आज के दौर में विचारों के संप्रेषण का सबसे स्वतंत्र और द्रुतगामी माध्यम है इंटरनेट संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार इन्टरनेट की सुविधा अब मानवाधिकारों की श्रेणी में आयेगी .यानि हम कह सकते हैं कि इन्टरनेट आने वाले समय में संविधान सम्मत और मानवीय अधिकारों का एक प्रतिनिधि बन कर उभरेगा दुनिया में इन्टरनेट ही एक ऐसा जन माध्यम है जो दुनिया भर की सरकारों के नियंत्रण से मुक्त है भारत के हिसाब से देखें तो यहाँ का मीडिया पूरी तरह सरकारी नियंत्रण से मुक्त है फिर इन्टरनेट पर सेंसर का तो कोई सवाल ही नहीं उठता पर तस्वीर का एक दूसरा रुख भी है गूगल की 'ट्रांसपरेंसी रिपोर्ट' के मुताबिक़ छह महीनों में भारतीय प्रशासन और यहाँ तक कि अदालतों की ओर से भी गूगल से कई बार कहा गया कि वे मुख्यमंत्रियों और अधिकारियों की आलोचना करने वाले रिपोर्ट्स, ब्लॉग और वीडियो को हटा दें.
'ट्रांसपेरंसी रिपोर्ट' के अनुसार जुलाई 2010 से दिसंबर 2010 के बीच ऐसे सरसठ आवेदन आए, जिन्हें गूगल ने नहीं माना.इन 67 आवेदनों में से छह अदालतों की ओर से आए और बाक़ी 61 प्रशासनिक विभागों से.रिपोर्ट के अनुसार ये आवेदन 282 रिपोर्ट्स को हटाने के बारे में थे. इनमें से 199 यू ट्यूब के वीडियो, 50 खोज के परिणामों, 30 ब्लॉगर्स से संबंधित थे.हालंकि गूगल ने इसके विवरण सार्वजनिक नहीं किये हैं लेकिन उसने माना कि कुल प्राप्त आवेदन में से बाईस प्रतिशत में उसने बदलाव किये हैं .गूगल की ट्रांसपेरंसी रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि दुनिया के ज़्यादातर देशों की न्याय प्रक्रिया से जुड़ी अलग-अलग एजेंसियाँ गूगल से उसकी सेवाएं इस्तेमाल करने वालों की जानकारी मांगती हैं.
इंटरनेट ने अपनी महत्ता को बार बार स्थापित किया है चाहे जापान में आयी सुनामी के समय लोगों तक मदद पहुँचाना हो या इजिप्ट में हुआ सत्ता परिवर्तन इन्टरनेट ने अपनी व्यापकता को सिद्ध किया है और एक जनमाध्यम के रूप में अपनी पहचान को स्थापित किया है . यह सर्व विदित तथ्य है कि तकनीक और विकास का सीधा सम्बन्ध रहा है कोई भी आविष्कार नयी तकनीक लाता है और शासक वर्ग हमेशा तकनीक को अपने कब्जे में रखना चाहता है इस तरह तकनीक शक्ति का स्रोत बनी और उस पर नियंत्रण करने का साधन भी रही. 1456 में जब प्रेस का आविष्कार हुआ तो इसके जरिये व्यापक स्तर पर धर्म-प्रचार किया गया|‘गुटेनबर्ग की बाइबिल’ सर्वप्रथम छापे जाने वाली पुस्तक बनी.1561 में समाचारपत्रों का उदय हुआ जबकि भारत में इसकी शुरूवात 1774 से हुई| वास्तविक रूप में सेंसर और अधिकारिक गोपनीयता अधिनयम जैसे कानून प्रेस को नियंत्रित करने के लिए ही बनाये गए थे फिर १९२० के दशक में रेडियो की शुरुवात हुई बाद में टेलीविजन आया पर इन सब पर सरकारी नियंत्रण १९९० के दशक तक बने रहे जब वैश्वीकरण और आर्थिक सुधारों की आड़ में सरकारों के ये समझ में आया कि उनका काम शासन करना है तब धीरे धीरे इन पर से शिकंजा ढीला किया गया पर इन्टरनेट इन सारे जनमाध्यमों में अपवाद रहा यह इकलौता माध्यम है जो रेडियो अखबार और टेलिविजन की तरह एकतरफा माध्यम न होकर बहुआयामी है. अन्य दूसरे माध्यमों के इतर यह उन देशों में भी कारगर है जहाँ संचार साधनों को पर्याप्त स्वतंत्रता नहीं प्राप्त है. इस माध्यम में विचारों का प्रवाह रोकना या उन्हें प्रभावित करना उतना आसान नहीं होता. इससे स्वतंत्र विचारों का सम्प्रेषण अधिक आसानी से होता है.