दुनिया भर में व्यापार करने के तरीकों में बदलाव आ रहा है। अब हर एक कम्पनी के
हर कार्य पर जनता की नज़र रहती है। जिससे कम्पनियों से यह अपेक्षा की जाने
लगी है कि वे मुनाफा कमाने के साथ ही समाज एवम देश के विकास और उत्थान में भी अपना
योगदान देंगी। वर्ष २०१३ में नये कम्पनी अधिनियम के लागू होते ही भारत विश्व का
पहला ऐसा देश बन गया जहाँ कम्पनियों के लिये अपनी समाजिक जिम्मेदारियों के निर्वहन
पर खर्च करना कानूनन जरूरी बना दिया गया है। १ अप्रैल २०१५ से सरकार इस बात का
जायजा लेना शुरू कर देगी कि किस कम्पनी ने करपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी के
मद में कितना पैसा खर्च किया है। जिन कम्पनियों ने ऐसा नहीं किया है उनके लिये ऐसा
ना करने की वजह लिखित रूप से बताने की कानूनी बाध्यता है।
नये कम्पनी कानून के मुताबिक
जिन कम्पनियों का वर्षिक कारोबार १००० करोड से अधिक का है, या जिनकी कुल सम्पत्ति ५०० करोड
से अधिक है या जिनकी सालाना आमदनी ५ करोड रूपये से अधिक है उनके लिये अपने पिछले
तीन वर्षों के औसत मुनाफे का २ प्रतिशत करपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी के मद में
वार्षिक रूप से खर्च करना आवश्यक बना दिया गया है। समीक्षक इस कानून को अनावश्यक
मानते हैं। उनका कहना है कि इसे लागू करने से देश में निवेश में कमी आएगी। वे यह
भी मानते हैं कि जब इन कम्पनियों की वजह से पहले से ही लाखों लोग गरीबी से मुक्ति
पा रहे हैं तो फिर उनपर अतिरिक्त दबाव डालने का कोई औचित्य नहीं है। साथ ही
कम्पनिया इस कानून से बचने की आपाधापी में वास्तिविक समाजिक विकास के कार्यों में
ध्यान नहीं दे पायेंगी और उनका सारा ध्यान केवल खानपूर्ती में ही लगा रहेगा। और इन
सबसे उपर है भ्रष्टाचार की समस्या जिसके परिणामस्वरूप इस कानून के द्वारा भ्रष्ट
अधिकारियों का विकास होने की सम्भावना अधिक है। हालांकि इसके द्वारा सिर्फ नुकसान
हो ऐसा नहीं है। कंपनीयां इसके द्वारा ग्राहकों के बीच अपनी छवि सुधार सकती हैं।
वे अपनी समाजिक जिम्मेदारियों का उचित निर्वहन के द्वारा ग्राहकों के
दिलो-दिमाग में पैठ बना सकती हैं। पर सबसे बड़ी समस्या है इस धन के उचित मद में और
अच्छे तरीके से खर्च करने की| भारत में ३३ लाख से भी अधिक गैर-सरकारी संगठन मौजूद हैं, यानी कि हर ४०० भारतीय के लिये
एक गैर-सरकारी संगठन। पर ये संगठन अच्छे तरीके से काम नहीं कर रहे हैं। इनकी कार्य
प्रणाली पारदर्शी नहीं है और बार-बार इनके उपर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं।
कुछ बड़ी कम्पनिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के निर्वहन के लिये अपने खुद के संगठन
भी खोलती हैं |
ये संगठन अच्छा काम भी करते हैं| पर पूरे ढांचे पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वह
यथावत ही बना रहता है। विगत पांच दशकों में हमारे देश में गैर-सरकारी संगठनों की
संख्या में काफी इज़ाफ़ा हुआ है और इनका दायरा भी बढ़ा है| इस बात पर भी कोई दोराय नहीं है
कि इनकी वजह से देश के विकास में भी काफी मदद मिली है| पर ज्यादातर जगहों या क्षेत्रों
में जहाँ ये कार्यरत हैं वहां पर सरकार की मौजूदगी लगभग न के बराबर है| ऐसा लगता है मानों सरकार अपने
दायित्व इन्हें सौंपकर अवकाश पर चली गयी है| गैर-सरकारी संगठन यह समझने लगते हैं कि वही
सरकार हैं और सरकार की निष्क्रियता को देखते हुए उनका ऐसा सोचना गलत भी नहीं है| पर अधिकतर मामलों में ये गैर
सरकारी संगठन भी सरकार जितने ही अक्षम और अप्रभावी सिद्ध होते हैं| इस क्षेत्र में बड़ी कंपनियों
द्वारा चलाये जाने वाले गैर-सरकारी संगठन काफी कारगर साबित हो सकते हैं क्योंकि वे
अधिक कार्यकुशल और प्रभावी होते हैं| अपनी मातृ संस्था के समान ही वे अधिक प्रोफेशनल
होते हैं और कार्यों का निष्पादन अधिक कुशलता और प्रभावी रूप से करने में सक्षम
होते हैं| इनमें काम करने वाले लोग अन्य गैर-सरकारी संगठनों को प्रक्षिक्षण दे कर उन्हें
और प्रभावी बनाने में मददगार साबित हो सकते हैं| यदि कम्पनियाँ कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के
निर्वहन से होने वाले फायदों को ठीक से समझ कर उनका उचित उपयोग अपनी विपणन आदि
गतिविधियों के प्रोत्साहन के लिए कर सकें तो उन्हें काफी लाभ मिल सकता है|
यदि कंपनियां कॉर्पोरेट सोशल
रिस्पांसिबिलिटी के तहत खर्च होने वाले पैसे को विपणन, प्रचार अथवा विज्ञापन पर
होने वाले खर्चे के रूप में देखें और उसका वैसा ही इस्तेमाल करें तो समाज के विकास
के साथ ही उनके मुनाफे में भी वृद्धि आने की अधिक संभावना है| इस बात में कोई शक नहीं है की
कम्पनियाँ अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करके देश के उत्थान में योगदान
देने के साथ ही अपने मुनाफे मैं भी इजाफा कर सकती हैं|
अमर उजाला में 21/01/15 को प्रकाशित
1 comment:
Beautiful written about that
Post a Comment