यूनाइटेड नेशंस की क्लाइमेट चेंज कोंफ्रेंस 2015 पेरिस में हो रही है |दुनिया भर के मौसम में आये बदलाव और उससे होने वाले परिणामों पर इसमेंचर्चा की जायेगी |इस बार कोंफ्रेंस का मुख्य उद्देश्य दुनिया भर के समुद्र तल का ऊंचा उठना है |समुद्र तल का ऊंचा होना इस बात का परिचायक है किसमुद्र में पानी बढ़ रहा है और ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिसका सीधा असर समुद्र तटीय देशों की जमीन पर होगा जो धीरे –धीरे समुद्र में चली जायेंगीऔर इन सबके पीछे एक ही कारण जिम्मेदार है और वह है ग्लोबल वार्मिंग | इस कोंफ्रेंस में दुनिया के सारे देशों के नेता इस विषय पर सहमति बनायेंगे कि ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस के स्तर से कम रखा जाये|इसके अलावा ग्लोबल वार्मिंग पर हुए दुनिया भर के शोधों पर चर्चा भी की जायेगी|इससे संबंधित प्राप्त आंकड़े कोई आशाजनक तस्वीर पेश नहीं कर करते जब तक कि दुनिया के सारे देश इस दिशा में सामूहिक प्रयास न करें जिससे हम यह उम्मीद कर सकें कि आने वाली दुनिया आज से बेहतर होगी |इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पिछले दस सालों में इस वर्ष कार्बन उत्सर्जन में कमी आयी है जबकि अर्थव्यवस्था बढ़ रही है | इस दिशा में दुनिया भर के लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए पहली बार वैश्विक स्तर पर 5 से 16 जून, 1972 के मध्य स्टॉकहोम (स्वीडन) में मानवीय पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन हुआ, इस सम्मेलन की दसवीं वर्षगांठ मनाने के लिए 10 से 18 मई, 1982 को नैरोबी (केन्या) में राष्ट्रों का सम्मेलन हुआ जिसमें पर्यावरण से जुड़ी विभिन्न कार्य योजनाओं का एक घोषणा-पत्र स्वीकृत किया गया।
स्टॉकहोम सम्मेलन की बीसवीं वर्षगांठ पर 3 से 14 जून, 1992 को रियो डी जनेरियो (ब्राजील) में संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी शिखर सम्मेलन हुआ जिसमें पर्यावरण एवं विकास को अन्योन्याश्रित स्वीकार करते हुए पृथ्वी के पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सभी देशों के सामान्य अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को सैद्धांतिक रूप से परिभाषित किया गया। इसी सम्मेलन के दौरान जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए सार्थक प्रयासों हेतु ‘जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन’ (यूएनएफसीसीसी) नामक संधि हस्ताक्षरित की गई जिसके तहत जलवायु परिवर्तन पर पहला संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (CoP1) वर्ष, 1995 में बर्लिन (जर्मनी) में हुआ था, तब से अब तक इसके बीस वार्षिक सम्मेलन हो चुके हैं और इसका 20वां सम्मेलन कोप-20 (20th Session of the Conference of the parties to the UNFCCC) पेरू की राजधानी लीमा में 1 से 14 दिसंबर, 2014 तक आयोजित किया गया। लीमा जलवायु सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के मुद्दे पर विकसित एवं विकासशील देशों के बीच दो हफ्ते से विद्यमान गतिरोध अंततः 14 दिसंबर, 2014 को समाप्त हो गया, और अंतिम क्षण में दिसंबर, 2015 में पेरिस के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाली नई वैश्विक जलवायु संधि के मसौदा प्रस्ताव पर सहमति बन गई।
