मेरे जैसी पीढी के लोगों को बचपने से एक बात मुगली घुट्टी की तरह पिलाई गयी है कि फिल्में देखना बुरी बात है फ़िल्म देखने से आप बिगड़ जायेंगे . फिल्में कोरी फंतासी दिखाती हैं और रियलिटी से उनका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता. फिल्मों के कथानक चाहे जितने ही काल्पनिक क्यों न हों वे समय और समाज से कटे हुए नहीं रह सकते सिनेमा ने हमेशा समाज को आइना दिखाया है, और बताया है सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन नहीं अपितु एक संसार है जो जीवन के हर एक भाग को छूता ही नहीं बल्कि प्रभावित भी करता है .उनका प्रस्तुतीकरण भले ही काल्पनिक हो लेकिन प्रॉब्लम अपने टाइम की ही होती हैं जैसे लोगों को फिल्में देखने का रोग होता है वैसे ही हिन्दी फिल्मों ने समय समय पर विभिन्न रोगों को कहानी का आधार बनाया है और दर्शकों को बताने की कोशिश की है की ये रोग क्या हैं ?भले ही ये बात आपको आश्चर्य जनक लगे लेकिन फिल्में समय से निरपेक्ष नहीं रह सकती जो भी समाज में है वो फिल्में जरूर दिखाती है.बात शुरू करते हैं १९५३ में बनी फ़िल्म आह से, उस वक़्त तपेदिक या टीबी एक लाइलाज रोग था नायक राजकपूर टीबी का शिकार होता है लेकिन नायिका नर्गिस तमाम सामाजिक प्रतिरोधों के बावजूद नायक का साथ देने का फ़ैसला करती है .खामोशी फ़िल्म मानसिक रोग की समस्या को दिखाती है .हिन्दी सिनेमा के इतिहास मे जिस रोग को सबसे ज्यादा बार दिखाया गया है वह है कैंसर आनंद ,सफर , मिली दर्द का रिश्ता ,वक्त रेस अगेंस्ट टाइम सभी फिल्मों के कथानक का आधार कैंसर ही था कमजोर ह्रदय की बीमारी पर मशहूर फ़िल्म कल हो न हो या यादाश्त जाने की बीमारी पर बनी फ़िल्म सदमा में श्रीदेवी और कमल हसन के भाव प्रवण अभिनय को कौन भूल सकता है जल्दी ही प्रर्दशित हुई फ़िल्म तारे जमीन पर दिस्क्लेसिया बीमारी की प्रॉब्लम से जूझ रहे पेरेंट्स के लिए उम्मीद की एक नयी किरण लेकर आयी है इसी कड़ी में स्जोफ्रिनिया रोग पर आधारित फ़िल्म यु मी और हम का नाम लिया जा सकता है . अंधेपॅन की समस्या रोग है या विकलांगता यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन हमारे फिल्मकारों ने इस समस्या को बड़े ही सार्थक तरीके से सिनेमा के परदे पर उतारा है.
अंधेपन की समस्या पर बनी फिल्मों में दोस्ती , मेरे जीवन साथी , जुर्माना, स्पर्श, ब्लैक , आँखें (नयी ), परवरिश आदि. प्रमुख हैं . ऐड्स रोग पर बनी फ़िल्म फ़िर मिलेंगे और माय ब्रदर निखिल ने जिस तरह रोग के बारे में दर्शकों को जागरूक किया है वो सराहनीय है . अगर इन फिल्मों के टाइम पीरिअड पर गौर करें तो साफ पता चलेगा की जिस टाइम पर समाज जिस रोग का जायदा शिकार हो रहा था फिल्मों की कहानियो में वैसे ही रोग शामिल हो रहे थे . फिल्मों में रोगी का चित्रण वास्तविक रोगियों में एक आशा का संचार करता है जो किसी भी गंभीर रोग से पीडित व्यक्ति के लिए बहुत जरुरी है उसे जीने की शक्ति और सकरात्मक उर्जा मिलती है. यानि लिव लाइफ किंग साइज़ हिन्दी फिल्मों का एक मशहूर डायलोग है इसे दवा की नहीं दुवा की जरुरत है ऐसी फिल्में वाकई रोगियों के लिए दुवा का काम करती है. ये फिल्मों का रोग है या रोग पर बनती फिल्में इसका आंकलन किया जाना बाकी है लेकिन जो लोग हिन्दी फिल्मों को निम्न स्तर का मानते हैं उनेह यह समझना जरुरी है की फिल्में पैसा कमाने का जरिए हो सकती हैं लेकिन फिल्मकारों को अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का एहसास है और जिसका रिफ्लेक्शन इन रोगों पर बनी फिल्मों में दीखता है .हमें यह नहीं भूलना चाहिए की भारत एक बड़ी जनसख्या वाला देश है जहाँ स्वास्थय जागरूकता के नाम पर सरकार ने भले ही अरबों खर्च कर दिए हों लेकिन अभी भी पल्स पोलियो जागरूकता अभियान के लिए अमिताभ बच्चन , शाहरुख़ खान और आमिर खान जैसे फिल्मी सितारों की मदद लेनी पड़ती है . ये एक्साम्पल है आम जनता का फिल्मों पर भरोसे का हर मीडिया की तरह फ़िल्म मीडिया की भी अपनी सीमायें हैं जिसमे व्यवसाय भी एक बड़ा करक है लेकिन रोगों पर बनने वाली फिल्मों की कम संख्या के लिए हम फिल्मकारों को दोष नहीं दे सकते हैल्थ आज भी एक आम आदमी की प्राथमिकता में बहुत नीचे है और शायद यही कारण है कि रोगों और रोगियों को ध्यान में रखते हुए ऐसी फिल्में कम बनती हैं. इसके बावजूद रोगों के बारे में जागरूकता फैलाने में फिल्मों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है.
१८ जुलाई 2008 को आई नेक्स्ट में प्रकाशित