Monday, August 26, 2024

इंटरनेट पर प्रैंक कंटेंट का प्रभाव

 

आजकल फेसबुक, इंस्टाग्राम, और यूट्यूब पर संगीत के बाद सबसे अधिक देखे जाने वाले वीडियो में फनी वीडियो या प्रैंक वीडियो सबसे लोकप्रिय हैं। जब लोगों के पास खाली समय होता है और उनके हाथ में स्मार्टफोन होता है, तो वे अक्सर इन वीडियो की तलाश में रहते हैं। स्क्रोल करते समय कोई रोचक वीडियो दिखने पर लोग उसे देखना पसंद करते हैं। इंसान सदियों से एक दूसरे के साथ मजाक करता आ रहा है। जब हमें पहली बार यह एहसास हुआ कि अपनी सामाजिक शक्ति का हेर फेर करके दूसरों की कीमत पर मजाक उड़ाया जा सकता है, तब से प्रैंक या मजाक सांस्कृतिक मानकों द्वारा निर्धारित होते आए हैं, जिसमें टीवी, रेडियो, और इंटरनेट भी शामिल हैं। लेकिन जब सांस्कृतिक और व्यावसायिक मानक मजाक करते वक्त आपस में टकराते हैं और उन्हें जनमाध्यमों का साथ मिल जाता है, तो इसके परिणाम भयानक हो सकते हैं।

दिसंबर 2012 में, जैसिंथा सल्दान्हा नाम की एक भारतीय मूल की ब्रिटिश नर्स ने एक प्रैंक कॉल के बाद आत्महत्या कर ली थी। इसके बाद दुनिया भर में बहस छिड़ गई कि इस तरह के मजाक को किसी के साथ करना और फिर उसे रेडियो, टीवी, या इंटरनेट के माध्यम से लोगों तक पहुंचाना कितना जायज है। साल 2012 में इंटरनेट इतने बहुआयामी माध्यमों के साथ हमसे नहीं जुड़ा था, पर आज के हालात बिल्कुल अलग हैं। हिट्स और क्लिक से पैसे कमाए जा सकते हैं। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि क्या दिखाया जा रहा है, बस व्यूज मिलने चाहिए। ऐसी स्थिति में भारत एक खतरनाक स्थिति में पहुंच रहा है, जिसमें प्रैंक वीडियो एक बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।

दुनिया में ऑनलाइन प्रैंक वीडियो की शुरुआत यूट्यूब और फेसबुक जैसी साइट्स के आने से पहले हुई थी। साल 2002 में, एक इंटरैक्टिव फ्लैश वीडियो स्केयर प्रैंक के नाम से पूरे इंटरनेट पर फैल गया था। थॉमस हॉब्स उन पहले दार्शनिकों में से थे जिन्होंने माना कि मजाक के बहुत सारे कार्यों में से एक यह भी है कि लोग अपने स्वार्थ के लिए मजाक का इस्तेमाल सामाजिक शक्ति पदानुक्रम को अस्त-व्यस्त करने के लिए करते हैं। सैद्धांतिक रूप से, मजाक की श्रेष्ठता के सिद्धांतों को मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के बीच संघर्ष और शक्ति संबंधों के संदर्भ में समझा जा सकता है। विद्वानों ने स्वीकार किया कि संस्कृतियों में, मजाक और प्रैंक का इस्तेमाल अक्सर हिंसा को सही ठहराने और मजाक के लक्ष्य को अमानवीय बनाने के लिए किया जाता है। इन सारी अकादमिक चर्चाओं के बीच भारत में इंटरनेट पर मजाक का शिकार हुए लोगों की चिंताएं गायब हैं।

सबसे मुख्य बात सही और गलत के बीच का फर्क मिटना है, जो सही है उसे गलत मान लेना और जो गलत है उसे सही मान लेना। जिस गति से देश में इंटरनेट पैर पसार रहा है, उस गति से लोगों में डिजिटल साक्षरता नहीं आ रही है, इसलिए निजता के अधिकार जैसी आवश्यक बातें कभी विमर्श का मुद्दा नहीं बनतीं। किसी ने किसी से फोन पर बात की और अपना मजाक उड़ाया, यह मामला तब तक व्यक्तिगत रहा। फिर वही वार्तालाप इंटरनेट के माध्यम से सार्वजनिक हो गया। जिस कंपनी के सौजन्य से यह सब हुआ, उसे हिट्स, लाइक्स, और पैसा मिला, पर जिस व्यक्ति के कारण यह सब हुआ, उसे क्या मिला? यह सवाल अक्सर नहीं पूछा जाता। इंटरनेट पर ऐसे सैकड़ों ऐप हैं, जिनको डाउनलोड करके आप मजाकिया वीडियो देख सकते हैं और ये वीडियो आम लोगों ने ही अचानक बना दिए हैं। कोई व्यक्ति रोड क्रॉस करते वक्त मेन होल में गिर जाता है और उसका फनी वीडियो इंटरनेट पर वायरल हो जाता है और फिर अनंतकाल तक के लिए सुरक्षित भी हो जाता है।

