Friday, April 24, 2015

बदलते वक्त के साथ स्मार्ट हो गयी रिस्ट वाच

वक्त रुकता नहीं लगातार चलता रहता है ,हाँ भाई मुझे पता है ये ज्ञान आप सबको पता है आप भी सोच रहे होंगे कि सुबह सुबह ये समय जैसी गंभीर बात क्यों कर रहा हूँ,तो बात कुछ यूँ है कि पिछले दिनों एक रिस्ट वाच भेंट में  मिली यूँ तो घड़ियाँ लोग एक दूसरे को भेंट दिया करते हैं पर ये एक स्मार्ट वाच थी.अपनी कलाई में  बांधे इस घड़ी के स्मार्ट फंक्शन को देखकर मेरे दिमाग में ख्याल आया कि वक्त कितना बदल गया है और घड़ियाँ भी.नहीं समझे अरे भाई वक्त का लेख-जोखा रखने वाली घड़ियाँ वक्त के साथ-साथ ही काफी आगे बढ़ गयीं हैं| अब ये घड़ियाँ सिर्फ वक्त का हिसाब-किताब न रखकर और भी बहुत कुछ करने लगी हैं| एप्पल जैसी कम्पनियाँ जो लगातार बाजार में तकनीक से लबरेज़ नए-नए उत्पाद उतारने के लिए मशहूर हैं अब  तकनीकी रूप से अत्यधिक उन्नत घड़ियाँ बाजार में पेश कर रही हैं जो की  जनसंचार के सन्दर्भ में हमारी समझ में नए आयाम जोड़ रहीं हैं| घड़ियाँ अब सिर्फ समय बताने या जानने का जरिया भर नहीं रह गयी हैं .अब देखिये न
औटोमेटिक घड़ियों ने हाथ से चाभी भरने वाली घड़ियों को चलन से बाहर कर दिया फिर आया मोबाईल का जमाना और ये माना जाने लग गया था कि हाथ पर बंधने वाली घड़ियों का समय अब गया क्योंकि कलाई घड़ियाँ सिर्फ समय बताने का काम करती हैं जबकि मोबाईल समय बताने के साथसाथ बात करने में भी मददगार हैं .तो समय ही नहीं बदल रहा है इस बदलते समय के साथ हमारे हाथ पर बंधने वाली घड़ियाँ भी तेजी से बदल रही हैं तो स्मार्ट वाच के कॉन्सेप्ट ने सारा नजारा ही बदल दिया यानि अब घड़ी पर टाईम देखने के साथ साथ आप ई मेल चेक कर सकते हैं कम्प्यूटर से फाईलों का लेना देना कर सकते हैं और बात भी कर सकते हैं .
हो सकता है आपको मेरी घड़ियों की कहानी समझ में न आ रही हो तो इसे समझने के लिए आपको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी .वैसे भी बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है लगभग पंद्रह साल पहले भारी भरकम  ब्लैक एंड व्हाईट मोबाईल रईसों का शौक हुआ करते थे वो भी पुश बटन वाले और आज हर हाथ में टच स्क्रीन स्मार्ट फोन है तो तकनीक बहुत तेजी से हमारे जीवन में छाती जा रही है वो भी सस्ती कीमत पर .ऐसा ही कुछ स्मार्ट वाच के साथ भी होगी .ये स्मार्ट वाच जो अभी एक्का दुक्का हाथों में दिखती हैं .कुछ ही सालों में हर कलाई की शोभा बढ़ाएंगी क्योंकि ये सिर्फ घड़ियाँ नहीं होंगी ये हर वो काम करेंगी जो आज का मोबाईल कर रहा है .ये घड़ियाँ आने वाले समय में समाचार एवं सूचनाओं के प्रसारण में इस्तेमाल होने वाले शब्दों की संख्या इतनी कम कर देंगी ट्वीट में इस्तेमाल होने वाले शब्द भी बहुत ज्यादा लगने लगेंगे. एप्पल की स्मार्टवाच की लगभग एक करोड से भी अधिक की बिक्री होने के अनुमान लगाये जा रहे हैं.  किसी भी गजेट के बाजार में आने के वक्त की ग्राहक संख्या से उसके भविष्य का अंदाजा लगाना काफी कठिन होता है.भारत इस मामले में अपवाद हो सकता है जिस तरह सस्ते स्मार्ट फोन से भारत के बाजार पट गये हैं ऐसा ही कुछ इन स्मार्ट वाच के साथ होगा. एप्पल की स्मार्टवाच के बाजार में आने के साथ ही इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा के तेज होने की उम्मीद है. यह प्रतिस्पर्धा बाजार में सस्ते एंड्रोइड पर आधारित सस्ती स्मार्टवाच के पदार्पण का रास्ता खोल देगी और इन सस्ती स्मार्टवाच का बाज़ार उसी तेज़ी से बढ़ने की संभावना जताई जा रही है जैसे कि सस्ते स्मार्टफोन के बाजार में हुआ है.
 स्मार्टवाच के पहले उपभोक्ता भारत के युवा होंगे जो बदलती तकनीक के साथ कदमताल करना जानते हैं जो जिन्दगी बिताने में नहीं जीने में भरोसा करते हैं और हो भी क्यों न भारत दुनिया में सबसे ज्यादा युवा आबादी वाला देश है जहाँ सबसे तेजी से स्मार्ट फोन यूजर्स बढ़ रहे हैं . यदि ऐसा होता है तो आने वाले कुछ वक्त में ही यह स्मार्टवाच के उपभोक्ताओं की संख्या काफी बढ़ जायेगी और इनके लिए सूचनाओं एवं मनोरंजन आधारित सामग्री का उत्पादन करना संचार कंपनियों के लिए फायदे का सौदा बन जाएगा|
स्मार्टवाच उन लोगों के होने की आशा है जो अपनी सेहत का काफी ख्याल रखते हैं| ये स्मार्टवाच दौड़नेतैरनेकसरत करते वक्त दुनिया से जुड़े रहने  में कोई रूकावट नहीं डालेंगी और इनमें लगी एप्प्स इन्हें पहनने वाले व्यक्ति को लगातार उसकी दिल की धडकननब्ज़ब्लड-सुगररक्तचाप आदि की जानकारी भी देती रहेंगी| बदलते वक्त के साथ ये बदलती हुई घड़ियों की कहानी आपको कैसी लगी बताइयेगा जरुर .
आई नेक्स्ट में 24/04/15 को प्रकाशित 

