Monday, November 18, 2024

एआई अनुसंधान में भारत का बढ़ता कद


कभी दुनिया में आईटी आउटसोर्सिंग के नाम से पहचाने जाने वाला भारत अब डिजिटल क्रांति की नई इबारत लिख रहा है। सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में अपने कौशल के दम पर भारत ने वैश्विक पहचान बनाई है,और अब भारतीय डेवेलपर्स आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में भी भारत को सिरमौर बनाने की राह में जुटे हुए हैं। हाल ही में आई गिटहब की एक रिपोर्ट के मुताबिक जेनेरेटिव एआई के क्षेत्र में भारत दुनिया में दूसरे पायदान पर पहुँच गया है और अनुमान है कि 2028 तक भारत कुल डेवेलपर्स की संख्या के मामले अमेरिका को पीछ छोड़ पहला स्थान हासिल कर लेगा। रिपोर्ट के मुताबिक गिटहब प्लेटफार्म पर भारतीय डेवेलपर्स की संख्या 2024 में 28 प्रतिशत बढ़कर 1.7 करोड़ के पार पहुँच गई है। दरअसल जेनरेटिव एआई का मतलब ऐसी एआई प्रणाली से है जिसमें न्यूरल नेटवर्क, मशीन लर्निंग जैसी तकनीक की मदद से टेक्स्ट,इमेज, ऑ़डियो आदि प्रकार के नए डेटा का सृजन होता है। न्यूरल नेटवर्क सीखे गए पैर्टन और नियमों के आधार पर आउटपुट उपलब्ध कराता है, जो हूबहू मानव निर्मित कंटेंट जैसा होता है। 2023 में प्रकाशित ब्लूमबर्ग इंटेलिजेंस की एक रिपोर्ट के अनुसार ओwपन एआई के चैट जीपीटी और गूगल के बार्ड जैसे नवाचारों के आने से जेनरेटिव एआई के बाजार में भूचाल आ गया है। अगले 10 सालों में जेनरेटिव एआई का बाजार दुनियाभर में 1.3 ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ने की संभावना है।

 जिसमें भारत एक अहम भूमिका निभाता दिखेगा। रिसर्च संस्था ईवाई की द एआई आइडिया ऑफ इंडिया शीर्षक से छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक यदि भारत विभिन्न क्षेत्रों में जेनरेटिव एआई तकनीक का पूरी तरह से उपयोग करता है तो 2030 तक जेन-एआई भारतीय अर्थव्यवस्था में 359-438 बिलियन डॉलर का अतिरिक्त योगदान दे सकता है। पिछले दो दशक में भारत ने आईटी के क्षेत्र में काफी प्रगति की है, आज अमेरिका की सिलिकन वैली से लेकर लंदन और सिडनी तक भारतीय इंजीनियर्स ने अपना योगदान दिया है। वहीं भारतीय सरकार की नीतियों जैसे डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसी मुहिम से भी अब भारत में तकनीकी नवाचारों का ईको-सिस्टम बनाने की कवायद तेज हो गई है। जिनमे आईटी क्षेत्र, सेमीकंडक्टर निर्माण और एआई से जुड़े उद्योग लगाये जा रहे हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक एआई तकनीक का इस्तेमाल कृषि, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और मीडिया जैसे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर किया जा सकता है, जिससे भारत को इन क्षेत्रों में उल्लेखनीय सुधार देखने को मिल सकता है। हाल ही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग और आईआईटी बॉम्बे द्वारा भारतजेन नाम से एक भारतीय जेनरेटिव एआई की शुरुआत की गई, जिसके तहत नागरिकों को विभिन्न भाषाओं में जेनरेटिव एआई उपलब्ध कराया जाएगा। आज देश में जेनरेटिव एआई स्टार्टअप्स की संख्या में भी एक तीव्र वृद्धि दर्ज की जा रही है। बीते माह आई नैसकॉम की इंडियाज जेनरेटिव एआई  स्टार्टअप लैंडस्केप 2024 रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक साल में जेनरेटिव एआई से जुड़े स्टार्टप्स की संख्या 66 से 240 पहुँच गई है। 