इस मसौदे को पर्यावरण संरक्षण के इतिहास में एक ऐतिहासिक समझौते के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि इससे वर्ष 2050 तक कार्बन उत्सर्जन में 20 प्रतिशत तक कमी लाने की उम्मीद बढ़ी है, अब इस मसौदे को दिसंबर, 2015 में पेरिस में ‘भिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों के आलोक में साझी लेकिन विभेदीकृत जिम्मेदारियां एवं संबंधित क्षमता के सिद्धांत’ के रूप में प्रस्तुत होना है। बहरहाल लीमा सम्मेलन में दुनिया के 194 देशों ने उत्सर्जन कटौती के राष्ट्रीय संकल्प के इस मसौदे को स्वीकार कर लिया है जिससे जलवायु परिवर्तन के मुकाबले के लिए एक बाध्यकारी करार पर हस्ताक्षर का रास्ता साफ हो गया है। ‘जलवायु कार्रवाई का लीमा आह्वान’ नाम के इस मसौदे को दिसंबर, 2015 में पेरिस सम्मेलन में अंतिम रूप से स्वीकृत होना है।यह पहला मौका है जब कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ चुके चीन, भारत व ब्राजील सहित अन्य विकासशील देश अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने पर सहमत हुए हैं, स्वीकृत नए मसौदे के तहत संयुक्त राष्ट्र के सदस्य सभी देश 31 मार्च, 2015 तक अपने उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य को प्रस्तुत करेंगे।ग्लोबल वार्मिंग या वैश्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है| वैज्ञनिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगा, बाढ़ की घटनाएँ बढ़ेंगी और मौसम का मिज़ाज बुरी तरह बिगड़ा हुआ दिखेगा|इसका असर दिखने भी लगा है| ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं और रेगिस्तान पसरते जा रहे हैं| कहीं असामान्य बारिश हो रही है तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं| कहीं सूखा है तो कहीं नमी कम नहीं हो रही है|वैज्ञानिक कहते हैं कि इस परिवर्तन के पीछे ग्रीन हाउस गैसों की मुख्य भूमिका है| जिन्हें सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं|इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड है, मीथेन है, नाइट्रस ऑक्साइड है और वाष्प है|वैज्ञानिकों का कहना है कि ये गैसें वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इससे ओज़ोन परत की छेद का दायरा बढ़ता ही जा रहा है|ओज़ोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के बीच एक कवच की तरह है|ग्लोबल वार्मिंग मनुष्यों की गतिविधियों के परिणाम के रुप में समय की एक अपेक्षाकृत कम अवधि में पृथ्वी की जलवायु के तापमान में एक उल्लेखनीय वृद्धि हुई है| विशिष्ट शब्दों में सौ या दौ सौ साल में, १ सेल्सियस या अधिक की व्रद्धि को ग्लोबल वार्मिंग की श्रेणी में रखा जाता है, और पिछ्ले सौ साल में ०|४ सेल्सियस बढ चुका है जो की बहुत महत्वपुर्ण है।ग्लोबल वार्मिंग को समझने के लिए मौसम और जलवायु के अंतर को समझना बहुत जरूरी है |मौसम स्थानीय और अल्पकालिक होता है, मान लीजिये की आप हिमाचल में है और वहां बर्फ़ गिर रही है तो उस मौसम और बर्फ़ का असर सिर्फ़ हिमाचल और उसके आसपास के इलाकों में ही रहेगा सिर्फ़ उन इलाको में ही ठंड बढेगी जो हिमाचल के आस पास होंगे । जलवायु की अवधि लम्बी होती है और ये एक छोटे से स्थान से संबंधित नही है। एक क्षेत्र की जलवायु समय की एक लंबी अवधि में एक क्षेत्र के औसत मौसम की स्थिति है।अब धरती के लिए चिंता करने की बात यह है कि धरती की जलवायु में परिवर्तन आ रहा है | जानना ज़रुरी है की जब हम लम्बी अवधि की जलवायु की बात करते है तो उसका मतलब होता है बहुत लम्बी अवधि, यहां तक की कई सौ साल भी बहुत कम अवधि है जलवायु में आने के लिये। वास्तव में, जलवायु में परिवर्तन होते-होते कभी-कभी दसियों से हज़ारों वर्ष लग जाते है। इसका मतलब है की अगर एक सर्दी में बर्फ़ नही गिरी और ठंड नही पडीं---और एक साथ दो-तीन सर्दियों में ऐसा हो जाये----तो इससे जलवायु में परिवर्तन नहीं होता है, ये तो एक विसंगति है--- एक घटना जो हमेशा की सांख्यिकीय सीमा के बाहर है लेकिन किसी भी दीर्घकालिक परिवर्तन का स्थायी प्रतिनिधित्व नहीं करता है.