Sunday, April 19, 2015

बदल गयी संवाद की भाषा

संवाद के लिए हमेशा भाषा पर ज्यादा निर्भरता रही और भाषा के लिए लिपि जानने की अनिवार्यता यनी आपको कोई नयी भाषा सीखनी है तो पहले आपको उसकी लिपि सीखनी होगी पर क्या वास्तव में ऐसा है |कम से कम आज की इस बदलती दुनिया में ऐसा नहीं है | इंटरनेट के आगमन और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के बढ़ते चलन ने संचार के चलनों को कई तरह से प्रभावित किया है  जिसमें चिन्हों  और चित्र का इस्तेमाल संवाद का नया माध्यम बन रहा है इसके पहले उपभोक्ता और प्रयोगकर्ता देश के युवा बन रहे हैं |
बात को कुछ यूँ समझिये तकनीकी चिन्ह में हैशटैग सबसे आगे है जो अपनी बात को कहने का एकदम नया जरिया है तो दूसरा तरीका है द्रश्यों के सहारे अपनी बात कहना जल्दी ही वह समय  इतिहास हो जाने वाला है जब आपको कोई एसएमएस मिलेगा कि क्या हो रहा है और आप लिखकर जवाब देंगे। अब समय दृश्य संचार का है। आप तुरंत एक तस्वीर खींचेंगे या वीडियो बनाएंगे और पूछने वाले को भेज देंगे या एक स्माइली भेज देंगे। फोटो या छायाचित्र बहुत पहले से संचार का माध्यम रहे हैंपर सोशल नेटवर्किंग साइट्स और इंटरनेट के साथ ने इन्हें इंस्टेंट कम्युनिकेशन मोड (त्वरित संचार माध्यम) में बदल दिया है। अब महज शब्द नहींभाव और परिवेश भी बोल रहे हैं। इस संचार को समझने के लिए न तो किसी भाषा विशेष को जानने की अनिवार्यता है और न ही वर्तनी और व्याकरण की बंदिशें। तस्वीरें पूरी दुनिया की एक सार्वभौमिक भाषा बनकर उभर रही हैं। एसी नील्सन के नियंतण्र मीडिया खपत सूचकांक 2012 से पता चलता है कि एशिया (जापान को छोड़कर) और ब्रिक देशों में इंटरनेट मोबाइल फोन पर टीवी व वीडियो देखने की आदत पश्चिमी देशों व यूरोप के मुकाबले तेजी से बढ़ रही है। मोबाइल पर लिखित एसएमएस संदेशों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। वायरलेस उद्योग की अंतरराष्ट्रीय संस्था सीटीआईए की रिपोर्ट के अनुसार साल 2012 में 2.19 ट्रिलियन एसएमएस संदेशों का आदान-प्रदान पूरी दुनिया में हुआजो2011 की तुलना में भेजे गए संदेशों की संख्या से पांच प्रतिशत कम रहा। वहीं मल्टीमीडिया मेसेज (एमएमएस) जिसमें फोटो और वीडियो शामिल हैंकी संख्या साल 2012 में 41 प्रतिशत बढ़कर 74.5 बिलियन हो गई। एक साधारण तस्वीर से संचारशब्दों और चिह्नों के मुकाबले कहीं आसान है। फेसबुक पर लोग प्रतिदिन 300 मिलियन चित्रों का आदान-प्रदान कर रहे हैं और साल भर में यह आंकड़ा 100 बिलियन का है। चित्रों का आदान-प्रदान करने वाले लोगों में एक बड़ी संख्या स्मार्टफोन प्रयोगकर्ताओं की है जो स्मार्टफोन द्वारा सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करते हैं तथ्य यह भी है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स के बढ़ते इस्तेमाल में संचार के पारंपरिक तरीकेजिसका आधार भाषा हुआ करती थीवह कुछ निश्चित चिह्नों/प्रतीकों में बदल रही है। इसे हम इमोजीस या फिर इमोटिकॉन के रूप में जानते हैं जो चेहरे की अभिव्यक्ति जाहिर करते हैं। 1982 में अमेरिकी कंप्यूटर विज्ञानी स्कॉट फॉलमैन ने इसका आविष्कार किया था। स्कॉट फॉलमैन ने जब इसका आविष्कार किया थातब उन्होंने नहीं सोचा था कि एक दिन ये चित्र प्रतीक मानव संचार में इतनी बड़ी भूमिका निभाएंगे। सिस्को के अनुसार वर्ष 2016 में दुनिया भर में दस अरब मोबाइल फोन काम कर रहे होंगे। गूगल के एक सर्वे के मुताबिकभारत में स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादाद फिलहाल अमेरिका के 24.5 करोड़ स्मार्टफोन धारकों के आधे से भी कम हैपर उम्मीद है कि 2016 तक मोबाइल फोन इंटरनेट तक पहुंचने का बड़ा जरिया बनेंगे और 350 करोड़ संभावित इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में से आधे से ज्यादा मोबाइल के जरिये ही इंटरनेट का इस्तेमाल करेंगे और निश्चय ही तब छायाचित्र संचार का दायर और बढ़ जाएगा वहीं  हैश टैग सोशल (#) मीडिया में अपनी बात को व्यवस्थित तरीके से कहने का नया तरीका  बन रहा है| जागरूकता के निर्माण के अलावा यह उन संगठनों के लिए वरदान है जिनके पास लोगों को संगठित करने के लिए विशाल संसाधन नहीं है | मूल रूप से यह दुनिया की किसी भी प्रचलित भाषा का शब्द या प्रतीक नहीं , मूलतः यह एक तकनीकी चिन्ह पर सब इसे धीरे धीरे अपना रहे हैं | कंप्यूटर और सोशल मीडिया लोगों को एक नयी भाषा दे रहा है | हैशटैग के पीछे नेटवर्क नहीं विचारों का संकलन तर्क शामिल है इससे जब आप किसी हैशटैग के साथ किसी विचार को आगे बढाते हैं तो वह इंटरनेट पर मौजूद उस विशाल जनसमूह का हिस्सा बन जाता है जो उसी हैश टैग के साथ अपनी बात कह रहा है |वहीं तस्वीरें और द्रश्य संवाद पर भाषा की निर्भरता को खत्म कर रहे हैं |
हिन्दुस्तान युवा में 19/04/15 को प्रकाशित 

