Thursday, January 19, 2012

It's better safe than sorry


इतना सन्नाटा क्यों है भाई ......,मेरी फेसबुक की वाल सूनी सूनी सी है .ज्यादा दिमाग  लगाने का नहीं हाँ वैसे भी दिमाग लगाने का काम हमलोगों ने गूगल बाबा पर छोड़ दिया है ,समझ गए न, गूगल बाबा बोले तो इंटरनेट वैसे इन्टरनेट हमारे जीवन में अनेक परिवर्तन लाया है लाईफ पहले के मुकाबले कितनी आसान हुई  पर यगिस्तानियों के बिहैवियर को बदलने में सबसे बड़ा रोल तो सोशल नेटवर्किंग साईट्स का रहा है. फ़िल्मी अंदाज़ में यूँ कहें इनके बिना जीना मरने से ज्यादा मुश्किल है.लोल से लेकर ओएमजी तक न जाने कितनी शब्दावलियां गढी हैं एक नयी लैंगुएज से हम सब रूबरू हुए हैं मैंने भी गूगल बाबा की मदद से जाना सिर्फ सोशल नेटवर्किंग साईट्स लिखने इक्कीस करोड़ साठ लाख रिजल्ट्स मिलते हैं पर अब इसकी स्वतंत्रता  पर सवाल भी उठने लगे हैं .बचपने में मैंने कहीं पढ़ा था तकनीक अच्छी या बुरी नहीं होती उसका इस्तेमाल अच्छा या बुरा होता है वैसे भी कोई शौक जब आदत बन जाता है तो उसे एडिक्शन कहते हैं .फेसबुक और ट्विटर जैसी साईट्स हमें फ्रीडम ऑफ एक्प्रेशन देती हैं पर इसका ये मतलब नहीं है कि इस फ्रीडम का नाजायज़ फायदा उठाया जाए और इसके लिए हमें खुद रिस्पोंसिबल बनना पड़ेगा .हर चीज के लिए ला किसी भी सिवीलाईज्ड सोसाईटी के लिए अच्छा नहीं है .अब देखिये न मेरी एक मित्र क्रैंक काल्स से परेशान थी .पुलिस के पास वो जाना नहीं चाहती थी बस उन्होंने उसका एक अच्छा तरीका निकला जब भी उन्हें कोई क्रैंक कॉल आती उसका नंबर वो अपने वाल पर ये लिखकर डाल देतीं कि इस नंबर से क्रैंक कॉल आ रही हैं फिर क्या उस कॉल करने वाले की शामत आ जाती, कितना गांधीवादी तरीका है विरोध का पर अगर इस तरीके का इस्तेमाल हम यूँ ही किसी को परेशान करने के लिए करने लगें तो सोचिये क्या होगा.