Thursday, February 13, 2025

फर्जी समाचारों के लिए फैक्ट चेकिंग व्यवस्था

फेक न्यूज यानी झूठी और फर्जी खबरें, आज के डिजिटल युग का एक डरावना पहलू हैं। हर दिन हम सोशल मीडिया पर ऐसी खबरों का सामना करते हैं जो पूरी तरह से आधारहीन होती हैं या किसी खास मकसद से उनके तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की जाती है। ये खबरें न केवल हमारे विश्वास को प्रभावित करती हैं बल्कि समाज में भय, भ्रम और नफरत का बीज भी बोती हैं। ऐसे में दुनियाभर के फैक्टचैकर्स इन फर्जी खबरों को पर्दाफाश करने के लिए दिनरात मेहनत करते हैं ताकि हमें सही जानकारी मिल सके। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फैलने वाली फर्जी खबरों से निपटने के लिए साल 2016 में फेसबुक अब मेटा ने एक फैक्ट  चैकिंग प्रोग्राम की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य था सोशल मीडिया पर फैल रही गलत खबरों की पहचान करना और सही जानकारी यूजर्स तक पहुँचाना। मेटा की यह पहल फेक न्यूज से निपटने के लिए एक मजबूत कदम था, जिसने सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों को नियंत्रित करने का प्रयास किया था। लेकिन हाल ही में कंपनी ने अचानक अपने फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम को बंद करने की घोषणा कर दी है।
 जिससे दुनियाभर के विशेषज्ञों, पत्रकारों और फैक्ट चैकर्स में चिंता और आसमंजस की स्थिति पैदा हो गई है। सवाल यह उठता है कि क्या ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटने की कोशिश कर रहे हैं ? वो भी ऐसे समय जब एआई, डीप फेक जैसी तकनीकों ने सही और गलत में पहचान करना और भी अधिक मुश्किल कर दिया है। प्रोग्राम को बंद करने के पीछे कंपनी की दलील है कि फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम की जगह फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सअप पर अब कम्यूनिटी नोट्स मॉडल शुरू किया जाएगा। जिससे प्लेटफॉर्म्स का उपयोग कर रहे यूजर्स को यह अधिकार मिलेगा कि वे फेक न्यूज फैला रहे पोस्ट्स को खुद उजागर कर सकेंगे। फिलहाल के लिए फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम को सिर्फ अमेरिका में बंद करने का निर्णय लिया गया है लेकिन इस फैसले ने दुनिया भर में फेक न्यूज के खिलाफ चल रही लड़ाई को एक बड़ा झटका दिया है।साल 2016 में मेटा ने थर्ड-पार्टी फैक्ट-चेकिंग प्रोग्राम शुरू किया था जिसके तहत कंपनी स्वतंत्र फैक्ट-चेकिंग संगठनों के साथ मिलकर सोशल मीडिया कंटेंट का सटीकता से मूल्याकंन करती है। इसका उद्देश्य चुनाव, महामारी और संवेदनशील विषयों पर गलत सूचना के प्रसार को रोकना है। मेटा ने इस प्रोग्राम के तहत 100 मिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया है। इस साझेदारी में दुनियाभर के 80 से अधिक मीडिया संगठन शामिल हैं। जिनमें भारत में कंपनी ने अकेले 11 फैक्ट चैकिंग संस्थानों से करार किया था। प्रोग्राम में थर्ड पार्टी फैक्ट चैकर्स संभावित फर्जी खबरों और पोस्ट को चिह्नित करते हैं जिसके बाद फीड में एल्गोरिदम की मदद से ऐसे पोस्ट की रीच को कम या खत्म कर दिया जाता था। लेकिन हाल में मेटा के सीईओ मार्क ज़करबर्ग ने इस पुराने प्रोग्राम को राजनीतिक रूप से पक्षपाती करार देते हुए इसे बंद करने का निर्णय लिया और उन्होंने नए कम्युनिटी नोट्स मॉडल को अधिक लोकतांत्रिक और बेहतर बताया है। 

