हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म पीपली लाइव ने धूम मचा रखी है. दर्शकों और आलोचकों का इस फिल्म को समान प्यार मिला है. फिल्म के मूल में भारतीय इलेक्ट्रोनिक मीडिया का फटीचरपन दिखाया गया है. वैसे तो फिल्म में मीडिया के अलावा भी समाज के अन्य पहलुवों को छुआ गया है. पर पूरा फोकस इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर ही है. फिल्म में आपको इलेक्ट्रोनिक मीडिया के हर रूप के दर्शन हो जायेंगे.हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता के भेद और मीडिया नौटंकी आदि पर पूरी फिल्म में एक ख़ास बात है फिल्म में एक स्ट्रिंगर राकेश की मौत. राकेश जो कि एक संवेदनशील पत्रकार था. किसी बड़े मीडिया चैनल में नौकरी पाना उसका सपना था. जिसके बलबूते चैनल के संपादकों ने पूरी खबर में लम्पटई मचाई. सब कुछ ख़तम होने के बाद कोई भी राकेश को याद नहीं रखता और वह नेपथ्य में ही गुम हो जाता है . राकेश सबसे पहले नत्था की आत्महत्या की खबर अपने एक छोटे से अखबार में छापता है जिसको आधार बनाकर एक अंगरेजी समाचार चेनल स्टोरी करता है और फिर सारी दुनिया की मीडिया का जमावड़ा लग जाता है ये स्ट्रिंगर मीडिया की दुनिया के नत्था है ये मीडिया की दुनिया की वो गरीब जनता है जिस से मीडिया का जलाल कायम है किसी भी समाचार को ब्रेक करने का काम इन्हीं मुफ्फसिल पत्रकारों द्वारा किया जाता है ये ऐसी नींव की ईंट होते हैं जिनकी और किसी का ध्यान नहीं जाता देखने वाला तो बस कंगूरा देखता है आमतौर पर स्ट्रिंगर को ऐसा व्यक्ति माना जाता है जो श्रमजीवी पत्रकार न होकर आस पास की खबरों की सूचना सम्बंधित समाचारपत्र या चैनल को देता है. बाकि समय वह अपना काम करता है पर समाज के हित से जुडी बड़ी ख़बरें सामने लाने में स्ट्रिंगर की बड़ी भूमिका रही है. मुफ्फसिल पत्रकारों में वो लोग होते हैं जो या तो छोटे समाचार पत्रों में काम करते हैं या भाड़े पर समाचार चैनलों को समाचार कहानी उपलब्ध कराते हैं वो चाहे भूख से होने वाली मौतें हों या किसानों की आत्महत्या की खबर , हर खबर की सबसे पहले खबर इन्हीं को होती है .महानगरों में काम करने वाले पत्रकारों के सामने इनका कोई औचित्य नहीं होता क्योंकि अक्सर इनकी खबरे जमीन से जुडी हुई होती हैं जिन पर पर्याप्त शोध और मेहनत की जरुरत होती है आजकल प्रचलित मुहावरा प्रोफाइल के हिसाब से इनकी खबरें लो प्रोफाइल वाली होती हैं प्रख्यात पत्रकार श्री पी साईनाथ सवालिया लहजे में कहते ‘पिछले 15 वर्षों में उच्च मध्यम वर्ग के उपभोग की सभी वस्तुएं सस्ती हुई हैं। आप एयर टिकट, कंप्यूटर वगैरह खरीद सकते हैं। ये सब हमें उपलब्ध हैं लेकिन इसी दौरान गेंहूं, बिजली, पानी आदि गरीबों के लिए 300-500 फीसदी महंगा हो गया है। आखिर ये बातें मीडिया में क्यों नहीं आती हैं। भारत शहरों में नहीं गावों में बसता है पर इन गावों को मीडिया ने स्ट्रिंगरों के भरोसे छोड़ दिया गया है देश का सारा प्रबुद्ध मीडिया महानगरों में बसता है कहने का मतलब है कि मीडिया ऐसी बहुत जगहों पर नहीं पहुँच पा रहा है, जहां पर बहुत सारी रोचक चीजें हो रही हैं।