इजिप्ट और ट्यूनिसिया की क्रांति की बात छोडिये हमारी डेली लाईफ में इन सोशल नेटवर्किंग साईट्स के थ्रू कितनी प्रोब्लम सोल्व हो जाती हैं .मेरे भाई को एक ट्रेंड कंप्यूटर प्रोफेशनल की जरुरत थी उसने स्टेटस अप डेट किया और उसे काम का आदमी मिल गया.अब देखिये न इस आर्टिकल को लिखने की माथा पच्ची कर रहा था फेसबुक पर गया एक काम की कविता मिल गयी जो फेसबुक के इस्तेमाल पर ही है , मैंने सोचा आप सबसे शेयर कर लिया जाए खूब मनाओ और भुनाओं तुम सारे अवसर उड़ाओ मज़ाक किसी का या करो तिरस्कार वैसे प्रोफाइल आपका, उसपर आपका अधिकार कोई आहत न हो यहाँ, इसका करना विचारएक बात और ये कविता मेरी नहीं पर हम में से कई लोग दूसरों की सामग्री को बगैर क्रेडिट किये हुए इस्तेमाल कर लेते हैं ऐसा नहीं करना चाहिए भले ही इंटरनेट सबके लिए पर क्रियेटर को उसका क्रेडिट दिया जाना चाहिए ऑन लाइन इस चोरी को रोकने के लिए अमेरिकी सरकार स्टॉप ऑनलाइन पाइरेसी विधेयक लाने जा रही है. अब अगर हम दूसरों के कंटेंट को बिना उसकी परमिशन के इस्तेमाल न कर रहे होते तो शायद ये नौबत न आती.नियम हमारे जीवन को बेहतर बनाते हैं पर ये नियम दूसरों की बजाय हम खुद बनाये तो कितना अच्छा हो न वैसे भी हम उस पीढ़ी के हैं जो अपने नियम खुद बनाती है तो फिर सोशल नेटवर्किंग साईट्स के इस्तेमाल में ये पहल हम खुद क्यों नहीं करते तो फेसबुक की वाल पर इसी मुद्दे पर कुछ लिख डालिए .डर्टी पिक्चर में भले ही डायलोग हो कि जिंदगी जब एक बार मिली है तो दो बार क्या सोचना पर सोशल नेटवर्किंग साईट्स का जब भी इस्तेमाल करें दो बार सोच समझ कर करें क्योंकि आप की बात कितने लोगों तक जाने वाली है इसका अंदाज़ा आपको खुद नहीं है तो प्ले सेफ क्योंकि आपकी दी हुई चोट से बहुत से लोग परेशान हो सकते हैं फिर हम यांगिस्तानी तो रिस्पोंसिबल सिटीज़न हैं न तो प्रूव कीजिये अपने आप को .
आई नेक्स्ट में 19/01/12 को प्रकाशित लेख 

