यह शब्द हमारी उस मानसिक स्थिति को दर्शाता है जो हम घंटों तक स्क्रीन से चिपके रहते हैं और बेमतलब का कंटेंट स्क्रॉल करते है। ब्रेन रॉट शब्द का पहली बार उपयोग 1854 में हेनरी डेविड थोरों ने अपनी किताब वॉल्डेन में किया था। जहाँ उन्होंने एक कटाक्ष के रूप में इसका इस्तेमाल किया था। ब्रेन रॉट का शाब्दिक अर्थ देखा जाये तो ब्रेन का अर्थ होता है दिमाग और रॉट का मतलब सड़न, यानि दिमाग की सड़न। वहीं, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, ब्रेन रॉट का मतलब है सोशल मीडिया पर अनगिनत घटिया ऑनलाइन सामग्री को बहुत ज्यादा देखने से किसी व्यक्ति की मानसिक या बौद्धिक स्थिति में गिरावट। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ लगातार अव्यवस्थित, बेकार और बेतुकी सामग्री की खपत से दिमाग न केवल थका हुआ महसूस करता है बल्कि उसके सोचने समझने की क्षमता भी कम हो जाती है।स्टैस्टिका की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की आधी से अधिक आबादी सोशल मीडिया का उपयोग करती है। 2024 तक 5.17 अरब यूजर्स सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर एक्टिव हैं। वहीं भारत में यह आंकड़ा 46 करोड़ पहुँच गया है। आईआईएम अहमदाबाद के एक शोध के मुताबिक भारत में रोजाना लोग 3 घंटे से अधिक समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं, जो वैश्विक औसत से कहीं अधिक है। वहीं आज की पीढ़ी जिसे जेन जी और जेन अल्फा कहा जाता है, अकसर अपने दिन का बड़ा हिस्सा सिर्फ रील्स देखते हुए गुजार देते हैं। जैसे ही खाली समय देखा , और शुरू कर दी अनगिनत बेतुके वीडियोज की स्क्रॉलिंग। इस तरह की आदत का असर उनकी कार्य क्षमता, मानसिक शांति और फैसले लेने पर भी पड़ता है। भारत की बात करें तो शॉर्ट वीडियोज एप में इंस्टाग्राम सबसे ज्यादा उपयोग किया जाने वाला प्लेटफॉर्म हैं। वर्ल्ड पॉपुलेशन रिव्यू के रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 39 करोड़ इंस्टाग्राम यूजर्स हैं। इंस्टाग्राम रील्स जैसे कंटेंट की आदत युवाओं में ध्यान अवधि को कम कर रही है। मनोवैज्ञानिक और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर ग्लोरिया मार्क के अनुसार शॉर्ट फॉर्म कंटेंट देखने से लोगों की ध्यान अवधि 47 सेकेंड से भी कम हो गई।
वहीं इन कुछ सेकेंड्स की रील्स ने लोगों की ध्यान अवधि को कम करने के साथ- साथ हमारे सोचने, समझने की आदतों पर भी प्रभाव डाले हैं। उदाहरण के लिए कभी- कभी सोशल मीडिया रील्स में देखी गई चीजें जैसे गाने, डायलॉग्स या जोक्स जो हम फीड पर देखते हैं, हम उन्हें अपने दिमाग में दोहराते रहते हैं। मसलन कोई मीम या गाना जो रील्स पर सुना है, वो न चाहते हुए भी दिन भर याद आता है और ऐसा सिर्फ आपके साथ ही नहीं हर रील स्क्रॉलर के साथ होता है। अगर हम डाटा पर आधारित गणना करें तो रोजाना 2 घंटे रील देखने पर हम पूरे साल में एक महीने सिर्फ रील्स के सामने बैठकर बर्बाद कर देंगे, जो किसी और काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था।पर आखिर हम इस अनगिनत स्क्रॉलिंग के जाल में फंसते कैसे हैं? असल में हर नई और दिलचस्प रील देखने पर हमारे दिमाग डोपामीन रिलीज करता है। डोपामीन एक तरह का न्यूरोट्रांसमीटर है, जिसे खुशी और संतुष्टि का हॉर्मोन कहा जाता है। जब भी हम कोई मनोरंजक रील देखते हैं, तो हमारा दिमाग इसे एक छोटे इनाम की तरह लेता है और हमें अच्छा महसूस कराता है।