हालांकि मेटा के इस कदम को कई विशेषज्ञ आलोचनात्मक नजरों से देख रहे हैं और इसे राजनीतिक दबाव के चलते लिया गया फैसला बता रहे हैं। इस निर्णय की घोषणा नए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शपथ ग्रहण से ठीक पहले होना भी इस फैसले को कटघरे में खड़ा करता है। नया कम्यूनिटी नोट्स मॉडल, माइक्रो ब्लॉगिंग साइट एक्स के सामुदायिक नोट्स कार्यक्रम की तरह काम करेगा। जिसे ट्विटर ने 2021 में बर्डवॉच नाम से शुरू किया था। इसके तहत यूजर्स पोस्ट्स पर नोट्स जोड़ सकते हैं और यूजर्स की रेटिंग्स से कंटेंट की गुणवत्ता सुनिश्चित की जाती है। पांरपरिक फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम के विपरीत नोट्स को कर्मचारियों या एक्सपर्ट्स द्वारा संपादित नहीं किया जाता, यह पूरी तरह यूजर्स पर निर्भर है। कंपनी के मुताबिक थर्ड पार्टी फैक्ट-चेकिंग में विशेषज्ञों का पूर्वाग्रह, पक्षपाती रवैया हो सकता है, जिससे वे एक पक्ष की ओर झुक सकते हैं।यह बदलाव खासतौर पर भारत जैसे देश में फेक न्यूज के प्रसार को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। साल 2024 में विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में फेक न्यूज और गलत सूचना प्रसार के जोखिम के मामले में भारत पहले स्थान पर है। देश में फैक्ट चैकिंग पेशेवरों की माँग लगातार बढ़ रही है, वहीं इन संस्थानों का एक बड़ा हिस्सा मेटा की वित्तीय सहायता पर निर्भर है। 

थर्ड पार्टी फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम के बंद होने से इन संस्थानों की आर्थिक स्थिरता पर भी खतरा मंडरा रहा है, जिससे फर्जी खबरों और गलत सूचनाओं के प्रसार को रोकने में चुनौतियाँ काफी बढ़ सकती हैं। हालांकि अभी कंपनी ने भारत में इस प्रोग्राम को बंद करने की घोषणा नहीं की है, लेकिन इस कदम से इन फैक्ट चैकिंग संस्थानों की चिंता बढ़ गई है। इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस और साइबरपीस द्वारा किये गये एक शोध ने भारत में बढ़ते फेक न्यूज प्रसार और डीपफेक जैसी चिंताओं को लेकर बड़ा खुलासा किया है। अध्ययन के मुताबिक गलत सूचना के प्रसार के मामले में सोशल मीडिया एक प्रमुख स्त्रोत है। सोशल मीडिया पर फैलने वाली फेक न्यूज में 46 प्रतिशत राजनीति से जुड़े, 16.8 प्रतिशत धर्म से जुड़े और 33.6 प्रतिशत सामान्य मुद्दे हैं। शोध में ट्विटर 61 प्रतिशत और फेसबुक 34 प्रतिशत फेक न्यूज फैलाने वाले प्रमुख प्लेटफ़ॉर्म के रूप में पहचाने गये। वहीं 2019 में  माइक्रोसॉफ्ट के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि  भारत में 64% इंटरनेट यूजर्स ने फर्जी खबरों का सामना किया है, जो विश्व स्तर पर सबसे अधिक है। पीआईबी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2024 में देश में 583 भ्रामक समाचारों की पहचान की गई, जिनमें से 36 प्रतिशत खबरें सरकारी योजनाओं से जुड़ी थीं। पिछले कुछ सालों में कई बार ये फर्जी खबरें लोगों के लिये जानलेवा भी साबित हुई, उदाहरण के लिए अमेरिकन जर्नल ऑफ ट्रापिकल मेडिसिन एंड हाइजीन में छपे एक शोध के मुताबिक कोविड महामारी के दौरान कई तरह की अफवाहों और गलत सूचनाओं के चलते करीब 800 लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। वहीं भारत में 2018 में झारखंड और उत्तर प्रदेश में सोशल मीडिया पर अफवाह फैलने पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ गई थी। सीएए आंदोलन, दिल्ली दंगे और किसान आंदोलन के वक्त भी अफवाहों से स्थिति तनावपूर्ण हो गई थी।

