधिक सूप पी जाते हैं भले ही उन्हें भूख न हो। ठीक इसी तरह रील्स की फीड जो लगातार रीफिल होती है, जो हमारे दिमाग के डोपामीन रिवार्ड सिस्टम को चालाकी से प्रभावित करती है। और हम एक चक्र में फंसकर अंतहीन स्क्रॉलिंग करते रहते हैं। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में मीडिया प्रोफेसर नताशा शूल अपनी किताब एडिक्शन बाय डिजाइन में कहती हैं कि मेटा, ट्विटर और अन्य कंपनियों के प्लेटफॉर्म्स को इस तरीके से डिजाइन किया गया है कि वे अपने यूजर्स को स्लॉट मशीन और जुअे के खेलों की तरह लती बना देती हैं। क्योंकि ऑनलाइन अर्थव्यवस्था में सारा खेल यूजर्स के क्लिक और समय बिताने के माध्यम से मापा जाता है। लैनियर लॉ फर्म की एक रिपोर्ट के मुताबिक जो किशोर रोजाना तीन से अधिक घंटे सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं उनमें अवसाद, चिंता और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम बढ़ जाता है। वहीं यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के शोध के अनुसार सोशल मीडिया के उपयोग को सीमित शॉर्ट-फॉर्म कंटेंट की लत से पीड़ित बच्चों के दिमाग का पैर्टन नशे की लत के समान होते हैं, जो बच्चों में अकेलेपन और अवसाद को जन्म देते हैं।इस तरह ब्रेन रॉट शब्द को ऑक्सफोर्ड वर्ड ऑफ द ईयर बनाने से एक नई बहस छिड़ गई है। ब्रेन रॉट केवल एक चेतावनी नहीं बल्कि हमारे समय की एक अद्दश्य त्रासदी का आईना दिखाता है। और उस मानसिक दिवालियावन को उजागर करता है जिसके पीछे अंतहीन स्क्रॉलिंग, एडिक्शन जैसी चीजें छिपी है। हमारा दिमाग जो कभी विचारों और कल्पनाओं का स्रोत हुआ करता था अब इन छोटे-छोटे डोपामीन रिवार्ड्स का गुलाम बनता जा रहा है। लेकिन हर चेतावनी के बाद एक अवसर जरूर आता है, जहाँ फिर से खुद को तलाशने का मौका मिलता है। हमें समझना होगा कि हमारा दिमाग प्रकृति का दिया एक अनमोल उपहार है, जो सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि रचनात्मकता, संवाद और गहराई से सोचने के लिए रचा गया है।

अमर उजाला में 17/01/2025 को प्रकाशित 

Tuesday, January 7, 2025

स्कूली शिक्षा में इंटरनेट का नियंत्रित उपयोग

 

2000 के 2010 के दशक की शुरुआत तकहाई स्पीड इंटरनेट और सोशल मीडिया ऐप्स से लैस स्मार्टफोन हर तरफ फैल गये।भारत भी इसमें अपवाद नहीं है |दुनिया में दुसरे नम्बर पर सबसे ज्यादा मोबाईल धारकों वाले देश में बच्चे मोबाईल के साथ क्या कर रहे हैं|इसकी चिंता किसी को नहीं है |बच्चों के ध्यान भटकाने के लिए सिर्फ फोन ही नहींबल्कि असली(रीयल)  खेल आधारित बचपन का खत्म हो जाना भी एक बड़ा कारण है|भारत में यह बदलाव २००० के दशक से  शुरु हुआ जब अभिभावकों ने अपने बच्चों की किडनैपिंग और अनजान खतरों से बचाने के लिए भय आधारित पैरंटिंग करना शुरू कर दिया , जिसका परिणाम हुआ  कि बच्चों के अपने खेलने का समय घटता चला गया और उनकी गतिविधियों पर माता पिता का नियंत्रण बढ़ गया।इसका दूसरा बड़ा कारण शहरों में खेल के मैदानों का खत्म हो जाना भी है |अनियोजित शहरीकरण ने बच्चों के खेलने की जगह खत्म कर दी |इसका असर बच्चों के मोबाईल स्क्रीन में खो जाने में हुआ |

आज के बच्चे और उनके माता-पिता एक तरह के डिफेंस मोड में फंसे हुए हैंजिससे बच्चे चुनौतियों का सामना करनेजोखिम उठाने और नई चीजें एक्सप्लोर करने से वंचित रह जाते हैंजो उनको  मानसिक रूप से मजबूत करने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए जरूरी है।यहाँ एक विरोधाभास है असल में माता-पिता को अपने बच्चों को वैसी ही परिस्थितियाँ देनी चाहिए जैसे  एक माली अपने पौधों को स्वाभाविक रूप से बढ़ने और विकसित होने के लिए देता हैपर यहाँ अभिभावक हम अपने बच्चों को एक बढ़ई की तरहबड़ा कर रहे हैं जो अपने सांचों को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में आकार देता है। असली  दुनिया में हम अपने बच्चों को अधिक सुरक्षा प्रदान करते हैं लेकिन डिजिटल दुनिया में उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं,जो कि उनके लिए खतरनाक साबित हो रहा है। स्मार्टफोन और अत्याधिक सुरक्षात्मक पालन पोषण के इस मिश्रण ने बचपन की संरचना को बदल दिया है और नई मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दिया है। जिनमें जीवन के प्रति असुरक्षा , कम नींद आना और नशे की लत शामिल हैं। 