यही वजह की कंटेंट के स्तर पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया अक्सर वैचारिक शून्यता का शिकार दिखता है और तब शुरू होता नाग नागिन और भूत प्रेतों का खेल ऐसी कहानियों के लिए किसी वैचारिक तैयारी और शोध की जरुरत नहीं पड़ती और न ही स्ट्रिंगर को अलग से कोई निर्देश देने की आवश्यकता टी आर पी की तलाश में गन्दा है पर धंदा की आड़ में ऐसी हरकतों को जायज़ ठहराने की कोशिश की जाती है .भारत में सन २००० का साल इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए क्रांति का साल था २४ घंटे वाले समाचार चैनल पूरे देश की नब्ज समझने का दावा करने वाले चैनल पर पर उस अनुपात में योग्य पत्रकारों की नियुक्ति न तो की ही गयी और ना ही बाज़ार का अर्थशास्त्र इसकी इजाजत देता है चैनल के पत्रकारों को सेलेब्रिटी स्टेट्स मिलने लग गया ऐसे में बड़े पैमाने पर लोग इस ग्लैमर जॉब (पढ़ें टी वी पत्रकार ) की तरफ आकर्षित हुए और यहीं से स्ट्रिंगर कथा का आरम्भ हुआ वे इस धंदे का हिस्सा हैं भी और नहीं भी इसी गफलत में अक्सर वे शोषण का शिकार होते हैं चूँकि चैनल की तरफ से उनके प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था होती नहीं योग्यता के रूप में एक कैमरा होना पर्याप्त है लेकिन चैनल के लिए सालो काम करने के बाद भी चैनल के लिए अनाम रहते है.इन्हे हर बार अपनी पहचान बतानी पड़ती है । ब्रेकिंग की मारा मारी में जो सबसे पहले अपने चैनल को दृश्य भेज देता है उसी की जय जय कार होती है पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सूखा या बाढ़ जैसी प्राकर्तिक आपदा हो या कोई अपराध इनकी खबर सबसे पहले देने वाले स्ट्रिंगर ही होते हैं ये चैनल की रक्त शिराओं जैसे होते हैं यूँ तो पत्रकारों के लिए सरकार ने अनेक योजनाएं बनाई हैं जिसे उन्हें सामाजिक सुरक्षा का लाभ मिलता है पर स्ट्रिंगर उस दायरे में नहीं आते इनको होने वाला भुगतान समय पर नहीं होता है ऐसे में अक्सर इन पर भष्टाचार में लिप्त होने का आरोप भी लगाया जाता है हर चैनल की यह अघोषित नीति होती है कि स्ट्रिंगर को किसी जगह जड़ न ज़माने दो और अगर जड़ जमा रहा है तो उसका ट्रांसफर ऐसी जगह कर दो कि वो खुद ही अपना इस्तीफ़ा दे दे भारत के सारे प्रादेशिक चैनल इन्हीं स्ट्रिंगर के बूते नंबर वन बने रहने की जंग में लगे हैं इनका हाल भारत के उन किसानों जैसा है जो हमारे लिए अन्न और सब्जियां उगाते हैं लेकिन उनसे बने पकवान खुद नहीं खा पाते हैं .इलेक्ट्रोनिक मीडिया का मूलभूत सिद्धांत है कैमरा उठाने से पहले कागज पर अच्छी तैयारी करें और समाचारों में शोध पर पर्याप्त ध्यान दें लेकिन यहाँ इसका उल्टा होता है पहले विजुअल ले लो स्टोरी का पेग नॉएडा में निर्धारित होगा ऐसे में स्ट्रिंगर को जो कुछ समझ में आएगा कर के भेज देगा आखिर कैमरा और खबर दोनों उसीको करना है इसलिए खबरें अब गैदर नहीं बल्कि कलेक्ट की जाती हैं .पीपल लाइव के बहाने ही सही कम से कम स्ट्रिंगरों की समस्या पर बहस तो शुरू हुई इनकी हालत बेहतर करने के लिए अब वक्त आ चुका है कि स्ट्रिंगरों के पर्याप्त प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए ,करने के लिए उनके मेहनताने का समय पर भुगतान किया जाए . उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए समय समय पर इनके लिए ओरिएंटेसन कोर्स चलाये जाएँ इसकी पहल न्यूस ब्रोडकास्टर एसोसीयेसन को करनी होगी अगर ऐसा न हुआ तो ये जगहंसाई का खेल चलता रहेगा राकेश मरते रहेंगे और समाचारों के नाम झाड फूंक भूत प्रेत और चीखना चिल्लाना चलता रहेगा