फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने कहा है कि 2016 में अमेरिकी चुनाव के बाद फर्जी राजनीतिक समाचारों पर अमेरिकी सरकार की तरफ से कार्रवाई में नाकामी के कारण ऑनलाइन स्तर पर गलत सूचनाओं की बाढ़ आ गई और एक निजी कम्पनी होने के नाते इसे रोकने के हमारे पास ज्यादा टूल्स नहीं थे. उन्होंने कहा यह तय करना हमारा काम नहीं है कि कौन सी जानकारी तथ्यात्मक रूप से सही और कौन सी गलत। कंपनी के मुताबिक यह काम तथ्य जांच करने वाले लोगों का है जुकरबर्ग के इस बयान के बाद फेक न्यूज पर लगाम लगाने के लिए किसकी जवाबदेही होनी चाहिए ?यह बहस एक बार फिर से छिड़ गयी है. पिछले एक दशक में हुई सूचना क्रांति ने अफवाहों को तस्वीरें और वीडियों के माध्यम से ऐसी गति दे दी है जिसकी कल्पना करना मुश्किल है .वैसे भी सरकारों ने हमेशा से ही काल्पनिक तथ्यों के जरिए प्रोपेगंडा को बढ़ावा दिया है। पर सोशल मीडिया के तेज प्रसार और इसके आर्थिक पक्ष ने झूठ को तथ्य बना कर परोसने की कला को नए स्तर पर पहुंचाया है और इस असत्य ज्ञान के स्रोत के रूप में फेसबुक और व्हाट्स एप नए ज्ञान के केंद्र के रूप में उभरे हैं . कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक शोध में सामने आया है कि लोगों को यदि गलत सूचनायें दी जाएं तो वैकल्पिक तथ्यों से ज्यादा उन पर थोपे गए तथ्यों पर विश्वास करते हैं. भारत फेक न्यूज की इस विकराल समस्या का सामना इन दिनों कर रहा है. फेक न्यूज के चक्र को समझने के लिए मिसइनफॉर्मेशन और डिसइनफॉर्मेशन में अंतर समझना जरूरी है.मिसइनफॉर्मेशन का मतलब ऐसी सूचनाओं से है जो असत्य हैं पर जो इसे फैला रहा है वह यह मानता है कि यह सूचना सही है. वहीं डिसइनफॉर्मेशन का मतलब ऐसी सूचना से है जो असत्य है और इसे फैलाने वाला भी यह जानता है कि अमुक सूचना गलत है, फिर भी वह फैला रहा है. भारत डिसइनफॉर्मेशन और मिसइनफॉर्मेशन के बीच फंसा हुआ है.
एसोचैम डेलायट की रिपोर्ट के अनुसार देश में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की संख्या साल 2020 तक 60 करोड़ के पार पहुंच जाएगी. फिलहाल इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की कुल संख्या 34.3 करोड़ है.इतनी बड़ी इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की तो दुनिया के कई विकसित देशों की कुल आबादी की भी नहीं है.यानी इतने लोग कार्य, व्यापार व अन्य जरूरतों के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल करते है. गलत सूचनाओं को पहचानना और उनसे निपटना आज के दौर के लिए एक बड़ा सबक है। फेक न्यूज आज के समय का सच है.फेक न्यूज की समस्या को डीप फेक वीडियो ने और ज्यादा गंभीर बना दिया है .असल में डीप फेक वीडियो में आर्टिफिसियल इंटेलीजेंस एवं आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल के जरिए किसी वीडियो क्लिप पर किसी और व्यक्ति का चेहरा लगाने का चलन तेजी से बढ़ा है. इसके जरिए कृत्रिम तरीके से ऐसे क्लिप विकसित कर लिए जा रहे हैं जो देखने में बिल्कुल वास्तविक लगते हैं.‘डीपफेक' वीडियो एक बिल्कुल अगल तरह की समस्या है और इसे फेक न्यूज की वाले वीडियो की श्रेणी से अलग रखा जाना चाहिए.इसमें वीडियो सही होता है पर तकनीक से चेहरे या वातावरण बदल दिया जाता है और देखने वाले को इसका बिलकुल पता नहीं लगता कि वह डीप फेक वीडियो देख रहा है .एक बार ऐसे वीडियो जब किसी सोशल मीडिया प्लेटफोर्म पर आ जाते हैं तो उनकी प्रसार गति बहुत तेज हो जाती है.इंटरनेट पर ऐसे करोडो डीप फेक वीडियो मौजूद हैं .
