इस बार के 82वें ऑस्कर पुरस्कार समारोह में कैथरीन बिग्लोव ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार जीतकर रिकार्ड बना दिया। ऑस्कर के 82वर्ष के इतिहास में पहली बार किसी महिला निर्देशक को इस श्रेणी में पुरस्कृत किया गया। कैथरीन को फिल्म द हार्ट लॉकर के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार दिया गया। ऑस्कर पुरस्कारों के इतिहास में अभी तक सिर्फ चार महिलाओं को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक श्रेणी में नामांकन मिला था लेकिन पहली बार कैथरीन को इस श्रेणी में ऑस्कर जीतने का गौरव मिला।इस खबर को पढ़कर मुझे लगा कि क्यूँ न हिंदी फिल्मों में महिलाओं की भूमिका पर कुछ लिखा जाए .'यू आर ए वूमन फ़ॉर एवरी सीज़न एंड फ़ॉर एवरी रीज़न' इसे हिंदी फिल्मों के नज़रिए से देखें तो कैसा भी दौर रहा हो और कैसी भी फ़िल्में महिलाएं हमेशा हमारी फिल्मों का एक अहम् हिस्सा रही है इस पर काफी बहस की जा सकती है कि क्या दिखाया गया और क्यों दिखाया गया . समय बदलता रहता है सुना था पर महसूस आज कर पा रहा हूँ जब समय बदलता है तो दुनिया भी बदलती है आपको बात कुछ अजीब सी लग सकती है पर यकीन जानिये हमारी फ़िल्में बदली हैं और उनमे दिखाए गए फीमेल कैरेक्टर भी.
समाज में ये मान्यता भले ही प्रचलित हो कि फीमेल कमजोर होती हैं पर 1930 में जबकि भारतीय फ़िल्में अपनी शुरुवाती दौर में थी तब हंटरवाली फिल्म में नाडिया ने एक ऐसे किरदार को निभाया था जो रोबिन हुड के मेल केरेक्टर से मिलता जुलता था उस टाइम के हिसाब से ये एक बोल्ड केरेक्टर था . इसी समय सामाजिक अन्याय के विरोध में अनेक फिल्में जैसे - वी शान्ताराम की दुनिया न माने , आदमी, फ्रान्ज आस्टेन की अछूत कन्या , महबूब की औरत बनीं इन सभी फिल्मों का विषय महिलाओं से सम्बंधित था.
पचास के दशक में बिमल रॉय , गुरुदत्त और गुरुदत्त की फिल्मों में महिला किरदारों की काफी महतवपूर्ण भूमिका रही भले ही वो घरेलू महिलाएं थीं पर उनका अपना एक अलग अस्तित्व था साठ के दशक तक आते आते महिला किरदारों ने घर से बाहर निकलना शुरू कर दिया था यानि उन्हें कामकाजी महिलाओं के रूप में दिखाया जाने लग गया था .उस ज़माने के हिसाब से गाइड काफ़ी बोल्ड फ़िल्म थी.फ़िल्म का हीरो 'राजू गाइड' हिंदी फ़िल्मों के अन्य अभिनेताओं की तरह अच्छाई का पुलिंदा नहीं था और न ही फ़िल्म की हीरोइन 'रोज़ी' ज़्यादातर अभिनेत्रियों की तरह त्याग और सहनशीलता की मूर्ति थी. जब शादी-शुदा ज़िंदगी उसे ख़ुशियाँ न दे सकी तो उसने विवाह के बंधन के बाहर रिश्ता बना लिया. इस फिल्म में महिला को एक इंसान के रूप में दिखाया गया न कि देवी जैसा कि अक्सर फिल्मों में होता आया है . फीमेल करेक्टर के साथ अस्सी के दशक में जो एक्सपेरीमेंट शुरू किये गए थे वो अब तक जारी हैं फूल बने अंगारे , जख्मी औरत , इन्साफ का तराजू जैसी फ़िल्में सिर्फ फिल्मकारों की कल्पना की उड़ान नहीं थी ये वो दौर था जब महिलाओं के साथ होने वाले योन शोषण के मामले तेजी से सामने आने लग गए और महिलाएं भी अब अपने साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ उठ खडी हो रही थीं . नब्बे का दशक बदलावों का दशक रहा इकोनोमिक रेफोर्म्स ने भारत के दरवाजे सारी दुनिया के लिए खोल दिए इसका असर फिल्मों पर भी पड़ा तकनीक सस्ती हुई और दुनियाके दुसरे देशों की फ़िल्में आसानी से देखी जाने लगीं जिसका असर फिल्मों के कंटेंट पर भी पड़ा यानि फिल्मकारों ने फिल्म के विषय के लिए रामायण और महाभारत से आगे देखना शुरू किया और फिल्मों में फीमेल केरेक्टर सिर्फ शो पीस न रहकर इम्पोर्टेंट रोल में आये इसका लिए काफी हद तक महिला निर्देशक भी जिम्मेदार रहीं . नई पीढ़ी की महिला निर्देशकों के पास नए विचार और अहम मुद्दे हैं। इन पर पहले कभी विचार नहीं हुआ। महिला निर्देशक ने इन विषयों की संवेदनशीलता को नया आकार दिया है।