Friday, June 6, 2025
डिजीटल उपनिवेशवाद का खतरा
Wednesday, June 4, 2025
क्या एआई ने मेटावर्स की चमक फीकी की है
Friday, May 23, 2025
आर्थिकी में एआई का योगदान
Wednesday, May 21, 2025
सॉफ्ट पावर भी कमाल की चीज है
अमेरिका ने हॉलीवुड, मैकडॉनल्ड्स और पॉप म्यूजिक के जरिए अपनी सॉफ्ट पावर का विस्तार किया। दक्षिण कोरिया, जापान और चीन ने के-पॉप, एनीमे और तकनीक से वैश्विक प्रभाव बनाया। भारत भी इस दिशा में तेजी से बढ़ रहा है। जी20, एससीओ और ब्रिक्स जैसे मंचों पर भारत की भूमिका उसकी बढ़ती साख को दर्शाती है। बॉलीवुड, योग, आयुर्वेद और भारतीय व्यंजनों ने वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता हासिल की है। ब्रांड फाइनेंस की ग्लोबल सॉफ्ट पावर इंडेक्स 2024 के अनुसार, भारत ने सॉफ्ट पावर में 29वां स्थान हासिल किया, जिसमें कला और मनोरंजन में 7वां, सांस्कृतिक विरासत में 19वां और भोजन में 8वां स्थान शामिल है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस, जिसे 192 से अधिक देशों में मनाया जाता है, भारत की सॉफ्ट पावर का प्रतीक है।
भारतीय सिनेमा ने भी सॉफ्ट पावर को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। राज कपूर की फिल्मों से लेकर दंगल, बाहुबली और आरआरआर तक ने वैश्विक बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाई। नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम जैसे प्लेटफॉर्म्स ने भारतीय फिल्मों और सीरीज को विश्व स्तर पर पहुंचाया। हॉलीवुड में अब भारतीय किरदारों को मजबूत और गंभीर भूमिकाओं में दिखाया जाता है, जैसे सीटाटेल और मिस मार्वेल।
विज्ञान और तकनीक में भी भारत अग्रणी है। गिटहब की रिपोर्ट के अनुसार, जेनरेटिव एआई डेवलपर्स की संख्या में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है और 2028 तक अमेरिका को पीछे छोड़ सकता है। इसरो के चंद्रयान और मंगलयान मिशनों ने भारत को अंतरिक्ष महाशक्ति के रूप में स्थापित किया। कोविड महामारी के दौरान भारत की वैक्सीन डिप्लोमेसी और यूपीआई जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने वैश्विक प्रशंसा अर्जित की। जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में, भारत ने अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की स्थापना की, जिसमें 120 से अधिक देश शामिल हैं।
हालांकि, चुनौतियां भी कम नहीं हैं। शिक्षा में भारत, अमेरिका और यूरोप से पीछे है। क्यूएस वर्ल्ड रैंकिंग में टॉप 200 विश्वविद्यालयों में भारत के केवल तीन संस्थान हैं। ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2024 में भारत 39वें स्थान पर है। प्रति व्यक्ति आय, हैप्पीनेस इंडेक्स और ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति चिंताजनक है। गरीबी, प्रदूषण और बेरोजगारी जैसे मुद्दे देश की छवि को प्रभावित करते हैं।
भारत को सॉफ्ट पावर के रूप में स्थापित करने के लिए सांस्कृतिक कूटनीति, शिक्षा, स्वास्थ्य और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर ध्यान देना होगा। प्रसार भारती का वेव्स समिट और ओटीटी प्लेटफॉर्म इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। सॉफ्ट पावर केवल संस्कृति का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि लोकतंत्र, मानवाधिकार और प्रामाणिक मूल्यों का प्रसार है। यदि भारत इस दिशा में सही कदम उठाए |
प्रभात खबर में 21/05/2025 को प्रकाशित