तथ्य यह भी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है और ऐसे में इस तरह के वीडियो के संबंध में एक स्पष्ट नीति का विकास बहुत महत्वपूर्ण है. सस्ते फोन और इंटरनेट ने उन करोड़ों भारतीयों के हाथ में सूचना तकनीक पहुंचा दी है जो ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं। वे इंटरनेट पर मिली हर चीज को सच मान बैठते हैं और उस मिसइनफॉर्मेशन के अभियान का हिस्सा बन जाते हैं। दूसरी ओर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की साइबर आर्मी और ट्रोलर्स कई सारी ऐसी डिसइनफॉर्मेशन को यह जानते हुए फैलाते है कि वे गलत हैं या संदर्भ से कटी हुई हैं। इन सबके पीछे कुछ खास मकसद होता है। जैसे हिट्स पाना, किसी का मजाक उड़ाना, किसी व्यक्ति या संस्था पर कीचड़ उछालना, साझेदारी, लाभ कमाना, राजनीतिक फायदा उठाना, या दुष्प्रचार।
हालांकि फेसबुक इस तरह के वीडियो को बहुत गंभीरता से ले रहा है और वह इस बात का आंकलन कर रहा है कि कृत्रिम मेधा और आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल के जरिए बिल्कुल वास्तविक लगने वाले फर्जी वीडियो (डीपफेक वीडियो) को रोकने के लिए किस प्रकार के कदम उठाये जाने चाहिए.फर्जी वीडियो को पहचानने के लिए इंटरनेट पर कुछ सुविधाएँ थी जैसे किसी भी विडियो की जांच करने के लिए उसे ध्यान से बार-बार देखा जाना चाहिए। यह काम क्रोम ब्राउजर में इनविड (InVID) एक्सटेंशन जोड़ कर किया जा सकता है। इनविड जहां किसी भी विडियो को फ्रेम दर फ्रेम देखने में मदद करता है वहीं इसमें विडियो के किसी भी दृश्य को मैग्निफाई (बड़ा) करके भी देखा जा सकता है। यह विडियो को देखने की बजाय उसे पढ़ने में मदद करता है. मतलब, किसी भी विडियो को पढ़ने के लिए किन चीजों की तलाश करनी चाहिए, ताकि उसके सही होने की पुष्टि की जा सके। जैसे विडियो में पोस्टर-बैनर, गाड़ियों की नंबर प्लेट और फोन नंबर की तलाश की जानी चाहिए, ताकि गूगल द्वारा उन्हें खोज कर उनके क्षेत्र की पहचान की जा सके। कोई लैंडमार्क खोजने की कोशिश की जाए। विडियो में दिख रहे लोग कैसे कपड़े पहने हुए हैं, वे किस भाषा या बोली में बात कर रहे हैं, उसको देखा जाना चाहिए। इंटरनेट पर ऐसे कई सॉफ्टवेयर मौजूद हैं जो विडियो और फोटो की सत्यता पता लगाने में मदद कर सकते हैं। फेक न्यूज से बचने का एकमात्र तरीका है, अपनी सामान्य समझ का इस्तेमाल और थोड़ी सी जागरूकता। उल्लेखनीय है कि डीपफेक वीडियो से जु़ड़ा खतरा हाल ही में उभरा है और इससे निपटने के लिए फेसबुक सहित अन्य सोशल मीडिया कंपनियों के पास अभी कोई नीति नहीं है.
आई नेक्स्ट /दैनिक जागरण में 29/06/2019 को प्रकाशित