Thursday, September 27, 2012

उनके श्रम को श्रम ही नहीं मानता समाज


लैंगिक समानता के हिसाब से आज की दुनिया में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर का अधिकार मिल चुका है पर जमीनी हकीकत कुछ और ही है विश्व आर्थिक मंच की एक रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता सूचकांक में भारत का 135 देशों में  113 वाँ स्थान है. वर्ल्ड इकॉनॉमिक फ़ोरम का सूचकांक दुनिया के देशों की उस क्षमता का आंकलन करता है जिससे यह पता चलता है कि किसी देश ने  पुरुषों और महिलाओं को बराबर संसाधन और अवसर देने के लिए कितना प्रयास किया.इस मामले ऐसा माना जाता है कि शहरी भारतीय महिला ग्रामीण महिला के मुकाबले ज्यादा बेहतर स्थिति में है जहाँ उन्हें कम अवैतनिक घरेलू शारीरिक श्रम करना पड़ता है.यह तथ्य अलग है कि उनके इस तरह के श्रम का आर्थिक आंकलन नहीं किया जाता है. ऐसे अवैतनिक कार्य  जो महिलाओं द्वारा घरेलू श्रम के तौर पर किए जाते हैं दुनिया की सभी अर्थव्यवस्थाओं में उपस्थित हैं, लेकिन ये विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में ज्यादा दिखाई पड़ते हैं.ऑर्गनाइज़ेशन फोर इकॉनॉमिक कोऑपरेशन ऐंड डेवलेपमेंट’ (आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन) द्वारा 2011 में किए एक सर्वे में छब्बीस सदस्य देशों और भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के अध्ययन से यह पता चलता है कि  कि भारत ,तुर्की और मैक्सिको की महिलाएं पुरुषों के मुकाबले पांच घंटे ज्यादा अवैतनिक श्रम  करती हैं. भारत में अवैतनिक श्रम कार्य के संदर्भ में बड़े  तौर पर लिंग विभेद है, जहां पुरुष प्रत्येक दिन घरेलू कार्यों के लिए एक घंटे से भी कम समय देते हैं. रिपोर्ट के अनुसार  भारतीय पुरुष टेलीविज़न देखने, आराम करने, खाने, और सोने में ज्यादा  वक्त बिताते हैं.आमतौर पर प्रगतिशील माने जाने वाले उत्तरी यूरोपीय देशों में भी अवैतनिक घरेलू श्रम कार्य के सन्दर्भ में औसत रूप से एक महिला को पुरुषों के मुकाबले लगभग एक घंटे का ज्यादा श्रम करना पड़ता है.समय की मांग है कि महिलाओं द्वारा किये जा रहे घरेलू श्रम कार्य का वित्तीय आंकलन किया जाए .घर परिवार मर्यादा नैतिकता और संस्कार की दुहाई के नाम पर महिलाओं को अक्सर घरेलू श्रम के ऐसे चक्र में फंसा दिया जाता है कि वे अपने अस्तित्व से ही कट जाती हैं . भारतीय परिस्थियों में इस श्रम की व्यापकता को देखते हुए यह आसान काम नहीं है लेकिन महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में यह एक सार्थक कदम हो सकता है.इसके लिए सरकार द्वारा महिलाओं के घरेलू श्रम का वित्तीय आंकलन कराया जाए और उनके श्रम  के बदले आर्थिक भुगतान सरकार द्वारा  किया जाए .वित्तीय आंकलन जहाँ महिलाओं को मनोवैज्ञानिक रूप से सशक्तता का एहसास कराएगा जो अपने आप को महज एक घरेलू महिला मानती हैं और इस एहसास से जकड़ी रहती हैं कि वे कुछ नहीं करतीं .वहीं दुसरी ओर आर्थिक भुगतान उनके द्वारा की गयी सेवाओं को श्रेणीबद्ध करने में सहायक सिद्ध होगा. जिससे घरेलू श्रम सेवा को जी डी पी से जोड़ा जा सकेगा.सही मायनों में महिला सशक्तीकरण भारत में तभी संभव है जब घरेलू महिलाओं के द्वारा किये जा रहे श्रम का आर्थिक मुआवजा दिया जाए. 
दैनिक हिन्दुस्तान में 27/09/12 को प्रकाशित 