Tuesday, May 20, 2025
इन्फ्ल्युंसर भी तो निष्पक्ष हों
Friday, April 18, 2025
एआई फोटो टूल्स से जुड़ी चिंता
डब्लूएचओ के मुताबिक भारत की 65 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है, यह युवा आबादी तकनीक और ट्रैंड्स के प्रति ज्यादा संवेदनशील है। एरिक एरिक्सन की आइडेंटिटी वर्सेज रोल कन्फ्यूजन थ्योरी के मुताबिक युवावस्था में लोग अपनी पहचान को परिभाषित करने के लिए नए-नए तरीके आजमाते हैं। फोटो संपादन भी इसी प्रक्रिया का एक डिजिटल रूप हो सकता है। क्योंकि सोशल मीडिया पर लाइक्स और कमेंट्स के रूप में मिलने वाली त्वरित प्रक्रियाएं स्वीकृति और पहचान की तलाश को और मजबूत करती हैं। समाजशास्त्री शैरी टर्कल अपनी किताब अलोन टूगेदर में बताती हैं कि लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अपनी तस्वीरों को एडिट करके और ट्रेंडिंग कंटेंट पोस्ट करके दूसरों की स्वीकृति पाने का प्रयास करते हैं। वहीं इस ट्रैंड की लोकप्रियता के पीछे एस्केपिसिज्म यानी यथार्थ से पलायन की प्रवृत्ति भी एक कारण हो सकता है। डिजिटल युग में लोग रोजमर्रा की परेशानियों, तनाव और सामाजिक दबाव से बचने के लिए काल्पनिक दुनिया की शरण लेने लगते हैं। जाने-माने मनोवैज्ञानिक और मीडिया थ्योरिस्ट जॉन फिस्के के मुताबिक लोग अपनी वास्तविकता से असंतुष्ट होने पर फिक्शन, फैंटेसी और एनीमेशन जैसी चीजों को देखते हैं। ठीक इसी तरह, सोशल मीडिया पर घिब्ली आर्ट फिल्टर का क्रेज भी एक डिजिटल एस्केपिज़्म का रूप है। ट्रैंड्स के फैलने का एक बड़ा कारण फोमो है , यानी फियर ऑफ मिसिंग आउट। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर जब कोई नया ट्रेंड वायरल होता है तो लोग इसे अपनाने के लिए एक अनकही प्रतिस्पर्धा महसूस करते हैं। टेक्नोलॉजिकल फोरकास्टिंग फॉर सोशल चेंज के एक शोध के मुताबिक फोमो एक मजबूत मनोवैज्ञानिक ट्रिगर की तरह है, जो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लोगों के व्यवहार को प्रभावित करता है।
घिब्ली आर्ट ट्रेंड जैसे एआई-आधारित फोटो एडिटिंग टूल्स ने हमारे सामने डेटा प्राइवेसी और साइबर सुरक्षा जैसी भी कई समस्याएं खड़ी कर दी हैं। कई बार हम इन एप्स और प्लेटफॉर्म्स पर अपनी तस्वीरें बिना कुछ सोचे-समझे डाल देते हैं। हमें लगता है कि एआई से अपनी तस्वीरें जनरेट करना मजेदार काम है, मगर यह डेटा लीक, आइडेंटिटी चोरी और साइबर धोखाधड़ी जैसी समस्याओ को जन्म दे सकता है। कुछ साल पहले भारत में सुर्खियों में रहे फेसएप एप्लिकेशन पर डाटा चोरी के आरोप लगे थे, जिसके बाद इसे कई देशों में बैन तक कर दिया गया था। इसी तरह क्लीयरव्यू एआई नाम की एक कंपनी पर बिना इजाजत सोशल मीडिया साइट्स से 3 अरब तस्वीरें चुराने का आरोप लगा था, यह डाटा पुलिस और प्राइवेट कंपनियों को बेचा गया था। मेटा, गूगल जैसी कंपनियों पर लगातार आरोप लगते रहे हैं कि वे अपने यूजर्स की तस्वीरों का उपयोग अपने एआई मॉडल्स को ट्रेन करनेके लिए करती हैं ऐसे में हम अगर अपनी तस्वीरे खुद कई तरह की वेबाइट्स और एआई पर अपलोड करेंगे तो ये कंपनियाँ उसका और भी व्यापक इस्तेमाल कर सकती है। स्टेस्टिका की एक रिपोर्ट के अनुसार, फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी का बाजार करीब 5.73 बिलियन डॉलर का है वहीं 2031 तक ये बाजार 15 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। वहीं एआई के बढ़ते उपयोग ने डीपफेक ़ टेक्नोलॉजी को भी उन्नत कर दिया है। यानी शायद आप जो तस्वीरें सोशल मीडिया पर लोगों को दिखाने के लिए कर रहे हैं उनका इस्तेमाल किसी और मकसद से भी किया जा सकता है। कुछ साल पहले सोशल मीडिया पर कई ऐसी वेबसाइट्स और एप्स वायरल हुए जो दावा करते थे कि वे आपकी जुड़वा शक्ल वाले व्यक्ति को खोज सकते हैं। यूजर्स को अपनी तस्वीर अपलोड करनी होती थी, और AI के जरिए वे दुनिया भर में उनके जैसे दिखने वाले लोगों को ढूंढने का दावा करते थे। लेकिन, कुछ समय बाद ये साइट्स अचानक गायब हो गईं। आखिर इन कंपनियों का असली मकसद क्या था और ये कंपनियाँ यूजर्स का डेटा लेकर कहां चली गईं? आज हम पिमआईज जैसी वेबसाइट्स किसी भी व्यक्ति की फोटो मात्र अपलोड करके उस व्यक्ति का पूरा डिजिटल रिकॉर्ड निकाल सकतेहैं जिसका सीधा मतलब है कि स्टॉकिंग, ब्लैकमेलिंग और साइबर क्राइम के मामले बढ़ सकते हैं। अब जरूरत है कि सरकार और टेक कंपनियाँ डेटा सुरक्षा और फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी के गैर कानूनी इस्तेमाल पर सख्त कानून बनाये। और लोगों को भी बिना सोचे-समझे अपनी निजी तस्वीरें सोशल मीडिया और एआई-आधारित टूल्स पर अपलोड करने से पहले सतर्क रहने की जरूरत है। टेक्नोलॉजी के साथ-साथ हमें भी स्मार्ट होने की जरूरत है क्योंकि सवाल यह नहीं है कि एआई आपके लिए कितना फायदेमंद है बल्कि यह है कि आप इसे कितना समझदारी से इस्तेमाल कर रहे हैं।
दैनिक जागरण में 18/04/25 को प्रकाशित
Tuesday, April 15, 2025
मोबाईल पर अनगिनत स्क्रॉल का खेल
2024 तक 5.17 अरब यूजर्स सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर एक्टिव हैं। वहीं भारत में यह आंकड़ा 46 करोड़ पहुँच गया है। आईआईएम अहमदाबाद के एक शोध के मुताबिक भारत में रोजाना लोग 3 घंटे से अधिक समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं, जो वैश्विक औसत से कहीं अधिक है। वहीं आज की पीढ़ी जिसे जेन जी और जेन अल्फा कहा जाता है, अकसर अपने दिन का बड़ा हिस्सा सिर्फ रील्स देखते हुए गुजार देते हैं।
जैसे ही खाली समय देखा , और शुरू कर दी अनगिनत बेतुके वीडियोज की स्क्रॉलिंग। इस तरह की आदत का असर उनकी कार्य क्षमता, मानसिक शांति और फैसले लेने पर भी पड़ता है। भारत की बात करें तो शॉर्ट वीडियोज एप में इंस्टाग्राम सबसे ज्यादा उपयोग किया जाने वाला प्लेटफॉर्म हैं। वर्ल्ड पॉपुलेशन रिव्यू के रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 39 करोड़ इंस्टाग्राम यूजर्स हैं। इंस्टाग्राम रील्स जैसे कंटेंट की आदत युवाओं में ध्यान अवधि को कम कर रही है। मनोवैज्ञानिक और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर ग्लोरिया मार्क के अनुसार शॉर्ट फॉर्म कंटेंट देखने से लोगों की ध्यान अवधि 47 सेकेंड से भी कम हो गई।
अगर हम डाटा पर आधारित गणना करें तो रोजाना 2 घंटे रील देखने पर हम पूरे साल में एक महीने सिर्फ रील्स के सामने बैठकर बर्बाद कर देंगे, जो किसी और काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था।पर आखिर हम इस अनगिनत स्क्रॉलिंग के जाल में फंसते कैसे हैं? असल में हर नई और दिलचस्प रील देखने पर हमारे दिमाग डोपामीन रिलीज करता है। डोपामीन एक तरह का न्यूरोट्रांसमीटर है, जिसे खुशी और संतुष्टि का हॉर्मोन कहा जाता है। जब भी हम कोई मनोरंजक रील देखते हैं, तो हमारा दिमाग इसे एक छोटे इनाम की तरह लेता है और हमें अच्छा महसूस कराता है।