Friday, April 17, 2015

बड़ा खतरा बन गया है ई -कचरा

तकनीकी के इस ज़माने में हर उस शब्द जिसके कि साथ 'जुड़ जाता है प्रगति का पर्याय  बन जाता है. इस समय  इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के बिना जीवन की कल्पना करना भी मुश्किल है। मोबाइल,कम्प्युटरलैपटॉपटैबलेटआदि अब आधुनिक उपकरण हमारे  जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं।तकनीक की इस आपा धापी में हम कभी इस विषय की ओर नहीं सोचते कि जब इन उपकरणों की उपयोगिता खत्म हो जायेगी तब इनका क्या किया जाएगा | ई-कचरे के अंतर्गत वे सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आते हैं जिनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। ई-कचरा या ई वेस्ट एक ऐसा शब्द है जो तरक्की के इस प्रतीक के दूसरे पहलू की ओर इशारा करता है वह पहलू है पर्यावरण की बर्बादी ।
 संयुक्त राष्ट्र संघ की विभिन्न संस्थाओंउद्योग जगतविभिन्न देशों की सरकारों एवं वैज्ञानिकों द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार वर्ष २०१७ विश्व भर में उत्पन्न होने वाले ई-कचरे की कुल मात्रा साढ़े छह करोड़ टन के लगभग पहुँच जाएगी. ई-कचरे का सबसे अधिक उत्सर्जन विकसित देशों द्वारा किया जाता है जिसमे अमेरिका अव्वल है. विकसित देशों में पैदा होने वाला अधिकतर ई-कचरा प्रशमन के लिए  एशिया और पश्चिमी अफ्रीका के गरीब अथवा अल्प-विकसित देशों में भेज दिया जाता है |यह ई-कचरा इन देशों के लिए भीषण मुसीबत का रूप लेता जा रहा है. भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में प्रतिवर्ष लगभग ४ लाख टन ई-कचरा उत्पन्न होता है. राज्यसभा सचिवालय द्वारा  'ई-वेस्ट इन इंडियाके नाम से प्रकाशित एक दस्तावेज के अनुसार भारत में उत्पन्न होने वाले कुल ई-कचरे का लगभग सत्तर प्रतिशत केवल दस  राज्यों और लगभग साठ प्रतिशत कुल पैंसठ शहरों से आता है. दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में ई-कचरे के उत्पादन में मामले में महाराष्ट्र और तमिल नाडु जैसे समृृद्ध राज्य और मुंबई और दिल्ली जैसे महानगर अव्वल हैं. एसोचैम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश का लगभग ९० प्रतिशत ई-कचरा असंगठित क्षेत्र केअप्रशिक्षित लोगों द्वारा निस्तारित किया जाता है. इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग इस कार्य के लिए आवश्यक सुरक्षा मानकों से अनभिज्ञ हैं.  एक अखबार में प्रकाशित खबर के अनुसार इस वक़्त देश में लगभग १६ कम्पनियाँ ई-कचरे के प्रशमन के काम में लगी हैं. इनकी कुल क्षमता साल में लगभग ६६,००० टन ई-कचरे को निस्तारित करने की है जो कि देश में पैदा होने वाले कुल ई-कचरे के दस  प्रतिशत से भी काम है.
विगत कुछ वर्षों में ई-कचरे की मात्रा में लगातार तीव्र वृद्धि हो रही है और प्रतिवर्ष लगभग 20 से 50 मीट्रिक टन ई-कचरा विश्व भर फेंका जा रहा है। ग्रीनपीस संस्था के अनुसार ई-कचरा विश्व भर में उत्पन्न होने वाले ठोस कचरे का लगभग पाँच प्रतिशत है। साथ ही विभिन्न प्रकार के ठोस कचरे में सबसे तेज़ वृद्धि दर ई-कचरे में ही देखी जा रही है क्योंकि लोग अब अपने टेलिविजन,कम्प्युटरमोबाइलप्रिंटर आदि को पहले से अधिक जल्दी बदलने लगे है। इनमें सबसे ज्यादा दिक्कत पैदा हो रही है कम्प्युटर और मोबाइल से क्योंकि इनका तकनीकी विकास इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि ये बहुत ही कम समय में पुराने हो जाते हैं और इन्हें जल्दी बदलना पड़ता है। भविष्य में ई-कचरे की समस्या कितनी विकराल हो सकती है इस बात का अंदाज़ा इन कुछ तथ्यों के माध्यम से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में विकसित देशों में कम्प्युटर और मोबाइल उपकरणों की औसत आयु घट कर मात्र दो  साल रह गई है। घटते दामों और बढ़ती क्र्य शक्ति के फलस्वरूप इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों जैसे मोबाइलटीवीकम्प्युटरआदि की संख्या और प्रतिस्थापना दर में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है|जिससे निकला ई कचरा सम्पूर्ण विश्व में एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आ रहा है|भारत जैसे देश में जहाँ शिक्षा और जागरूकता का अभाव है वहां सस्ती तकनीक ई कचरे जैसी समस्याएं ला रही है|
घरेलू ई-कचरे जैसे अनुपयोगी टीवी और रेफ्रिजरेटर में लगभग एक हजार विषैले पदार्थ होते हैं जो मिट्टी एवं भू-जल को प्रदूषित करते हैं। इन पदार्थों के संपर्क में आने पर सरदर्दउल्टी , मतलीआँखों में दर्द जैसी समस्याएँ हो सकती हैं। ई-कचरे का पुनर्चक्रण एवं निस्तारण अत्यंत ही महत्वपूर्ण विषय है जिसके बारे में गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। भारत सरकार ने ई-कचरे के प्रबंधन के लिए विस्तृत नियम बनाए हैं जो कि 1 मई 2012 से प्रभाव में आ गए हैं। ई-कचरा (प्रबंधन एवं संचालन नियम) 2011 के अंतर्गत ई-कचरे के पुनर्चक्रण एवं निस्तारण के लिए विस्तृत निर्देश दिये गए हैं। हालांकि इन दिशा निर्देशों का पालन किस सीमा तक किया जा रहा है यह कह पाना कठिन है। जानकारी के अभाव में ई-कचरे के शमन में लगे लोग कई  प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त  हो रहे हैं। अकेले दिल्ली में ही एशिया का लगभग 85 प्रतिशत ई-कचरा शमन के लिए आता है परंतु इसके निस्तारण के लिए जरूरी सुविधाओं का अभाव है। आवश्यक जानकारी एवं सुविधाओं के अभाव में न केवल ई-कचरे के निस्तारण में लगे लोग न केवल अपने स्वास्थ्य को  नुकसान पहुंचा रहे हैं बल्कि पर्यावरण को भी दूषित कर  रहे हैं। ई-कचरे में कई जहरीले और खतरनाक रसायन तथा अन्य पदार्थ जैसे सीसाकांसापारा,कैडमियम आदि शामिल होते हैं जो  उचित शमन प्रणाली के अभाव में पर्यवरण के लिए काफी खतरा पैदा करते हैं। एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत अपने ई-कचरे के केवल 5 प्रतिशत का ही पुनर्चक्रण कर पाता है।
ई-कचरे के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी उत्पादकउपभोक्ता एवं सरकार की सम्मिलित हिस्सेदारी होनी चाहिए । उत्पादक की ज़िम्मेदारी है कि वह कम से कम हानिकारक पदार्थों का प्रयोग करें एवं ई-कचरे के प्रशमन का उचित प्रबंधन करें,उपभोक्ता की ज़िम्मेदारी है कि वह ई-कचरे को इधर उधर न फेंक कर उसे पुनर्चक्रण के लिए उचित संस्था को दें तथा सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह ई-कचरे के प्रबंधन के ठोस और व्यावहारिक नियम बनाए और उनका पालन सुनिश्चित करे.
 नवभारत टाईम्स में 17/04/15 को  प्रकाशित लेख 