हमने उस वीडियो को देखकर कहकहे तो खूब लगाए, पर कभी उस परिस्थिति में अपने आप को नहीं देखा और सोचा। इंटरनेट के फैलाव ने बहुत सी निहायत निजी चीजों को सार्वजनिक कर दिया है। ये सामाजिक दृष्टि से निजी चीजें जब हमारे चारों ओर बिखरी हों, तो हम उन असामान्य परिस्थितियों में घटी घटनाओं को भी सार्वजनिक जीवन का हिस्सा मान लेते हैं, जिससे एक परपीड़क समाज का जन्म होता है। शायद यही कारण है कि अब कोई दुर्घटना होने पर लोग मदद करने की बजाय वीडियो बनाने में लग जाते हैं। मजाकिया और प्रैंक वीडियो पर कहकहे लगाइए, पर जब उन्हें इंटरनेट पर डालना हो, तो क्या जाएगा और क्या नहीं, इसका फैसला कोई सरकार नहीं, हमें और आपको करना है। इसी निर्णय से तय होगा कि भविष्य का हमारा समाज कैसा होगा।

दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में 26/08/2024 को प्रकाशित 


Tuesday, August 13, 2024

स्क्रीन टाईम पर बच्चों पर प्रभाव

स्मार्टफोन ने एक चक्र पूरा कर लिया है .अब समय है इस मुद्दे पर चर्चा की जानी चाहिए कि हमारे बच्चों को इसकी कितनी जरूरत है |दुर्भाग्य से भारत में इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है | कॉमन सेंस मीडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 10 साल की उम्र में आज 42 प्रतिशत बच्चों के पास स्मार्टफोन है. 12 साल की उम्र तक यह 71 प्रतिशत तक पहुंच जाता है और 14 की उम्र तक 91 प्रतिशत बच्चों के हाथ में मोबाइल फोन होता है|इस डिजिटल दुनिया ने हमारे युवाओं में चिंता,डिप्रेशन और आत्महत्या जैसी विकृतियों से भर दिया है। 2000 के 2010 के दशक की शुरुआत तकहाई स्पीड इंटरनेट और सोशल मीडिया ऐप्स से लैस स्मार्टफोन हर तरफ फैल गये।भारत भी इसमें अपवाद नहीं है |दुनिया में दुसरे नम्बर पर सबसे ज्यादा मोबाईल धारकों वाले देश में बच्चे मोबाइल के साथ क्या कर रहे हैं|इसकी चिंता किसी को नहीं है |मोबाइल फोन की घंटी  एक  नशे की लत की तरह हैलगातार बच्चों का ध्यान भटकाती है और बच्चों को उस दुनिया में ले जाती है जो हमारे नियंत्रण से बाहर है।बच्चों के ध्यान भटकाने के लिए सिर्फ फोन ही नहींबल्कि असली(रीयल)  खेल आधारित बचपन का खत्म हो जाना भी एक बड़ा कारण है|

भारत में यह बदलाव २००० के दशक से  शुरु हुआ जब अभिभावकों ने अपने बच्चों की किडनैपिंग और अनजान खतरों से बचाने के लिए भय आधारित पैरंटिंग करना शुरू कर दिया , जिसका परिणाम हुआ  कि बच्चों के अपने खेलने का समय घटता चला गया और उनकी गतिविधियों पर माता पिता का नियंत्रण बढ़ गया।इसका दूसरा बड़ा कारण शहरों में खेल के मैदानों का खत्म हो जाना भी है |अनियोजित शहरीकरण ने बच्चों के खेलने की जगह खत्म कर दी |इसका असर बच्चों के मोबाईल स्क्रीन में खो जाने में हुआ |आज के बच्चे और उनके माता-पिता एक तरह के डिफेंस मोड में फंसे हुए हैंजिससे बच्चे चुनौतियों का सामना करनेजोखिम उठाने और नई चीजें एक्सप्लोर करने से वंचित रह जाते हैंजो उनको  मानसिक रूप से मजबूत करने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए जरूरी है। अभिभावक हम अपने बच्चों को एक बढ़ई की तरहबड़ा कर रहे हैं जो अपने सांचों को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में आकार देता है।

