बचपन में साल का ये महीना यादों का भी महीना हुआ करता था| जिसमें बहुत कुछ समेटा जाता था | त्यौहार बस आने वाले ही होते हैं तो घर की साफ़ सफाई लाजिमी है | ऐसे में घर से सिर्फ कबाड़ ही नहीं निकलता था बल्कि बहुत सी ढंकी छुपी यादें भी उस कबाड़ के रूप में हमें हमारे सामने आ खडी होती था |वो फटी किताब जो कभी एकदम नई थी और हमें बहुत प्यारी भी ,बीते साल की वो डायरी जिसमें जिन्दगी के हिसाब -किताब दर्ज रहा करते थे |वो टूटी टोर्च, कुछ अधजली मोमबत्तियां ,चाय की प्यालियाँ जिसके किनारे टूट चुके हुआ करते थे | कहने को वो कबाड़ होता है पर एक पूरे जीवन का लेखा जोखा उसमें निकला करता था |पर इस डिजीटल होती हुई दुनिया में कबाड़ भी अपना रंग बदल रहा है| अब बीते साल की डायरी नहीं मिलती जिसको फेंकने से पहले एक बार यूँ ही हाथ फिराना अच्छा लगता था| अब कबाड़ में बाकी चीजों के साथ मिलती है,मोबाईल और लैपटॉप की खराब बैटरियां ,न सुनाई देने वाले हेडफोन, कुछ उखड़ते की बोर्ड जिनको देख के न कोई भावनाएं उमड़ती न कोई साझा यादों का सिलसिला |इस डिजीटल दुनिया ने इस दावे के साथ कि नए यंत्र और तकनीक अपनाने से इंसानों का बहुत समय बचेगा | हम सब को अपना गुलाम बनाया |लेकिन बदले में हमें मिला क्या गूगल से कट पेस्ट की संस्कृति? जिसमें कबाड़ से कुछ बनाना बेकार सोच है |नया खरीदो नया बनाओ यही मूलमंत्र है|तकनीक समय तो जरुर बचा रही है पर वो समय जा कहाँ रहा है|वो कुछ न करते हुए भी बहुत कुछ करने का सुख, हर कोइ इतना समय बचने के बाद भी क्यों न उठा पा रहा है ?
यादों के
इस सितम्बर की ढलती दोपहरी में,
मैं इसी उधेड बन में हूँ कि उम्र के इस पड़ाव पर अब कितने नए रिश्ते बनाये
जा सकते हैं? वो लोग
जिनके साथ से हमारे दशहरा दीवाली गुलजार रहा करते थे |वो अब धीरे
-धीरे साथ छोड़ कर जा रहे हैं|नए
रिश्ते पकने में वक्त मांगते हैं और वक्त है कि हाथों से सरका जा रहा है |नया हमेशा नया नहीं रहेगा
तो आते त्योहारों
के मौसम में
नए के प्रति दीवानगी जरुर रखी जाए पर पुरानो को भी न भूला जाए| फिलहाल गर्मी तो
ढल रही है पर यादों में जाड़ा कभी आएगा ही नही क्योंकि मेरा दिल तो उन लोगों की
यादों की गर्मी से धड़क रहा है जो चले गए ।
प्रभात
खबर में 19/10/2021 को
प्रकाशित