Thursday, April 16, 2015

टेलीकॉम कम्पनियों के नए कदम से नेट न्यूट्रैलिटी को चुनौती

मानव सभ्यता के इतिहास को तीन चीजों ने हमेशा के लिए बदल दिया |वह हैं आग पहिया और इंटरनेट |जिसमें इंटरनेट का सबसे क्रांतिकारी असर पूरी दुनिया पर हुआ जिसने दुनिया और दुनिया को देखने का नजरिया बदल दिया हैबात चाहे ख़बरों की हो,ऑनलाइन शॉपिंग या सोशल नेटवर्किंग साईट्स सब इंटरनेट पर निर्भर है|इंटरनेट ने हमारे जीवन को कितना आसान बना दिया है वो चाहे टिकट का आरक्षण हो या किसी बिल का भुगतान सब कुछ माउस की एक क्लिक पर, लेकिन यह सब इस बात पर  निर्भर करेगा कि सबको इंटरनेट की पहुंच समान रूप से उपलब्‍ध होयानी वे जो चाहें इंटरनेट पर खोज सकेंदेख सकें वह भी बिना किसी भेदभाव के या कीमतों में किसी अंतर केयहीं से इंटरनेट निरपेक्षता’  यानि नेट न्यूट्रैलिटी का सिद्धांत निकला हैमुख्य तौर  पर यह इंटरनेट की आजादी या बिना किसी भेदभाव के इंटरनेट तक पहुंच की स्‍वतंत्रता का मामला है| संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार इन्टरनेट सेवा से लोगों को वंचित करना और ऑनलाइन सूचनाओं के मुक्त प्रसार में बाधा पहुँचाना मानवाधिकारों के उल्लघंन की श्रेणी में माना जाएगा संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधि फ़्रैंक ला रू ने ये रिपोर्ट विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के प्रसार  और संरक्षण के अधीन तैयार की है|यानि हम कह सकते हैं कि इन्टरनेट आने वाले समय में संविधान सम्मत और मानवीय अधिकारों का एक प्रतिनिधि बन कर उभरेगा इसी कड़ी में फिनलैंड ने विश्व के सभी देशों के समक्ष एक उदहारण पेश करते हुए इन्टरनेट को मूलभूत कानूनी अधिकार में शामिल कर लिया | इंटरनेट के प्रसार व उपभोग बढने के साथ ही इसकी आजादी का मुद्दा समय समय पर उठता रहा है| इंटरनेट के विकास और व्यवसाय  को वास्तविक गति मोबाईल और एप ने दी है|एप से तात्पर्य  किसी कंप्यूटर वेबसाईट का लघु मोबाईल स्वरुप जो सिर्फ मोबाईल पर ही चलता है |एप ने इंटरनेट के बाजार को ख़ासा प्रभावित किया है |एप के आने के पहले इंटरनेट का इस्तेमाल विभिन्न वेबसाईट का इस्तेमाल सिर्फ कंप्यूटर पर ही किया जा सकता है |एंड्राइड मोबाईल के विकास और गूगल प्ले स्टोर पर मुफ्त उपलब्ध एप ने इंटरनेट के प्रयोग को खासी गति दे दी है|कंपनियां इस पर तरह तरह के रोक लगाना चाहती हैं|
नेट न्यूट्रैलिटी का इतिहास
इस शब्‍द का सबसे पहले इस्‍तेमाल साल 2003 में  कोलंबिया विश्‍वविद्यालय में  मीडिया लॉ के  प्रोफेसर टिम वू (Tim Wu) ने किया थाइसे नेटवर्क तटस्‍थता  (network neutrality), इंटरनेट न्‍यूट्रालिटी (Internet neutrality), तथा नेट समानता (net equality) भी कहा जाता है| नेट न्‍यूट्रालिटी का मतलब होता है हम जो भी इंटरनेट सेवा या एप इस्तेमाल करें वह हमें हर इंटरनेट सेवा प्रदाता से एक स्पीड और एक ही मूल्य पर मिलें | इंटरनेट सेवा मुहैया करवाने वाली टेलीकॉम कंपनियों  को लोगों को उनकी डाटा खपत के हिसाब से मूल्य वसूलना  चाहिए| चिली विश्व का सबसे पहला देश है जिसने नेटन्‍यूट्रालिटी को लेकर 2010 में अधिनियम पारित किया है.  
नेट न्‍यूट्रालिटी का अर्थ
आसान शब्दों में यदि हम इस शब्द को समझें तो इसका अर्थ यह होता है कि इंटरनेट पर उपलब्ध हर एक साइट पर हम बराबरी से पहुँच स्थापित कर पायेंहर एक वेबसाइट एक किलोबाइट या मेगाबाइट की प्रति पैसा दर बराबर रखेकिसी विशिष्ट वेबसाइट की गति/स्पीड अधिक अथवा कम न हो.किसी भी तरह के गेटवे जैसे एयरटेल वन टच इंटरनेटडेटा वैल्यू एडेड सर्विसेजइंटरनेट डॉट ओआरजी आदि न होंकोई भी वेबसाइट जीरो रेटिंग” न हो या कुछ वेबसाइटों को दूसरे के मुक़ाबले मुफ़्त ना बना दिया जाये
भारत में विवाद