 असली  दुनिया में हम अपने बच्चों को अधिक सुरक्षा प्रदान करते हैं लेकिन डिजिटल दुनिया में उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं,जो कि उनके लिए खतरनाक साबित हो रहा है। स्मार्टफोन और अत्याधिक सुरक्षात्मक पालन पोषण के इस मिश्रण ने बचपन की संरचना को बदल दिया है और नई मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दिया है। जिनमें जीवन के प्रति असुरक्षा , कम नींद आना और नशे की लत शामिल हैं। तथ्य यह भी है कि हम सभी ने बहुत लंबे समय तक बिना फोन के और बिना माता-पिता से त्वरित संपर्क कियेठीक ठाक जीवन जीया और काम किया है |।संयुक्त राष्ट्र की शिक्षाविज्ञान और संस्कृति एजेंसी यूनेस्को ने कहा कि इस बात के प्रमाण मिले हैं कि मोबाइल फोन का अत्यधिक उपयोग शैक्षणिक प्रदर्शन में कमी से जुड़ा है तथा स्क्रीन के अधिक समय का बच्चों की भावनात्मक स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है |भारत में इस दिशा में अभी तक कोई ठोस पहल न होना चिंता का विषय है |इसके कई कारण भी है जिसमें तकनीक का अचानक हमारे जीवन में आना और छा जाना भी शामिल है

प्रभात खबर में 13/08/2024  को प्रकाशित 


Thursday, August 8, 2024

एआई के ऊर्जा खपत के आंकड़े चौंकाते हैं

 

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानि कृत्रिम बुद्धिमत्ता अब  हमारे दैनिक जीवन का एक अहम हिस्सा बनती जा रही हैं। वर्चुअल असिस्टेंट से लेकर स्मार्ट होम तक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हर जगह है। चाहे चैट जीपीटी जैसे एआई जनित प्लेटफार्म पर हमे जटिल प्रश्नों के हल जानना हो या गूगल और एलेक्सा जैसे वर्चुअल असिस्टेंट्स पर अपनी आवाज भर से कोई काम कराना होआर्टिफिशियल इंटेलिजेंस धीरे धीरे हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बनने की ओर अग्रसर है।

 मगर क्या इस अचंभित कर देने वाली तकनीक के कुछ और पहलू हो सकते हैंजो भविष्य में पर्यावरण और मानव सभ्यता के लिए हानिकारक साबित हो सकते हैं?इस साल जारी हुई गूगल की वार्षिक पर्यावरण रिपोर्ट में चौकाने वाले आंकड़े सामने आये हैंसाल 2022  के मुकाबले 2023 में गूगल के डाटा सेंटर पर कार्बन उत्सर्जन फुटप्रिंट में तेरह प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है । यह वृद्धि मूल रूप से उसके डेटा सेंटरों और आपूर्ति श्रृंखलाओं में बिजली की खपत बढ़ने के कारण हुई। कंपनी का कहना है कि साल 2023 में उसके डेटा सेंटरों ने पहले की तुलना में 17 प्रतिशत अधिक बिजली का उपयोग किया और एआई टूल्स का उपयोग होने के कारण यह वृद्धि आने वाले सालों में और बढ़ेगी।जाहिर है कि एआई के उपयोग कई क्षेत्रों में परिवर्तनकारी बदलाव लाने के लिए किया जा रहा हैजिनमें जलवायु परिवर्तन से जुड़े समाधान भी शामिल हैं। लेकिन बढ़ती एआई तकनीक ने एक भारी कार्बन उत्सर्जन फुटप्रिंट जैसी समस्या उत्पन्न कर दी है। अध्ययनों से पता चलता है कि एआई चैटबॉट चैट-जीपीटी पर पूछी गई एक साधारण क्वेरीगूगूल खोज की तुलना में 10 से 33 गुना अधिक ऊर्जा का उपयोग करती है। वहीं इमेज आधारित प्लेटफार्म पर इससे कहीं अधिक ऊर्जा खर्च होती है।  

