Sunday, May 24, 2009

मेरी बात




मानवाधिकार शब्द से सही मायने मेरा परिचय १९९३ के वियना सम्मेलन और समाचार पत्रों में हुई उसकी कवरेज़ से हुआ और जैसा की हर हिन्दुस्तानी के साथ होता है मुझे भी हुआ इसके बारे में और जानने की जिज्ञासा हुई बात अधिकारों की जो ठहरी लेकिन इस शब्द की गंभीरता का एहसास और अधिकारों के साथ कर्त्यों का ज्ञान जिन्दगी ,समय और अध्ययन ने सिखा दिया लेकिन बात इतनी आसान नहीं है जितनी लग रही है मानवाधिकारों की अवधारणा पूर्णता नयी अवधारणा है जिसकी जड़ें कहीं न कहीं औधोगिक क्रांति और शिक्षा के प्रसार में हैं और जैसे जैसे दुनिया बदलती गयी मानवाधिकारों का दायरा भी बदलता गया लेकिन इतनी चीज़ों के बदलाव के बाद भी एक चीज़ जो नहीं बदली है वह है आदर्श मानवाधिकारों की प्राप्ति यह जितनी दुर्लभ १० दिसम्बर १९४८ को थी उतनी ही आज भी है जबकि हम आज ये दावा करते हैं की हम एक सभ्य समाज में रह रहे हैं लेकिन हकीकत क्या है यह कोई भी संवेदनशील इंसान कम से कम भारत में नज़र उठा कर देख सकता है. साल २००८ आदर्श मानवाधिकारों के लिहाज़ से एक महत्वपूर्ण वर्ष रहा है जब सारी दुनिया ने मानवाधिकारों की उदघोषणा के ६० साल मनाये और पूरे विश्व को एक परिवार के रूप में देखने का सपना फिर देखा गया लेकिन सपने तो सपने हैं फिर भी हम सपने देखना नहीं छोड़ते हैं क्योंकि ये सपने ही हैं जो हमें दुनिया को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करते हैं मानवाधिकार और मीडिया नामक यह कृति मेरे द्वारा देखे गए एक सपने का ही परिणाम है कि “जियो और जीनो दो” आज की इस ग्लोबल दुनिया में जहाँ सूचना ही शक्ति है वहां मीडिया की ताकत को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है और एक नए मीडिया युग से हम रूबरू होने के लिए तैयार हो रहे हैं भारत भी कोई अपवाद नहीं है इतनी गंभीर आर्थिक विषमताएं साथ लेकर भी ये देश आगे बढ़ रहा है एक तरफ टाटा अम्बानी और बिरला जैसे व्यवसायिक घराने हैं वहीँ देश की आधी से ज्यादा जनसँख्या सिर्फ एक वक्त का खाना खाती है जहाँ भ्रष्टाचार धीरे धीरे सामाजिक शिष्टाचार में तब्दील हो रहा है.
आइये थोडा पीछे चलते हैं और मानवाधिकार की प्रष्ठभूमि पर नज़र डालते हैं इंसानी सभ्यता के शुरुआत के समय से ही अर्थात जब मानव ने जंगली जीवन छोड़कर सामाजिक जीवन में कदम रखा तब से ही प्राकृतिक रूप से उसने अपने अधिकारों और कर्तव्यों के दायरे बना लिए.धीरे धीरे सामाजिक जीवन का विस्तार हुआ,समाज ने एक व्यवस्थित आकार लेना शुरू किया तो, कुछ कायदे क़ानून भी बन गए,जिनके अनुसार कुछ काम करना अनिवार्य हो गए तो वहीँ कुछ काम को सामाजिक द्रष्टि से गलत ठहरा दिया गया. देश बदला दुनिया बदली और हमारे अधिकारों में भी बढ़ोतरी होती गयी लेकिन मानवाधिकार इस मायने में महतवपूर्ण हैं की मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार कोई अधिकार बगैर किसी जाति मज़हब रंग नस्ल से परे प्रदान किये गए . मनुष्य जैसे-जैसे सभ्यता की ऊँचाइयाँ हासिल करता जा रहा है, खेद का विषय है कि वैसे-वैसे ही बर्बरता के शिखर भी लाँघता जा रहा है। सारी दुनिया आज आतंक के साए तले जी रही है। खाड़ी देशों में तेल के कारण युद्ध है तो फिलिस्तीन में नस्ल के नाम पर युद्ध है। भारत और उसके पड़ोसी देश तरह-तरह की हिंसा से ग्रस्त हैं। इस सब में जाने कितने बच्चे बेघर होते हैं, जाने कितने बुजुर्ग बुढ़ापे के दर्द को झेलते हुए राहत शिविरों में वक्त काटने को मजबूर होते हैं। जाने कितने निर्दोष जन जेल और यातना शिविर में ठूँस दिए जाते हैं और न जाने कितनी औरतों की आबरू लड़ाई के बीचोबीच चिथड़े-चिथड़े कर दी जाती है। कुल मिलाकर हर ओर मनुष्य के जीने और रहने के मूलभूत अधिकारों का हनन होता दिखाई दे रहा है।ये तो कुछ बड़ी बातें हो गयी लेकिन हमारे दैनिक जीवन में प्रति दिन मानवाधिकारों का हनन होता है लेकिन हम उन्हें नज़रंदाज़ कर देते हैं लड़कियों को छेड़ा जाना या गालियाँ देना कुछ ऐसा ही मामला है लडकियां जहाँ इसे अपनी नियति मान चुकी हैं वहीँ इस पुरुष प्रधान दुनिया में हमने सब चलता है वाला रवेया अपना लिया है . ऐसा प्रतीत होने लगा है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इस नए युग में यद्यपि मनुष्य दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने के अभियान में सफल होता दिखाई दे रहा है, तथापि उसकी मुट्ठी से उसके अपने जीवन के अधिकार छूटते जा रहे हैं।इसमें पुरुष महिलाएं बच्चे और बूढे सभी शामिल हैं इस २१ वीं शताब्दी की दुनिया में हर तीसरी महिला हिंसा वो चाहे घरेलू हो या सामजिक का शिकार हैं और प्रतारणा भरा जीवन जीने को मजबूर हैं .एच आई वी /ऐड्स के मरीज़ बड़ी संख्या में अकेलापन ,सामाजिक बहिष्कार जैसी यातनाओं को सहने के लिए मजबूर हैं .नन्हे बच्चों के कदम चलना सीखते ही मजदूर बना दिए जाते हैं और शिक्षा स्वास्थय और सही पालन पोषण के अधिकार से महरूम कर दिए जाते हैं . यही कारण है कि दुनिया भर में आज मानवाधिकारों के संरक्षण की चिंता बढ़ गई है। ऐसे में मुझे निर्मला पुतुल जी की ये पंक्तियाँ काफी सार्थक लगती हैं