Wednesday, September 12, 2012

यही है आगे बढ़ने का फंडा

यांगिस्तानियों के लिए 2000 का दशक कई मायने में महत्वपूर्ण रहा , यूँ कहें कि हम ऐसी कई चीजों का हिस्सा बने जो कल तक हमारे लिए अनमोल थीं और आज इतिहास हैं पर पिछले कुछ सालों में दू निया इतनी तेजी से बदल गयी कि हमें उन्हें याद करने का मौका नहीं मिला तो आज थोडा नोस्टालजिक हुआ जाए और ये पता किया जाए कि क्या वाकई क्योंकि यादें भी तो हमारे जीवन का हिस्सा हैं |अब अट्ठन्नी इतिहास बनने को है पर चवन्नी तो इतिहास बन चुकी है पचीस पैसे में भला आज क्या मिलेगा पर कभी यही चवन्नी हमें ज़माने भर की खुशियाँ दे देती हैं और उसी  चवन्नी से जुडी हुई कितनी चीजें आउट डेटेड हो गयीं जैसे  लेमनचूस ,कम्पट खाने से लेकर पहनने और पढ़ने तक कितना कुछ बदल गया |कोमिक्स पचास पैसे में किराए पर मिलती थी और वीडियो गेम विलासिता माने जाते थे |मोहल्ले में वी सी आर कहीं भी लगे आमन्त्रण की जरुरत नहीं थी बस सारी रात जागकर फिल्म तो देखनी ही थी|छत का ऐसा बहुउपयोगी प्रयोग तो शायद ही किसी सभ्यता ने ऐसा किया होगा |छतों पर क्रिकेट से लेकर फुटबाल और ना जाने कितने देशी विदेशी खेल, खेल लिए जाते शाम को दोस्तों और परिवार के साथ गप्प मारने की बेहतरीन जगह और गर्मी की रात में सोने के लिए इससे बेहतर जगह हो ही नहीं सकती थी जाड़े में धूप सेंकना हो तो बस छत ही याद आती थी त्योहारों पर तो असली रौनक छत पर ही दिखती थी |स्कूटर घर की शान हुआ करती थी सिलेंडर लाने से लेकर पूरे परिवार के साथ घूमने जाने तक न जाने कितने काम उन नन्हे पहियों पर हो जाया करते थे|सेंटी मत होइए दिन कैसे भी हों बीत ही जाते हैं हर इंसान को गुजरा कल अच्छा लगता है पर हमारे आज की बुनियाद उसी गुजरे हुए कल से निकली है आप सोचेंगे ऐसा कैसे हमें तो बस पुराने दिन याद आते हैं पर उन दिनों को याद करते हुए हम भूल जाते हैं कि उन दिनों में बहुत कुछ ऐसा था जो हम याद नहीं करना चाहते हैं इसलिए वो हमें याद नहीं रहता एक तरह की असंतुष्टि थी जिसने हमें अपना भविष्य बनाने के लिए प्रेरित किया और अगर ऐसा ना होता तो स्कूटर कभी इतिहास नहीं बनता और नैनो कार का सपना कभी साकार नहीं होता फ़िल्मे देखने के लिए सारी रात जागने की जरुरत नहीं डी वी डी प्लेयर इतने सस्ते हो गए कि आप अपनी मर्जी से जब चाहें फिल्म देख सकते हैं |जिंदगी के मायने बदल रहे हैं क्योंकि समय बदल रहा है यादें को चिपका के अगर बदलाव से डरते रहे तो तरक्की का रास्ता धीमा हो जाएगा जेनरेशन गैप दो पीढ़ियों का टकराव हो सकता है पर विकास का रास्ता टकराव से ही बनता है जो तेरा है वो मेरा है वो पीढ़ियों में नहीं दोस्ती में अच्छा अच्छा लगता है क्योंकि दोस्ती दो समान विचार के लोगों में होती है पर दादा दादी के किस्से हमारे नहीं हो सकते और हमारे किस्से आगे आने वाली पीढ़ियों के नहीं है यही है आगे बढ़ने का फंडा यादों को दिल में जरुर रखिये पर जिंदगी को बेहतर बनाने की कोशिश करते रहिये क्योंकि आज का मंत्र है जो तेरा है वो मेरा तो है पर टर्म एंड कंडीशन के साथ तो दुनिया बदल चुकी है और लोग भी आपकी यादों में जो कुछ भी है वो उस वक्त की निशानी है जब दुनिया इतनी तेज नहीं थी कि सुबह उठने के साथ मोबाईल के नए एप्स आपका इन्तजार कर रहे होते हैं तब कि दुनिया में टेक्नोलोजी इतना अहम रोल नहीं प्ले कर रही थी जितना आज अब अगर आज का जीवन आपकी यादों से ज्यादा आसान है तो कुछ ना कुछ कीमत तो चुकानी पड़ेगी क्योंकि सरसों का साग और पिज्जा एक साथ मिलना असंभव तो नहीं पर मुश्किल जरुर है तो बीती यादों का जश्न  मनाया जाए और जो कुछ नया हो रहा है उसका स्वागत किया जाए हाँ अगर आपको इस लेख को पढकर  बीते दिन याद आ गए तो फिर बदलाव के लिए तैयार रहिये क्योंकि यही बदलाव नयी पीढ़ी के लिए कल याद बन जाने वाले हैं |
आई नेक्स्ट में 12/09/12 को प्रकाशित 