राजनीति के विचारशून्य नारे


भारतीय लोकतंत्र में कोई भी चुनाव बगैर नारों के नहीं हो सकते नारे जो लोगों को किसी दल और उसकी सोच को जनता के सामने लाते हैं विकीपीडिया में नारों का जिक्र कुछ यूँ है नारा , राजनैतिकवाणिज्यिकधार्मिक और अन्य संदर्भों में, किसी विचार या उद्देश्य को बारंबार अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त एक यादगार  आदर्श वाक्य या सूक्ति है. इनकी आसान बयानबाज़ी  विस्तृत विवरणों की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती है, और इसलिए संभवतः वे अभीष्ट श्रोताओं के लिए प्रक्षेपण की बजाय, एकीकृत उद्देश्य की सामाजिक अभिव्यक्ति के रूप में अधिक काम करते हैं. देश के पांच राज्यों में चुनाव की रणभेरी बज चुकी है और पांच साल में आने वाला चुनावी नारों का दौर लौट आया है पर सभी राजनैतिक पार्टियों के नारों में न  मौलिकता है न प्रयोगधर्मिता .दलों के भावी शासन का दर्शन भी नदारद है इससे ये पता पड़ता है कि हमारे राजनैतिक दल विचारों के दिवालियापन का शिकार हो चुके हैं. ये विचारों का दिवालियापन ही है कि ज्यादातर नारे फिल्मी गानों की तर्ज़ पर या उनके इर्द गिर्द रचे जा रहे हैं पहले के चुनाव नारों पर लड़े जाते थे पर अब चेहरों पर लड़े जा रहे हैं .राजनैतिक दल सत्ता में आने के बाद शासन का कैसा चेहरा देंगे जोर इस पर नहीं बल्कि कौन सा चेहरा शासन करेगा जोर इस पर है .जब चेहरे शासन करने लग जाएँ तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि लोकतंत्र में कैसे राजतंत्र प्रवेश कर गया है .नारे तो अभी भी गढे जा रहे हैं लेकिन न तो उनमे वो वैचारिक स्पष्टता और न ही नैतिक प्रतिबद्धता है जिससे मतदाता उनसे प्रभावित हो या वोट देते वक्त नारे उसके निर्णय को प्रभावित करें ,गरीबी हटाओ जैसा नारा आज भी लोगों को याद है.भले ही व्यवहार में गरीबी देश ना खत्म हुई हो लेकिन गरीबी जैसे विषय को सरकार की प्राथमिकता जरुर मिली . भ्रष्टाचार के विरोध में जब वी पी सिंह ने कांग्रेस पार्टी छोड़ी तो  राजा नहीं फ़कीर  है देश की तकदीर है जैसे नारों से उनका स्वागत किया गया और उन्होंने सामजिक न्याय के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू की,भले ही इसके लिए उन्हें अपनी सरकार कुर्बान करनी पडी.कथनी करनी के अंतर की यह कहानी सारी हकीकत खुद बयां कर रही है .इंदिरा गांधी जहाँ अपने गरीबी हटाओ जैसे नारों के लिए जानी जाती हैं वहीं उनके खाते में कुछ ऐसे नारे भी हैं जो आपातकाल की भयावता को बताते हैं "जमीन गई चकबंदी मे, मकान गया हदबंदी में,
द्वार खड़ी औरत चिल्‍लाए, मेरा मर्द गया नसबंदी में नारों को अगर समाजशास्त्रीय नजरिये से देखा जाए तो आज के चुनावी नारे कुछ शब्दों का संग्रह मात्र हैं जिनमे लफ्फाजी ज्यादा है .देश बदलना राज्य बदलना सुनने में भले ही अच्छा लगे पर ये होगा कैसे इसकी कोई रूपरेखा कोई भी राजनैतिक दल नहीं दे पा रहा है. साठ के दशक में राम मनोहर लोहिया ने जब  नारा दिया था, सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ तो ये महज़ नारा नहीं एक बदलाव की पूरी तस्वीर थीजय प्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति के नारे ने पूरे देश की राजनीति को प्रभावित किया जिसकी चरम परिणिति सरकार परिवर्तन के रूप में सामने आयी . श्रीकांत वर्मा ने अपने संग्रह मगध में इसी वैचारिक खाली पन को कुछ यूँ बयान किया था :राजसूय पूरा हुआ,आप चक्रवर्ती हुएवे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गये हैं,जैसे कि यह कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,कोसल में विचारों की कमी है .राजनीति जैसे बाँझ हो गयी है नेता तो आ रहे हैं दल भी बढ़ रहे हैं पर विचार खत्म  हो रहे हैं .परिवारवाद हर राजनैतिक दल के लिए एक आवश्यक आवश्यकता हो गया है बची हुई सीटों पर कास्ट और करेंसी जैसे फैक्टर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं.हमें ये बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि नारे किसी भी लोकतंत्र के शासन के प्राथमिक माध्यम हैं  ऐसे में नारे अगर विचार केंद्रित ना होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएँ तो हमें समझ लेना चाहिए कि सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा. किसी भी लोकतंत्र में नए विचारों का न आना एक तरह की राजनैतिक शून्यता पैदा कर देता है जो शासन की दृष्टि से उचित नहीं होगा..राजनैतिक दल सत्ता में
 अमरउजाला में 19/01/12 को संपादकीय पृष्ठ पर  प्रकाशित लेख 