तथ्य यह भी है कि हम सभी ने बहुत लंबे समय तक बिना फोन के और बिना माता-पिता से त्वरित संपर्क कियेठीक ठाक जीवन जीया और काम किया है |।संयुक्त राष्ट्र की शिक्षाविज्ञान और संस्कृति एजेंसी यूनेस्को ने कहा कि इस बात के प्रमाण मिले हैं कि मोबाइल फोन का अत्यधिक उपयोग शैक्षणिक प्रदर्शन में कमी से जुड़ा है तथा स्क्रीन के अधिक समय का बच्चों की भावनात्मक स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।यूनेस्को ने अपनी 2023 ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटर रिपोर्ट में कहा कि डिजिटल तकनीक ने शिक्षा में स्वाभाविक रूप से मूल्य जोड़ा हैयह प्रदर्शित करने के लिए बहुत कम मजबूत शोध हुए हैं। अधिकांश साक्ष्य निजी शिक्षा कंपनियों द्वारा वित्त पोषित थे जो डिजिटल शिक्षण उत्पाद बेचने की कोशिश कर रही थीं। इसने कहा कि दुनिया भर में शिक्षा नीति पर उनका बढ़ता प्रभाव "चिंता का कारण" है।

इस रिपोर्ट में  चीन का हवाला दिया गया  है , जिसने कहा कि उसने शिक्षण उपकरण के रूप में डिजिटल उपकरणों के उपयोग के लिए सीमाएँ निर्धारित की हैंउन्हें कुल शिक्षण समय के 30 प्रतिशत  तक सीमित कर दिया हैऔर छात्रों से नियमित रूप से स्क्रीन ब्रेक लेने की अपेक्षा की जाती है|फोन लोगों में सीखने की क्षमता को भी कर सकते हैंकई अध्ययनों में पाया गया कि स्कूल में फोन का इस्तेमाल एकाग्रता को कम करता हैऔर फोन का इस्तेमाल सिर्फ उपयोगकर्ता को ही नहीं प्रभावित करता। इसके लिए फोन फ्री स्कूल आन्दोलन  की संस्थापक साबिने पोलाक ने  सेकेंड "हैंड स्मोक" टर्म इजाद किया है। जिस तरह किसी व्यक्ति के द्वारा छोड़ा गया सिगरेट का धुआं पास खड़े व्यक्ति को नुकसान पहुँचाता हैउसी तरह भले किसी छात्र के पास फोन न होवो फिर भी क्लास में दूसरों द्वारा फोन के इस्तेमाल किये जाने से प्रभावित होता है। वहीं यह उपकरण शिक्षकों के लिए भी तनावपूर्ण होते हैं|भारत में इस दिशा में अभी तक कोई ठोस पहल न होना चिना का विषय है |

इसके कई कारण भी है जिसमें तकनीक का अचानक हमारे जीवन में आना और छा जाना भी शामिल हैजहाँ माता पिता और उनके बेटे बेटियाँ एक साथ मोबाइल फोन चलाना सीख रहे हैं |इस समस्या से बचने के प्रमुख तरीकों कि वे अपने बच्चों को स्मार्टफोन देने में देरी करें और स्कूल इस निर्णय में उनका समर्थन करें। अपने बच्चों पर नजर रखने के लिए माता-पिता फ्लिप फोनस्मार्ट वॉचट्रैकिंग डिवाइसेस जैसे उपकरणों की मदद ले सकते हैं। नैतिक शिक्षा जैसे विषयों में फोन और सोशल मीडिया का इस्तेमाल ,अपनी निजता कैसे बचाएं,साइबर बुलींग  जैसे विषयों को जोड़ा जाना आवश्यक है |अब बच्चों को जीवन जीने के तौर तरीके  सिखाने के साथ सोशल मीडिया  मैनर भी सिखाये जाएँ |

 दैनिक जागरण में 07/01/2025 को प्रकाशित  

Tuesday, December 24, 2024

डिजीटल उपनिवेशवाद से मुक्ति

 

आज के इस तकनीकी युग में सोशल मीडिया ने हमारे संवाद और विचारों के आदान-प्रदान करने के तरीकों को पूरी तरह से बदल दिया है। चाहे अपने प्रियजनों से बातचीत करनी होकोई ताजा समाचार जानना हो या अपनी आवाज दुनिया तक पहुँचाना हो , हमारा हर दिन सोशल मीडिया के बिना अधूरा सा लगता है। मगर क्या आपने कभी सोचा है कि जिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का हम रोजाना इस्तेमाल करते हैं , क्या वह हमारे देश की जरूरतोंसंस्कृति और मूल्यों के अनुरूप है?  
पश्चिमी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स , जैसे फेसबुकएक्स और इंस्टाग्राम आदि न केवल हमारे डेटा का आर्थिक शोषण कर रहे हैंबल्कि भारत की चुनावी प्रणालीन्यायिक फैसलों और समाज में वैचारिक ध्रुवीकरण को भी प्रभावित कर रहे हैं। फेक न्यूजबॉट्स और प्रोपेगेंडा के इस दौर में भारत को अपने डिजिटल मंचों पर अधिक नियंत्रण और आत्मनिर्भरता की आवश्यकता बढ़ गई है।