Sunday, September 9, 2012

बदल रहा है भारतीय टेलीविजन का चेहरा


भारत की टेलीविजन देखने वाली जनता का नब्बे प्रतिशत हिस्सा मनोरंजक  चैनल देखता है |दिसंबर 2011 तक भारत में 402 समाचार चैनल और 415 मनोरंजक  चैनल अपने कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं |सी एम् एस मीडिया लैब द्वारा टेलीविजन कार्यक्रमों के प्राईम टाईम विश्लेषण के शोध से यह पता चलता है कि सर्वाधिक देखे जाने वाले ६ चैनलों के प्राईम टाईम कार्यक्रमों में बीस प्रतिशत से ज्यादा कार्यक्रम नॉन फिक्शन (गैर काल्पनिक )श्रेणी के हैं |यह आंकड़े बताते हैं कि नॉन फिक्शन (गैर काल्पनिक) कार्यक्रम लोकप्रिय मनोरंजक चैनलों में ज्यादातर सप्ताहांत में प्रसारित किये जाते हैं जबकि इन्हीं चैनलों पर  सोप ऑपेरा के लिए हफ्ते के पांच दिन आरक्षित रहते हैं फिर भी नॉन फिक्शन (गैरकाल्पनिक कार्यक्रमों में दर्शकों की रूचि ज्यादा बढ़ रही है |यह तो बात उन चैनलों की है जो मनोरंजन के अन्य कार्यक्रम भी दिखाते हैं पर बड़ा बदलाव वो चैनल ला रहे हैं जो मुख्यता इसी श्रेणी के कार्यक्रम दिखा रहे हैं| 1985 में मनोहर श्याम जोशी द्वारा लिखित धारावाहिक हम लोग से भारत में सोप ओपेरा की शुरुवात हुई और धीरे धीरे यह हर घर का हिस्सा बन गए ,कथानक और चरित्र भले ही बदलते रहे हों पर इनके कथ्य का मूल भाव परिवार और इंसानी रिश्ते के आस पास रहे बाद में एकता कपूर के के नाम से शुरू होने वाले धारावाहिकों ने ग्लैमर का तडका लगा दिया हम लोग के मध्यवर्ग से शुरू हुई इन धारवाहिकों की कहानी कब उच्च वर्ग के इर्द गिर्द घूमने लग गयी इसका एहसास भी हमें न हुआ पर बुद्धू बक्सा अब बुद्धू नहीं रहा है और दर्शक भी समझदार हो रहे हैं|सी एम् एस मीडिया लैब का ये सर्वेक्षण तो यही बता रहा है |वास्तविक रूप में दर्शकों को अभी भी मनोरंजन के लिए टेलीविजन पर निर्भरता ज्यादा है लेकिन उनकी रूचियाँ बदल रही हैं जिसे फैक्चुअल इंटरटेन्मेंट का नाम मिला हैदुनिया की जानी मानी प्रसारक और टेलीविजन हस्ती ओपरा विनफ्री पिछले दिनों भारत में थी और अपनी इस यात्रा को उन्होंने एक टीवी वृत्तचित्र का रूप देकर सारी दुनिया में प्रसारित किया गया और दुनिया ने भारत को ओपरा के नजरिये से देखा|वास्तविक तथ्य के साथ मनोरंजन भारत एक नई तरह की टेलीविजन क्रांति की तरफ बढ़ रहा है|जिसमे सोप ओपेरा,कोमेडी,और फ़िल्मी गाने के बगैर चैनल चल रहे हैं|इन चैनलों में लाईफ स्टाईलयात्राविज्ञान और इंसानी जीवटता की सच्ची कहानियां हैं वो भी बगैर किसी लाग लपेट के |पिछले बीस सालों में टेलीविजन धारावाहिकों के कथ्यों में इंसानी रिश्तों की जटिलता को ही दिखाने की कोशिश की जाती रही है यदि किसी सामाजिक समस्या को उठाया भी गया तो टी आर पी और बाजार के दबाव में वो अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाए बाल विवाह जैसी गंभीर सामाजिक समस्या पर आधारित धारावाहिक  'बालिका वधू भी अब अपने उद्देश्य से भटक ससुराल के ड्रामा पर अटक गया,'मन की आवाज़ प्रतिज्ञाएक आत्मविश्वासी लड़की की कहानी से शुरु हुआ लेकिन कहानी फिर भटक गई. प्रतिज्ञा उसी लड़के से शादी कर बैठती है जो उसे तंग करता है|'बैरी