भारत में यह मुद्दा पिछले साल अगस्त महीने में एयरटेल द्वारा उछाला गया थाटेलीकॉम कंपनियों ने टेलीकॉम अथॉरिटी के सामने यह मुद्दा रखा था कि फ्री वोइस कालिंग ओर मल्टीमीडिया संदेशों की वजह से एसएमएस ओर मोबाइल कालिंग में भारी गिरावट आती जा रही है इस कारण उन्हें सालाना 5000करोड़ का नुकसान उठाना पड़ रहा हैइंटरनेट की सुलभता और बिना किसी खर्च के आसानी से मोबाइल पर उपलब्ध हो जाने वाले एप्स इसका मुख्य कारण हैभारत की सबसे बड़ी मोबाईल  कंपनी भारती एयरटेल ने एक ऐसा मोबाइल इंटरनेट प्लान लॉन्च किया है जिसमें  कुछ ऐप्स उपभोक्ताओं को मुफ़्त दिए जाएंगे,शेष के लिए कम्पनी उपभोक्ताओं से शुल्क वसूलेगी |अब अगर आप एयरटेल उपभोक्ता हैं तो इसका सीधा मतलब ये है कि आपके बजाय अब एयरटेल ये फ़ैसला करेगा कि आप कौन-कौन से ऐप्स का इस्तेमाल मुफ़्त कर सकते हैं,जबकि इससे पूर्व आप गूगल प्ले स्टोर पर किसी भी एप को डाउनलोड कर सकते थे और मोबाईल कम्पनी सिर्फ इस्तेमाल किये गए डाटा का शुल्क ही आप से वसूलेगी |यदि एप मुफ्त नहीं है तो भी एप का शुल्क एप उपलब्ध कराने वाली कंपनी को मिलेगा न की मोबाईल कम्पनी को पर अब मुफ्त एप के लिए भी कम्पनी आपसे शुल्क वसूलेगी |एयरटेल ज़ीरोनाम के इस प्लान की सोशल मीडिया पर काफ़ी आलोचना हुई है |विशेषज्ञों के मुताबिक ऐसी योजनाओं से नेट न्यूट्रैलिटी’ यानी इंटरनेट के निष्पक्ष स्वरूप पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा|
मोबाईल कम्पनियां व्हाट्स एप ,फेसबुक और दूसरे मेसेजिंग एप के आने के कारण चिंतित हैं क्योंकि इन मेसेजिंग एप से उनके व्यवसाय प्रभावित हो रहा है |एस एम् एस को इन चैटिंग ने लगभग समाप्त कर दिया है |अब ऐसे अधिकतर एप्स में वायस कॉलिंग सुविधा के आ जाने से  है उन्हें कॉल से मिलने वाली आय भी प्रभावित होते दिख रही है |
नेट न्यूट्रैलिटी के समर्थन में जोरदार बहस चल पडी है और ऑन लाइन दुनिया में एक पिटीशन भी शुरू की गयी है और इसके पक्ष में जनसमर्थन जुटाने के लिए ट्विटर पर #NetNeutrality नाम से एक हैश टैग भी चल रहा है जिसमें डेढ़ लाख लोगों से ज्यादा लोग अपने विचार रख चुके हैं |
लोग यह चाहते हैं कि इंटरनेट इस्तेमाल करने के लिए उपयोग में लाने वाले डाटा पैक अलग अलग न हों |सभी ट्रैफिक के एक ही डाटा पैक हों यानि गूगल वेबसाईट इस्तेमाल करने पर कोई दुसरी स्पीड और स्काईप इस्तेमाल करने के लिए कोई दुसरी नेट स्पीड न मिले भारत में इंटरनेट न्यूट्रैलिटी का मुद्दा अभी एकदम नया  है और  इंटरनेट निष्पक्षता से जुड़ा कोई क़ानून फिलहाल अभी तक बना  नहीं है और जानकारों का कहना है कि मोबाइल कंपनियां इसका फ़ायदा मुनाफ़ा बनाने के लिए कर रही हैं|नेट न्यूट्रैलिटी’ के हिसाब से ब कोई उपभोक्ता कोई भी डेटा प्लान ख़रीदता है तो उसे हक है कि उस प्लान में दी गई इंटरनेट स्पीड हर ऐप या वेबसाइट के लिए एक समान रहे|एक समय में अमरीका में भी इस मुद्दे पर बहस हुई थी और वहां फ़ैसला उपभोक्ताओं के पक्ष में लिया गया था|दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राईने इस विषय पर सेवाओं के नियमन से जुड़े बीस सवालों पर जनता से राय माँगी है |कम्पनियां 24 अप्रैल और आम जनता मई तक इस मुद्दे पर अपने सुझाव दे सकते हैं |यह राय advqos@trai.gov.in पर दी जा सकती है |
कैसे खत्म हो रही है नेट न्यूट्रैलिटी
टेलीकॉम कम्पनियां न केवल नेट न्यूट्रैलिटी को खत्म करने की मांग कर रही हैं वरन उन्होंने धीरे धीरे इसे ख़त्म करना शुरू भी कर दिया है|एयर टेल के अलावा रिलायंस ने फेसबुक के साथ मिलकर ऐसा ही इंटरनेट प्रोग्राम डॉट ओर्ग की शुरुवात की है |इसमें आप सर्च इंजन बिंग तो मुफ्त में इस्तेमाल कर सकते हैं लेकिन गूगल के प्रयोग के लिए आपको कीमत देनी होगी |नौकरी खोजने वाली वेबसाईट बाबा जॉब फ्री में उपलब्ध है लेकिन नौकरी डॉट कॉम के लिए शुल्क अदा करना पड़ेगा |
 तो क्या अब एप्स के लिए भी चार्ज देना होगा??
दुनिया को जोड़ने वालाइंटरनेट। एक क्लिक पर सवाल के तमाम जवाब देने वालाइंटरनेट। घर बैठे शॉपिंग और फिर घर बैठे ही डिलीवरी करने वालाइंटरनेट। आमजनों की जरुरत सा बन चुका है इंटरनेट। पर अगर आपको पता चले कि कुछ ही दिनों में शॉपिंग साइट एप्सचैट एप्स एक्सेस करने पर आपको चार्ज करना पड़ेगा तोखबर है कि टेलीकॉम कम्पनी एयरटेल अब तय करेगी कि किस एप को फ्री करना है और किस एप के लिए उपभोगताओं से पैसे चार्ज करना है।  इसका सीधा सा मतलब ये है कि जो मोबाइल ऐप एयरटेल को पैसा देगीउसे कंपनी मुफ़्त में उपभोक्ताओं तक पहुंचाएगी।  इस स्कीम को एयरटेल के जीरो स्कीम के नाम से जाना जाएगा। हालाँकि ये स्कीम इंटरनेट न्यूट्रैलिटी का उलंघन कर रही है और सोशल साइट्स पर इंटरनेट यूजर्स इसका जमकर विरोध भी कर रहे हैं। नेट न्यूट्रैलिटी’ का मतलब है कि इंटरनेट पर हर ऐपहर वेबसाइट और हर सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म बराबर हैं।  