Friday, July 20, 2012

हथियारों की यह होड हमें कहाँ ले जायेगी


ब्रिटेन की संस्था ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार हर साल दुनिया भर  में छोटे हथियारों के लिए गोले-बारूद का चार अरब डॉलर से अधिक का कारोबार होता है. दुनिया भर में हर साल 12अरब गोलियों  का उत्पादन किया जाता हैऔर अगर धरती पर रहने वाली कुल जनसंख्या के आधार पर इसका अनुपात निकाला जाए तो हर व्यक्ति के हिस्से दो गोलियाँ  आती हैं. आमतौर पर युद्ध के प्राथमिक हथियार गोली और बारूद ही होते हैं और जिस हिसाब से युद्ध बढ़ता जाता है उसमे और बड़े हथियार शामिल हो जाते हैं पर सभी हथियारों के कार्यकरण में मूलतःगोली और बारूद की ही भूमिका होती है. दुनिया के बड़े संघर्ष मैदान बंदूकों और हथियार के जखीरे ही हैं. ऑक्सफैम के 'स्टॉप ए बुलेटस्टॉप ए वारनामक अभियान का उद्देश्य गोले बारूद की बिक्री पर नियंत्रण लगाना है. जिससे किसी भी संघर्ष को सशस्त्र और घातक होने से बचाया जा सके.अब जरा कुछ और तथ्यों पे भी गौर करें. साल २०१२ में एशिया के तीन देशों भारतपाकिस्तान और चीन ने अपने रक्षा बजट में बेतहाशा वृद्धि की थी. चीन का रक्षा बजट ११ फ़ीसदी की वृद्धि के साथ १०६ अरब डालर यानि ५२०० अरब रूपये से ऊपर पहुँच गयाजबकि भारत ने १७ फ़ीसदी वृद्धि के साथ १९३४०७ करोड़ और पाकिस्तान ने १० फ़ीसदी वृद्धि के साथ ५४५ अरब रुपए का बजट रखा. इन तीनो देशो में रक्षा पर किया जाने वाला खर्च विकास के अन्य  मदों की अपेक्षा काफी अधिक होता है. भारत में ही लें तो इस बार शिक्षा और स्वास्थ्य पर कुल मिलकर भी उतना खर्च नहीं किया गया होगा जितना रक्षा पर खर्च किया जा रहा है. यह चिंताजनक है. वैसे तो दुनिया में रक्षा पर सबसे ज्यादा खर्च करने वाला देश अमेरिका है पर एशिया के इन तीन देशों में रक्षा पर खर्च होने के मायने इससे कहीं अलग हैं. ऑक्सफैम की रिपोर्ट इसलिए अहम् हैं कि गोलियों की यह संख्या तो एक नमूना मात्र है कि हथियारों कि होड़ में हमने कितने विनाश के साधन  जुटा डाले हैं.  बदलती दुनिया के साथ संघर्ष के नए रूप सामने आ रहे हैं इन संघर्षों के बढ़ने का मुख्य कारण अनियोजित विकास और आर्थिक असमानता ही  है. बाजार का अर्थशास्त्र नफे नुकसान से तय होता है और गोलियों का कारोबार लागत के हिसाब से एक अच्छा व्यवसाय है  जब जंग के मैदान में बाजार  घुस जाए तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है जरुरत इस तथ्य को समझने की है कि आज संघर्ष एक बड़ा बाजार है.  फ्रांस के रक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट के  मुताबिक साल 2001 से 2010 के बीच अमेरिकायूरोपीय संघरूस और इजरायल का दुनिया के नब्बे  प्रतिशत हथियार बाजार पर कब्जा रहा है जिसमे अमेरिका की भागीदारी 53.7 प्रतिशत रही.स्टॉक होम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (एस आई पी आर आई ) की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2002-2006 के पांच सालों की तुलना में वर्ष 2007-11 में विश्व में हथियारों की खरीद और बिक्री में 24 प्रतिशत की बढोत्तरी हुई.आंकड़े खुद बता रहे हैं की इस संघर्ष के बाजार में अमेरिका,इस्राईल और फ्रांस जैसे देश कितने बड़े खिलाड़ी बनकर उभरे हैं.इन आकडों में अवैध हथियारों की खरीद बिक्री शामिल नहीं है.एशिया और अफ्रीका के अल्पविकसित  देश जंग का मैदान बने हैं पर इन संघर्ष में प्रयोग किये जाने वाले ज्यादातर हथियार दुनिया के उन विकसित देशों में बन रहे हैं .किसी भी  देश के लिए हथियारों पर होने वाला खर्च किसलिए होता हैताकि वह आने वाली लड़ाईयों के लिए खुद को तैयार रख सके. जंग रोज नहीं होती पर कभी कभार होने वाली जंग के नाम पर डर का एक ऐसा वातावरण बन गया है कि सब एक दूसरे से आगे  रहना चाहते हैं. आंकड़ों के मुताबिक एशियाई और ओशिनियाई देशों की हथियार हिस्सेदारी कुल आयात में 44 प्रतिशत है जबकि यूरोपीय देशों ने 19 प्रतिशत मध्य पूर्व देशों  ने 17 प्रतिशत और अमेरिकी देशों ने11 प्रतिशत हथियारों का आयात किया. सबसे कम अफ्रीकी देशों ने नौ प्रतिशत हथियार आयात किए. दुनिया के कुल हथियार आयात में भारत की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत रही और वह सबसे बड़ा हथियार आयातक देश बना इसके बाद दक्षिण कोरिया ने दुनिया के कुल छह प्रतिशत और पाकिस्तान व चीन ने पांच-पांच फीसदी हथियारों का आयात किया.रक्षा पर होने वाली यह भारी  भरकम राशि जंग के इंतज़ार में खर्च होती रहती है. हथियारों को सहेजा जाता है. फिर वे वक़्त के साथ पुराने होकर बाहर हो जाते हैं और नए हथियारों पर खर्च. यानि जो पैसा खर्च हुआ उसका कोई फायदा नहीं. रक्षा पर खर्च होने वाले ये पैसे अगर विकास कार्यों पर खर्च हो जाएँ तो ज्यादा बेहतर होगा  भारत पाक और चीन आपसी मसले बातचीत से सुलटा लें तो इन खर्चों पर लगाम लगेगी और तीनो एक बड़ी संभावनाओं को जन्म देंगे. हथियारों कि यह होड़ और कुछ नहीं मानवता के खिलाफ लड़ाई है. क्या विकास के पैसों को सिर्फ आने वाली लडाइयों के नाम पर बर्बाद करना उस देश के लोगों का मानवाधिकार का हनन नहीं है. इस पर हमें विचार करना होगा. शायद तभी हम समझ पाएंगे कि किसी देश को कितने हथियार चाहिए और किसी को कितनी गोलियाँ 

अमर उजाला कॉम्पैक्ट में 20/07/12 को प्रकाशित लेख  

2 comments:

संगीता पुरी said...

क्या विकास के पैसों को सिर्फ आने वाली लडाइयों के नाम पर बर्बाद करना उस देश के लोगों का मानवाधिकार का हनन नहीं है.
शासकों के पास हमारे जैसा सामान्‍य दिमाग नहीं होता !!

deepudarshan said...

aise hi n jane kitne chijo par bekar me paisa kharch o rha hai agar in sbhi ko shi jagah pe lgayajae to desh ki sthiti bhut achi ho skti hai

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