Wednesday, January 11, 2012

एक और एक ग्यारह


कुछ इन्टरेस्टिंग पढ़ना चाहते हैं रीयली चिल मार यार हाँ कुछ ऐसा है मेरे पास क्योंकि नया साल शुरू हो गया ग्रीटिंग्स का दौर खत्म हुआ अब लाईफ फिर से रापचिक बोले तो बिंदास आगे चल पडी है पर तुझे क्या ,तू तो कूल है ना आप भी सोच रहे होंगे कि ये मैं क्या लिख रहा हूँ .अरे ये तो आज के यांगिस्तानियों की चिट चैट है पर पिछला साल इन्हीं यांगिस्तानियों के नाम रहा .मेरे जीवन के कई बसंत सिर्फ यह सुनते सुनते बीत गए कि यूथ इर्रिस्पोंसिबल होता है पर क्या ऐसा वास्तव में होता है  मस्ती की पाठशाला में बिंदास जीवन का पाठ पढ़ रहे युवाओं ने देश ही  क्या सारी दुनिया में दिखा दिया कि ना तो वो गैर जिम्मेदार हैं और ना ही अपने आस पास के परिवेश से कटे हुए.अन्ना के आंदोलन में जब जनता सड़कों पर उतरी तो उनमे सबसे बड़ी भागीदारी इसी यूथ की थी जो अपनी दुनिया में बदलाव चाहते हैं जो करप्शन फ्री सिस्टम चाहते हैं जिसमे सबको आगे बढ़ने के समान मौके मिलें ये वही लोग थे जिनको अक्सर इस बात के लिए क्रिटिसाइज किया जाता था कि ये पता नहीं कंप्यूटर पर दिन भर बैठ कर क्या किया करते हैं लेकिन इनके विरोध का तरीका भी निराला था .जब हम हैं नए तो अंदाज़ क्यों हो पुराना एक दम झकास, वो एक गाना है ना बोले तुम ना मैंने कुछ कहा कोई साउंड पोलुशन नहीं हुआ पर सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर जो कुछ लिखा पढ़ा गया उसका असर सारे देश ने देखा और सुना भी लोग अपने घरों से बाहर निकल पड़े ये एक सेल्फ मोटीवेटेड प्रयास था ना लाउडस्पीकर बजे ना लोग घरों घरों में जाकर घूमे यानि ना बिल आये ना दिल घबराये फिर भी कमाल का असर हुआ .अब जब सिस्टम को सुधारने की बात की जायेगी तो उसका भारत में कम से कम एक ही तरीका है पोलीटिक्स में अच्छे और नए लोग ज्यादा से ज्यादा चुनकर आयें और ये काम पांच साल में एक ही बार होता है . कबार अगर हमने गलती कर दी तो पांच साल का इन्तिज़ार करना पड़ेगा .अमूमन यूथ इलेक्शन के समय वोट ये सोचकर नहीं जाता कि हमारे एक वोट से क्या होगा और वही एक कम  वोट सही  कैन्डीडेट को हरा देता है . पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव ने ये दिखाया था कि देश का यूथ पोलिटकली एक्टिव हो रहा है जब पच्चीस से चालीस साल की उम्र के 82 सांसद चुनकर आये थे पर जल्दी ही  होने वाले पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव हमारे आपके  लिए लिटमस टेस्ट होंगे क्योंकि हम जैसा सिस्टम चाहते हैं उसको बनाने की जिम्मेदारी हम किसको सौपने जा रहे हैं और इसके लिए हमें वोट देने जाना जरूरी है .वोटिंग डे को होलिडे मत समझिए ये सबसे बड़े काम का दिन है .मेरी बात पढकर शायद आप मान जाएँ पर वो जिसने ये लेख नहीं पढ़ा या चुनाव जिसकी  प्राथमिकता में नहीं है उनका क्या करें ? चलिए एक कोशिश कर के देखते हैं हम सभी टेक्सेवी तो हैं ही ना तो तकनीक को हम  अपना माध्यम बनाते हैं .आज से सोशल नेटवर्किंग साईट्स का इस्तेमाल लोगो को इस बात को मोटिवेट करने के लिए कीजिये कि लोग वोट देने जरुर जाएँ और वोट सही उम्मीदवार को दें .वोट देने के बाद तुरंत अपना स्टेटस अपडेट कीजिये जिससे आपका वो फ्रैंड जो थोडा सुस्त है उसे भी याद आ जाए कि जैसे हर एक फ्रैंड जरूरी होता है वैसे ही हर एक वोट भी .ब्लॉग लिखिए ,ग्रुप्स बनाइये लोगों को याद दिलाइए कि वोट डालने के लिए उन्होंने अपना नाम रजिस्टर्ड कराया या नहीं और ये काम हमें इसलिए करना है कि   ये हमारा देश है पर इसकी ज्यादा जिम्मेदारी हर यांगिस्तानी की है ध्यान रखियेगा भारत में 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या ऐसे युवाओं की है, जिनकी उम्र 35 वर्ष से कम है तो आपकी जिम्मेदारी ज्यादा है .सोच क्या रहे हैं जल्दी से लग जाइए काम पर ये गाते हुए हर एक वोट जरूरी होता है.