 स्टेस्टिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 90 करोड़ के पार पहुँच गई हैऔर इस संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। वहीं सोशल मीडिया के इस्तेमाल के मामले में 47 करोड़ यूजर्स के साथ भारत , चीन के बाद विश्व में दूसरा स्थान रखता है। भारत में फेसबुकइंस्टाग्रामव्हाट्सअपएक्स और यूट्यूब जैसे वैश्विक प्लेटफॉर्म्स सबसे अधिक प्रचलित हैं। लेकिन इनमें से अधिकांश कंपनियों का नियंत्रण पश्चिमी देशोंमुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के हाथों में है। हैरानी की बात यह है कि 140 करोड़ लोगों के इस देश में किसी भी देशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं हैजो इन विदेशी को एप्स के सामने खड़ा हो सके। भारत वैश्विक स्तर पर सबसे बड़े और तेजी से बढ़ते डिजिटल बाजारो में से एक हैंयूएस और चीन के बाद भारत डिजिटल प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तीसरा सबसे बड़ा बाजार है। तकनीकी नवाचारों के मामले में भारत की स्थिति में पिछले कुछ सालों में काफी सुधार आया है। हाल ही में आई ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2024 रैकिंग में 133 देशों में भारत ने 39वां स्थान हासिल किया है,जो देश की बढ़ती तकनीकी और डिजिटल क्षमता का प्रमाण हैहालांकि इसमें अभी भी काफी सुधार की आवश्यकता है।

 पिछले कुछ सालों में इन विदेशी प्लेटफॉर्म्स पर डेटा सुरक्षाफेक न्यूज और पक्षतापूर्ण प्रचार का प्रभाव  बढा है। भारत जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैयहाँ की चुनावी प्रक्रिया में भी इन कंपनियों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा है। हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मेटा प्लेटफॉर्म्स पर चुनावी पेड प्रचार और शेडो विज्ञापनों के जरिये राजनीतिक पार्टियों को लाभ पहुँचाने के आरोप लगे हैं। संस्था ईको की रिपोर्ट के मुताबिक इन प्लेटफॉर्म्स ने ऐसे कई विज्ञापनों को प्रमोट किया जो चुनावी नियमों का उल्लंघन और भ्रामक जानकारी दे रहे थे। साल 2018 में आए कैम्ब्रिज एनालिटिका स्कैंडल ने भी यह उजागर किया था कि कैसे ये विदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स भारतीय मतदाताओं के डेटा का दुरुपयोग कर सकते हैं। चुनावी प्रक्रिया को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के लिए स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की जरूरत काफी बढ़ जाती है।

 सााल 2023 में यूनेस्को इपसोस द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक , देश में शहरी क्षेत्रों के 64 प्रतिशत लोगों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को गलत सूचनाओं और फेक न्यूज का प्राथमिक स्रोत मानाइन फेक न्यूज के प्रसार में खासकर फेसबुकव्हाट्सअप और एक्स इनमें प्रमुख भूमिका निभाते नजर आये। वहीं सांप्रदायिक हिंसा और दंगों के मामले में भी सोशल मीडिया एक बड़ी वजह के रूप में सामने आया है। फेसबुक की इंटरनल रिपोर्ट कम्यूनल कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंडिया के मुताबिक, 2020 में हुए दिल्ली दंगों में फेसबुक और व्हाट्सएप पर 22 हजार से अधिक ऐसे पोस्ट्स और ग्रुप्स पाये गयेजिनमें सांप्रदायिक नफरत फैलाई जा रही थी।  इसी तरह के मामला 2021 में ट्विटर पर भी सामने आया जब भारत सरकार ने हिंसा फैलने की आशंका में किसान आंदोलन से जुड़े कुछ अकाउंट्स और ट्ववीट्स को हटाने के निर्देश दिये थे। लेकिन तब ट्विटर ने पूरी तरह से इसके अनुपालन से इंकार कर दिया था। ट्विटर ने दलील दी कि यह उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता और एंड टू एंड एन्क्रिपशन का उल्लंघन करेगा। इसके साथ ही व्हाट्सएप जो कि मेटा स्वामित्व में है ने भी आईटी नियम 2021 के कुछ नियमों की अव्हेलना की थी।

 हाल ही में पूर्व सीजीआई डी.वाई.चंद्रचूण ने सोशल मीडिया के न्यायपालिका के बढ़ते प्रभाव पर चिंता जाहिर की है। चंद्रचूड़ ने कहा कि कुछ सोशल मीडिया समूहजनभावना के जरिये न्यायाधीशों पर  दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। हाल में एक्स और मेटा प्लेटफॉर्म्स पर फैसलों की ट्रोलिंग और जनभावनाओं के जरिये अप्रत्यक्ष दबाव बनाने के मामले  काफी बढ़ गये हैं। मुश्किल बात यह है कि यह विदेशी कंपनियाँ भारत में काम करने के बावजूद पूरी तरह से भारतीय कानून के अधीन नहीं है और अक्सर अपनी वैश्विक नीतियों का हवाला देकर बच निकलती हैं। बात सिर्फ यह नहीं है कि ये विदेशी कंपनियां भारत में प्रभाव बना रही हैंबल्कि आर्थिक दृष्टि से भी यह देश को बड़ा नुकसान पहुँचा रही हैं। उदाहरण के लिएमेटा और एक्स जैसे प्लेटफार्म भारत में विज्ञापन से अरबों डॉलर कमाई करते हैंलेकिन उनका एक बड़ा हिस्सा विदेशी देशों में चला जाता है। मेटा की इंडिया यूनिट की हाल की जारी आर्थिक रिपोर्ट के मुताबिक भारत से मेटा जिसमें फेसबुकव्हाट्सअपइंस्टाग्राम शामिल हैंने इस साल भारत से 22 हजार करोड़ रुपये से अधिक के राजस्व की कमाई की है। लेकिन इसका कोई प्रत्यक्ष लाभ सीधे भारतीय अर्थव्यवस्था को नहीं मिलता है।