पर आखिर मेटा के इस फैसले के क्या खतरे हो सकते हैं? दरअसल एक्सपर्ट्स और फैक्ट चैकर्स के बिना अप्रशिक्षित यूजर्स को फेक न्यूज की पहचान करने में कठिनाई हो सकती है, और निगरानी के बगैर राजनीतिक या प्रोपागेंडा आधारित कंटेंट प्लेटफॉर्म पर हावी हो सकता है जो बड़ी जनसंख्या को प्रभावित भी कर सकता है। आज के दौर में  फे़सबुक और वाट्सऐप जैसे प्लेटफॉर्म्स पर फ़ेक न्यूज़ और ग़लत सूचनाओं की बाढ़ आई हुई है। किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं, यह बड़ी चिंता का विषय है। तटस्थ और फैक्ट चेक के बिना के कंटेंट से राजनीतिक पार्टियों और विचारों को हेरफेर और ध्रुवीकरण करने का मौका मिल सकता है, विशेष रूप से यह बहुसंख्यकवादी  विचारों को लागू कर सकता है। ऐसा देखा गया है  कि कई बार फेक न्यूज को आंकने में मुख्यधारा की मीडिया तक चकमा खा जाती है, ऐसे में पेशेवर फैक्ट चैकर्स, पत्रकारों और एक्सपर्ट्स को छोड़ आम यूजर्स पर यह जिम्मेदारी डालना खतरनाक हो सकता है। और एआई, डीप फेक के दौर में फेक न्यूज के खिलाफ चल रहा दुनियाभर में संघर्ष कमजोर हो सकता है। भारत जैसे देश में जहाँ सांस्कृतिक और राजनीतिक विविधता कम्यूनिटी फैक्ट चैकिंग  को चुनौतीपूर्ण बनाती है, क्योंकि जटिल मुद्दों, भाषणों की सटीक व्याख्या के लिए पेशेवर विशेषज्ञों की आवश्यकता जरूरी रहती है ।  इंडिया टुडे फ़ैक्ट चेक, द क्विंट,बूम, एल्ट न्यूज जैसी भारतीय फैक्ट चैकिंग संस्थाओं के लिए मेटा के थर्ड पार्टी चैकिंग प्रोग्राम का हिस्सा फंडिंग का अहम स्रोत है अगर यह बंद हो जाता है तो हजारों फैक्ट चैकर्स के लिए रोजगार का संकट भी खड़ा हो सकता है और अब इन संस्थाओं को अन्य वैकल्पिक वित्तीय स्रोत भी बनाने होंगे। ऐसे में भले ये कंपनियाँ अपनी जिम्मेदारी से भागने की कोशिश कर रही हों, यह जिम्मेदारी अब सरकार और पत्रकारों और स्वतंत्र फैक्ट चैकर्स की है कि वह कैसे मीडिया की विश्वसनीयता सुनिश्चित करते हैं और झूठे दावों, खबरों और अफवाहों को सामने लाकर फेक न्यूज के मकड़जाल का सामना करते हैं।

 दैनिक जागरण में 13/02/2024 को प्रकाशित 


Friday, January 31, 2025

प्रैंक वीडियो को लेकर सजगता जरुरी

 

आजकल फेसबुकइंस्टाग्रामऔर यूट्यूब पर संगीत के बाद सबसे अधिक देखे जाने वाले वीडियो में फनी वीडियो या प्रैंक वीडियो सबसे लोकप्रिय हैं। इंसान सदियों से एक दूसरे के साथ मजाक करता आ रहा है। जब हमें पहली बार यह एहसास हुआ कि अपनी सामाजिक शक्ति का हेर फेर करके दूसरों की कीमत पर मजाक उड़ाया जा सकता हैतब से प्रैंक या मजाक सांस्कृतिक मानकों द्वारा निर्धारित होते आए हैंजिसमें टीवीरेडियोऔर इंटरनेट भी शामिल हैं। लेकिन जब सांस्कृतिक और व्यावसायिक मानक मजाक करते वक्त आपस में टकराते हैं और उन्हें जनमाध्यमों का साथ मिल जाता हैतो इसके परिणाम भयानक हो सकते हैं।

दिसंबर 2012 मेंजैसिंथा सल्दान्हा नाम की एक भारतीय मूल की ब्रिटिश नर्स ने एक प्रैंक कॉल के बाद आत्महत्या कर ली थी। इसके बाद दुनिया भर में बहस छिड़ गई कि इस तरह के मजाक को किसी के साथ करना और फिर उसे रेडियोटीवीया इंटरनेट के माध्यम से लोगों तक पहुंचाना कितना जायज है।

दुनिया में ऑनलाइन प्रैंक वीडियो की शुरुआत यूट्यूब और फेसबुक जैसी साइट्स के आने से पहले हुई थी। साल 2002 मेंएक इंटरैक्टिव फ्लैश वीडियो स्केयर प्रैंक के नाम से पूरे इंटरनेट पर फैल गया था। थॉमस हॉब्स उन पहले दार्शनिकों में से थे जिन्होंने माना कि मजाक के बहुत सारे कार्यों में से एक यह भी है कि लोग अपने स्वार्थ के लिए मजाक का इस्तेमाल सामाजिक शक्ति पदानुक्रम को अस्त-व्यस्त करने के लिए करते हैं। सैद्धांतिक रूप सेमजाक की श्रेष्ठता के सिद्धांतों को मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के बीच संघर्ष और शक्ति संबंधों के संदर्भ में समझा जा सकता है। विद्वानों ने स्वीकार किया कि संस्कृतियों मेंमजाक और प्रैंक का इस्तेमाल अक्सर हिंसा को सही ठहराने और मजाक के लक्ष्य को अमानवीय बनाने के लिए किया जाता है। इन सारी अकादमिक चर्चाओं के बीच भारत में इंटरनेट पर मजाक का शिकार हुए लोगों की चिंताएं गायब हैं।