यह सिर्फ डोपामीन के खेल तक सीमित नहीं है, दरअसल यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की सोची-समझी रणनीति है कि हम इन रील्स के जाल में उलझे रहें और स्क्रीन से अपनी नजरें न हटाएं। इंटरफेस डिजाइनिंग से लेकर ऑटो-प्ले वीडियो, लाइक्स बटन, और पर्सनलाइज्ड एल्गोरिदम जैसे फीचर इसे और ताकतवर बनाते हैं।सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अनगिनत स्क्रॉलिंग का यह फीचर एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग बॉटमलेस सूप बाउल पर आधारित है। जिसमें बताया गया था कि यदि किसी इंसान को खुद-ब-खुद भरने वाले सूप बाउल दिये जाएं तो वे सामान्य बाउल की तुलना में 73 प्रतिशत अधिक सूप पी जाते हैं भले ही उन्हें भूख न हो। ठीक इसी तरह रील्स की फीड जो लगातार रीफिल होती है, जो हमारे दिमाग के डोपामीन रिवार्ड सिस्टम को चालाकी से प्रभावित करती है। और हम एक चक्र में फंसकर अंतहीन स्क्रॉलिंग करते रहते हैं। ऑनलाइन अर्थव्यवस्था में सारा खेल यूजर्स के क्लिक और समय बिताने के माध्यम से मापा जाता है। लैनियर लॉ फर्म की एक रिपोर्ट के मुताबिक जो किशोर रोजाना तीन से अधिक घंटे सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं उनमें अवसाद, चिंता और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम बढ़ जाता है। है। हमारा दिमाग जो कभी विचारों और कल्पनाओं का स्रोत हुआ करता था अब इन छोटे-छोटे डोपामीन रिवार्ड्स का गुलाम बनता जा रहा है। लेकिन हर चेतावनी के बाद एक अवसर जरूर आता है, जहाँ फिर से खुद को तलाशने का मौका मिलता है।
प्रभात खबर में 15/04/2025 को प्रकाशित
Thursday, April 3, 2025
डिजीटल दौर में मौलिकता की गारंटी
एनएफटी ब्लॉकचेन तकनीक पर आधारिक टोकन है, जिसमें डिजिटल कला को पहले एक टोकन के रूप में परिवर्तित किया जाता है और बाद में क्रिप्टोकरेंसी का उपयोग करके उस टोकन को खरीदा या बेचा जाता है। यह टोकन इस बात को सुनिश्चित करता है कि किसी कला का असली रचनाकार या मालिक कौन है। इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है जैसे पहले किसी दुर्लभ या नायाब पेंटिंग या वस्तु को नीलामी के जरिये खरीदा-बेचा जाता था और खरीददार को उसके साथ एक स्वामित्व का प्रमाणपत्र भी दिया जाता था, ठीक उसी प्रकार एनएफटी में अगर डिजिटल पेंटिंग को खरीदा जाता है तो उसे उसका एक यूनिक स्वामित्व प्रमाण मिलता है जिससे उस वर्चुअल प्रॉपर्टी के असली रचनाकार और मालिक को ट्रेस किया जाता जा सकता है। भौतिक दुनिया में भले ही असली और नकली कला में फर्क करना मुश्किल हो सकता है लेकिन एनएफटी पर दर्ज डिजिटल कला के एकमात्र असली संस्करण को प्रमाणित करना आसान है। फर्क सिर्फ इतना है कि पारंपरिक कला को भौतिक रूप से छुआ जा सकता है, जबकि एनएफटी आर्ट पूरी तरह डिजिटल होती हैं। दरअसल एनएफटी ब्लॉकचेन तकनीक पर आधारित होते है। ब्लॉकचेन एक तरह का डिजिटल बही-खाता है, जो सभी लेन-देन को सुरक्षित और पारदर्शी तरीके से स्टोर करता है। यह कई कंप्यूटरों के नेटवर्क में फैला होता है, जिससे इसे हैक या बदला नहीं जा सकता। जब कोई कलाकार अपनी डिजिटल कला को एनएफटी में बदलता है, तो ब्लॉकचेन पर उसका स्थायी रिकॉर्ड बन जाता है। जो उसकी मौलिकता और स्वामित्व की गारंटी देता है। हर बार जब वह एनएफटी बेचा जाता है, तो इसका पूरा विवरण ब्लॉकचेन में दर्ज होता है, जिससे कोई भी इसकी प्रमाणिकता को सत्यापित कर सकता है।