भारत की सिलिकन वैली के नाम से प्रसिद्ध बेंगलुरु भारत के जेन-आई स्टार्टअप का प्रमुख केंद्र बना हुआ है, जो देश में कुल 43 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है। वहीं अहमदाबाद, पुणे, सूरत और कोलकाता जैसे शहर भी तेजी से उभरते हुए केंद्र बन रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एआई रिसर्च में भी भारत का कद लगातार बढ़ रहा है। अमेरिका, जर्मनी और जापान जैसे देशों के साथ मिलकर भारत एआई की चुनौतियों और अवसरों को हल करने के लिए सक्रिय रूप से काम कर रहा है। एन एआई अपरच्यूनिटी फॉर इंडिया रिपोर्ट में गूगल ने भारत में डायबिटिक रेटिनोपैथी एआई मॉडल उपलब्ध कराने की घोषणा की है। इसकी मदद से अगले 10 साल में एआई असिस्टेंट स्क्रीनिंग की सुविधा दी जाएगी। वहीं गूगल भारतीय कंपनियों के साथ मिलकर खेती की उपज बढ़ाने के लिए एआई मॉडल का भी निर्माण कर रहा है।इसके साथ ही दिग्गज चिप निर्माता एनवीडिया ने भी रिलायंस इंडस्ट्रीज के साथ भारत में एआई इंफ्रास्ट्रकचर के निर्माण करने की घोषणा की है। दोनों कंपनियों ने भारत में एआई कम्प्यूटिंग इंफ्रा और नवाचार केंद्र बनाने के लिए एक समझौता किया है। भारत सरकार ने भी देश में एआई स्टार्टअप को सशक्त बनाने के लिए इस साल इंडिया एआई मिशन को मंजूरी दी थी, जिसके लिए कैबिनेट ने करीब 10 हजार करोड़ की राशि जारी की थी। इस कदम से एआई नवाचार में देश को ग्लोबल लीडर बनने में काफी मदद मिलेगी। वहीं भारत में एआई का बढ़ता प्रसार रोजगार के लिए बड़ा संकट बन सकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ मशीनीकरण कार्यों को आसान बना रहा है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार एआई और ऑटोमेशन के कारण आने वाले सालों में लाखों पारंपरिक नौकरियों पर संकट आ सकता है।

 इसके बदले नए तकनीकी और विश्लेषणात्मक कौशल की माँग की वृद्धि होगी, जिसके लिए सरकार और निजी क्षेत्र को मिलकर रीस्किलिंग प्रोग्राम्स चलाने पर भी ध्यान देना चाहिए।देश का डिजिटल विकास और एआई में निवेश यह भरपूर संकेत देता है कि आने वाले कुछ सालों में भारत एआई के क्षेत्र में एक महाशक्ति के रूप में उभर सकता है। यह न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करेगा, बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति को मजबूती देगा। अगर भारत अपने तकनीकी संसाधनों और नवाचारों को सही दिशा में इस्तेमाल करता है,तो एआई के क्षेत्र में अग्रणी बनने के साथ-साथ पूरी दुनिया में इसका नेतृत्व भी कर सकता है। हालांकि भारतीय तकनीकी शिक्षा संस्थान और कई कंपनियाँ इस दिशा में काम कर रही हैं, ताकि भविष्य में कार्यबल को एआई-सक्षम उद्योगों के लिए तैयार किया जा सके। इसके साथ ही सुरक्षा के मोर्चे पर भी साइबर हमलों, डीपफेक्स और फेक न्यूज के प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए एक तंत्र की आवश्यकता है।

 अमर उजाला में 18/11/24 को प्रकाशित 

Friday, November 15, 2024

असली दुनिया से दूर ले जा रहे स्मार्टफोन

 