इंटरनेट फैसिलिटी प्रोवाइड करवाने वाली टेलीकॉम कंपनी को लोगों को उनकी डेटा यूसेज के हिसाब से चार्ज करना चाहिए।  एयरटेल की ये स्कीम इंटरनेट के रूल्स के खिलाफ है।  इसका सीधा सा मतलब ये है कि हो सकता है एयरटेल सिर्फ उन्हीं एप्स को प्राथमिकता दें जिससे उसकी डील हो।  वैसे खबर ये भी है कि वॉट्सएप भी अब सालाना 60 रुपये चार्ज करने वाला है।  इसके कम्पटीशन में रिलायंस ने जिओ नाम के एप की शुरुआत की है जो तेजी से डाउनलोड किया जा रहा है।  इसमें वीडियोकॉलिंग की फैसिलिटी के साथ साथ 100 मैसेज भी फ्री दे रहे। 
 नेट न्यूट्रालिटी के पक्ष-
·          नेट न्यूट्रालिटी उपभोगताओं से सिर्फ उनके डेटा यूसेज के हिसाब से ही चार्ज करती है। इसके अतिरिक्त उनसे अन्य खर्च नहीं लिया जाता। इस कारण उपभोक्ता बिना सोचे जरुरत के हिसाब से एप्स डाउनलोड करते हैं।
·          उपभोगताओं द्वारा किसी भी डेटा प्लान खरीदने पर इंटरनेट स्पीड हर एप और सभी वेबसाइट के लिए सामान रहती है। इसका सीधा सा मतलब ये  है कि इंटरनेट सर्विस प्रदान करने वाली कंपनियां इंटरनेट पर हर तरह के डाटा को एक जैसा दर्जा देती है। इस कारण यूजर्स एक साथ कई टैब्स खोलकर चीजे सर्च कर लेते हैं।  उपभोक्ता जो चाहें इंटरनेट पर खोज सकतेदेख सकते हैं वह भी बिना किसी भेदभाव के या कीमतों में किसी अंतर के।
·          ‘नेट न्यूट्रैलिटी’ के चलते किसी भी एप को यूज करने के लिए अलग से डेटा पैक की जरुरत नहीं होती। मतलब एक बार डेटा पैक रिचार्ज कराने पर खुलकर इंटरनेट का इस्तेमाल किया जा सकता है। आशय यह है कि कोई खास वेबसाइट या इंटरनेट आधारित सर्विस के लिए नेटवर्क प्रवाइडर आपको अलग से चार्ज नहीं कर सकता।
·          एक बार डेटा पैक कराने के बाद फेसबुकटि्वटर जैसे सोशल मीडिया साइट्स,मेसेजिंग या कॉल सर्विस जैसे वॉट्सऐप,स्काइप,गूगल हैंगआउट से लाइव बातचीतकई तरह की ईमेल सर्विसेजन्यूज से जुड़ी साइट्स पर ऐक्सेस आसानी से फ्री में किया जा सकता है। इसके लिए अतिरिक्त कोई चार्ज नहीं देना होता है।
·          नेट न्यूट्रालिटी इंटरनेट की आज़ादी को बढ़ावा देता हैसाथ ही इंटरनेट के प्रचार प्रसार के किये बहुत  उपयोगी है।
नेट न्यूट्रालिटी के विपक्ष
·          नेट न्यूट्रालिटी से उपभोक्ताओं को तो फायदा होता है पर इससे कम्पनीज को कुछ हद तक घाटा होता है।
·          अधिक इंटरनेट के इस्तेमाल पर आईएसपी(इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडरअतिरिक्त पैसे चार्ज कर सकती है। नेट न्यूट्रालिटी का प्रावधान है कि एक बार डेटा पैक कराने के बाद  अलग से एप आदि का चार्ज नहीं करेगा। पर इसके अतिरिक्त  उपभोक्ता जरुरत से अधिक इंटरनेट का इस्तेमाल करता हैतो आईएसपी  उससे चार्ज ले सकता है।
·          आईएसपी के पास अधिकार है कि जिस कंटेंट को न दिखाना,चाहे  उसे ब्लॉक कर सकता है। अर्थात सेंसरशिप लगाने का पूरा अधिकार आईएसपी के पास है।
·          अधिक फाइल ट्रांसफर करने पर इंटरनेट स्पीड स्लो हो  सकती है। जीमेल हॉटमेल के मुकाबले तेज काम करता है। स्पीड ट्रांसफर रेट पर निर्भर करती है।
·          नेट न्यूट्रालिटी हटने के बाद हो सकता है कि कम्पनीज को फायदा ही और वो  कस्टमर्स को बेहतर सर्विस मुहैय्या कराये। जिससे एक तरह से उपभोक्ताओं को ही फायदा होगा।
भारत में नेट न्यूट्रालिटी से जुड़े प्रमुख कानूनी प्रावधान
एयरटेल का जीरो स्कीम नेट न्यूट्रिलिटी के खिलाफ है लेकिन इसके लिए कोई कानून नहीं होने से इसे गैर कानूनी नहीं कहा जा सकता है।जानकारों की मानें तो जल्द ही इसके खिलाफ  प्रावधान बनाया जाएगा। देश में फिलहाल नेट न्यूट्रालिटी के लिए अभी कोई कानून नहीं है।
सम्बंधित तकनीकी शब्दावली
वी ओ आई पी :- वोइस ओवर इंटरनेट प्रोटोकॉल जिससे के माध्यम से आप दुनिया में कहीं भी सस्ती इंटरनेट डेटा दर या फ्री वोइस कॉल कर सकते हैं जैसे कि व्हाट्स एपस्काइप या व्हाईबर इत्यादि.
ओ टी टी :- ओवर दा टॉप या मूल्य वर्धित सेवाए जैसे की विडियो कालिंगइंटरनेट टीवी(आई पी टीवी), स्ट्रीमिंग मल्टीमीडिया सन्देशजिसके कारण टेलिकॉम कम्पनियों सालाना 5000 करोड़ का नुखसान हो रहा हैं I