 अब समय आ गया है जब भारत को चीन और रूस जैसे देशों से सीख लेकर अपने स्वदेशी सोशल मीडिया का इकोसिस्टम बनाने की और कदम उठाना चाहिए। चीन ने अपने डिजिटल प्रबंधन के लिए स्वेदेशी प्लेटफॉर्म्स जैसे वी-चैटवीबो और डोइन जैसे एप्स को विकसित किया है। वहीं रूस ने वीकेओड्नोकलास्निकी  जैसे प्लेटफॉर्म्स विकसित किये हैं। जो इन देशों को सूचना प्रवाह पर निगरानी रखने और अमेरिकी प्लेटफॉर्म्स पर निर्भर होने से बचाते हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत में पहले कभी स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बनाने की कोशिश नहीं हुईशेयरचैट और कू जैसे प्लेटफॉर्म्स ने एक समय भारतीय बाजार में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की थी मगर लोगों और सरकार के अपेक्षाकृत कम समर्थन के कारण इनका वैश्विक दिग्गजों से मुकाबला करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया।

 आज भारत में तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में कई बड़े कदम उठाये जा रहे हैं। आधारयूपीआईऔर कोविन जैसे स्वदेशी प्लेटफॉर्म्स ने यह साबित कर दिखाया है कि हम तकनीकी चुनौतियों को कैसे संभाल सकते हैं। तमाम चुनौतियों के बाद भी अगर

भारत अपनी सोशल मीडिया प्रणाली विकसित करता हैजो यह देश पर थोपे जा रहे डिजिटल उपनिवेशवाद का मुकाबला करने में बड़ा कदम होगा। अगर नागरिकों और सरकार का समर्थन प्राप्त हो तो स्वदेशी मोशल मीडिया के लिए विशाल संभावनाएं हैं। जिससे भारत इस वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आगे आ सके और डिजिटल उपनिवेशवाद से मुकाबला कर सके ।

दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 24/12/24 को प्रकाशित 

 

Tuesday, December 17, 2024

तकनीक से जुडी चुनौतियाँ

 


जहाँ एक ओर यह तकनीक संचार को त्वरित और सुलभ बना रही हैवहीं दूसरी ओर इसका प्रभाव मानवीयता पर भी पड़ा है। संचार में मानवीय भावनाएँआवाज़ की गर्माहटऔर चेहरों के भाव धीरे-धीरे गायब होते जा रहे हैं। जो समस्याओं को सुलझाने के बजाय और बिगाड़ रही है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स हों या हमारे जीवन को आसान बनाने वाली ऑनलाइन कंपनियाँ ये हमारे जीवन का आज अहम हिस्सा बन गई है। चाहे अमेजन जैसे ई-कॉमर्स प्लेटफार्म सामान मंगाना हो या ऊबर,ओला जैसी कैब सर्विस से कहीं जानाइन एप बेस्ड कंपनियों ने हमारे रोजाना के कामों को सरल और सुविधाजनक बना दिया है। मगर इसका एक और पहलू भी हैइन तकनीकों और ऑनलाइन सेवाओं के फायदे के साथ कुछ चुनौतियाँ और समस्याएं भी जुड़ी हुई हैं। इन प्लेटफार्म्स पर हमारे पास सीधे और व्यक्तिगत संपर्क की कमी होती हैजिससे हमारी समस्याओं का समाधान मुश्किल हो जाता है। सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म फेसबुकजिसने भारत में 32 करोड़ यूज़र्स का आंकड़ा पार कर लिया हैउपयोगकर्ताओं की समस्याओं के समाधान के लिए केवल हेल्पसपोर्ट और रिपोर्ट जैसी सुविधाएं प्रदान करता है जो कि एक प्री डिसायडेड एक तरफा तंत्र के अलावा कुछ भी नहीं है। 

उदाहरण के लिएयदि आप अमेज़न या फ्लिपकार्ट से कोई उत्पाद खरीदते हैं और वह ख़राब निकलता हैतो आपको अकसर चैटबॉट से ही मदद मिलती है। इसके बादवास्तविक कस्टमर सर्विस प्रतिनिधि से संपर्क करने के लिए घंटों इंतजार करना पड़ता है। इसी तरहअगर फूड डिलीवरी ऐप पर आपके ऑर्डर में खराब या गलत भोजन आता हैतो आपको स्वचालित सपोर्ट और लंबे इंतजार का सामना करना पड़ता है। इन प्लेटफार्म पर स्वचालित सहायता और सीमित विकल्पों के कारणकई बार समस्या मिनटों में सुलझने की बजाय घंटों तक उलझी रहती है।

यह स्थिति ग्राहक को इतना निराश कर देती है कि उन्हें अंततः सोशल मीडिया पर अपने मुद्दे उठाने पड़ते हैं।  मगर ग्राहक सेवा क्षेत्र में तकनीक के बढ़ते इस्तेमाल से इन नौकरियों पर खतरा मंडरा रहा है। बड़ी कंपनियों ने ग्राहक सेवा में वेटिंग टाइम को कम करने के लिए लाइव चैट का विकल्प दिया। जिसमें ग्राहकों को अपनी समस्याएं लिख कर देने के लिए प्रेरित किया जाने लगा। और धीरे-धीरे मौखिक संचार को कम कर कंपनियों ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस चैटबॉट्स को तरजीह देनी शुरू कर दीइससे कंपनियों को ग्राहक सेवा में खर्च कम पड़ रहा है। इस कटौती की शुरुआत कॉल सेंटर एग्जीक्यूटिव की संख्या घटाने से शुरू कर दी गई है।

वहीं विशेषज्ञ ये मानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बढ़ते प्रभाव से अधिकांश कॉल सेंटर्स का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।  कई ऐप्स कॉल हेल्पलाइन की लिंक तक पहुँचने की प्रक्रिया को इतना जटिल बना देते हैं कि ग्राहकों को मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है।