पिछले कुछ दशकों में तकनीक का हमारे जीवन पर गहरा असर हुआ है। तकनीक के बेजा इस्तेमाल ने हमारी आदतों, सोच और संज्ञानात्मक क्षमताओं में परिवर्तन लाया है। स्मार्टफोन, टैबलेट, लैपटॉप जैसे डिजिटल डिवाइस आज हर व्यक्ति की जीवनशैली का एक हिस्सा हो चले हैं। एक समय था जब खाली समय में किताबें पढ़ना, पत्र लिखना एक प्रचलित शौक हुआ करते थे, पर अब वह समय बिंज वॉचिंग, रील स्क्रॉलिंग और वीडियोज देखने में गुजरता है। विजुअल मीडिया खासकर शॉर्ट वीडियो ने हमारे देखने-सुनने के अनुभव को इतना मनोरंजक बना दिया है कि कई लोगों के लिए पढ़ना एक पुराने जमाने की बात लगता है। इस बदलाव का असर हमारे संज्ञानात्मक विकास और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है, जो आज के शोधकर्ताओं के लिए एक चिंता का विषय बन गया है।बॉस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, 2010 में जहां लोग औसतन 2 घंटे फोन पर बिताते थे, वहीं 2024 में यह समय बढ़कर लगभग 4.9 घंटे हो गया है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में एक स्मार्टफोन उपयोगकर्ता दिन में औसतन 80 बार अपना फोन चेक करता है, जिनमें से ज्यादातर बार वह इसे किसी जरूरत से नहीं बल्कि सिर्फ आदतन करता है।

 इनमें से कई बार फोन चेक करने की आदत में सुबह उठने के 15 मिनट के भीतर फोन देखना भी शामिल है। यह आंकड़ा दिखाता है कि हम अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा डिजिटल स्क्रीन के सामने बिता रहे हैं। और उसका अधिकांश हिस्सा सिर्फ विजुअल कंटेट देखने में बिता रहे हैं। इस बढ़ते स्क्रीन टाइम और विजुअल कंटेंट के बढ़ते उपभोग से ना केवल हमारी पढ़ने लिखने की आदतें कम हो रही हैं बल्कि एक साथ ध्यान केंद्रित करने की क्षमता भी असर हो रहा है।स्मार्टफोन और विजुअल कंटेंट के बेतहाशा इस्तेमाल से हमारी किसी चीज़ पर ध्यान देने और समझने की क्षमता कम होती जा रही है। माइक्रोसॉफ्ट का एक अध्ययन बताता है कि डिजिटल लाइफस्टाइल की वजह से इंसानों की ध्यान अवधि एक गोल्डफिश से भी कम हो गई है! वहीं, कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर डॉ. ग्लोरिया मार्क का मानना है कि शॉर्ट वीडियो ऐप्स ने इस कमी को और भी बढ़ा दिया है। असल में, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे यूट्यूब और इंस्टाग्राम को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि हमारा दिमाग केवल छोटे और संक्षिप्त कंटेंट को एक बार में ही झट से पकड़ने के लिए तैयार हो जाए।  इसका सबसे बड़ा खतरा ये है कि ये प्लेटफॉर्म हमें इन कंटेंट की इतनी आदत डाल देते हैं कि इनसे दूर रहना मुश्किल हो जाता है।  जिससे हमें लंबे, जटिल और शब्दों से भरी किताबें, क्लासरूम के लंबे लेक्चर्स ऊबाऊ लगने लगते हैं और हमारा मस्तिष्क उन्हें पहले की तरह अच्छे से प्रोसेस नहीं कर पाता है। 