आई नेक्स्ट में दिनांक 11/01/12 को प्रकाशित 

Wednesday, January 4, 2012

डिजीटल साक्षरता और नए मीडिया का संघर्ष


अब यह एक बड़ा बाजार है .भले ही हम अब भी डिजीटल डिवाईड की बात करते हों ,भले ही अब ही यह कहा जाता हो कि भारत की बहुसंख्यक आबादी इन्टरनेट माध्यम से दूर है इन सबके बावाजूओद भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या दस करोड से ऊपर हो जाना ,अपने आप में यह एक बड़ा बदलाव है .इतनी तो दुनिया के कई विकसित देशों की आबादी नहीं होगी .दस करोड का यह आंकड़ा भारत की डिजीटल साक्षरता का भी आंकडा है .यानि वह आबादी जो पाने कार्य व्यापार व अन्य जरूरतों के लिए इन्टरनेट का इस्तेमाल करती है .
साक्षरता जब बढ़ती है तो ख़बरों को पढ़ने वालों की संख्या भी बढ़ जाती है .दुनिया भर में डिजीटल साक्षरता के साठ भी यही हुआ .भारत में इंटरनेट का उपयोग बढ़ने के साथ ही समाचार पोर्टल और अखबारों के इंटरनेट संस्करण भी बढे .सबसे पहले अंग्रेजी के समाचार पोर्टल और अखबारों के इंटरनेट संस्करण ही शुरू हुए थे ,लेकिन बाद में भारतीय भाषाओँ में ये काम तेजी से हुआ बल्कि अब ये शायद भारतीय भाषाओँ में ज्यादा तेजी से हो रहा है .शुरू में यह सोचा जा रहा था कि सोशल मीडिया के आने से ऐसे पोर्टल का जमाना लड़ जाएगा पर ऐसा नहीं हुआ .सोशल मीडिया के साथ ही यह पोर्टल भी अपना विस्तार कर रहे हैं .समाचार पोर्टलों की संख्या का बढ़ने का एक कारण यह भी है कि इसे बहुत कम जमापूंजी से भी शुरू किया जा सकता है .अखबार ,पत्रिका या टेलीविजन चैनल शुरू करने के लिए बहुत बड़ी पूंजी की जरुरत पड़ती है ,प्रकाशन और प्रसार का बहुत बड़ा नेटवर्क खड़ा करना पड़ता है पोर्टल शुरू करने का खर्च इतना बड़ा नहीं है .इसे एक कमरे या अपने ही घर से कुछ खर्च में शुरू किया जा सकता है .समस्या इसके आगे शुरू होती है समाचार सामग्री जुटाना काफी कठिन और महंगा काम होता है .बहुत से नए पोर्टल यह काम नहीं कर पाते और शोर्ट कट अपनाते हैं .इसी से कट एंड पेस्ट पत्रकारिता का जन्म हुआ .यह कुछ वैसे ही है जैसे एक ज़माने में क्षेत्रीय अखबार राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खबरों के लिए धीमी गति के समाचारों पर निर्भर रहते थे .पोर्टल की संख्या जरुर बढ़ रही है लेकिन समाचार सामग्री नहीं बढ़ रही है .अखबारों के ऑनलाइन संस्करण इन पोर्टल के मुकाबले ज्यादा चलते हैं क्योंकि इनके पास मौलिक समाचार सामग्री की कमी नहीं होती है दूसरी समस्या यह है कि इन पोर्टल की कमाई का बही तक कोई पक्का मोडल तैयार नहीं हुआ है .भारत में ऑनलाइन लाइन विज्ञापन अभी शुरुवाती स्तर पर हैं और इनके भरोसे पोर्टल चलाना एक हद से ज्यादा संभव नहीं है जबकि सच्चाई यह है कि हिंदी अखबारों ,पत्रिकाओं और टीवी चैनल की कमाई का ज्यादातर हिस्सा विज्ञापन से ही आता है .
हिन्दुस्तान के संपादकीय पृष्ठ पर दिनांक 4/01/12को प्रकाशित 

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