सबसे मुख्य बात सही और गलत के बीच का फर्क मिटना हैजो सही है उसे गलत मान लेना और जो गलत है उसे सही मान लेना। जिस गति से देश में इंटरनेट पैर पसार रहा हैउस गति से लोगों में डिजिटल साक्षरता नहीं आ रही हैइसलिए निजता के अधिकार जैसी आवश्यक बातें कभी विमर्श का मुद्दा नहीं बनतीं। किसी ने किसी से फोन पर बात की और अपना मजाक उड़ायायह मामला तब तक व्यक्तिगत रहा। फिर वही वार्तालाप इंटरनेट के माध्यम से सार्वजनिक हो गया। जिस कंपनी के सौजन्य से यह सब हुआउसे हिट्सलाइक्सऔर पैसा मिलापर जिस व्यक्ति के कारण यह सब हुआउसे क्या मिलायह सवाल अक्सर नहीं पूछा जाता। इंटरनेट पर ऐसे सैकड़ों ऐप हैंजिनको डाउनलोड करके आप मजाकिया वीडियो देख सकते हैं और ये वीडियो आम लोगों ने ही अचानक बना दिए हैं। कोई व्यक्ति रोड क्रॉस करते वक्त मेन होल में गिर जाता है और उसका फनी वीडियो इंटरनेट पर वायरल हो जाता है और फिर अनंतकाल तक के लिए सुरक्षित भी हो जाता है।

मजाकिया और प्रैंक वीडियो पर कहकहे लगाइएपर जब उन्हें इंटरनेट पर डालना होतो क्या जाएगा और क्या नहींइसका फैसला कोई सरकार नहींहमें और आपको करना है। इसी निर्णय से तय होगा कि भविष्य का हमारा समाज कैसा होगा।

प्रभात खबर में 31/01/2025 को प्रकाशित 

Thursday, January 23, 2025

सबकी चिंता बने प्रदूषण

 

आधुनिक विकास की अवधारणा के साथ ही कूड़े की समस्या मानव सभ्यता के साथ आयी |जब तक यह प्रव्रत्ति प्रकृति सापेक्ष थी परेशानी की कोई बात नहीं रही पर इंसान जैसे जैसे प्रकृति को चुनौती देता गया कूड़ा प्रबंधन एक गंभीर समस्या में तब्दील होता गया क्योंकि मानव ऐसा कूड़ा छोड़ रहा था जो प्राकृतिक तरीके से समाप्त  नहीं होता या जिसके क्षय में पर्याप्त समय लगता है और उसी बीच कई गुना और कूड़ा इकट्ठा हो जाता है जो इस प्रक्रिया को और लम्बा कर देता है जिससे कई तरह के प्रदूषण का जन्म होता है और साफ़ सफाई की समस्या उत्पन्न होती है |देश की हवा लगातार रोगी होती जा रही है |पेट्रोल डीजल और अन्य कार्बन जनित उत्पाद जिसमें कोयला भी शामिल है |तीसरी दुनिया के देश जिसमें भारत भी शामिल है प्रदूषण के मोर्चे पर दोहरी लड़ाई लड़ रहे हैं | पेट्रोल डीजल और कोयला ऊर्जा के मुख्य  श्रोत हैं अगर देश के विकास को गति देनी है तो आधारभूत अवस्थापना में निवेश करना ही पड़ेगा और इसमें बड़े पैमाने पर निर्माण भी शामिल है निर्माण के लिए ऊर्जा संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए पेट्रोल डीजल और कोयला  आसान विकल्प  पड़ता है दूसरी और निर्माण कार्य के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटान और पक्के निर्माण भी किये जाते हैं जिससे पेट्रोल डीजल और कोयला  के जलने से निकला धुंवा वातावरण को प्रदूषित करता है | ऊर्जा के अन्य गैर परम्परा गत विकल्पों में सौर उर्जा और परमाणु ऊर्जा महंगी है और इनके इस्तेमाल में भारत  काफी पीछे है |पर्यावरण की समस्या देश में भ्रष्टाचार की तरह हो गयी है जानते सभी है पर कोई ठोस कदम न उठाये जाने से सब इसे अपनी नियति मान चुके है |हर साल स्मोग़ की समस्या से दिल्ली और उसके आस –पास इलाके जूझते  हैंपर्यावरण एक चक्रीय व्यवस्था है। अगर इसमें कोई कड़ी टूटती हैतो पूरा चक्र प्रभावित होता है। पर विकास और प्रगति के फेर में हमने इस चक्र की कई कड़ियों से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया है। पूंजी वाद के इस युग में कोई चीज मुफ्त में नहीं मिलतीइस सामान्य ज्ञान को हम प्रकृति के साथ जोड़कर न देख सकेजिसका नतीजा धरती पर अत्यधिक बोझ के रूप में सामने है

