विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत छत्तीस प्रतिशत की अवसाद दर के साथ दुनिया के सर्वाधिक अवसाद ग्रस्त देशों में से एक है मतलब ये कि भारत में मानसिक अवसाद से पीड़ित लोगों की जनसँख्या लगातार बढ़ रही है |मानव संसाधन के लिहाज से ऐसे आंकड़े किसी भी देश के लिए अच्छे नहीं कहे जायेंगे जहाँ हर चार में से एक महिला और दस में से एक पुरुष इस रोग से पीड़ित हों |
समाज शास्त्रीय नजरिये से देखा जाए तो यह प्रव्रत्ति हमारे सामाजिक ताने बाने के बिखरने की ओर इशारा कर रही है|बढ़ता शहरीकरण और एकल परिवारों की बढ़ती संख्या लोगों में अकेलापन बढ़ा रहा है और सम्बन्धों की डोर कमजोर हो रही है|रिश्ते छिन्न भिन्न हो रहे हैं तेजी से बदलती दुनिया में विकास के मायने सिर्फ आर्थिक विकास से ही मापे जाते हैं यानि आर्थिक विकास ही वो पैमाना है जिससे व्यक्ति की सफलता का आंकलन किया जाता है जबकि सामाजिक पक्ष को एकदम से अनदेखा किया जा रहा है| शहरों में संयुक्त परिवार इतिहास हैं जहाँ लोग अपने सुख दुःख बाँट लिया करते थे और छतों का तो वजूद ही ख़त्म होता जा रहा है| फ़्लैट संस्कृति अपने साथ अपने तरह की समस्याएं लाई हैं जिसमें अकेलापन महसूस करना प्रमुख है |
इसका निदान लोग अधिक व्यस्ततता में खोज रहे हैं नतीजा अधिक काम करना ,कम सोना और टेक्नोलॉजी पर बढ़ती निर्भरता सोशल नेटवर्किंग पर लोगों की बढ़ती भीड़ और सेल्फी खींचने की सनक इसी संक्रमण की निशानी है जहाँ हम की बजाय मैं पर ज्यादा जोर दिया जाता है | आर्थिक विकास मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर किया जा रहा है |
मानसिक स्वास्थ्य कभी भी लोगों की प्राथमिकता में नहीं रहा है |व्यक्ति या तो पागल होता है या फिर ठीक बीच की कोई अवस्था है ही नहीं है |इस बीमारी के लक्षण भी ऐसे नहीं है जिनसे इसे आसानी से पहचाना जा सके आमतौर पर इनके लक्षणों को व्यक्ति के मूड से जोड़कर देखा जाता है|अवसाद के लक्षणों में हर चीज को लेकर नकारात्मक रवैया ,उदासी और निराशा जैसी भावना,चिड़ चिड़ापन, भीड़ में भी अकेलापन महसूस करना और जीवन के प्रति उत्साह में कमी आना है| आमतौर पर यह ऐसे लक्षण नहीं है जिनसे लोगों को इस बात का एहसास हो कि वे अवसाद की गिरफ्त में आ रहे हैं| दुसरी समस्या ज्यादातर भारतीय एक मनोचिकित्सक के पास मशविरा लेने जाने में आज भी हिचकते हैं उन्हें लगता है कि वे पागल घोषित कर दिए जायेंगे इस परिपाटी को तोडना एक बड़ी चुनौती है |जिससे पूरा भारतीय समाज जूझ रहा है |उदारीकरण के बाद देश की सामाजिक स्थिति में खासे बदलाव हुए हैं पर हमारी सोच उस हिसाब से नहीं बदली है |अपने बारे में बात करना आज भी सामजिक रूप से वर्जना की श्रेणी में आता है ऐसे में अवसाद का शिकार व्यक्ति अपनी बात खुलकर किसी से कह ही नहीं पाता और अपने में ही घुटता रहता है |एक आम भारतीय को ये पता ही नहीं होता कि वह किसी मानसिक बीमारी से जूझ रहा है और इलाज की सख्त जरुरत है | |इस स्थिति में अवसाद बढ़ता ही रहता है जबकि समय रहते अगर इन मुद्दों पर गौर कर लिया जाए तो स्थिति को गंभीर होने से बचाया जा सकता है |तथ्य यह भी है कि देश शारीरिक स्वास्थ्य के कई पैमाने पर विकसित देशों के मुकाबले बहुत पीछे है और शायद यही कारण है कि देश की सरकारें भी मानसिक स्वाथ्य के मुद्दे को अपनी प्राथमिकता में नहीं रखतीं |
देश में कोई स्वीकृत मानसिक स्वास्थय नीति नहीं है और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधयेक अभी संसद में लंबित है जिसमें ऐसे रोगियों की देखभाल और उनसे सम्बन्धित अधिकारों का प्रावधान है | रोग की पहचान हो चुकी है भारत इसका निदान कैसे करेगा इसका फैसला होना अभी बाकी है |
प्रभात खबर में 09/10/15 को प्रकाशित लेख