रिसर्च एंड मार्केट्स संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2024 तक एनएफटी का कुल वैश्विक बाजार 35 बिलियन डॉलर था और 2032 तक यह बाजार 264 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। हालांकि भारत में एनएफटी बाजार अभी शुरुआती चरण में है। स्टैस्टिका की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2025 के अंत तक भारत में एनएफटी बाजार करीब 77 मिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। जो कि वैश्विक बाजार के मुकाबले काफी कम है। हालांकि भारत में डिजिटल कला का बाजार तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन एनएफटी पर कानूनी और नियामक ढांचे की अस्पष्टता, क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध और टैक्स संबंधी अनिश्चितताओं के कारण भारत में एनएफटी का विकास कुछ हद तक सीमित रहा है। भारत में बॉलीवुड सेलिब्रेटी भी एनएफटी पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं, बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन ने साल 2021 में अपने पिता की काव्य रचना मधुशाला के ऑडियो संस्करण के संग्रह को करीब 7 करोड़ में नीलाम किया था। इसके अलावा कलाकार इशिता बनर्जी ने भगवान विष्णु पर बनी अपनी डिजिटल कलाकृति को करीब ढाई लाख में बेचा था। एनएफटी का एक फायदा और है जब कोई कलाकर अपनी एनएफटी बेचता है, तो हर बार जब वह एनएफटी रीसेल होती है, तब मूल कलाकार को एक निश्चित रॉयल्टी भी प्राप्त होती है।
एनएफटी, कलाकारों के साथ-साथ निवेशकों के लिए भी फायदे का सौदा है, इससे डिजिटल संपत्तियों में निवेश करने का एक नया रास्ता खुला है। साथ ही निवेशक ब्लॉकचेन पर दर्ज मूल कलाकार की रचना को ट्रेस करके आसानी से निवेश कर सकते हैं। और एक बेहतर सौदा मिलने पर उसे वापस बेच सकते हैं। जैसे-जैसे हमारी दुनिया मेटावर्स और आर्ग्यूमेंटेंट रियेलिटी की बढ़ रही है, वैसे-वैसे एनएफटी का महत्व भी बढ़ रहा है। मेटावर्स जो कि एक आभासी डिजिटल दुनिया का कॉन्सेप्ट है, जिसमें आप वर्चुअल अवतार बनकर घूम सकते हैं, लोगों से मिल सकते हैं। यह इंटरनेट का अगला रूप है जहाँ लोग वेबसाइट देखने के बजाय खुद एक आभासी दुनिया में मौजूद रहते हैं। ऐसे में मेटावर्स में डिजिटल स्पेस, इंसानों के अवतार और कला को खरीदने बेचने के लिए भी एनएफटी का उपयोग किया जाता है।
उदाहरण के लिए, डिसेंट्रलैंड और सैंडबॉक्स जैसे मेटावर्स प्लेटफॉर्म्स पर लोग लाखों रूपये में डिजिटल स्पेस खरीद रहे हैं। भारत में भी गेमिंग और वर्चुअल रियलिटी का बाजार तेजी से बढ़ रहा है, मोरडोर इंटेलिजेंस की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2025 के अंत तक भारत का गेमिंग बाजार 4 बिलियन डॉलर का भी आंकड़ा पार कर लेगा। एनएफटी मार्केटप्लेस के लिए गेमिंग एक बड़ा बाजार है, गेम कैरेक्टर्स, वर्चुअल स्पेस, लेवल्स समेत सारी वर्चुअल संपत्तियों के स्वामित्व के लिए उन्हें कंपनियाँ एनएफटी पर दर्ज कर रही हैं। जिससे इन डिजिटल संपत्तियों का स्वामित्व बरकरार रहता है।