मैं चाहती हूँ
आँख रहते अंधे आदमी की
आँख बनें मेरे शब्द
उनकी ज़ुबान बनें
जो जुबान रहते गूँगे बने
देख रहे हैं तमाशा
चाहती हूँ मैं
नगाड़े की तरह बजें मेरे शब्द
और निकल पडें लोग
अपने अपने घरों से सडक पर।” (मैं चाहती हूँ)
मुझे काफी दुःख के साथ कहना पड़ रहा है की मै एक ऐसे राज्य से आता हूँ जो मानवाधिकारों के हनन के मामले मे नंबर वन है राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले साल मानवाधिकार हनन के 94,559 मामलों में सिर्फ यूपी से 55,216 मामले आए। पूरे देश से आयोग को जो मामले मिले, उसका 58.39 फीसदी हिस्सा यूपी से था। दिल्ली से 5,616 मामले सामने आए। इसके बाद गुजरात (3,813) और बिहार (3,672) का स्थान है। फिर हरियाणा (3,483) और राजस्थान (2,640) का नंबर आता है। उत्तराखंड से भी 1,916 केस दर्ज हुए।ये एक बानगी है की हम किस दुनिया में रह रहे हैं इस पुस्तक को लिखते वक्त एक बात मुझे हमेंशा कचोटती रही कि हम किस मुंह से एक सभ्य समाज मे रहने का दावा कर रहे हैं कयों हम दूसरो का हक़ मार कर आगे बढ़ना चाहते हैं क्या हम शांति से नहीं रह सकते हैं सोचो साथ क्या जाएगा के मंत्र का जाप करने वाला हिन्दुस्तानी क्यों अपनी कथनी और करनी में भेद करता है. मेरी इस पीडा को ये पंक्तियाँ बेहतर ढंग से व्यक्त करती हैं
“सैर करने निकला तो दिल में ये अरमान थे
एक तरफ हसीं दुनिया एक तरफ शमसान थे
चलते चलते एक हड्डी पर पैर पड़ा
हड्डी के बयां थे ओ जाने वाले जरा देख कर चल
हम भी कभी इंसान थे”
मानवाधिकारों के आदर्श की प्राप्ति तभी संभव है जब हम अपने इस दूहरे मापदंड को नहीं बदलेंगे. इस काम को मीडिया या जन माध्यमों के सहयोग किया जा सकता है एक पत्रकार होने के नाते मैं इसकी ताकत और सीमाओं को बेहतर समझ सकता है वैसे आज मीडिया को गरियाने का एक फैशन चल पड़ा है और हर आदमी इस बहती गंगा में डुबकी मार कर अपना परलोक सुधार लेना चाहता है मै इसको बुरा भी नहीं मानता कोई भी चीज़ आलोचना से परे नहीं हो सकती और मीडिया भी कोई अपवाद नहीं लेकिन "गलती अगर रुलाती है तो राह भी नयी दिखाती है " मीडिया एक वक्त में जहाँ पी एच डी डिग्री धारी को संबोधित कर रहा होता है तो उसी वक्त कोई पांचवी पास से तेज़ भी उसे देख /पढ़/सुन रहा होता है ऐसे में एक विशिस्ट स्तर को बनाये रखना मुश्किल होता है यही मीडिया की ताकत भी है और कमजोरी भी मीडिया एक यन्त्र है जिसे हमारे जैसे इंसान चलाते हैं जो भावनाओं संवेदनाओं और पुर्वग्रहो के पुतले हैं ये प्राणि इसी ग्रह के पुतले हैं किसी भी इंसान के समाजीकरण में उसका परिवार , स्कूल , उसकी शिक्षा और संस्कार अहम् भूमिका निभाते हैं जिससे उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है हर चैनल या अखबार बुरे नहीं हैं जैसा समाज में होता है कुछ अच्छे लोग हैं तो कुछ बुरे लोग भी हैं.