बात चाहे सिंगल मदर की हो या सेरोगेट मदर की शादी से पहले सेक्स या लिव इन रीलेसंस कोई भी इसु आज फिल्मों की पहुँच से दूर नहीं है लेकिन सिक्के का दूसरा पहलु भी है महिलाओं के करेक्टर्स को ध्यान में रखकर फ़िल्में बन तो रही हैं पर आधी आबादी का फिल्मों में प्रतिनिध्तव उतना नहीं है जितना होना चाहिए पर कहते है न बात से बात निकलती है और जब बात निकलनी शुरू हुई है तो आगे भी जायेगी . तो फिल्मों में हो रहे इन पोसिटिव चेंजेस का लुत्फ़ उठाइए .
आई नेक्स्ट में १८ मई को प्रकाशित
10 comments:
बढ़िया लगी पोस्ट.
changes is a law of nature.aur sayed isiliye yah badlav jari hai. umeed hai yah prakriya niranter chalti rahegi. mahilao ki pragati per likha aap ka lekh tarife kabil hai.blog ke liye badhai
sir, indian cinema me women ka roll jankar khushi hui.. cinema hi esa madhyam hai jiske jariye aurato ki dasa jyada teji aur prabhawshali tarike sudhari ja sakati hai..
वाह बिरादर काफी जानकारी दे दी. धन्यवाद भाई
sir, jahan logo ko sirf nakaratmak chize dikhti hai jaise filmi duniya me mahilaon ka badlta swaroop....wahan aap hi aisi possitiveness la skte hai...
महिलाओ को समाज में हमेशा से ही पुरुषों की तुलना में कमज़ोर दिखाया जाता रहा है. पर ये कहना गलत न होगा की फिल्मो ने महिलाओं के जीवन को नयी दिशा दी है. आज समाज और दुनिया में महिलाओं के प्रति नज़रिए में आये बदलाव के लिए श्रेय फिल्मो को दिया जा सकता है.
sir kabi na kabi to ye male dominating society badlegi...........and very nice article
sirji aaj ki naari ki udaan aur uchaiyon ko choone ki lalak ke aage ye aasmaan bhi kam hai
jis trah aaj ki narri aaage bad rahi hai o din door nahi jab o purso se aage nikal jayengi aur apni ek alag pehchan banyegi.kuch had tak filmo ne bhi narri ke jiwan ko ek naye disha di hai aur unhe aage badne ke liye prerit kiya hai taki aage chalkar o pragati kar sake.aur aaj ka purus bhi mahiyao ko aage badne ke liye prerit kar raha hai.agar aaj ki mahila kamjor hai to kisi ka dosh nahi sirf mahila ka dosh hai ki o kyun kamjor hai is samj me mahilyn ko khud aage badkar aana padega aur khud ko ssabit karna padega.
i think all women-centric films in the last few years show the female leads in strong and powerful roles. Filmmakers and actors hope this trend continues in future.women are usually seen as a helpless mother, submissive wife, devoted girlfriend, overcaring sister, daughter or a vamp, but directors are trying to break the mould and present women in a more realistic, vibrant and unconventional way which would help women in future also.
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