दुर्भाग्य से भारत में विकास की जो अवधारणा लोगों के मन में है उसमें प्रकृति कहीं भी नहीं है,हालाँकि हमारी विकास की अवधारणा  पश्चिम की विकास सम्बन्धी अवधारणा की ही नकल है पर स्वच्छ पर्यावरण के प्रति जो उनकी जागरूकता है उसका अंश मात्र भी हमारी विकास के प्रति जो दीवानगी है उसमें नहीं दिखती है |

तथ्य यह भी है कि बढ़ते तापमान और मृत्यु दर के लगभग-सर्वनाश पूर्ण परिदृश्य की खुली भविष्य वाणी कर रहे हैलेकिन हम भविष्य में इसके लिए उतनी मुस्तैदी से तैयार न हो रहे हैं  |   प्रदूषण की समस्या को केवल एक आपदा या सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में देखा जा रहा हैबल्कि होना यह चाहिए कि इसे समाज के अलग-अलग  क्षेत्रों  जैसे श्रमपेयजलकृषि और बिजली के विभागों के लिए भी  चिंता का विषय होना चाहिए | इससे जलवायु परिवर्तन की समस्या सबकी समस्या बनेगी  जिससे अलग अलग स्तरों पर इससे निपटने के लिए गहन विचार होगा |

 प्रभात खबर  में 23/01/2025 को प्रकाशित


Friday, January 17, 2025

अंतहीन रील्स और साल के तीस दिन

 

19वीं शताब्दी में चीन में अफीम का कारोबार अपने चरम पर था। एक तरफ ब्रिटिश औपनिवेशिक ताकतों ने अफीम के नशे का फायदा उठाकर चीन की अर्थव्यवस्था को न केवल तबाह किया बल्कि अपनी हर शर्तें मानने पर मजबूर किया। अफीम युद्ध के दौरान चीनी नागरिकों के लिए अफीम एक नशे के साथ एक मानसिक बीमारी भी बन गया था और यह नशा आगे चलकर चीन के राजनीतिक और सांस्कृतिक पतन का एक कारण बना। जिस तरह एक समय अफीम का नशा लोगों की मानसिक स्थिति को प्रभावित करता था उसी तरह आज 21 वीं शताब्दी में हम सोशल मीडिया के नशे के घिर गये हैं। हम हर वक्त अपनी आंखें फोन की स्क्रीन पर गड़ाये रहते हैं, और बाहरी दुनिया में क्या हो रहा उसका ख्याल भी नहीं रहता। शॉर्ट वीडियोज या रील्स का नशा कुछ यूं है कि हर बार आप 'बस एक और वीडियो' सोचकर स्क्रॉल करते हैं और घंटे भर अंतहीन रील्स की दुनिया में खो जाते हैं।स्क्रीन पर अनगिनत स्क्रॉल्स का खेल एक तरह का डिजिटल नशा है जो हमारे दिमाग को धीमा, सुस्त और निष्क्रिय बना रहा है। हाल ही में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी वर्ड ऑफ द ईयर के लिए चुना गया 'ब्रेन रॉट' शब्द डिजिटल दौर की इसी गंभीर प्रवृत्ति को उजागर करता है। 