हालांकि एनएफटी बाजार में कई तरह के जोखिम भी हैं, जिनमें फेक एनएफटी बेचना, कीमतों में हेरफेर और कॉपीराइट उल्लंघन जैसे मामले शामिल हैं। एनएफटी के बारे में कम जानकारी और प्रशिक्षण के कारण बहुत से कलाकारों को इसके बारे में पता नहीं होता जिसका फायदा उठाकर कई बार कई बार फर्जी लोग उनके डिजिटल आर्टवर्क को चोरी करके उन्हें एनएफटी पर बेच देते हैं। भारत और विश्व के तमाम देशों में एनएफटी से जुड़े रेगुलेशन न होने के कारण कलाकारों को कई तरह की समस्याएं भी हो सकती हैं। एनएफटी और क्रिप्टो का उपयोग कई बार मनी लॉन्ड्रिंग और अवैध लेन-देन के लिए भी होता है। एनएफटी की कीमतें पूरी तरह से बाजार की माँग और क्रिप्टोकरेंसी की वैल्यू पर निर्भर करती हैं। जिसमे काफी अस्थिरता देखी जाती है। कोई एनएफटी एक दिन लाखों में बिकता है, तो कुछ समय बाद उसकी कीमत हजारों तक भी आ सकती है। इस कारण निवेशकों को भारी नुकसान होने की संभावना बनी रहती है। पर्यावरणीय दृष्टि से देखें तो एनएफटी का एक बड़ा नुकसान ऊर्जा की खपत भी है, अधिकतर एनएफटी लेन-देन एथेरियम ब्लॉकचेन का उपयोग करते हैं, जिससे भारी मात्रा में बिजली खर्च होती है और कार्बन उत्सर्जन बढ़ता है। हालांकि धीरे धीरे इसके पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने की कोशिश जारी है।
कुल मिलाकर एनएफटी भविष्य में कला, मीडिया और डिजिटल अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह कलाकारों को उनकी रचनाओं के लिए एक बाजार देने के साथ-साथ उसकी मौलिकता और स्वामित्व की सुरक्षा भी सुनिश्चित करता है। हालांकि इसके लिए ब्लॉकचेन की स्थिरता, कानूनी स्पष्टता और व्यापक स्वीकार्यता बेहद आवश्यक होगी। अगर इन चुनौतियों का समाधान किया जाता है तो एनएफटी डिजिटल क्रियेटिविटी के परिदृश्य को नया आकार देकर, कलाकारों और निवेशकों के लिए असीम संभावनाओं के द्वार को खेल सकता है ।
अमर उजाला में 04/03/2025 को प्रकाशित
Thursday, March 27, 2025
शोर्ट कंटेंट का बढ़ता चलन
Tuesday, March 11, 2025
जीवन जीने का तरीका
Friday, March 7, 2025
सोशल मीडिया और डिजीटल उपनिवेशवाद
स्टैस्टिका के मुताबिक भारत में 90 करोड़ से अधिक
इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं और यह संख्या हर दिन बढ़ रही है। स्मार्टफोन से लेकर सोशल मीडिया तक देश की
अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताना-बाना तेजी से डिजिटल हो रहा है। इसमे कोई दो राय
नहीं है कि डिजिटलीकरण हमारे लिए सुविधा, संपर्क और समृद्धि के नए रास्ते खोल
रहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या हम सचमुच इस डिजिटल क्रांति के सूत्रधार
हैं, या
फिर बस किसी और के बनाए डिजिटल तंत्र के उपभोक्ता बनकर रह गए हैं? एक समय था जब
औपनिवेशिक ताकतों ने दुनिया पर कब्जा जमाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था,
फिर
बारी आई सॉफ्ट पावर यानी संस्कृति, भाषा, मीडिया और कूटनीति के जरिये अपना
प्रभाव बनाने की। अब यह दौर डिजिटल उपनिवेशवाद का है, जहाँ किसी देश
की शक्ति केवल सैन्य बल या सांस्कृतिक प्रभाव से नहीं बल्कि डेटा पर नियंत्रण से
तय होती है।
दुनिया की शीर्ष 10 टेक
प्लेटफॉर्म्स गूगल, फेसबुक, इंस्टाग्राम, अमेजन, एक्स आदि पर भारतीय उपभोक्ताओं की भारी
संख्या है। लेकिन इनमें से एक भी कंपनी भारतीय नहीं हैं। हमारे लोगों का डेटा भारत
में नहीं बल्कि विदेशी कंपनियों के नियंत्रण में है। यह एक तरह के डिजिटल
उपनिवेशवाद को जन्म दे रहा है। जहाँ सूचना और डेटा पर नियंत्रण कुछ गिनी चुनी
वैश्विक कंपनियों के हाथों में केंद्रित हो रही है। इन कंपनियों का नियंत्रण मुख्य
रूप से अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों के हाथों में है। जिससे भारत का डिजिटल
भविष्य बाहरी शक्तियों की नीतियों और व्यावसायिक हितों पर निर्भर होता जा रहा है।