 न्यू वाइस मीडिया द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसारखराब ग्राहक सेवा के कारण हर साल करीब 75 बिलियन डॉलर के व्यापार की हानि होती है। तकनीक के अंधाधुंध प्रयोग से मानवीय संवाद का स्थान एक निर्जीव तंत्र ने ले लिया हैजहाँ अब समस्याओं का समाधान मशीनों और बिना मौखिक संवाद से बातचीत द्वारा किया जाता है वहीं यह सिर्फ व्यापार और ग्राहक सेवा तक ही सीमित नहीं हैबल्कि इसका असर हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों पर भी पड़ रहा है। तकनीक जब हमारे संचार के हर पहलू को नियंत्रित करती है तो हम अपनी मानवीय संवेदनाओं से दूर होते जाते हैं। यह एक महत्वपूर्ण समय है जब हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि तकनीक हमें उलझाने के बजाय हमारे जीवन को सुगम बनाए।

 प्रभात खबर में 17/12/2024 को प्रकाशित 

 

 


Thursday, December 5, 2024

बच्चों को मोबाईल मैनर तो सिखाएं

 

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने 16 साल तक की आयु के बच्चों के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करने पर पाबंदी लगाने की घोषणा कर दी है। कानून के तहत सोशल मीडिया के इस्तेमाल के खिलाफ कड़े कदम उठाये गये हैं। इस कानून में प्रावधान किया गया है कि अगर बच्चों ने सोशल मीडिया का उपयोग किया तो उनके परिजनों पर 5 करोड़ रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा। ऑस्ट्रेलिया की सरकार के इस फैसले ने पूरे विश्व में सोशल मीडिया और बच्चों के इस्तेमाल को लेकर चिंता और विचारों की एक बहस छेड़ दी हैजिसमें बच्चों की सुरक्षामानसिक स्वास्थ्यऔर डिजिटल स्वतंत्रता जैसे मुद्दे शामिल हैं।कॉमन सेंस मीडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 10 साल की उम्र में आज 42 प्रतिशत बच्चों के पास स्मार्टफोन है. 12 साल की उम्र तक यह 71 प्रतिशत तक पहुंच जाता है और 14 की उम्र तक 91 प्रतिशत बच्चों के हाथ में मोबाइल फोन होता है|इस डिजिटल दुनिया ने हमारे युवाओं में चिंता,डिप्रेशन और आत्महत्या जैसी विकृतियों से भर दिया है। 2000 के 2010 के दशक की शुरुआत तकहाई स्पीड इंटरनेट और सोशल मीडिया ऐप्स से लैस स्मार्टफोन हर तरफ फैल गये।भारत भी इसमें अपवाद नहीं है |दुनिया में दुसरे नम्बर पर सबसे ज्यादा मोबाईल धारकों वाले देश में बच्चे मोबाईल के साथ क्या कर रहे हैं|इसकी चिंता किसी को नहीं है |

के ध्यान भटकाने के लिए सिर्फ फोन ही नहींबल्कि असली(रीयल)  खेल आधारित बचपन का खत्म हो जाना भी एक बड़ा कारण है|भारत में यह बदलाव २००० के दशक से  शुरु हुआ जब अभिभावकों ने अपने बच्चों की किडनैपिंग और अनजान खतरों से बचाने के लिए भय आधारित पैरंटिंग करना शुरू कर दिया , जिसका परिणाम हुआ  कि बच्चों के अपने खेलने का समय घटता चला गया और उनकी गतिविधियों पर माता पिता का नियंत्रण बढ़ गया।इसका दूसरा बड़ा कारण शहरों में खेल के मैदानों का खत्म हो जाना भी है |अनियोजित शहरीकरण ने बच्चों के खेलने की जगह खत्म कर दी |इसका असर बच्चों के मोबाईल स्क्रीन में खो जाने में हुआ |

आज के बच्चे और उनके माता-पिता एक तरह के डिफेंस मोड में फंसे हुए हैंजिससे बच्चे चुनौतियों का सामना करनेजोखिम उठाने और नई चीजें एक्सप्लोर करने से वंचित रह जाते हैंजो उनको  मानसिक रूप से मजबूत करने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए जरूरी है।यहाँ एक विरोधाभास है असल में माता-पिता को अपने बच्चों को वैसी ही परिस्थितियाँ देनी चाहिए जैसे  एक माली अपने पौधों को स्वाभाविक रूप से बढ़ने और विकसित होने के लिए देता हैपर यहाँ अभिभावक हम अपने बच्चों को एक बढ़ई की तरहबड़ा कर रहे हैं जो अपने सांचों को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में आकार देता है। असली  दुनिया में हम अपने बच्चों को अधिक सुरक्षा प्रदान करते हैं लेकिन डिजिटल दुनिया में उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं,जो कि उनके लिए खतरनाक साबित हो रहा है। स्मार्टफोन और अत्याधिक सुरक्षात्मक पालन पोषण के इस मिश्रण ने बचपन की संरचना को बदल दिया है और नई मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दिया है। जिनमें जीवन के प्रति असुरक्षा , कम नींद आना और नशे की लत शामिल हैं। 