यह शब्द हमारी उस मानसिक स्थिति को दर्शाता है जो हम घंटों तक स्क्रीन से चिपके रहते हैं और बेमतलब का कंटेंट स्क्रॉल करते है। ब्रेन रॉट शब्द का पहली बार उपयोग 1854 में हेनरी डेविड  थोरों ने अपनी किताब वॉल्डेन में किया था। जहाँ उन्होंने एक कटाक्ष के रूप में इसका इस्तेमाल किया था। ब्रेन रॉट का शाब्दिक अर्थ देखा जाये तो ब्रेन का अर्थ होता है दिमाग और रॉट का मतलब सड़न, यानि दिमाग की सड़न। वहीं, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, ब्रेन रॉट का मतलब है सोशल मीडिया पर अनगिनत घटिया ऑनलाइन सामग्री को बहुत ज्यादा देखने से किसी व्यक्ति की मानसिक या बौद्धिक स्थिति में गिरावट। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ लगातार अव्यवस्थित, बेकार और बेतुकी सामग्री की खपत से दिमाग न केवल थका हुआ महसूस करता है बल्कि उसके सोचने समझने की क्षमता भी कम हो जाती है।स्टैस्टिका की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की आधी से अधिक आबादी सोशल मीडिया का उपयोग करती है। 2024 तक 5.17 अरब यूजर्स सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर एक्टिव हैं। वहीं भारत में यह आंकड़ा 46 करोड़ पहुँच गया है। आईआईएम अहमदाबाद के एक शोध के मुताबिक भारत में रोजाना लोग 3 घंटे से अधिक समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं, जो वैश्विक औसत से कहीं अधिक है। वहीं आज की पीढ़ी जिसे जेन जी और जेन अल्फा कहा जाता है, अकसर अपने दिन का बड़ा हिस्सा सिर्फ रील्स देखते हुए गुजार देते हैं। जैसे ही खाली समय देखा , और शुरू कर दी अनगिनत बेतुके वीडियोज की स्क्रॉलिंग। इस तरह की आदत का असर उनकी कार्य क्षमता, मानसिक शांति और फैसले लेने पर भी पड़ता है। भारत की बात करें तो शॉर्ट वीडियोज एप में इंस्टाग्राम सबसे ज्यादा उपयोग किया जाने वाला प्लेटफॉर्म हैं। वर्ल्ड पॉपुलेशन रिव्यू के रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 39 करोड़ इंस्टाग्राम यूजर्स हैं। इंस्टाग्राम रील्स जैसे कंटेंट की आदत युवाओं में ध्यान अवधि को कम कर रही है। मनोवैज्ञानिक और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर ग्लोरिया मार्क के अनुसार शॉर्ट फॉर्म कंटेंट देखने से लोगों की ध्यान अवधि 47 सेकेंड से भी कम हो गई।

वहीं इन कुछ सेकेंड्स की रील्स ने लोगों की ध्यान अवधि को कम करने के साथ-  साथ हमारे सोचने, समझने की आदतों पर भी प्रभाव डाले हैं। उदाहरण के लिए कभी- कभी  सोशल मीडिया रील्स में देखी गई चीजें जैसे गाने, डायलॉग्स या जोक्स जो हम फीड पर देखते हैं, हम उन्हें अपने दिमाग में दोहराते रहते हैं। मसलन कोई मीम या गाना जो रील्स पर सुना है, वो न चाहते हुए भी दिन भर याद आता है और ऐसा सिर्फ आपके साथ ही नहीं हर रील स्क्रॉलर के साथ होता है। अगर हम डाटा पर आधारित गणना करें तो रोजाना 2 घंटे रील देखने पर हम पूरे साल में एक महीने सिर्फ रील्स के सामने बैठकर बर्बाद कर देंगे, जो किसी और काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था।पर आखिर हम इस अनगिनत स्क्रॉलिंग के जाल में फंसते कैसे हैं? असल में हर नई और दिलचस्प रील देखने पर हमारे दिमाग डोपामीन रिलीज करता है। डोपामीन एक तरह का न्यूरोट्रांसमीटर है, जिसे खुशी और संतुष्टि का हॉर्मोन कहा जाता है। जब भी हम कोई मनोरंजक रील देखते हैं, तो हमारा दिमाग इसे एक छोटे इनाम की तरह लेता है और हमें अच्छा महसूस कराता है। 