प्रभात खबर में 16/04/15 को प्रकाशित 

Monday, April 13, 2015

वर्जित क्षेत्र में पुरुष वर्चस्व को चुनौती

सूचना क्रांति के इस युग में इस बदलती दुनिया को परखने का बड़ा माध्यम आंकड़े बन रहे हैं और जब आंकड़े मिल जाते हैं तो समस्या को समझना और उसका समाधान करना थोडा आसान हो जाता है |इंटरनेट आंकड़े इकठ्ठा करने और उनका विश्लेषण करने का बड़ा जरिया बन रहा है |ऐसा ही एक आंकड़ा अभी जारी हुआ है जो भारत में पोर्न देखने वालों की स्थिति को बता रहा है |देश में जहां पॉर्न देखना सामाजिकसांस्कृतिक एवं विधिक आधार पर  निषिद्ध है वहां हकीकत  में आंकड़े कुछ और ही कहानी कह रहे हैं दुनिया भर में ऑन लाइन पोर्न सामग्री पर नजर रखने वाली संस्था पोर्न हब के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2014में सबसे ज्यादा इंटरनेट पॉर्न देखने वालों की संख्या के मामले में भारतीय चौथे स्थान पर थे। इस आंकड़े में चौकाने वाली बात यह है कि भारत में कुल पोर्न देखने वाले लोगों की संख्या का 25 प्रतिशत महिलाओं का है|जो मोबाईल फोन पर पोर्न देख रही हैं |
दिलचस्प बात यह है कि यह आंकड़ा विश्व के औसत आंकड़े से लगभग दो प्रतिशत ज्यादा है जो कि भारत जैसे देश के संदर्भ में और भी आश्चर्यचकित करने वाला है जहाँ  आमतौर पर यहाँ महिलाओं को ऐसे  विषयों के बारे में बात तक करने की  सामाजिक मान्यता नहीं है वहां महिलाओं द्वारा  पोर्न सामग्री का इस्तेमाल कई सवाल खड़े करता हैसाथ ही यह भी  बताता है कि दुनिया के अन्य क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में भी पुरुष वर्चस्व टूट रहा है भले ही यह एक वर्जित विषय हो और मोबाईल एक ऐसे व्यक्तिगत माध्यम के रूप में उभर रहा है जो उन क्षेत्रों में भी पुरुष वर्चस्व को तोड़ रहा है जहाँ महिलाओं का प्रवेश वर्जित है  |  हमारा समाज बच्चे को पुरुष बनाता है और बच्ची को स्त्री,इस तरह का सामजिक विभाजन जहाँ यौन विषयों पर पुरुषों के लिए समाज का नजरिया अलग हो  और स्त्रियों के लिए अलग| पुरुषों के लिए पोर्न देखना स्वीकार्य है वहीं स्त्रियों के लिए यह एक गन्दा विषय रहा है |पारम्परिक रूप से हमारे समाज में यौन विषयों पर बात करना हमेशा से वर्जित रहा है यह साफ़ इंगित करता है कि ऐसे मुद्दों को लेकर हमारी दोहरी सोच रही है जिसमें पुरुष मानसिकता हावी रही है यानि पोर्न सामग्री भी संतुलित नहीं है उसमें भी पुरुषों का नजरिया हावी रहा है  |पोर्न को लेकर भारतीय समाज  हमेशा नकारात्मक रहा है पर तथ्य यह भी है कि कोणार्क और खजुराहो जैसे अनेक मंदिरों की दीवारों पर जो कुछ उत्कीर्ण है वह किसी भी पोर्न फिल्म से कम नहीं है |इन प्रश्नों की तलाश अभी भी जारी है कि खजुराहो और कोणार्क में इस तरह के कामोतेज्ज्क चित्र क्यों और किन परिस्थितियों में उकेरे गए क्योंकि परम्परागत रूप में यौन जैसे विषयों के संदर्भ में भारतीय समाज एक बंद समाज रहा है |सामजिक रूप से इन विषयों को कभी सार्वजनिक रूप से कथ्य का विषय नहीं बनाया गया | फिर इन सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे चित्रों का औचित्य क्या है |
महिलाओं का मोबाईल पर पोर्न देखना समाज शासत्रीय नजरिये से  शायद उन्हे अपनी नई नई मिली आर्थिक एवं सामाजिक स्वतन्त्रता का उपभोग करने का एक जरिया भी हो सकता है |भारतीय समाज महिलाओं के नजरिये से एक  बंद समाज रहा है जिसकी जड़ में है इसका सामन्ती ढांचा और पित्र सत्तात्मक सोच पर खुलती अर्थव्यवस्था,शिक्षा का विस्तार  और अपने शरीर और उससे जुड़े सुख को लेकर स्वायत्तता का बोध अब महिलाओं में भी बढ़ रहा है | मोबाईल इंटरनेट अब कोई विलासिता की चीज नहीं रहा गयी है ये हर हाथ में है और यही  उनकी दबी हुई इच्छायों को आवाज दे रहा है |पर यह अलग बात है कि तकनीक से अब कुछ भी छुपाना मुश्किल है|इनटर्नेट पर आप जो कुछ भी कर रहे हैं वह आंकड़ों के रूप में दर्ज हो रहा है |
भले ही पोर्न देखना भारत में प्रतिबंधित है पर आंकड़े इस बात की गवाही दे रहे हैं कि भारत में पोर्न देखा जा रहा है और खूब देखा जा रहा है | पोर्न हब के आंकड़े सिर्फ इंटरनेट पर देखे जा रहे पोर्न की तस्दीक कर रहे हैं पर हर गली मोहल्ले में मोबाईल रिप्येरिंग की दुकानों पर चोरी छिपे पोर्न क्लिप और अश्लील सी डी का व्यवसाय चल रहा है |इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता और इस तरह कितने लोग पोर्न देख रहे हैं इस बात का कोई आधिकारिक आंकड़ा अभी भी उपलब्ध नहीं है पर इस तरह पोर्न देखने वालों में ज्यादा हिस्सा पुरुषों का ही है |महिलायें अगर पोर्न देखना भी चाहती हैं तो सामजिक और अन्य  दबाओं के चलते इसका हिस्सा नहीं बन पातीं हैं |इस बात पर पर्याप्त बहस की जा सकती है कि पोर्न देखना सही है या गलत पर जब पोर्न देखा जा रहा है तो इसका समाज शास्त्रीय विश्लेषण होना जरुरी है कि पोर्न क्यों और कैसे देखा जा रहा है |इस विषय पर शुतुरमुर्गी रवैया समस्या को और बढ़ाएगा |
भारत में पोर्न के प्रति महिलाओं का बढ़ता रुझान एक नयी प्रवृत्ति है या उनके आर्थिक रूप से सम्रध होने की निशानी है या कोई अन्य कारण  इसका विश्लेषण होना नितांत आवशयक है |
 कानूनी द्र्ष्टि से भारत में पोर्न सामग्री देखने पर प्रतिबन्ध है पर इंटरनेट अपवाद हैइंटरनेट पर मौजूद समस्त पोर्न सामग्री पर रोक लगाना विश्व की किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है |इंटरनेट इंस्टेंट फ्रीडम तो दे रहा है पर पोर्न मूलतः स्त्री विरोधी है जिसमें स्त्रियों को महज एक उपभोग की वस्तु समझा जाता है और पोर्न सामग्री का ज्यादातर हिस्सा पुरुषों के नजरिये से प्रेरित होता है|पर्याप्त सेक्स शिक्षा का अभाव और जागरूकता की कमी तथा इंटरनेट पर बहुतायत पोर्न सामग्री की सर्वसुलभता और सस्ते स्मार्ट फोन|यह सब मिलकर एक ऐसा दुश्चक्र रच रहे हैं जिससे पूरा समाज प्रभावित हो रहा है |भारत में यह विचार अभी तक जड़ें नहीं जमा पाया कि पोर्न सामग्री में स्त्री पुरुष दोनों का नजरिया  समान रूप से होना चाहिए |अमेरिका जैसे देश में  जहाँ पोर्न सामग्री देखना अपराध नहीं है वे इस प्रवृति को दूसरे तरह से देखते हैं उनका मानना है कि महिलाओं के पोर्न देखने से पॉर्न के महिला उपभोक्ताओं के रूप में उनकी ताकत बढ़ेगी तब  शायद जो पॉर्न बाज़ार में उपलब्ध होगा वह उतना अप्राकृतिक नहीं होगा जितना अभी है। साथ ही ऐसी पॉर्न सामाग्री के अधिक संतुलित होने की आशा की जा सकती है।अमेरिका और कुछ अन्य विकसित देशों में महिलाओं के लिए बनने वाले पॉर्न की संख्या काफी ज्यादा है।पोर्न के इस अमेरिकी नजरिये से भारत कितना प्रभावित होगा और आगे किस राह जाएगा इसका फैसला अभी होना है |
 राष्ट्रीय सहारा में 13/04/15 को प्रकाशित 