ग्लोबल वार्मिंग
ग्रीनहाउस प्रभाव
ग्लोबल वार्मिंग
ग्रीनहाउस प्रभाव में वृद्धि के कारण होता है। वैसे ग्रीनहाउस प्रभाव कोई बुरी
चीज़ नही है अपने-आप में---ये पृथ्वी को जीवन के लायक बनाये रखने के लिये गर्म
रखता है।
मान लीजिये पृथ्वी आपकी कार की तरह है जो दोपहर
के वक्त धूप में पार्किंग में खडी है। आपने गौर किया होगा की जब आप कार में
बैठते है तो कार का तापमान बाहर के तापमान से ज़्यादा गर्म होता है थोडे वक्त तक।
जब सूर्य की किरणें आपकी कार की खिडकियों से अन्दर प्रवेश करती है तो सूर्य
की कुछ गर्मी कार की सीट्स, कारपेटस, डेशबोर्ड और फ़्लोर मेटस सोख लेते है, जब ये सब चीज़े उस सोखी
हुई गर्मी को वापस बाहर फ़ेंकते है तो सारी गर्मी खिडकियों से बाहर नही जाती कुछ
वापस आ जाती है। सीटों से निकली गर्मी का तरंगदैधर्य (Wavelength) उन सूर्य की किरणों के
तरंगदैधर्य (Wavelength) से अलग होता है जो पहली
बार कार की खिडकी से अन्दर आयीं थी, तो अन्दर ज़्यादा ऊर्जा आ रही है और ऊर्जा बाहर कम जा रही है। इसके
परिणाम में आपकी कार के तापमान में एक क्रमिक वृद्धि हुई। आपकी
गर्म कार के मुकाबले ग्रीनहाउस प्रभाव थोडा जटिल है, जब सूर्य की किरणें
पृथ्वी के वातावरण और सतह से टकराती है तो सत्तर प्रतिशत ऊर्जा पृथ्वी पर ही
रह जाती है जिसको धरती, समुद्र , पेड तथा अन्य चीज़े सोख लेती है। बाकी का तीस प्रतिशत अंतरिक्ष में
बादलों, बर्फ़ के मैदानों, तथा अन्य रिफ़लेक्टिव
चीज़ो की वजह से रिफ़लेक्ट हो जाता है |परन्तु जो सत्तर प्रतिशत ऊर्जा पृथ्वी पर रह जाती
वो हमेशा नही रहती (वर्ना अब तक पृथ्वी आग का गोला बन चुकी होती)। पृथ्वी के
महासागर और धरती अकसर उस गर्मी को बाहर फ़ेंकते रहते है जिसमें से कुछ गर्मी
अंतरिक्ष में चली जाती है बाकी यहीं वातावरण में दूसरी चीज़ों द्वारा सोखने के बाद
समाप्त हो जाती है जैसे कार्बन डाई-आक्साइड, मेथेन गैस, और पानी की भाप। इन सब चीज़ों के ऊर्जा को सोखने के बाद बाकी
ऊर्ज़ा गर्मी के रूप में हमारी पृथ्वी पर मौजुद रहती है। ये गर्मी जो पृथ्वी के वातावरण
में मौजूद रहती है वो पृथ्वी को गर्म रखती है बाहर के वातावरण के मुकाबले, क्योंकि जितनी
ऊर्जा वातावरण में प्रवेश कर रही है उतनी बाहर नही जा रही है और ये सब क्रियायें
ग्रीनहाउस प्रभाव का भाग है जिसके परिणाम में पृथ्वी गर्म रह्ती है।
ग्रीनहाउस आवश्यक क्यों
है
पृथ्वी का स्वरुप बगैर
ग्रीनहाउस प्रभाव के कैसा होगा? पृथ्वी बिल्कुल "मंगल ग्रह" की तरहदिखेगी। मंगल ग्रह का
अपना मोटा पर्याप्त वातावरण नही है जो गर्मी को वापस ग्रह पर रिफ़लेक्ट कर सकें, इस वजह से वहां बहुत
ठंड है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है की हम मंगल ग्रह के वातावरण में बदलाव आ सकता
है अगर फ़ैक्ट्रियों को वहा भेज दिया जायें जिससे वहां पर कार्बनडाई-आक्साइड और
पानी की भाप हवा में मिल जायेगी और जैसे जैसे इन दोनो चीज़ों की मात्रा बढेगी तो
वहां का वातावरण मज़बुत और मोटा होने लगेगा जिससे वहां पर गर्मी पैदा होगी और तो
पोंधों के फ़लने लायक वातावरण तैयार हो सकता है। अगर एक बार पौधे मंगल ग्रह
की धरती पर फ़ैल गये तो वहां आक्सीज़न का निर्माण होने लगेगा तो कोई सौ या