सोशल मीडिया के इस्तेमाल के मामले में 47 करोड़ यूजर्स के साथ भारत , चीन के बाद
विश्व में दूसरा स्थान रखता है। देश में फेसबुक, इंस्टाग्राम,
व्हाट्सअप,
एक्स
और यूट्यूब जैसे वैश्विक प्लेटफॉर्म्स सबसे अधिक प्रचलित हैं। मगर ये कंपनियाँ न केवल हमारे डेटा का आर्थिक शोषण
कर रही ही हैं, बल्कि भारत की चुनाव प्रणाली, न्यायिक फैसलों
और समाज में वैचारिक ध्रुवीकरण को भी प्रभावित कर रही हैं। हैरानी की बात यह है कि
140
करोड़ लोगों के इस देश में कोई भी ऐसा देशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं है,
जो
इन विदेशी को एप्स के सामने खड़ा हो सके।
पिछले कुछ सालों में इन विदेशी
प्लेटफॉर्म्स ने देश के सामने कई तरह की चुनौतियाँ पेश की हैं। जिनमें डेटा
सुरक्षा, फेक
न्यूज और पक्षपातपूर्ण प्रचार जैसे मुद्दे शामिल हैं। भारत जो दुनिया का सबसे बड़ा
लोकतंत्र है, यहाँ की चुनावी प्रक्रिया में भी इन कंपनियों का हस्तक्षेप लगातार
बढ़ रहा है। संस्था ईको की रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल सम्पन्न हुए लोकसभा और
विधानसभा चुनावों में मेटा प्लेटफॉर्म्स पर चुनावी पेड प्रचार और शेडो विज्ञापनों
के जरिये राजनीतिक पार्टियों को लाभ पहुँचाने के आरोप लगे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक
इन प्लेटफॉर्म्स ने ऐसे कई विज्ञापनों को प्रमोट किया जो चुनावी नियमों का उल्लंघन
और भ्रामक जानकारी दे रहे थे। ऐसा ही
मामला साल 2018 में आए कैम्ब्रिज एनालिटिका स्कैंडल ने भी यह उजागर किया था कि कैसे
ये विदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स भारतीय मतदाताओं के डेटा का दुरुपयोग कर सकते
हैं। वहीं फेक न्यूज के मामले में साल 2023 में यूनेस्को इपसोस द्वारा किये गये
एक सर्वेक्षण के मुताबिक , देश में शहरी क्षेत्रों के 64 प्रतिशत लोगों
ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को गलत सूचनाओं और फेक न्यूज का प्राथमिक स्रोत माना,
इन
फेक न्यूज के प्रसार में खासकर फेसबुक, व्हाट्सअप और एक्स इनमें प्रमुख भूमिका
निभाते नजर आये। फेसबुक की इंटरनल रिपोर्ट कम्यूनल कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंडिया के
मुताबिक, 2020 में हुए दिल्ली दंगों में फेसबुक और व्हाट्सएप पर 22 हजार से अधिक
ऐसे पोस्ट्स और ग्रुप्स पाये गये, जिनमें सांप्रदायिक नफरत फैलाई जा रही थी। इसी
तरह के मामला 2021 में ट्विटर पर भी सामने आया जब भारत सरकार ने हिंसा फैलने की आशंका
में किसान आंदोलन से जुड़े कुछ अकाउंट्स और ट्ववीट्स को हटाने के निर्देश दिये थे।
लेकिन तब ट्विटर ने पूरी तरह से इसके अनुपालन से इंकार कर दिया था।
मुश्किल बात यह है कि यह विदेशी
कंपनियाँ भारत में काम करने के बावजूद पूरी तरह से भारतीय कानून के अधीन नहीं है
और अक्सर अपनी वैश्विक नीतियों का हवाला देकर बच निकलती हैं। और बात सिर्फ यह नहीं
है कि ये विदेशी कंपनियां भारत में प्रभाव बना रही हैं, बल्कि आर्थिक
दृष्टि से भी यह देश को बड़ा नुकसान पहुँचा रही हैं। उदाहरण के लिए, मेटा और एक्स
जैसे प्लेटफार्म भारत में विज्ञापन से अरबों डॉलर कमाई करते हैं, लेकिन उनका एक
बड़ा हिस्सा विदेशी देशों में चला जाता है। मेटा की इंडिया यूनिट की हाल की जारी
आर्थिक रिपोर्ट के मुताबिक भारत से मेटा जिसमें फेसबुक, व्हाट्सअप,
इंस्टाग्राम
शामिल हैं, ने इस साल भारत से 22 हजार करोड़ रुपये से अधिक के राजस्व की कमाई