Saturday, April 4, 2015

कैसे निकलेंगे अवसाद की गिरफ्त से

आमतौर पर भारत खुशहाल देश दिखता है |साल 2014 में खुशहाली के सर्वेक्षण में देश अपने नागरिकों को लम्बा और खुशहाल जीवन देने के मामले में 151 देशों में भारत चौथे पायदान पर था|पर हकीकत कुछ अलग है विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत छत्तीस प्रतिशत की अवसाद दर के साथ दुनिया के सर्वाधिक  अवसाद ग्रस्त देशों में से एक है |मानव संसाधन के लिहाज से ऐसे आंकड़े किसी भी देश के लिए अच्छे नहीं कहे जायेंगे जहाँ हर चार में से एक महिला और दस में से एक पुरुष इस रोग से पीड़ित हों | देश में ही 2001 से 2014 के बीच 528 प्रतिशत अवसाद रोधी दवाओं का कारोबार बढ़ा है| फार्मास्युटिकल मार्केट रिसर्च संगठन एआईओसीडी एडब्लूएसीएस के अनुसार भारत में अवसाद रोधी दवाओं का कारोबार बारह प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा है | ”डेली”(डिसेबिलिटी एडजस्ट लाईफ इयर ऑर हेल्थी लाईफ लॉस्ट टू प्रीमेच्योर डेथ ऑर डिसेबिलिटी ) में मापा जाने वाला यह रोग विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ 2020 तक बड़े रोगों के होने का सबसे बड़ा कारक बन जाएगा| अवसाद से पीड़ित व्यक्ति भीषण दुःख और हताशा से गुजरते हैं|उल्लेखनीय है कि ह्रदय रोग और मधुमेह जैसे रोग अवसाद के जोखिम को तीन गुना तक बढ़ा देते हैं|समाज शास्त्रीय नजरिये से यह प्रव्रत्ति हमारे सामाजिक ताने बाने के बिखरने की ओर इशारा कर रही है|बढ़ता शहरीकरण और एकल परिवारों की बढ़ती संख्या लोगों में अकेलापन बढ़ा रहा है और सम्बन्धों की डोर कमजोर हो रही है| बदलती दुनिया में विकास के मायने सिर्फ आर्थिक विकास से ही मापे जाते हैं जबकि सामजिक पक्ष को एकदम से अनदेखा किया जा रहा है| शहरों में संयुक्त परिवार इतिहास हैं जहाँ लोग अपने सुख दुःख बाँट लिया करते थे और छतों का तो वजूद ही ख़त्म होता जा रहा है| इसका निदान लोग अधिक व्यस्ततता में खोज रहे हैं नतीजा अधिक काम करना ,कम सोना और टेक्नोलॉजी पर बढ़ती निर्भरता | आर्थिक विकास मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर किया जा रहा है |
इस तरह अवसाद के एक ऐसे दुश्चक्र का निर्माण होता है जिससे निकल पाना लगभग असंभव होता है |अवसाद से निपटने के लिए नशीले पदार्थों का अधिक इस्तेमाल समस्या की गंभीरता को बढ़ा देता है|जागरूकता की कमी के कारण इस बीमारी के लक्षण भी  ऐसे नहीं है जिनसे इसे आसानी से पहचाना जा सके आमतौर पर इनके लक्षणों को व्यक्ति के मूड से जोड़कर देखा जाता है|अवसाद के लक्षणों में हर चीज को लेकर नकारात्मक रवैया ,उदासी और निराशा जैसी भावना,चिड़ चिड़ापन, भीड़ में भी अकेलापन महसूस करना और जीवन के प्रति उत्साह में कमी आना है| आमतौर पर यह ऐसे लक्षण नहीं है जिनसे लोगों को इस बात का एहसास हो कि वे अवसाद की गिरफ्त  में आ रहे हैं| दूसरी समस्या ज्यादातर भारतीय एक मनोचिकित्सक के पास मशविरा लेने जाने में आज भी हिचकते हैं उन्हें लगता है कि वे पागल घोषित कर दिए जायेंगे इस परिपाटी को तोडना एक बड़ी चुनौती है |जिससे पूरा भारतीय समाज जूझ रहा है |उदारीकरण के बाद देश की सामाजिक स्थिति में खासे बदलाव हुए हैं पर हमारी सोच उस हिसाब से नहीं बदली है |अपने बारे में बात करना आज भी सामजिक रूप से वर्जना की श्रेणी में आता है ऐसे में अवसाद का शिकार व्यक्ति अपनी बात खुलकर किसी से कह ही नहीं पाता |
तथ्य यह भी है कि इस तरह की समस्याओं को देखने का एक मध्यवर्गीय भारतीय नजरिया है जो यह मानता है कि इस तरह की समस्याएं आर्थिक तौर पर संपन्न लोगों और बिगडैल रईसजाड़ों को ही होती हैं मध्यम या निम्न आय वर्ग के लोगों को नहीं |इस स्थिति में अवसाद बढ़ता ही रहता है जबकि समय रहते अगर इन मुद्दों पर गौर कर लिया जाए तो स्थिति को गंभीर होने से बचाया जा सकता है |
देश में कोई स्वीकृत मानसिक स्वास्थय  नीति नहीं है और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधयेक अभी संसद में लंबित है जिसमें ऐसे रोगियों की देखभाल और उनसे सम्बन्धित अधिकारों का प्रावधान है |मानसिक स्वास्थ्य के प्रति बरती जा रही है लापरवाही का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अक्तूबर 2014 से पूर्व मानसिक स्वास्थ्य नीति का कोई अस्तित्व ही नहीं था |इसका खामियाजा मनोचिकित्सकों की कमी के रूप में सामने आ रहा है देश में 8,500 मनोचिकित्सक और 6,750 मनोवैज्ञानिकों की कमी है |इसके अतिरिक्त 2,100 नर्सों की कमी है| मानसिक समस्याओं को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता इस दिशा में सांस्थानिक सहायता की भी पर्याप्त आवश्यकता है| रोग की पहचान हो चुकी है भारत इसका निदान कैसे करेगा इसका फैसला होना अभी बाकी है |

 अमर उजाला में 04/04/15 को प्रकाशित 

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