Thursday, July 5, 2012

हाशिए की आवाज़ की अनदेखी


ब्रेख्त ने बीसवीं शताब्दी में रेडियो के लिए कहा था  कि रेडियो एकाउस्टिकल डिपार्टमेंटल स्टोर के रूप में केवल वितरण प्रणाली बनकर रह गया है पर वक्त के बदलाव के साथ रेडियो भी बदलता गया. इसके लिए भारतीय सुप्रीम कोर्ट का फरवरी 1995 में दिया गया निर्णय मील का पत्थर बना जिसमे कहा गया था कि ध्वनि तरंगे  तरंगे सार्वजनिक सम्पति है और इससे रेडियो के बहुआयामी विकास का रास्ता खुला पर इस बदलाव में वो  सामाजिक क्षेत्र पीछे  छूट  गया जहाँ भारत बसता है .अपने रेडियो का सपना देखने वाले ग्रामीण क्षेत्र की आवाज़ को सुनने में किसी को दिलचस्पी न रही.इन्हीं बदलाओं की प्रक्रिया में सामुदायिक रेडियो का जन्म हुआ जो अपने प्रसारण से  भौगोलिक और समान  अभिरुचि के श्रोताओं  की सेवा कर सकते हैं. वे ऎसी सामग्री का प्रसारण करते हैं जो कि किन्हीं स्थानीय/विशिष्ट श्रोताओं में लोकप्रिय हैजिनकी अनदेखी वाणिज्यिक या जन-माध्यम प्रसारकों द्वारा की जा सकती है.इनका सञ्चालन सामुदायिक स्तर पर होता है जो लाभ कमाने के लिए नहीं होते ,यह व्यक्ति विशेषसमूह और समुदायों की अपनी विविध कहानियों को कहनेअनुभवों को बांटने की प्रक्रिया को सुगम बनाते हैं,इससे पूर्व रेडियो दो तरह की प्रसारण भूमिका में शामिल था एक में रेडियो की भूमिका  व्यवसायिक थी और दूसरे में जन प्रसारक रूप में पर सामुदायिक रेडियो एक विकल्प देता है उन श्रोताओं को जो संख्या के हिसाब से रेडियो प्रसारकों के लिए महत्वपूर्ण नहीं है या बाजार के नजरिये से जिनका कोई महत्त्व नहीं है सामुदायिक रेडियो स्टेशन पचास वॉट की शक्ति वाले ट्रांसमीटर की सहायता से  पांच से पंद्रह किलोमीटर के कवरेज क्षेत्र तक पंहुचने वाले छोटे रेडियो स्टेशन हैं जो ऍफ. एम. बैंड पर प्रसारण करते हैं. सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा इनकेव्यापारिक उपयोग पर रोक है। इन स्टेशनों को कॉमर्शियल एफ.एम. की तरह कारोबार करने की छूट कतई नहीं है. इनकी स्थापना का मुख्य  मकसद मनोरंजन करना न होकर शिक्षा,स्वास्थ्यपर्यावरण  पर जनजागृति लाना और लोकसंस्कृति के संरक्षण  के लिए कार्य करना है. यह सीमित मात्रा में ही विज्ञापन ले सकते हैं .आज भारत में कुल मिलकर मात्र १२६ हैं.देश की जनसँख्या ,आकार और विभिन्न भाषाओँ और संस्कृति के हिसाब से यह संख्या नाकाफी है. भारत के दो छोटे  पडोसी देश नेपाल और श्रीलंका का रिकोर्ड सामुदायिक रेडियो के संदर्भ में  बहुत बेहतर है. संभावनाओं के लिहाज़ से सरकार ने इसके विकास पर ध्यान नहीं दिया है. अब तक यही माना जाता रहा है कि सामुदायिक रेडियो का जिम्मा उस समुदाय से सम्बंधित लोगों को ही संभालना होगा. सरकार इस सन्दर्भ में मात्र स्पेक्ट्रम शुल्क में ही कुछ छूट दे रही है .अभी हाल ही में लाइसेंस फीस को तीन  गुना बढाकर ९१ हज़ार किया जाना और फिर उसे घटाना  यह दिखाता है कि सरकार सामुदायिक रेडियो के विकास के लिए सिर्फ बात ही करना चाहती है काम नहीं. सूचना समाज के इस युग में देश में बढते डिजीटल डिवाईड को कम करने का सामुदायिक रेडियो एक सशक्त माध्यम हो सकता है वंचितों के इस माध्यम को स्थापित करने में कोई सरकारी अनुदान या प्रोत्साहन नहीं दिया जाता यही कारण है कि सामुदायिक स्तर पर इसको चलाना इतना आसान नहीं है. सरकार लोगों को साक्षर करने के नाम पर करोड़ो खर्च कर रही है पर लोगों तक सूचना और ज्ञान का प्रसार करने के सबसे सशक्त माध्यम के रूप में पहचाने जाने वाले इस माध्यम के विकास पर खर्च करना उसे गंवारा नहीं है.जनप्रसारक आकाशवाणी  भी अब विज्ञापन से होने वाली आय पर ध्यान केंद्रित करने लग गया है .ऐसे  में  सामुदायिक रेडियो चैनलों की संख्या कैसे बढे यह यक्ष प्रश्न अभी भी कायम है . बाजारवाद के इस दौर में जब कारपोरेट समूहों द्वारा समाजसेवा भी इसलिए कि जाती है ताकि उनकी ब्रांड इमेज सुधारे तब यह उम्मीद करना कि कोई समूह आगे आकर सिर्फ समाजसेवा के लिए लिए पैसे खर्च करेगा बेमानी है.रही बात स्वयंसेवी संस्थाओं की तो यह सभी संस्थाएं अपने काम के लिए कहीं न कहीं से अनुदान पर निर्भर करती हैं और इन्हें मिलने वाले अनुदान में एक बड़ा हिस्सा सरकारी होता है. वस्तुस्थिति  यह है कि कुछ स्टेशनों को छोड़ दिया जाए तो सामुदायिक रेडियो स्टेशन अपना रोजमर्रा का खर्च निकालने में भी असमर्थ हैं, वे यह चाहते हैं कि सरकार कम से कम उन्हें वार्षिक लाईसेंस शुल्क से मुक्त कर दे.
बिना सरकारी प्रोत्साहन के सामुदायिक रेडियो का विकास असंभव नहीं तो कठिन ज़रूर है. सरकार को इसे मात्र रेडियो के रूप में न देखकर सूचना प्रसार के साधन के रूप में देखना होगा सरकार इस माध्यम का विकास करके समाज के वंचित लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने में प्रभावी भूमिका निभा सकती है.
 अमर उजाला में 05/07/12 को प्रकाशित 