इन शॉर्ट वीडियो प्लेटफॉर्म पर जब हमें कुछ उबाऊ लगता है, तो हमारे पास अनगिनत स्क्रॉल का विकल्प होता है, लेकिन असल जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं होता है।पीयू रिसर्च सेंटर के एक सर्वे के मुताबिक सोशल मीडिया के लगातार इस्तेमाल से छात्रों को कई बार पढ़ाई पर फोकस करने और काम पर ध्यान केंद्रित करने में मुश्किल महसूस होती है। सर्वे के मुताबिक 31% किशोरों ने माना कि वे क्लास में अपना ध्यान खो बैठते हैं क्योंकि उनका ध्यान बार-बार फोन चेक करने में रहता है, और 49% का कहना था कि उन्हें क्लासरूम में ज्यादा देर लेक्चर सुनना उबाऊ लगता है। रिपोर्ट में एक खास बात पर जोर दिया गया है कि अब किताबें पढ़ना पहले जितना आसान नहीं रह गया  है, जानकारी याद रखना एक चुनौती की तरह हो गया है जिससे लोगों में झुंझलाहट बढ़ गई है।भारत में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे -5 के आंकड़े दिखाते हैं कि लोग पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार, मैगजीन, और टीवी से मिलने वाली खबरों की तरफ अपनी रुचि खोते जा रहे हैं। लोगों की रुचि अब चीजों को डिजिटली देखने और सुनने की ओर बढ़ रही है। रॉयटर्स की 2023 डिजिटल  रिपोर्ट के एक सर्वे के  मुताबिक 71 प्रतिशत भारतीय ऑनलाइन समाचार देखना पसंद करते हैं वहीं केवल 29% लोगों का ही रुझान अखबार पढ़ने में है। वहीं इंडियन रीडरशिप सर्वे के मुताबिक 2026 तक ऑनलाइन न्यूज कारोबार 70 करोड़ भारतीयों तक पहुँच सकता है जबकि प्रिंट मीडिया का कारोबार 20 प्रतिशत तक घटने की संभावना है। खबरों के अलावा युवा पाठक अब ई-बुक्स और ऑडियोबुक्स को किताबों की तुलना में अधिक पसंद कर रहे हैं। सिरकाना बुकस्कैन की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2023 में 2022 के मुकाबले प्रिंट किताबों की बिक्री में 2.6 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। वहीं रिसर्च संस्था स्टेस्टिका के मुताबिक भारत में ऑडियोबुक का बाजार हर साल 10.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। ये आंकड़े दिखाते हैं कि लोगों का रुझान अब पढ़ने और लिखने के बजाये देखने की और सुनने की ओर बढ़ रहा है। विजुअल और ऑडियो मीडिया के इस बढ़ते बाजार का असर शिक्षा के क्षेत्र में भी नजर आता है। किताबों और लेखों की जगह अब वीडियो लेक्चर्स ने ली है। 

दिग्गज ऑनलाइन लर्निंग प्लेटफॉर्म यूडेमी के मुताबिक उनके प्लेफॉर्म पर इस समय 130 मिलियन से अधिक छात्र पढ़ाई करते हैं वहीं भारत की दिग्गज कंपनी अनएकेडमी पर 5 मिलियन से अधिक एक्टिव लर्नस मौजूद हैं। यूट्यूब पर तो यह आंकड़ा कहीं अधिक हो जाता है। दरअसल विजुअल और ऑडियो माध्यम से जानकारी को समझना और सीखना आसान हो जाता है। मगर छात्र किताबों को छोड़कर सिर्फ वीडियो लेक्चर्स पर निर्भर हो जायेंगे, तो इससे उनकी गहरी समझ पर असर पड़ सकता है। किताबें लोगों में विश्लेषण करने की क्षमता, एकाग्रता और एक गहरी सोच निर्माण करती है जो सिर्फ इन वीडियो लेक्चर्स से नहीं हो सकता है। लेकिन अगर यह सिलसिला यूं ही चलता रहा, तो हमारे पढ़ने और लिखने का कौशल सिर्फ शैक्षणिक कामों तक ही सीमित हो जाएगा। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि किताबें पढ़ने से हमारी सोच, कल्पना और समझ बढ़ती है जिससे मनुष्य में तर्कशीलता और सृजनात्मकता आती है। हम अगर सिर्फ विजुअल और ऑडियो कंटेंट पर  निर्भर हो गए, तो हमारी सोचने और समझने की ताकत कमजोर हो सकती है। इसलिए हमें वक्त-वक्त पर अपने फोन से कुछ समय ब्रेक लेकर किताबों, लेखन और गहन अध्ययन के जरिए अपनी मानसिक क्षमता को बेहतर बनाना चाहिए। इस तरह हम दोनों दुनिया के फायदों का लाभ उठा सकते हैं और एक समग्र विकास की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।