एक रील देखने के बाद हमें लगता है कि अगली रील शायद और बेहतर होगी। यह डोपामीन की छोटी- छोटी डोज लगातार हमें स्क्रॉल करते रहने पर मजबूर करती है। और यह सिर्फ डोपामीन के खेल तक सीमित नहीं है, दरअसल यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की सोची-समझी रणनीति है कि हम इन रील्स के जाल में उलझे रहें और स्क्रीन से अपनी नजरें न हटाएं। इंटरफेस डिजाइनिंग से लेकर ऑटो-प्ले वीडियो, लाइक्स बटन, और पर्सनलाइज्ड एल्गोरिदम जैसे फीचर इसे और ताकतवर बनाते हैं।सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अनगिनत स्क्रॉलिंग का यह फीचर एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग बॉटमलेस सूप बाउल पर आधारित है। जिसमें बताया गया था कि यदि किसी इंसान को खुद-ब-खुद भरने वाले सूप बाउल दिये जाएं तो वे सामान्य बाउल की तुलना में 73 प्रतिशत अधिक सूप पी जाते हैं भले ही उन्हें भूख न हो। ठीक इसी तरह रील्स की फीड जो लगातार रीफिल होती है, जो हमारे दिमाग के डोपामीन रिवार्ड सिस्टम को चालाकी से प्रभावित करती है। और हम एक चक्र में फंसकर अंतहीन स्क्रॉलिंग करते रहते हैं। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में मीडिया प्रोफेसर नताशा शूल अपनी किताब एडिक्शन बाय डिजाइन में कहती हैं कि मेटा, ट्विटर और अन्य कंपनियों के प्लेटफॉर्म्स को इस तरीके से डिजाइन किया गया है कि वे अपने यूजर्स को स्लॉट मशीन और जुअे के खेलों की तरह लती बना देती हैं। क्योंकि ऑनलाइन अर्थव्यवस्था में सारा खेल यूजर्स के क्लिक और समय बिताने के माध्यम से मापा जाता है। लैनियर लॉ फर्म की एक रिपोर्ट के मुताबिक जो किशोर रोजाना तीन से अधिक घंटे सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं उनमें अवसाद, चिंता और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम बढ़ जाता है। वहीं यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के शोध के अनुसार सोशल मीडिया के उपयोग को सीमित शॉर्ट-फॉर्म कंटेंट की लत से पीड़ित बच्चों के दिमाग का पैर्टन नशे की लत के समान होते हैं, जो बच्चों में अकेलेपन और अवसाद को जन्म देते हैं।इस तरह ब्रेन रॉट शब्द को ऑक्सफोर्ड वर्ड ऑफ द ईयर बनाने से एक नई बहस छिड़ गई है। ब्रेन रॉट केवल एक चेतावनी नहीं बल्कि हमारे समय की एक अद्दश्य त्रासदी का आईना दिखाता है। और उस मानसिक दिवालियावन को उजागर करता है जिसके पीछे अंतहीन स्क्रॉलिंग, एडिक्शन जैसी चीजें छिपी है। हमारा दिमाग जो कभी विचारों और कल्पनाओं का स्रोत हुआ करता था अब इन छोटे-छोटे डोपामीन रिवार्ड्स का गुलाम बनता जा रहा है। लेकिन हर चेतावनी के बाद एक अवसर जरूर आता है, जहाँ फिर से खुद को तलाशने का मौका मिलता है। हमें समझना होगा कि हमारा दिमाग प्रकृति का दिया एक अनमोल उपहार है, जो सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि रचनात्मकता, संवाद और गहराई से सोचने के लिए रचा गया है।

अमर उजाला में 17/01/2025 को प्रकाशित 

Tuesday, January 7, 2025

स्कूली शिक्षा में इंटरनेट का नियंत्रित उपयोग

 

2000 के 2010 के दशक की शुरुआत तकहाई स्पीड इंटरनेट और सोशल मीडिया ऐप्स से लैस स्मार्टफोन हर तरफ फैल गये।भारत भी इसमें अपवाद नहीं है |दुनिया में दुसरे नम्बर पर सबसे ज्यादा मोबाईल धारकों वाले देश में बच्चे मोबाईल के साथ क्या कर रहे हैं|इसकी चिंता किसी को नहीं है |बच्चों के ध्यान भटकाने के लिए सिर्फ फोन ही नहींबल्कि असली(रीयल)  खेल आधारित बचपन का खत्म हो जाना भी एक बड़ा कारण है|भारत में यह बदलाव २००० के दशक से  शुरु हुआ जब अभिभावकों ने अपने बच्चों की किडनैपिंग और अनजान खतरों से बचाने के लिए भय आधारित पैरंटिंग करना शुरू कर दिया , जिसका परिणाम हुआ  कि बच्चों के अपने खेलने का समय घटता चला गया और उनकी गतिविधियों पर माता पिता का नियंत्रण बढ़ गया।इसका दूसरा बड़ा कारण शहरों में खेल के मैदानों का खत्म हो जाना भी है |अनियोजित शहरीकरण ने बच्चों के खेलने की जगह खत्म कर दी |इसका असर बच्चों के मोबाईल स्क्रीन में खो जाने में हुआ |