पियाऔर 'न आना इस देस लाडोभी सामाजिक समस्याओं और ग़रीबों के सशक्तिकरण के मुद्दे को लेकर शुरु हुए पर पहचान छोड़ने में असफल रहे|दूसरी तरफ प्रयोगधर्मिता गैर काल्पनिक कार्यक्रमों का मूल आधार है मनोरंजन चैनलों में रीयल्टी शो सबसे ज्यादा हावी हैं जो कि ज्यादातर पश्चिमी देशों के आयातित फोरमेट पर हैं| रियल्टी शो ने भारतीय टेलीविजन के परदे को हमेशा के लिए बदल दिया ये शादियाँ करा रहे हैं लोगों को मिला रहे हैं उनकी समस्याएं सुलझा रहे हैं नयी प्रतिभाओं को सामने ला रहे हैं यानि घर के बड़े बूढ़े से लेकर यार दोस्त तक सभी भूमिकाओं को ये बुद्धू बक्सा बखूबी निभा रहा है|दर्शक इनको लेकर कभी हाँ ,कभी ना वाली स्थिति से उबर अब उपभोक्ता में तब्दील हो गए हैं | वहीं गैर काल्पनिक श्रेणी में एक और विधा उभर रही है जिसे  फैक्चुअल इंटरटेन्मेंट के नाम से जाना जाता है जिसमे वास्तविक तथ्यों को मनोरंजक बना कर प्रस्तुत किया जाता है|जो समाचार और वृतचित्रों का मिला जुला रूप है जिसमे इतिहास को जीवंत किया जा रहा है और वर्तमान को दृश्य बंध |इस तरह के कार्यक्रम डिस्कवरी,और हिस्ट्री जैसे चैनलों पर प्रमुखता से दिखाया जा रहे हैकुछ ट्रक ड्राईवर दुनिया की दुर्गम सड़कों पर ट्रक चला रहे हैं तो कहीं हाथ से मछली पकड़ने की होड लगी,कहीं एक युवक सुपर मानवों की तलाश में दुनिया का चक्कर काट रहा है,कहीं एक यात्री दुनिया के अलग अलग देशों में अलग अलग व्यापार कर यात्रा के पैसे जुटा रहा है |हमारे आस पास के जीवन में इतना मनोरजन होगा किसी ने सोचा ना था इसीलिये अब इन्फोटेनमेंट की जगह फैक्चुअल इंटरटेन्मेंट ज्यादा पसंद किया जा रहा है ,महत्वपूर्ण बात ये है कि अब इस तरह के चैनलों में भारत बहुत तेजी से दिखने लग गया है इसका एक कारण है उदारीकरण के बाद एक बड़ा मध्यवर्ग उभरा है जो पर्यटन और खान पान से जुडी चीजों में खासी रूचि ले रहा है|जिसके लिए पर्यटन का मतलब धार्मिक स्थलों की यात्रा नहीं बल्कि अनदेखी जगहों को देखना है वहीं विदेशी भी भारत को एक बड़े बाजार के रूप में देख रहे हैं और इसके लिए वे भारत को समझना चाहते हैं जिसमे यात्रा और खान पान से सम्बन्धित कार्यक्रम काफी मददगार होते हैं|ये द्वीपक्षीय प्रक्रिया जहाँ दर्शकवर्ग को बढ़ा रही हैं वहीं व्यवसाय के लिहाज से एक बड़ा बाजार भी बन रहा है |कंटेंट के स्तर पर ये वृतचित्र जैसी विधा को आम दर्शक तक पहुंचा कर उसे लोकप्रिय कर रहे हैं|
इन सब कारणों से लाईफ स्टाईल आधारित चैनलों को बढ़ावा मिल रहा है  और भारतीय  स्थापत्य ,भोजन और वन्य जीवन से जुड़े कार्यक्रम प्रमुखता से दिखाए जा रहे हैंक्षेत्रीय भाषाओँ में उपलब्धता के कारण दर्शक अपनी भाषा में इन कार्यक्रमों का लुत्फ़ ले पा रहे हैं हालाँकि ये अभी शुरुवात है पर भारतीय टीवी स्क्रीन का चेहरा बदल रहा है   |फैक्चुअल इंटरटेंमेंट का अभी कुल टेलीविजन कार्यक्रमों का मात्र 1.5% है और वर्ष 2008 से यह तीस प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है और इस का कुल व्यवसाय 200 से 250 करोड़ रुपैये के बीच है | और भविष्य में इसके तेजी से बढ़ने की उम्मीद है |
नेशनल दुनिया में 09/09/12 को प्रकाशित 