नवभारत टाईम्स में 15/11/2024 को प्रकाशित 

Tuesday, November 5, 2024

एआइ का पर्यावरण पर दुष्प्रभाव

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानि कृत्रिम बुद्धिमत्ता अब  हमारे दैनिक जीवन का एक अहम हिस्सा बनती जा रही हैं। वर्चुअल असिस्टेंट से लेकर स्मार्ट होम तक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हर जगह है। चाहे चैट जीपीटी जैसे एआई जनित प्लेटफार्म पर हमे जटिल प्रश्नों के हल जानना हो या गूगल और एलेक्सा जैसे वर्चुअल असिस्टेंट्स पर अपनी आवाज भर से कोई काम कराना होआर्टिफिशियल इंटेलिजेंस धीरे धीरे हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बनने की ओर अग्रसर है। मगर क्या इस अचंभित कर देने वाली तकनीक के कुछ और पहलू हो सकते हैंजो भविष्य में पर्यावरण और मानव सभ्यता के लिए हानिकारक साबित हो सकते हैं?इस साल जारी हुई गूगल की वार्षिक पर्यावरण रिपोर्ट में चौकाने वाले आंकड़े सामने आये हैंसाल 2022  के मुकाबले 2023 में गूगल के डाटा सेंटर पर कार्बन उत्सर्जन फुटप्रिंट में तेरह प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है । यह वृद्धि मूल रूप से उसके डेटा सेंटरों और आपूर्ति श्रृंखलाओं में बिजली की खपत बढ़ने के कारण हुई। कंपनी का कहना है कि साल 2023 में उसके डेटा सेंटरों ने पहले की तुलना में 17 प्रतिशत अधिक बिजली का उपयोग किया और एआई टूल्स का उपयोग होने के कारण यह वृद्धि आने वाले सालों में और बढ़ेगी।जाहिर है कि एआई के उपयोग कई क्षेत्रों में परिवर्तनकारी बदलाव लाने के लिए किया जा रहा हैजिनमें जलवायु परिवर्तन से जुड़े समाधान भी शामिल हैं। लेकिन बढ़ती एआई तकनीक ने एक भारी कार्बन उत्सर्जन फुटप्रिंट जैसी समस्या उत्पन्न कर दी है। अध्ययनों से पता चलता है कि एआई चैटबॉट चैट-जीपीटी पर पूछी गई एक साधारण क्वेरीगूगूल खोज की तुलना में 10 से 33 गुना अधिक ऊर्जा का उपयोग करती है। वहीं इमेज आधारित प्लेटफार्म पर इससे कहीं अधिक ऊर्जा खर्च होती है।  

 दरअसल एआई मॉडल सामान्य गूगल खोज की तुलना में अधिक डेटा को प्रोसेस और फिल्टर करते हैं, अधिक काम का मतलब है कि कंप्यूटर को डेटा प्रोसेसिंग, स्टोरिंग और रिट्रीविंग के समय अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होगी। वहीं अधिक काम करने से उत्पन्न गर्मी को कम करने के लिए डेटा सेंटर्स पर अधिक शक्तिशाली एयर कंडीशनिंग  और अन्य ठंडे उपाय किये जाते हैं।यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया रिवरसाइड के एक अध्ययन के मुताबिक़ साल 2022 में, गूगल ने अपने डेटा केंद्रों को ठंडा रखने के लिए लगभग 20 बिलियन लीटर ताजे पानी का उपयोग किया। वहीं बीते साल माइक्रोसॉफ्ट की जल खपत में पिछले वर्ष की तुलना में 34 प्रतिशत की वृद्धि हुई। वर्तमान में डेटा सेंटर्स की खपत वैश्विक बिजली की खपत का 1 से 1.3 प्रतिशत है, मगर जैसे जैसे एआई टूल्स का उपयोग बढ़ेगा यह खपत भी बढ़ती जाएगी। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी IEA के अनुसार 2 तक यह आंकड़ा दोगुना होकर 3 प्रतिशत तक जा सकता है। इसके विपरीत, बढ़ते इलेक्ट्रिक वाहनों के बावजूद, ई-वाहनों की वैश्विक बिजली खपत मात्र 0.5% है। वहीं कई कई देशों में डेटा सेंटर्स की ऊर्जा खपत उनकी राष्ट्रीय माँग की दहाई हिस्सेदारी तक पहुँच गई है। आयरलैंड जैसे देश जहाँ टैक्स में छूट और प्रोत्साहन के कारण डेटा सेंटर्स की संख्या असामान्य रूप से अधिक है, आयरलैंड सेंट्रल स्टैटिक्स ऑफिस रिपोर्ट 2023 के अनुसार   यह हिस्सेदारी 18 प्रतिशत पहुँच गई |