तथ्य यह भी है कि हम सभी ने बहुत लंबे समय तक बिना फोन के और बिना माता-पिता से त्वरित संपर्क कियेठीक ठाक जीवन जीया और काम किया है |।संयुक्त राष्ट्र की शिक्षाविज्ञान और संस्कृति एजेंसी यूनेस्को ने कहा कि इस बात के प्रमाण मिले हैं कि मोबाइल फोन का अत्यधिक उपयोग शैक्षणिक प्रदर्शन में कमी से जुड़ा है तथा स्क्रीन के अधिक समय का बच्चों की भावनात्मक स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।यूनेस्को ने अपनी 2023 ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटर रिपोर्ट में कहा कि डिजिटल तकनीक ने शिक्षा में स्वाभाविक रूप से मूल्य जोड़ा हैयह प्रदर्शित करने के लिए बहुत कम मजबूत शोध हुए हैं। अधिकांश साक्ष्य निजी शिक्षा कंपनियों द्वारा वित्त पोषित थे जो डिजिटल शिक्षण उत्पाद बेचने की कोशिश कर रही थीं। इसने कहा कि दुनिया भर में शिक्षा नीति पर उनका बढ़ता प्रभाव "चिंता का कारण" है।

इस रिपोर्ट में  चीन का हवाला दिया गया  है , जिसने कहा कि उसने शिक्षण उपकरण के रूप में डिजिटल उपकरणों के उपयोग के लिए सीमाएँ निर्धारित की हैंउन्हें कुल शिक्षण समय के 30 प्रतिशत  तक सीमित कर दिया हैऔर छात्रों से नियमित रूप से स्क्रीन ब्रेक लेने की अपेक्षा की जाती है|फोन लोगों में सीखने की क्षमता को भी कर सकते हैंकई अध्ययनों में पाया गया कि स्कूल में फोन का इस्तेमाल एकाग्रता को कम करता हैऔर फोन का इस्तेमाल सिर्फ उपयोगकर्ता को ही नहीं प्रभावित करता। इसके लिए फोन फ्री स्कूल आन्दोलन  की संस्थापक साबिने पोलाक ने  सेकेंड "हैंड स्मोक" टर्म इजाद किया है। जिस तरह किसी व्यक्ति के द्वारा छोड़ा गया सिगरेट का धुआं पास खड़े व्यक्ति को नुकसान पहुँचाता हैउसी तरह भले किसी छात्र के पास फोन न होवो फिर भी क्लास में दूसरों द्वारा फोन के इस्तेमाल किये जाने से प्रभावित होता है। वहीं यह उपकरण शिक्षकों के लिए भी तनावपूर्ण होते हैं|भारत में इस दिशा में अभी तक कोई ठोस पहल न होना चिना का विषय है |

इसके कई कारण भी है जिसमें तकनीक का अचानक हमारे जीवन में आना और छा जाना भी शामिल हैजहाँ माता पिता और उनके बेटे बेटियाँ एक साथ मोबाइल फोन चलाना सीख रहे हैं |इस समस्या से बचने के प्रमुख तरीकों कि वे अपने बच्चों को स्मार्टफोन देने में देरी करें और स्कूल इस निर्णय में उनका समर्थन करें। अपने बच्चों पर नजर रखने के लिए माता-पिता फ्लिप फोनस्मार्ट वॉचट्रैकिंग डिवाइसेस जैसे उपकरणों की मदद ले सकते हैं। नैतिक शिक्षा जैसे विषयों में फोन और सोशल मीडिया का इस्तेमाल ,अपनी निजता कैसे बचाएं,साइबर बुलींग  जैसे विषयों को जोड़ा जाना आवश्यक है |अब बच्चों को जीवन जीने के तौर तरीके  सिखाने के साथ मोबाईल मैनर भी सिखाये जाएँ |

 अमर उजाला में 05/12/2024 को प्रकाशित 

Thursday, November 28, 2024

तकनीक की आड़ में पलते अपराध

 इस बदलते दौर में तकनीक ने हमारे जीवन को कई तरह से आसान और सुविधाजनक बनाया हैलेकिन इसके साथ ही मानवीय संवेदनाओं पर गहरे घाव भी किये हैं। जैसे-जैसे तकनीकी प्रगति हो रही हैहमारे समाज में संवेदन हीनताहिंसा और आपराधिक गतिविधियों का एक नया चेहरा उभर रहा है। अब अपराधियों के पास डिजिटल तकनीक के रूप में एक ऐसा हथियार हैजिससे वे अपनी घिनौनी मंशाओं को पूरा करने के लिए बेतहाशा इस्तेमाल कर रहे हैं। इसी तकनीक की आड़ में एक नया अपराध तेजी से फल-फूल रहा है- रेप वीडियोज को खरीदने-बेचने का कारोबार। अपराधी डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का सहारा लेकर ऐसे घिनौने अपराधों के वीडियोज को रिकॉर्ड करउन्हें न केवल बेच रहे हैंबल्कि एक पूरा काला कारोबार खड़ा कर चुके हैं। हालांकि यह केवल अपराधियों तक ही सीमित नहीं हैबल्कि समाज का एक तबका भी इसका एक हिस्सा बन गया हैजो ऐसे वीडियोज को इंटरनेट पर खोजता और देखता है।