2 comments:

gft said...

कम्युनिटी रेडियो को इतनी शर्तों से बांधा गया है कि ज़्यादातर रेडियो स्टेशन रस्म अदायगी बन कर रह गये हैं. इस दिशा में दो बड़े बदलावों की सख़्त ज़रूरत है- एक तो ये कि इनकी कोर संचालन टीम प्रोफ़ेशनल होनी चाहिये और साथ ही इन प्रोफ़ेशनल्स को सम्मानित वेतन दिया जाना चाहिये. दूसरा ये कि इन स्टेशन्स पर किसी भी तरह के संगीत को मुफ़्त प्रसारित करने की छूट होनी चाहिये, इस शर्त के साथ कि इस संगीत का पूरी प्रोग्रामिंग में निर्धारित अनुपात भर ही उपयोग किया जाये.

gft said...

कम्युनिटी रेडियो को इतनी शर्तों से बांधा गया है कि ज़्यादातर रेडियो स्टेशन रस्म अदायगी बन कर रह गये हैं. इस दिशा में दो बड़े बदलावों की सख़्त ज़रूरत है- एक तो ये कि इनकी कोर संचालन टीम प्रोफ़ेशनल होनी चाहिये और साथ ही इन प्रोफ़ेशनल्स को सम्मानित वेतन दिया जाना चाहिये. दूसरा ये कि इन स्टेशन्स पर किसी भी तरह के संगीत को मुफ़्त प्रसारित करने की छूट होनी चाहिये, इस शर्त के साथ कि इस संगीत का पूरी प्रोग्रामिंग में निर्धारित अनुपात भर ही उपयोग किया जाये.

पसंद आया हो तो