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है इंसान बनेगा ये कोई साहित्यिक पंक्ति नहीं बल्कि एक हिंदी फिल्म का गाना है एक और बानगी देखिये हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेगे एक खेत नहीं एक बाग़ नहीं हम सारी दुनिया मांगेगे , इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही पैगाम हमारा , "ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है "पर मजेदार बात ये है कि हमारा समाज हिंदी फिल्मों और उनके गानों को दोयम दर्जे का मानता है . ऐसे एक नहीं सैकडों उदाहरन मिल जायेंगे जिससे पता चलता है कि हमारा फिल्म मीडिया जागरूक और सज़ग है लेकिन कुछ जिम्मेदारी दर्शकों की भी बनती है मुझे वक्त फिल्म का एक संवाद याद आ रहा है “चिनॉय सेठ जिनके घर शीशे के होते हैं वो दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फैंकते जब जब लीक से हटकर भारतीय फिल्मकारों ने प्रयोग किये हैं उन्हें दर्शक नहीं मिले हैं . और ये तो आप सभी जानते हैं की भूखे पेट न होई हरि भजन गोपाला ऐसे वक्त में जब या तो हर जगह बाज़ार घुस गया है या पनप गया है वहां फिल्में सिर्फ समाज सेवा के लिए बनाई जाएँ कहीं से उचित नहीं लगता. फिल्में समाज का आइना होती हैं हर वक्त की फिल्में अपने वक्त के समाज का चित्रण करती हैं हाँ ये हो सकता है की प्रस्तुतीकरण में कल्पना की उडान थोड़ी लम्बी हो जाए पर कहीं न कहीं वो हमारे आस-पास ही होते हैं अमिताभ बच्चन का गुस्सैल चरित्र अपने वक्त के समाज का ही प्रतिनिधित्व कर रहा था जब लोग अपने आपको सरकारों द्वारा ठगे गए महसूस कर रहे थे.
चलिए बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी अब अखबारों की बात की जाए इसमें कोई शक नहीं है कि अखबारों की विश्वनीयता में कमी आयी है लेकिन अभी उन्हें गंभीर माध्यम का दर्जा हासिल है और मानवधिकारों की प्राप्ति में उनके द्वारा ही सर्वाधिक गंभीर प्रयास किये गए अभी भी अखबार की ख़बरों के आधार पर टी वी चैनेल खबरों से खेलते हैं लेकिन अखबार को पढने के लिए किसी का भी पढ़ा लिखा होना आवश्यक है ऐसे में अखबार माध्यम टी वी और फिल्म माध्यम से पिछड़ जाते हैं. कहते हैं अधिकार और कर्तव्य एक दूसरे के पूरक हैं अपने कर्तव्यों को पूरा करते चलो अधिकार खुद बा खुद मिल जायेंगे लेकिन कर्तव्यों कि इतिश्री होने के बाद भी अधिकार न मिले तो जरुरत है जागने की और इस काम को बेहतर ढंग से मीडिया अंजाम दे रहा है चाहे वो उपभोक्ता अधिकारों के लिए "जागो ग्राहक जागो "अभियान हो या घरेलू हिंसा की रोकथाम के लिए "बेल बजाओ " अभियान हो.
लेकिन सब कुछ सरकार और मीडिया पर नहीं छोडा जा सकता है एक आजाद देश के नागरिक होने के नाते हमारा भी कुछ दायित्व बनता है ये होना चाहिए ये किया जाना चाहिए की मानसिकता को छोड़कर ये सोचा और किया जाए कि हम क्या कर सकते हैं हम मानवाधिकारों की प्राप्ति के लिए किस तरह से योगदान दे सकते हैं .दुनिया को बेहतर बनाने की बात हो चुकी अब दुनिया को बदलने का वक्त है और बदलाव की इस गति को हमारे आपके जैसे ये छोटे प्रयास तेज़ कर सकते हैं लेकिन इसके लिए हमें अपनी कथनी और करनी के भेद को मिटाना होगा , हर हिन्दुस्तानी व्यवस्था से त्रस्त है परिस्थियों से परिचित भी और बदलाव भी चाहता है इसके लिए उसे एक भगत सिंह की जरूरत है लेकिन अपने घर मे नहीं पडोसी के घर में अगर ये मानसिकता रही तो मुझे इस स्थिति के लिए एक गीत की पंक्तियाँ याद आ रही हैं कसमे वादे प्यार वफ़ा बातें हैं बातों का क्या चलते -चलते एक आशा की किरण के साथ मैं अपनी बात ख़तम करता हूँ




राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग नयी दिल्ली द्वारा आयोजित लेखक सम्मिल्लिन में दिया गया व्याख्यान (२१-२२ मई २००९ तीन मूर्ति भवन )

5 comments:

डॉ. मनोज मिश्र said...

बधाई हो .

अभिषेक said...

यह तो आपने बिलकुल सही कहा सर जी..मानवाधिकारों को प्रभावी बनाने की जिम्मेवारी सिर्फ मीडिया या सरकार की नहीं है..हमारी भी है.पर हम भी क्या करें,अपने मानवगत विशेषताओं की वजह से ही हम दूसरों के अधिकारों का हनन गाहे बगाहे करते ही रहते हैं.अनेको उदहारण हैं-जब हम सरकार से टैक्स चुराते हैं,अपना काम करवाने और दूसरे का हक छीनने के लिए घूस देते हैं,जुगाड़ का प्रयोग कर एडमीशन और रिज़र्वेशन की लम्बी कतारों से बचते हैं,शोपिंग मॉल्स में जाकर बिना छूट के औने पौने दाम पर कुछ भी खरीद सकते हैं पर एक रिक्शे वाले या खोमचे वाले से २ रुपै के लिए बहस कर लेते हैं(कभी कभी तो देते भी नहीं).
हमें फक्र है कि हम आपके छात्र हैं.इसी तरह आगे बढ़ते रहे और हमारा मार्गदर्शन करते रहे...शुभकामनाएँ...

Digvijay Singh Rathor Azamgarh said...

kash bharat me manawadhikar majaboota hota .aap ko barambar badhai jai hooooooooooooooooo

virendra kumar veer said...

sir rule humi banate hain aur hume use todate hain .to itana afsos kyun hota hai aur har waqt hum jugad ka hi sahara liya karte hain aur kehte hain manvadhikar ka hanan kar rahe hain. log samj ko sudharne ka theka lete hain but koi apne aap ko nahi sudharta aisa kyun? kehte hain ki bhrstacar bad raha hai.

samra said...

nice article sir..aapne ek hi article mein bohat sare maslon per baat ki hai..aapne her pehlu per nazar daali hai..:)

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