 भारत में भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डेटा सेंटर्स का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। हालांकि भारत में डेटा सेंटर्स की ऊर्जा और जल खपत के आंकड़े अभी सीमित हैंलेकिन आने वाले वर्षों में AI के बढ़ते उपयोग के साथयह स्थिति बदल सकती है।भारत की सिलिकॉन वैलीबेंगलुरु पानी की भारी कमी से जूझ रही हैशहर में डिजिटल बुनियादी ढांचे को संचालित करने वाले डेटा केंद्रों के चलते यहाँ यह समस्या और बढ़ गई है। अकेले बेंगलुरु में डेटा सेंटर्स की संख्या सोलह  है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक बेंगलुरु के अलावा दिल्लीचैन्नई और मुंबई जैसे महानगरों में भी डेटा सेंटर्स में पानी की खपत बढ़ गई है। भारत में स्थापित डेटा केंद्रों की क्षमता 2 हजार मेगावॉट से 2029 तक  4.77 हजार मेगावाट तक पहुँचने की उम्मीद है। जिससे पहले से पानी की कमी से जूझ रहे भारत के सिलिकन वैली की डिजिटल महत्वाकांक्षाओं पर  संकट खड़ा हो जाएगा। 

इस समस्या के समाधान के लिए गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों डेटा केंद्रों के शीतलन के लिए  अपशिष्ट जल को पुनर्नवीनीकृत कर इस्तेमाल कर रही हैं। वहीं भारतीय डेटा केंद्र अभी भी ताजे  पानी की आपूर्ति पर निर्भर हैं।यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि   केवल बिजली खपत की बात नहीं हैंडेटा सेंटर्स को ठंडा रखने के लिए पानी के संसाधनों की माँग बढ़ती जा रही है। जो भविष्य में भारत के जल संसाधनों पर दबाव डाल सकती है। हालांकि डेटा सेंटर्स पर पानी की खपत को लेकर अभी पर्याप्त डेटा सामने नहीं आया हैडेन मोइन्स रिवर पर एसोसिएटेड प्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका के आयोवा शहर में OpenAI के GPT-4 मॉडल को सेवा देने वाला एक डेटा सेंटर उस जिले की पानी की आपूर्ति का करीब 6 प्रतिशत  उपयोग करता है। वहीं इस मामले में कुछ विशेषज्ञों ने एक वैकल्पिक दृष्टिकोण पेश किया है| 

बॉस्टन कंसल्टिंग ग्रुप के  एक अध्ययन के अनुसार,  AI के कॉर्पोरेट और औद्योगिक कामों के उपयोग से 2030 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 5-10 प्रतिशत की कमी हो सकती है वहीं 1.3 ट्रिलियन से 2.6 ट्रिलियन डॉलर के राजस्व की भी बचत हो सकती है।

 इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुएहमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के विकास के साथ-साथ इसके पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों पर भी ध्यान देना चाहिए। जिससे हम एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए एआई के फायदों का लाभ उठा सकते हैं और इसके पर्यावरणीय असर को कम कर सकते हैं। ऐसा कर हम एक बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकते हैंजहाँ तकनीक और प्रकृति दोनों के बीच तालमेल बना रहे।

दैनिक जागरण में ०५/११/२०२४ को प्रकाशित 

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