 दरअसल एआई मॉडल सामान्य गूगल खोज की तुलना में अधिक डेटा को प्रोसेस और फिल्टर करते हैं, अधिक काम का मतलब है कि कंप्यूटर को डेटा प्रोसेसिंग, स्टोरिंग और रिट्रीविंग के समय अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होगी। वहीं अधिक काम करने से उत्पन्न गर्मी को कम करने के लिए डेटा सेंटर्स पर अधिक शक्तिशाली एयर कंडीशनिंग  और अन्य ठंडे उपाय किये जाते हैं।यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया रिवरसाइड के एक अध्ययन के मुताबिक़ साल 2022 में, गूगल ने अपने डेटा केंद्रों को ठंडा रखने के लिए लगभग 20 बिलियन लीटर ताजे पानी का उपयोग किया। वहीं बीते साल माइक्रोसॉफ्ट की जल खपत में पिछले वर्ष की तुलना में 34 प्रतिशत की वृद्धि हुई। वर्तमान में डेटा सेंटर्स की खपत वैश्विक बिजली की खपत का 1 से 1.3 प्रतिशत है, मगर जैसे जैसे एआई टूल्स का उपयोग बढ़ेगा यह खपत भी बढ़ती जाएगी। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी IEA के अनुसार 2 तक यह आंकड़ा दोगुना होकर 3 प्रतिशत तक जा सकता है। इसके विपरीत, बढ़ते इलेक्ट्रिक वाहनों के बावजूद, ई-वाहनों की वैश्विक बिजली खपत मात्र 0.5% है। वहीं कई कई देशों में डेटा सेंटर्स की ऊर्जा खपत उनकी राष्ट्रीय माँग की दहाई हिस्सेदारी तक पहुँच गई है। आयरलैंड जैसे देश जहाँ टैक्स में छूट और प्रोत्साहन के कारण डेटा सेंटर्स की संख्या असामान्य रूप से अधिक है, आयरलैंड सेंट्रल स्टैटिक्स ऑफिस रिपोर्ट 2023 के अनुसार   यह हिस्सेदारी 18 प्रतिशत पहुँच गई |

 भारत में भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डेटा सेंटर्स का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। हालांकि भारत में डेटा सेंटर्स की ऊर्जा और जल खपत के आंकड़े अभी सीमित हैंलेकिन आने वाले वर्षों में AI के बढ़ते उपयोग के साथयह स्थिति बदल सकती है।भारत की सिलिकॉन वैलीबेंगलुरु पानी की भारी कमी से जूझ रही हैशहर में डिजिटल बुनियादी ढांचे को संचालित करने वाले डेटा केंद्रों के चलते यहाँ यह समस्या और बढ़ गई है। अकेले बेंगलुरु में डेटा सेंटर्स की संख्या सोलह  है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक बेंगलुरु के अलावा दिल्लीचैन्नई और मुंबई जैसे महानगरों में भी डेटा सेंटर्स में पानी की खपत बढ़ गई है। भारत में स्थापित डेटा केंद्रों की क्षमता 2 हजार मेगावॉट से 2029 तक  4.77 हजार मेगावाट तक पहुँचने की उम्मीद है। जिससे पहले से पानी की कमी से जूझ रहे भारत के सिलिकन वैली की डिजिटल महत्वाकांक्षाओं पर  संकट खड़ा हो जाएगा। 

इस समस्या के समाधान के लिए गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों डेटा केंद्रों के शीतलन के लिए  अपशिष्ट जल को पुनर्नवीनीकृत कर इस्तेमाल कर रही हैं। वहीं भारतीय डेटा केंद्र अभी भी ताजे  पानी की आपूर्ति पर निर्भर हैं।यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि   केवल बिजली खपत की बात नहीं हैंडेटा सेंटर्स को ठंडा रखने के लिए पानी के संसाधनों की माँग बढ़ती जा रही है। जो भविष्य में भारत के जल संसाधनों पर दबाव डाल सकती है। हालांकि डेटा सेंटर्स पर पानी की खपत को लेकर अभी पर्याप्त डेटा सामने नहीं आया हैडेन मोइन्स रिवर पर एसोसिएटेड प्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका के आयोवा शहर में OpenAI के GPT-4 मॉडल को सेवा देने वाला एक डेटा सेंटर उस जिले की पानी की आपूर्ति का करीब 6 प्रतिशत  उपयोग करता है। वहीं इस मामले में कुछ विशेषज्ञों ने एक वैकल्पिक दृष्टिकोण पेश किया है| 

बॉस्टन कंसल्टिंग ग्रुप के  एक अध्ययन के अनुसार,  AI के कॉर्पोरेट और औद्योगिक कामों के उपयोग से 2030 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 5-10 प्रतिशत की कमी हो सकती है वहीं 1.3 ट्रिलियन से 2.6 ट्रिलियन डॉलर के राजस्व की भी बचत हो सकती है।

 इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुएहमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के विकास के साथ-साथ इसके पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों पर भी ध्यान देना चाहिए। जिससे हम एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए एआई के फायदों का लाभ उठा सकते हैं और इसके पर्यावरणीय असर को कम कर सकते हैं। ऐसा कर हम एक बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकते हैंजहाँ तकनीक और प्रकृति दोनों के बीच तालमेल बना रहे।

अमर उजाला में 08/08/2024 को प्रकाशित 

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