एक रील देखने के बाद हमें लगता है कि अगली रील शायद और बेहतर होगी। यह डोपामीन की छोटी- छोटी डोज लगातार हमें स्क्रॉल करते रहने पर मजबूर करती है। और यह सिर्फ डोपामीन के खेल तक सीमित नहीं है, दरअसल यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की सोची-समझी रणनीति है कि हम इन रील्स के जाल में उलझे रहें और स्क्रीन से अपनी नजरें न हटाएं। इंटरफेस डिजाइनिंग से लेकर ऑटो-प्ले वीडियो, लाइक्स बटन, और पर्सनलाइज्ड एल्गोरिदम जैसे फीचर इसे और ताकतवर बनाते हैं।सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अनगिनत स्क्रॉलिंग का यह फीचर एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग बॉटमलेस सूप बाउल पर आधारित है। जिसमें बताया गया था कि यदि किसी इंसान को खुद-ब-खुद भरने वाले सूप बाउल दिये जाएं तो वे सामान्य बाउल की तुलना में 73 प्रतिशत अधिक सूप पी जाते हैं भले ही उन्हें भूख न हो। ठीक इसी तरह रील्स की फीड जो लगातार रीफिल होती है, जो हमारे दिमाग के डोपामीन रिवार्ड सिस्टम को चालाकी से प्रभावित करती है। और हम एक चक्र में फंसकर अंतहीन स्क्रॉलिंग करते रहते हैं। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में मीडिया प्रोफेसर नताशा शूल अपनी किताब एडिक्शन बाय डिजाइन में कहती हैं कि मेटा, ट्विटर और अन्य कंपनियों के प्लेटफॉर्म्स को इस तरीके से डिजाइन किया गया है कि वे अपने यूजर्स को स्लॉट मशीन और जुअे के खेलों की तरह लती बना देती हैं। क्योंकि ऑनलाइन अर्थव्यवस्था में सारा खेल यूजर्स के क्लिक और समय बिताने के माध्यम से मापा जाता है। लैनियर लॉ फर्म की एक रिपोर्ट के मुताबिक जो किशोर रोजाना तीन से अधिक घंटे सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं उनमें अवसाद, चिंता और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम बढ़ जाता है। वहीं यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के शोध के अनुसार सोशल मीडिया के उपयोग को सीमित शॉर्ट-फॉर्म कंटेंट की लत से पीड़ित बच्चों के दिमाग का पैर्टन नशे की लत के समान होते हैं, जो बच्चों में अकेलेपन और अवसाद को जन्म देते हैं।इस तरह ब्रेन रॉट शब्द को ऑक्सफोर्ड वर्ड ऑफ द ईयर बनाने से एक नई बहस छिड़ गई है। ब्रेन रॉट केवल एक चेतावनी नहीं बल्कि हमारे समय की एक अद्दश्य त्रासदी का आईना दिखाता है। और उस मानसिक दिवालियावन को उजागर करता है जिसके पीछे अंतहीन स्क्रॉलिंग, एडिक्शन जैसी चीजें छिपी है। हमारा दिमाग जो कभी विचारों और कल्पनाओं का स्रोत हुआ करता था अब इन छोटे-छोटे डोपामीन रिवार्ड्स का गुलाम बनता जा रहा है। लेकिन हर चेतावनी के बाद एक अवसर जरूर आता है, जहाँ फिर से खुद को तलाशने का मौका मिलता है। हमें समझना होगा कि हमारा दिमाग प्रकृति का दिया एक अनमोल उपहार है, जो सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि रचनात्मकता, संवाद और गहराई से सोचने के लिए रचा गया है।
No comments:
Post a Comment