 कोलकाता के आरजी मेडिकल कॉलेज की महिला डॉक्टर की हत्या और रेप के मामले के खबरों में आने के बाद गूगल ट्रेंड्स पर पीड़िता के नाम से रेप वीडियो की खोजों में वृद्धि देखी गई। इससे पहले भीजेडीएस नेता प्रज्वल रेवन्ना के कथित सेक्स स्कैंडल केस में भी इसी तरह का पैर्टन सामने आया थाजहाँ गूगल और पॉर्न साइट्स पर मामले से जुड़े वीडियो देखने की कोशिश की गई। इस तरह के वीडियो देखने वालों को महज कौतहुल या सेंशेलेनल कंटेंट की तलाश की आड़ में बरी नहीं किया जा सकता। इस तरह से सर्च करने वाले लोगों में एक गहरी संवेदनहीनता झलकती हैजिसमें वे पीड़िता का दर्द और उसकी पीड़ा को महज एक मनोरंजन का साधन समझ लेते हैं। भारत में रेप और असहमति से बनाये गये इन सेक्स वीडियोज का बड़ा कारोबार हैइसकी जड़ें शहरों के ठिकानों से लेकर ऑनलाइन बाजारों तक फैली हुई हैं। पहले ये वीडियो देश के कस्बों और शहरों के एक कोने में सीडी और पेन ड्राइव के माध्यम से बेचे जाते थे। लेकिन इंटरनेट के आने के साथयह काला कारोबार अब इन्हीं इन्क्रिप्टेड ऐप्स पर चला गया हैजहाँ एक बार ऑनलाइन हो जाने के बाद क्लिप्स को रोकना संभव नहीं है। 

वाहट्सअपटेलीग्राम जैसे मैसेजिंग ऐप्स पर एन्क्रिप्शन की आड़ में इस तरह के वीडियो के लिंक खुलेआम बेचे जा रहे हैं। फैक्ट चैकिंग संस्था बूम की एक रिपोर्ट के मुताबिक इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म्स पर भी ये अपराधी अपनी पैठ जमाये हुए हैं। इंस्टाग्राम से ये अपराधी लिंक के जरिये प्राइवेट टेलीग्राम चैनल पर ले जाते हैं जहाँ यह काला कारोबार होता है। वहीं रिपोर्ट में कहा गया है कि सोशल मीडिया साइट्स पर अगर आप ऐसे एक आपत्तिजनक पेज को फॉलो करते हैं तो एल्गोरिदम और भी इसी तरह के अकाउंट आपको सुझाता है। लिंक के लिए यूपीआईइंस्टेंट पे से भुगतान करने के बाद इच्छुक सब्सक्राइबर को टैराबॉक्स और क्लाउड एग्रीगेटर ऐप्स की ओर ले जाया जाता है। जहां वे इन अवैध और अमानवीय सामग्री तक पहुँच कर उसे डाउनलोड कर सकते हैं। एक बार डाउनलोडिंग के बाद इसे ट्रेस करना या रोकना लगभग असंभव हो जाता है। साल 2023 में सूचना और प्रसारण मंत्रालयभारत सरकार ने सोशल मीडिया साइट्स जैसे फेसबुकयूट्यूब और टेलीग्राम जैसी कंपनियों को इस तरह की सामग्री के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए नोटिस जारी किया था। इसके बाद यूट्यूब ने अपनी नई कम्युनिटी गाइड लाइन्स के मुताबिक अक्टूबर से दिसंबर माह के बीच करीब 25 लाख वीडियो को अपने प्लेटफॉर्म से हटाया था।

मनोचिकित्सक मानते हैं कि इस तरह की सामग्री देखने से व्यक्ति की यौन और हिंसा के प्रति सामान्य दृष्टि विकृत हो गई है। भारत जैसे देश में जहां यौन शिक्षा की कमी भी इस समस्या को और गंभीर कर देती इस समस्या का समाधान हम सिर्फ कानून से नहीं , बल्कि जागरूकता लाकर ही कर सकते हैं। ताकि हम न केवल इस तरह की सामग्री को नकारेबल्कि इसके खिलाफ खड़े  हों। हमें समझना होगा कि इस तरह का हर क्लिकहर शेयर किसी की जिंदगी को तबाह कर सकता है।

 प्रभात खबर में 28/11/24 को प्रकाशित 


Monday, November 18, 2024

एआई अनुसंधान में भारत का बढ़ता कद


कभी दुनिया में आईटी आउटसोर्सिंग के नाम से पहचाने जाने वाला भारत अब डिजिटल क्रांति की नई इबारत लिख रहा है। सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में अपने कौशल के दम पर भारत ने वैश्विक पहचान बनाई है,और अब भारतीय डेवेलपर्स आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में भी भारत को सिरमौर बनाने की राह में जुटे हुए हैं। हाल ही में आई गिटहब की एक रिपोर्ट के मुताबिक जेनेरेटिव एआई के क्षेत्र में भारत दुनिया में दूसरे पायदान पर पहुँच गया है और अनुमान है कि 2028 तक भारत कुल डेवेलपर्स की संख्या के मामले अमेरिका को पीछ छोड़ पहला स्थान हासिल कर लेगा। रिपोर्ट के मुताबिक गिटहब प्लेटफार्म पर भारतीय डेवेलपर्स की संख्या 2024 में 28 प्रतिशत बढ़कर 1.7 करोड़ के पार पहुँच गई है। दरअसल जेनरेटिव एआई का मतलब ऐसी एआई प्रणाली से है जिसमें न्यूरल नेटवर्क, मशीन लर्निंग जैसी तकनीक की मदद से टेक्स्ट,इमेज, ऑ़डियो आदि प्रकार के नए डेटा का सृजन होता है। न्यूरल नेटवर्क सीखे गए पैर्टन और नियमों के आधार पर आउटपुट उपलब्ध कराता है, जो हूबहू मानव निर्मित कंटेंट जैसा होता है। 2023 में प्रकाशित ब्लूमबर्ग इंटेलिजेंस की एक रिपोर्ट के अनुसार ओwपन एआई के चैट जीपीटी और गूगल के बार्ड जैसे नवाचारों के आने से जेनरेटिव एआई के बाजार में भूचाल आ गया है। अगले 10 सालों में जेनरेटिव एआई का बाजार दुनियाभर में 1.3 ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ने की संभावना है।