आज के बच्चे और उनके माता-पिता एक तरह के डिफेंस मोड में फंसे हुए हैंजिससे बच्चे चुनौतियों का सामना करनेजोखिम उठाने और नई चीजें एक्सप्लोर करने से वंचित रह जाते हैंजो उनको  मानसिक रूप से मजबूत करने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए जरूरी है।यहाँ एक विरोधाभास है असल में माता-पिता को अपने बच्चों को वैसी ही परिस्थितियाँ देनी चाहिए जैसे  एक माली अपने पौधों को स्वाभाविक रूप से बढ़ने और विकसित होने के लिए देता हैपर यहाँ अभिभावक हम अपने बच्चों को एक बढ़ई की तरहबड़ा कर रहे हैं जो अपने सांचों को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में आकार देता है। असली  दुनिया में हम अपने बच्चों को अधिक सुरक्षा प्रदान करते हैं लेकिन डिजिटल दुनिया में उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं,जो कि उनके लिए खतरनाक साबित हो रहा है। स्मार्टफोन और अत्याधिक सुरक्षात्मक पालन पोषण के इस मिश्रण ने बचपन की संरचना को बदल दिया है और नई मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दिया है। जिनमें जीवन के प्रति असुरक्षा , कम नींद आना और नशे की लत शामिल हैं। 

तथ्य यह भी है कि हम सभी ने बहुत लंबे समय तक बिना फोन के और बिना माता-पिता से त्वरित संपर्क कियेठीक ठाक जीवन जीया और काम किया है |।संयुक्त राष्ट्र की शिक्षाविज्ञान और संस्कृति एजेंसी यूनेस्को ने कहा कि इस बात के प्रमाण मिले हैं कि मोबाइल फोन का अत्यधिक उपयोग शैक्षणिक प्रदर्शन में कमी से जुड़ा है तथा स्क्रीन के अधिक समय का बच्चों की भावनात्मक स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।यूनेस्को ने अपनी 2023 ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटर रिपोर्ट में कहा कि डिजिटल तकनीक ने शिक्षा में स्वाभाविक रूप से मूल्य जोड़ा हैयह प्रदर्शित करने के लिए बहुत कम मजबूत शोध हुए हैं। अधिकांश साक्ष्य निजी शिक्षा कंपनियों द्वारा वित्त पोषित थे जो डिजिटल शिक्षण उत्पाद बेचने की कोशिश कर रही थीं। इसने कहा कि दुनिया भर में शिक्षा नीति पर उनका बढ़ता प्रभाव "चिंता का कारण" है।

इस रिपोर्ट में  चीन का हवाला दिया गया  है , जिसने कहा कि उसने शिक्षण उपकरण के रूप में डिजिटल उपकरणों के उपयोग के लिए सीमाएँ निर्धारित की हैंउन्हें कुल शिक्षण समय के 30 प्रतिशत  तक सीमित कर दिया हैऔर छात्रों से नियमित रूप से स्क्रीन ब्रेक लेने की अपेक्षा की जाती है|फोन लोगों में सीखने की क्षमता को भी कर सकते हैंकई अध्ययनों में पाया गया कि स्कूल में फोन का इस्तेमाल एकाग्रता को कम करता हैऔर फोन का इस्तेमाल सिर्फ उपयोगकर्ता को ही नहीं प्रभावित करता। इसके लिए फोन फ्री स्कूल आन्दोलन  की संस्थापक साबिने पोलाक ने  सेकेंड "हैंड स्मोक" टर्म इजाद किया है। जिस तरह किसी व्यक्ति के द्वारा छोड़ा गया सिगरेट का धुआं पास खड़े व्यक्ति को नुकसान पहुँचाता हैउसी तरह भले किसी छात्र के पास फोन न होवो फिर भी क्लास में दूसरों द्वारा फोन के इस्तेमाल किये जाने से प्रभावित होता है। वहीं यह उपकरण शिक्षकों के लिए भी तनावपूर्ण होते हैं|भारत में इस दिशा में अभी तक कोई ठोस पहल न होना चिना का विषय है |

इसके कई कारण भी है जिसमें तकनीक का अचानक हमारे जीवन में आना और छा जाना भी शामिल हैजहाँ माता पिता और उनके बेटे बेटियाँ एक साथ मोबाइल फोन चलाना सीख रहे हैं |इस समस्या से बचने के प्रमुख तरीकों कि वे अपने बच्चों को स्मार्टफोन देने में देरी करें और स्कूल इस निर्णय में उनका समर्थन करें। अपने बच्चों पर नजर रखने के लिए माता-पिता फ्लिप फोनस्मार्ट वॉचट्रैकिंग डिवाइसेस जैसे उपकरणों की मदद ले सकते हैं। नैतिक शिक्षा जैसे विषयों में फोन और सोशल मीडिया का इस्तेमाल ,अपनी निजता कैसे बचाएं,साइबर बुलींग  जैसे विषयों को जोड़ा जाना आवश्यक है |अब बच्चों को जीवन जीने के तौर तरीके  सिखाने के साथ सोशल मीडिया  मैनर भी सिखाये जाएँ |

 दैनिक जागरण में 07/01/2025 को प्रकाशित  

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