Monday, September 3, 2012

राजनीति का बड़ा पर्दा


राजनीति भी अजीब चीज है जब दूसरों के साथ हो तो मजा देती है जब खुद के साथ हो तो सजा पर फिर भी एक आम इंसान तो यही चाहता है कि उसका जीवन शांति से चलता रहे पर अपना सोचा कहाँ होता है आप भी सोच रहे होंगे कि ये राजनीति को मैं कहाँ से ले आया |अरे भाई अपने आस पास नजर दौडाइए देखिये हर जगह इसी की चर्चा है संसद थमी है राजनीति के कारण विश्वविद्यालय गर्म हैं होने वाले चुनाव के कारण और सिनेमा में गैंग्स ऑफ वासेपुर का कथानक भी राजनीति और माफिया के गठजोड़ पर ही है |वैसे हमारे जीवन में राजनीति का बड़ा महत्व है पर जब फिल्मों की होती है तो वहां भी राजनैतिक दांव पेचों को खूब दिखाया जाता है ये अलग बात है कि यहाँ गांधीगिरी,भाईगिरी तो चल जाती है पर नेतागिरी को पसंद करने वाले लोग कम ही होते हैं |1975 में आंधी फिल्म का विषय राजनैतिक था जिस कारण आपातकाल में फिल्म को कुछ समय के लिए प्रतिबन्ध भी झेलना पड़ा |फिल्म के गाने तो खूब चले पर फिल्म नहीं चली|1984 में दो फ़िल्में राजनैतिक विषयों को लेकर बनी राजेश खन्ना अभिनीत आज का एम् एल ए रामवतार और अमिताभ बच्चन अभिनीत इन्कलाब दोनों ही फिल्मों में राजनैतिक व्यवस्था की गंदगी से परेशान राजनैतिक चरित्रों को दिखाया गया था | हू तू तू (1999) भी राजनीति और अपराध के गठजोड़ पर बनी एक और फिल्म थी| नायक (2001) फिल्म में पहली बार एक नेता को आदर्श रूप में दिखाया गया जो एक दिन के लिए राज्य का मुख्यमंत्री बनता है और एक भ्रष्ट मुख्यमंत्री से लोगों को निजात दिलवाता है | 2003 में मधुर भंडारकर द्वारा निर्देशित सत्ता फिल्म में दिखाया गया कि कैसे एक  राजनैतिक व्यक्ति अपनी सत्ता बचाने के लिए रिश्तों का  किस तरह दोहन करता  हैं| कोलकाता के युवकों और राजनीति की कहानी में लिपटी मणि रत्नम की फिल्म युवा  काफी कुछ कहती है |2009 में आयी गुलाल उत्तर भारत की छात्र राजनीति की हू ब हू  तस्वीर उतारती है |2010 में आयी फिल्म राजनीति जहाँ समसामयिक राजनीति की गंदगी को दिखाती है वहीं रण फिल्म बड़ी खूबसूरती से दिखाती है कि राजनैतिक घराने मीडिया का इस्तेमाल किस तरह से अपने फायदे के लिए करते हैं |मजेदार बात ये है कि राजनीति के कथानक पर बनी ज्यादातर फ़िल्में व्यवसायिक रूप से असफल रही हैं लेकिन तथ्य यह भी है कि हमारे समाज में राजनीति की भूमिका हमेशा रही है शायद इसीलिये हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में लगातार आगे बढ़ रहे हैं |देखा न आप बोर होने लग गए जब सीरियस मुद्दों पर बात शुरू होती है तो हमारा यही रवैया गलत लोगों को राजनीति में आगे बढ़ा देता है |हर फिल्म में राजनीति को नकारात्मक रूप में दिखाया जाता है जो इस बात का परिचायक है कि राजनीतिज्ञों पर हमारा भरोसा कम हुआ है |ऐसा हो क्यों रहा है यह सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण है राजनीति में गंदगी गलत लोगों के उसमे आने के कारण है और इसको सुधारने की जिम्मेदारी हम यंगिस्तानियों की है |आपकी जिंदगी इसलिए कूल है क्योंकि आपको सिस्टम से मतलब नहीं है घर से कॉलेज या फिर ऑफिस दोस्तों के साथ चिल करना और मस्त रहना पर जरा ये भी तो सोचिये कि अगर हमारा सिस्टम राजनीति में गलत लोगों के आने के कारण बिगड  गया तो आपकी लाईफ भी डिस्टरब होगी क्यूँ लग गए न सोचने तो सही लोगों का चुनाव कीजिये और अगर आपको लगता है कि इस गंदगी को आप कम कर सकते हैं तो आइये राजनीति के मैदान में पर ये मत भूलिएगा जो बात आपको बुरी लगती है वो औरों को क्यों अच्छी लगेगी |
आई नेक्स्ट में 03/09/12 को प्रकाशित  

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