भारत में यह बदलाव
२००० के दशक से शुरु हुआ जब अभिभावकों ने अपने बच्चों की किडनैपिंग और अनजान
खतरों से बचाने के लिए भय आधारित पैरंटिंग करना शुरू कर दिया , जिसका परिणाम हुआ कि बच्चों के अपने खेलने का समय घटता चला गया और उनकी
गतिविधियों पर माता पिता का नियंत्रण बढ़ गया।इसका दूसरा बड़ा कारण शहरों में खेल
के मैदानों का खत्म हो जाना भी है |अनियोजित शहरीकरण ने
बच्चों के खेलने की जगह खत्म कर दी |इसका असर बच्चों के
मोबाईल स्क्रीन में खो जाने में हुआ |आज के बच्चे और उनके
माता-पिता एक तरह के डिफेंस मोड में फंसे हुए हैं, जिससे बच्चे चुनौतियों का सामना करने, जोखिम उठाने और नई चीजें एक्सप्लोर करने से वंचित रह जाते हैं, जो उनको मानसिक रूप से मजबूत करने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए जरूरी है। अभिभावक हम अपने बच्चों को एक बढ़ई की तरह, बड़ा कर रहे हैं जो अपने सांचों को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में आकार देता
है।
असली दुनिया में हम अपने बच्चों को अधिक
सुरक्षा प्रदान करते हैं लेकिन डिजिटल दुनिया में उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते
हैं,जो कि उनके लिए खतरनाक साबित हो रहा है। स्मार्टफोन और
अत्याधिक सुरक्षात्मक पालन पोषण के इस मिश्रण ने बचपन की संरचना को बदल दिया है और
नई मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दिया है। जिनमें जीवन के प्रति असुरक्षा , कम नींद आना और नशे की लत शामिल हैं। तथ्य यह भी है कि हम सभी ने बहुत लंबे समय तक बिना फोन के और बिना माता-पिता
से त्वरित संपर्क किये, ठीक ठाक जीवन जीया और काम
किया है |।संयुक्त राष्ट्र की शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति एजेंसी यूनेस्को ने कहा कि इस बात के प्रमाण मिले हैं कि
मोबाइल फोन का अत्यधिक उपयोग शैक्षणिक प्रदर्शन में कमी से जुड़ा है तथा स्क्रीन
के अधिक समय का बच्चों की भावनात्मक स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है |भारत में इस दिशा में अभी तक कोई ठोस पहल न होना चिंता का विषय है |इसके कई कारण भी है जिसमें तकनीक का अचानक हमारे जीवन में आना और छा जाना भी
शामिल है|
प्रभात खबर में 13/08/2024 को प्रकाशित
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