 जिसमें भारत एक अहम भूमिका निभाता दिखेगा। रिसर्च संस्था ईवाई की द एआई आइडिया ऑफ इंडिया शीर्षक से छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक यदि भारत विभिन्न क्षेत्रों में जेनरेटिव एआई तकनीक का पूरी तरह से उपयोग करता है तो 2030 तक जेन-एआई भारतीय अर्थव्यवस्था में 359-438 बिलियन डॉलर का अतिरिक्त योगदान दे सकता है। पिछले दो दशक में भारत ने आईटी के क्षेत्र में काफी प्रगति की है, आज अमेरिका की सिलिकन वैली से लेकर लंदन और सिडनी तक भारतीय इंजीनियर्स ने अपना योगदान दिया है। वहीं भारतीय सरकार की नीतियों जैसे डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसी मुहिम से भी अब भारत में तकनीकी नवाचारों का ईको-सिस्टम बनाने की कवायद तेज हो गई है। जिनमे आईटी क्षेत्र, सेमीकंडक्टर निर्माण और एआई से जुड़े उद्योग लगाये जा रहे हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक एआई तकनीक का इस्तेमाल कृषि, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और मीडिया जैसे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर किया जा सकता है, जिससे भारत को इन क्षेत्रों में उल्लेखनीय सुधार देखने को मिल सकता है। हाल ही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग और आईआईटी बॉम्बे द्वारा भारतजेन नाम से एक भारतीय जेनरेटिव एआई की शुरुआत की गई, जिसके तहत नागरिकों को विभिन्न भाषाओं में जेनरेटिव एआई उपलब्ध कराया जाएगा। आज देश में जेनरेटिव एआई स्टार्टअप्स की संख्या में भी एक तीव्र वृद्धि दर्ज की जा रही है। बीते माह आई नैसकॉम की इंडियाज जेनरेटिव एआई  स्टार्टअप लैंडस्केप 2024 रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक साल में जेनरेटिव एआई से जुड़े स्टार्टप्स की संख्या 66 से 240 पहुँच गई है। 

भारत की सिलिकन वैली के नाम से प्रसिद्ध बेंगलुरु भारत के जेन-आई स्टार्टअप का प्रमुख केंद्र बना हुआ है, जो देश में कुल 43 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है। वहीं अहमदाबाद, पुणे, सूरत और कोलकाता जैसे शहर भी तेजी से उभरते हुए केंद्र बन रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एआई रिसर्च में भी भारत का कद लगातार बढ़ रहा है। अमेरिका, जर्मनी और जापान जैसे देशों के साथ मिलकर भारत एआई की चुनौतियों और अवसरों को हल करने के लिए सक्रिय रूप से काम कर रहा है। एन एआई अपरच्यूनिटी फॉर इंडिया रिपोर्ट में गूगल ने भारत में डायबिटिक रेटिनोपैथी एआई मॉडल उपलब्ध कराने की घोषणा की है। इसकी मदद से अगले 10 साल में एआई असिस्टेंट स्क्रीनिंग की सुविधा दी जाएगी। वहीं गूगल भारतीय कंपनियों के साथ मिलकर खेती की उपज बढ़ाने के लिए एआई मॉडल का भी निर्माण कर रहा है।इसके साथ ही दिग्गज चिप निर्माता एनवीडिया ने भी रिलायंस इंडस्ट्रीज के साथ भारत में एआई इंफ्रास्ट्रकचर के निर्माण करने की घोषणा की है। दोनों कंपनियों ने भारत में एआई कम्प्यूटिंग इंफ्रा और नवाचार केंद्र बनाने के लिए एक समझौता किया है। भारत सरकार ने भी देश में एआई स्टार्टअप को सशक्त बनाने के लिए इस साल इंडिया एआई मिशन को मंजूरी दी थी, जिसके लिए कैबिनेट ने करीब 10 हजार करोड़ की राशि जारी की थी। इस कदम से एआई नवाचार में देश को ग्लोबल लीडर बनने में काफी मदद मिलेगी। वहीं भारत में एआई का बढ़ता प्रसार रोजगार के लिए बड़ा संकट बन सकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ मशीनीकरण कार्यों को आसान बना रहा है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार एआई और ऑटोमेशन के कारण आने वाले सालों में लाखों पारंपरिक नौकरियों पर संकट आ सकता है।

 इसके बदले नए तकनीकी और विश्लेषणात्मक कौशल की माँग की वृद्धि होगी, जिसके लिए सरकार और निजी क्षेत्र को मिलकर रीस्किलिंग प्रोग्राम्स चलाने पर भी ध्यान देना चाहिए।देश का डिजिटल विकास और एआई में निवेश यह भरपूर संकेत देता है कि आने वाले कुछ सालों में भारत एआई के क्षेत्र में एक महाशक्ति के रूप में उभर सकता है। यह न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करेगा, बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति को मजबूती देगा। अगर भारत अपने तकनीकी संसाधनों और नवाचारों को सही दिशा में इस्तेमाल करता है,तो एआई के क्षेत्र में अग्रणी बनने के साथ-साथ पूरी दुनिया में इसका नेतृत्व भी कर सकता है। हालांकि भारतीय तकनीकी शिक्षा संस्थान और कई कंपनियाँ इस दिशा में काम कर रही हैं, ताकि भविष्य में कार्यबल को एआई-सक्षम उद्योगों के लिए तैयार किया जा सके। इसके साथ ही सुरक्षा के मोर्चे पर भी साइबर हमलों, डीपफेक्स और फेक न्यूज के प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए एक तंत्र की आवश्यकता है।

 अमर उजाला में 18/11/24 को प्रकाशित 

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