की है। लेकिन इसका कोई प्रत्यक्ष लाभ सीधे भारतीय अर्थव्यवस्था को नहीं मिलता है।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के अलावा एक
बड़ी चुनौती इन कंपनियों के क्लाउड स्टोरेज और डेटा सेंटर्स को लेकर भी है। भारतीय
सरकार और कंपनियाँ बड़े पैमाने पर गूगल ड्राइव, अमेजन एडब्लूएस,
एजोर
जैसे क्लाउड स्टोरेज पर निर्भर हैं, यानी भारत का संवेदनशील डेटा अपने देश में न
होकर विदेशो में संग्रहित होता है। जो देश की सुरक्षा और संप्रभुता पर एक बड़ा
खतरा है। जुलाई 2024 में माइक्रोसॉफ्ट के क्लाउड स्टोरेज में गड़बड़ी होने से पूरे देश
का आईटी सिस्टम 12 घंटे के लिए ठप पड़ गया। अचानक आई एक तकनीकी खामी के कारण देश में
डिजिटल बैंकिंग, रेलवे, मेट्रो, एयरपोर्ट्स, ऑनलाइन सेवाएं और कई अन्य महत्वपूर्ण
प्रणालियां ठप पड़ गईं। जिससे ने केवल रोजमर्रा की जिंदगी घंटो प्रभावित रही बल्कि
देश की अर्थव्यवस्था को भी गहरा आघात पहुँचा। वहीं इस घटना से रूस और चीन पर कोई
असर नहीं दिखाई दिया। दरअसल इन देशों ने 2002 के बाद अपनी
स्वतंत्र तकनीकी संरचना विकसित की, जिसमें अपने क्लाउड सिस्टम, ऑपरेटिंग सिस्टम
और सर्च इंजन शामिल हैं। चीन ने अपने डिजिटल प्रबंधन के लिए स्वेदेशी प्लेटफॉर्म्स
जैसे वी-चैट, वीबो और डोइन जैसे एप्स को विकसित किया है। वहीं रूस ने वीके,
ओड्नोकलास्निकी जैसे प्लेटफॉर्म्स विकसित किये हैं। जो इन
देशों को सूचना प्रवाह पर निगरानी रखने और अमेरिकी प्लेटफॉर्म्स पर निर्भर होने से
बचाते हैं। अब जरूरी यह है कि भारत को भी चीन
और रूस की तरह अपना स्वेदशी सोशल मीडिया और डिजिटल ईकोसिस्टम बनाने की ओर कदम
उठाना चाहिए। हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत
में पहले कभी स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बनाने की कोशिश नहीं हुई, शेयरचैट और कू
जैसे प्लेटफॉर्म्स ने एक समय भारतीय बाजार में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की थी मगर
लोगों और सरकार के अपेक्षाकृत कम समर्थन के कारण इनका वैश्विक दिग्गजों से मुकाबला
करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया।
तकनीकी नवाचारों के मामले में भारत की
स्थिति में पिछले कुछ सालों में काफी सुधार आया है। हाल ही में आई ग्लोबल इनोवेशन
इंडेक्स 2024 रैकिंग में 133 देशों में भारत ने 39वां स्थान हासिल
किया है,जो
देश की बढ़ती तकनीकी और डिजिटल क्षमता का प्रमाण है, हालांकि इसमें
अभी भी काफी सुधार की आवश्यकता है। आज भारत में तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में
कई बड़े कदम उठाये जा रहे हैं। आधार, यूपीआई और कोविन जैसे स्वदेशी प्लेटफॉर्म्स ने
यह साबित कर दिखाया है कि हम तकनीकी चुनौतियों को कैसे संभाल सकते हैं। अगर भारत
अपना तकनीकी इकोसिस्टम विकसित करता है तो यह देश पर थोपे जा रहे डिजिटल उपनिवेशवाद
का मुकाबला करने के लिए कड़ा कदम होगा। क्योंकि डिजिटल उपनिवेशवाद केवल एक तकनीकी
मुद्दा नहीं बल्कि एक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चुनौती भी है। हमें अपनी
डिजिटल संप्रभुता बनाए रखने के लिए डेटा की सुरक्षा, स्थानीय नवाचार
का समर्थ और विदेशी तकनीकी कंपनियों की जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी। अब अगर हमने
तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम नहीं उठाए तो एक नया डिजिटल उपनिवेशवाद देश
पर हावी हो सकता है।