सिटीजन जर्नलिस्ट की अवधारणा को पुष्ट करने में इन्टरनेट का सबसे बड़ा योगदान है आप कुछ भी दुनिया के साथ बाँट सकते हैं बगैर किसी सेंसर के आपको अपनी बात जन जन तक पहुंचाने के लिए कोई इंतिजार नहीं करना है अन्य जनमाध्यमों की अपेक्षा इन्टरनेट की आजादी किसी देश की सरकारों की मोहताज नहीं रही आम तौर पर यही माना जाता रहा है .लेकिन गूगल की ट्रांसपेरंसी रिपोर्ट के बाद इन्टरनेट की स्वतंत्रता पर सवालिया निशाँ उठने लग गए हैं कि सरकारें इन्टरनेट पर अपना नियंत्रण चाहती हैं इसके पीछे एक सबसे बड़ा कारण यह है कि बीते समय में इन्टरनेट प्रतिरोध और असहमति दर्ज कराने के एक बड़े प्लेट फार्म के रूप में उभरा है और जिसमे बड़ी भूमिका निभायी है फेसबुक जैसी विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साईट्स ने .इन्टरनेट ने ही जनमाध्यमों को वो ताकत दी कि मीडिया मैनेज करने जैसे जुमले निरर्थक हो गए .ब्लॉग ने लोगों को वो ताकत दी कि हर शख्स अपने ब्लॉग के जरिये अपनी सोच ,जानकारियां विचार साझा कर सकता है .इस मामले में अमेरिका निरंकुश शासन वाले देशों में राजनीतिक विरोधियों को इंटरनेट की आज़ादी हासिल करने के लिए ढाई करोड़ डॉलर की आर्थिक मदद कर दुनिया के अन्य देशों के लिए उदहारण प्रस्तुत रहा है . विकासशील देशों में भले ही इन्टरनेट अपने पैर तेजी से पसार रहा हो पर उसकी गति विकसित देशों के मुकाबले कम हैआईटीयू के आंकड़ों के अनुसार विकसित देशों में हर तीसरा व्यक्ति इंटरनेट से जुड़ा है वहीं विकासशील देशों में पांच में से चार व्यक्ति अब भी इंटरनेट से दूर हैं और शायद यही कारण है इन्टरनेट के इतने जबरदस्त विस्तार के बावजूद अनेक देशों की सरकारें इन्टरनेट को संदेह की नज़रों से देख रही हैं और चीन एक सबसे बड़ा उदहारण है .चीन भले ही दुनिया की उभरती हुई अर्थव्यवस्था का हिस्सा हो पर इन्टरनेट वहां हमेशा सरकारी सेंसर का शिकार रहा है और गूगल कोई अपवाद नहीं है .इन्टरनेट पर नियंत्रण या सेंसर के भयानक दुष्परिणाम हो सकते हैं , विकास के फल को समाज के अंतिम आदमी तक पहुंचाने के लिए व्यवस्था का भ्रष्टाचार मुक्त और पारदर्शी होना जरूरी है और इस काम को तेज गति से करने में इन्टरनेट एक सशक्त माध्यम के रूप में उभरा है और जब व्यवस्था की बात होगी तो शासन और तंत्र घेरे में आयेंगे ही प्रेस और टीवी को तो अक्सर कानूनों का सहारा लेकर उनकी धार को कुंद करने की कोशिश की जाती रही है पर वेब मीडिया इस तरह की किसी भी कोशिश से अब तक बचा रहा है पर गूगल की इस रिपोर्ट के बाद ये लगता है कि भारत में वेब मीडिया को भी भविष्य में उन खतरों का सामना करना पड़ सकता है जिनसे वो अब तक मुक्त था .प्रजातंत्र में असहमति के लिए भी सहमति बनाना जरूरी होता है और ये काम जनमाध्यम ही करते हैं क्योंकि जब तक वैचारिक स्तर पर किसी भी मुद्दे पर सवाल जवाब नहीं होंगे तब तक एक स्वस्थ लोकमत का निर्माण नहीं होगा तो जरुरत है इन्टरनेट को एक ऐसे माध्यम के रूप में आगे बढ़ाने के लिए जहाँ हर असहमत व्यक्ति अपने उदगार रख सके अगर ऐसा हो सका तो जागेगा इंसान जमाना देखेगा .
अमर उजाला के सम्पादकीय पृष्ठ पर १४ जुलाई २०११ को प्रकशित