Wednesday, July 2, 2008

समझ से सब संभव है

भारत में महिलाओं की स्थिति की बात की जाती है तो तुंरत उन्हें देवी का रूप मानकर एक आइडियल इमेज में बाँध दिया जाता है आदर्श माता , आदर्श पत्नी ,आदर्श बहू और न जाने क्या क्या गोया वो एक इंसान न हो कर एक मूर्ति हो जाती है और इसी सांचे में हमारा समाज एक महिला को देखना चाहता है. कोई भी महिला इस सांचे से बाहर जाती है तो उसे न जाने किन किन संबोधनों से नवाजा जाता है पिछले दिनों इस बात पर जोरदार चर्चा चली कि आज कल महिलाएं यौन स्वेच्छाचारिता का शिकार हैं और इनमें बड़ी भूमिका टीवी सीरियलो की है जिनमें विवाहेत्तर सम्बन्ध खूब दिखाए जा रहे हैं. जिनका समाज पर बुरा असर पड़ रहा है .पुरषों के विवाहेत्तर सम्बन्ध समाज आसानी से पचा लेता है किंतु महिलाओं के बारे में उसके अलग मानदंड होते हैं. जैविक रूप से दोनों ही मानव हैं.
किंतु समाज ने दोनों के लिए अलग अलग दायरे निश्चित कर दिए हैं महिलाओं की दशा सुधारने के लिए ये माना जाता है कि उन्हे आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाया जाना चाहिए लेकिन जब ये महिलाएं आर्थिक रूप से स्वावलम्बी होकर अपने जीवन के फैसले ख़ुद लेना शुरू कर देती हैं जिनमें जीवन साथी के चुनाव से लेकर यौन आनंद के तरीके तक सभी शामिल हैं तब महिलाओं के बारे में तरह तरह के सवाल उठाये जाने लगते हैं.महिलाओं को आगे बढाया जा रहा है लेकिन ऐसा करना समय की मांग है उदारी करण के इस युग में जहाँ आर्थिक विकास सफल होने का मुख्य आधार है समाज की आधी आबादी को घरों में बंद रखकर विकसित नही हुआ जा सकता किंतु उन्हे कितना आगे बढ़ना है और कैसे इसका फ़ैसला पुरूष ही कर रहे हैं यौन स्वच्छंदता के बारे में जितने भी विचार मानक हैं वो पुरूष मानसिकता से ग्रस्त हैं कोई महिला अपना यौन व्यवहार कैसे निर्धारित करेगी यह अभी भी उसके हाँथ में नहीं है खुलापन हमारे दिमाग में नहीं आ रहा है हम ये मान ही नहीं पाते की महिलाएं भी भावनाएं रखती हैं .एक तरफा प्यार में होने वाली दुर्घटनाओं का ज्यादा शिकार महिलाएं ही होती हैं क्यों ? क्योंकि वे अपनी यौन इच्छा का खुले आम इज़हार कर देती हैं .पुरूष ठुकराया ज़ाना या हारना नहीं चाहते हैं .
प्रश्न यह उठता है कि महिलाओं का यौन आचरण निर्धारित करने के मामले में पुरूष मानसिकता कब तक हावी रहेगी और ये स्थिति समाज के दोहरे चरित्र को उजागर करती है यह कैसे सम्भव है कि महिलाओं का कोई कार्य समाज के लिए नुकसानदायक हो किंतु पुरुषों द्वारा किया गया वही कार्य समाज आसानी से पचा लेता है . किसी भी समाज के विकास के लिए महिलाओं और पुरुषों का आर्थिक , सामाजिक एवं मानसिक रूप से बेहतर होना जरूरी है किंतु बेहतरी के ये पैमाने लिंगभेद के चश्मे से नहीं देखे जाने चाहिए. महिलाओं द्वारा किया गया कोई कार्य अगर समाज के लिए सही नहीं है तो पुरुषों के उन कार्यों को भी ग़लत माना जाना चाहिए .यह कहना कि महिलाएं ऐसा कर रही हैं तो समाज में समस्या हो रही है उचित नहीं होगा .समाज में पैदा होने वाली कोई भी कुंठा समान रूप से पुरुषों और महिलाओं के लिए नुक्सान दायक होगी. हालाँकि स्तिथियाँ बदल रही हैं लेकिन उनकी गति बहुत धीमी है ये कुछ इसी तरह का मामला है की कुछ लाख शहरी घरों के टी वी केबल कनेक्शन से निर्धारित होने वाली टी आर पी किसी टी वी कार्यकर्म की लोकप्रियता को पूरे देश के सन्दर्भ में बता दिया जाता है उसी तरह कुछ शहरों में होने वाला बदलाव यह नहीं इंगित करता की महिलाओं के यौन व्यवहार को लेकर हमारा नजरिया बदल गया है ग्लोबलाइजेसन के दौर में हम दोहरे मापदंड ले कर समाज को आगे नहीं बढ़ा सकते. महिलाएं भी हाड मांस का पुतला हैं और उनकी भी अपनी भावनाएं संवेदनाएं हैं ऐसे में उनसे हर जगह पूर्ण आदर्श की उम्मीद करना उचित नहीं होगा वक्त की मांग है की महिलाओं को मानववादी नजरिये से देखा जाए और उनके कार्यों का आंकलन करते वक्त ये न भूला जाए की उनके सीने में भी एक दिल है जो अपने तरीके से जीना चाहता है आगे बढ़ना चाहता है

२ जुलाई २००८ को  आई नेक्स्ट में प्रकाशित

1 comment:

virendra kumar veer said...

in sabse nipatane ki liye mahilao ko khud aage ana padega aur swalambi banna padega jisse unke andar tarq karne ka atmviswas ayega aur khud faisala lene aur jiwan sathi cunane ka faisala kud le sakengi aur samaj me khud ko sabit kar ek naya mukam haishil kar sakengi .jab aisa hoga tab koi bhi mard inka shosad nahi kar sakega.acche samaj ke liye mahiyao aur purus dona ka samajik aur mansik roop se behtar hona jrruri hai.

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