Wednesday, September 21, 2011

आशा


निराशा के घोर बादलों ने
जब डाला मेरे मस्तिष्क पर डेरा
मेरे स्वप्नों के छीना बन कर लुटेरा
चिंता करती जब मुझे हताश
खत्म होती जब जीवन की आस
महकती हवा देती तब मुझको सन्देश
जीवन के कुछ सुखद क्षण हैं शेष
सुख दुःख तो जीवन में आते जाते हैं
सुखी वहीं हैं "नादान" जो दुःख सह जाते हैं
इसी उम्मीद पर जीता मेरा मन
कभी तो पूरे होंगे मेरे स्वप्न
(साल था 1995 पुरानी डायरी के पन्ने पलटते हुए ये कविता दिखी )

Tuesday, September 6, 2011

Reel Life Wisdom


अन्ना के आंदोलन ने देश के सोये हुए मध्यम वर्ग को एक नयी  तरीके की राजनैतिक चेतना का एहसास कराया .मैं कोई राजनैतिक लेक्चर देने नहीं जा रहा .मैं तो बस उस माध्यम की शक्ति का एहसास आप सबको कराना चाहता हूँ जो हमारे जीवन में असर तो डालता है पर हम मानने को तैयार नहीं होते जी हाँ फ़िल्में जरा याद कीजिये अन्ना के समर्थन में हो सकता हो आपने भी कैंडल मार्च निकाला हो कुछ याद आया ये कैंडल मार्च का आइडिया ‘रंग दे बसन्ती’ फिल्म ने हमें दिया कि हाँ हम भी दुनिया बदल सकते हैं .फ़िल्में समाज का आईना होती हैं इस विषय पर मतभेद हो सकते हैं पर कोई भी फिल्म अपने वक्त और समाज से कट कर नहीं बन सकती आप इस तथ्य से असहमत हो सकते हैं पर इसे ख़ारिज नहीं कर सकते हाल ही आयी फिल्म आरक्षण इसका ताजा उदाहरण  है मुद्दा यह महत्वपूर्ण नहीं है कि फिल्म आरक्षण समर्थक है या विरोध में पर इसी बहाने आरक्षण जैसे मुद्दे पर सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर लंबी लंबी बहस चलीं थोडा सा पीछे चलते हैं आज की यंगिस्तानी पीढ़ी महात्मा गाँधी को केवल राष्ट्र पिता के रूप में जानती थी उनका दर्शन क्या था हू केयर्स लेकिन फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ ने समाज को गांधीगीरी का एक नया मंत्र दिया ,फिल्म के बहाने ही सही गाँधी जी का दर्शन दुबारा जाना समझा गया .हम अपनी फिल्मों को भले ही बहुत गम्भीरता से न लेते हों लेकिन सामाजिक परिवर्तन में इनकी एक बड़ी भूमिका रही है .लोगों की मानसिकता एक दिन में नहीं बदलती उसके लिए लगातार प्रयास की जरुरत होती है और ये काम फिल्मों के द्वारा बेहतरीन तरीके से होता है .मनोरंजन उद्योग के फलने फूलने से हम लगातार टीवी और उसी बहाने फिल्मों के संपर्क में रहते हैं . समाज की हर छोटी बड़ी समस्या पर जहाँ फ़िल्में बनी हैं वहीं फिल्मों ने हमें विरोध के नए प्रतीक दिए हैं .एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती पर जब ‘धारावी’ फिल्म बनी तो लोगों को एहसास हुआ कि वहां पर रहने वाले लोगों का जीवन कितना मुश्किल है उनके जीवन स्तर को बेहतर करने का सरकारी प्रयास तेजी से इसी फिल्म के बाद हुआ .हमें आजादी मिले ज्यादा वक्त नहीं हुआ थाजब देश के कई हिस्सों में दस्यु आतंक सर चढ  कर बोल रहा था और तब आयी ‘जिस देश में गंगा बहती है(1960)’ डाकुओं की समस्या  और उनके पुनर्वास पर बनी कुछ अच्छी फिल्मों में से एक है .हमारे समाज और उसमे होने वाली घटनाएँ हमेशा फिल्मों के केंद्र में रही हैं .ऑनर किलिंग पर अभी आयी फिल्म ‘खाप’ हो या राजनीति का सच बयान करती फिल्म ‘राजनीति’ हो .फिल्मों के लिहाज से हर दशक अपने समय का प्रतिनिधित्व कर रहा होता है..आजादी से पहले जब छुआ छूत पर बात करना मुश्किल था ‘अछूत कन्या’ जैसीफिल्म ने बड़े सार्थक तरीके से इस समस्या को लोगों के सामने रखा इसी कड़ी में कुछ और नाम सुजाता ,अंकुर ,पार सद्गति  ,दीक्षा ,समर जैसी फिल्मों के भी हैं जो समय के सच को बयान करती हैं .हम फिल्मों के असर से बच नहीं सकते आप ‘पीपली लाईव’ को भूले नहीं होंगे एक साथ देश के किसानों की समस्या और इलेक्टोनिक मीडिया की नौटंकी पर करारा व्यंग्य .ऐसा संयोग और विषय के साथ न्याय कम ही फ़िल्में कर पातीं हैं .हमारी फ़िल्में बदली हैं और बदल रही हैं और साथ साथ दुनिया भी तो अब हमारे भी बदलने का वक्त आ गया है तो शुरुवात आजसे ही क्यों न की जाए .

आई नेक्स्ट ६ सितम्बर २०११ को प्रकशित 

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