हज़ार साल बाद ऐसा वातावरण तैयार हो जायेगा की मनुष्य वहां पर चहलकदमी कर सकें
बहरहाल यह सब परिकल्पनाएं पर हमारी धरती इसी ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण फल फूल रही
है |
ग्लोबल वार्मिंग के
कारण
ग्रीनहाउस प्रभाव
वातावरण की कुदरती प्रक्रिया है लेकिन बदकिस्मती से जब से औघोगिक क्रांति हुई है
इन्सान नें बहुत बडी मात्रा में कुछ ऐसी गैसें बड़े पैमाने पर हवा में छोडने
शुरु कर दिया है तब से ये प्रक्रिया गडबडा गयी है।
कार्बन डाई-आकसाइड (CO2) ये एक रंगहीन गैस है
जो कार्बनिक पदार्थ के दोहन से पैदा होती है ये हमारी पृथ्वी के वातावरण का ०.०४
प्रतिशत ही है। ये इस ग्रह के जीवन बहुत पहले से ज्वालामुखी गतिविधि से पैदा होती
थी लेकिन आज मानव गतिविधियों से बहुत बडी मात्रा में CO2 वातावरण में छोडी जा
रही है जिसके परिणामस्वरुप पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई-आक्साइड की मात्रा
बहुत तेज़ी से बढती जा रही । इसकी मात्रा में अत्यधिक व्रद्धि ही सबसे मुख्य कारण
है ग्लोबल वार्मिंग का क्योंकी कार्बन डाई-आकसाइड अवरक्त विकिरण को अवशोषित करता
है। पृथ्वी के वातावरण में आने वाली ऊर्जा इसी रुप में पृथ्वी के वातावरण से बाहर
जाती है, तो ज़्यादा CO2 का मतलब ज़्यादा
अवशोषण और पृथ्वी के तापमान में व्रद्धि।नाएट्रोजन ऑक्साइड (NO2) एक और महत्वपूर्ण
ग्रीनहाउस गैस है हालंकि ये गैस CO2 के मुकाबले मानव गतिविधियों से कम उत्सर्जित होती है। नाएट्रोजन
ऑक्साइड (NO2) CO2 से २७० गुना ज़्यादा
उर्जा सोखती है। इस कारण से, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने के प्रयास में इस गैस का
दुसरा स्थान है
मेथेन एक दहनशील गैस है, और यह एक प्राक्रतिक
गैस का मुख्य घटक है, मेथेन स्वाभिविक रुप से कार्बनिक पदार्थ के अपघटन के माध्यम से
होता है और अक्सर ये "SWAMP GAS" के रूप में सामने आता है। इन मानवीय किर्याओं से मेथेन का उत्पादन
होता है।
कोयले के निकालने से,
पशुऒं के बडें झुडों से
अर्थात पाचन गैसों से,
चावल के खेत में मौजुद
बैक्टिरिया से,(Paddies)
धरती में कचरे के अपघटन
से (Landfill)
मेथेन वातावरण में
कार्बन डाईआकंसाइड की तरह काम करती है, अवरर्क्त ऊर्जा को अवशोषित करती है और पृथ्वी को गर्म रखती है।IPCC के अनुसार २००५ में
वातावरण में मेथेन का स्तर १,७७४ हिस्से था प्रति अरब पर (PPM) हालंकि मेथेन की मात्रा कार्बन डाईआकंसाइड की तरह ज़्यादा नही है
वातावरण में लेकिन मेथेन CO2 के मुकाबले २० गुना ज़्यादा गर्मी को सौखती है।वैज्ञानिक कहते
हैं कि इसके पीछे तेज़ी से हुआ औद्योगीकरण है, जंगलों का तेज़ी से कम होना है, पेट्रोलियम पदार्थों के धुँए से होने वाला प्रदूषण है और फ़्रिज, एयरकंडीशनर आदि का बढ़ता प्रयोग भी है|वैज्ञानिक
कहते हैं कि इस समय दुनिया का औसत तापमान 15 डिग्री
सेंटीग्रेड है और वर्ष2100 तक इसमें डेढ़ से छह डिग्री
तक की वृद्धि हो सकती है|एक चेतावनी यह भी है कि यदि ग्रीन
हाउस गैसों का उत्सर्जन तत्काल बहुत कम कर दिया जाए तो भी तापमान में बढ़ोत्तरी
तत्काल रुकने की संभावना नहीं है|वैज्ञानिकों का कहना है कि
पर्यावरण और पानी की बड़ी इकाइयों को इस परिवर्तन के हिसाब से बदलने में भी
सैकड़ों साल लग जाएँगे|
ग्लोबल वार्मिंग को
रोकने के उपाय
वैज्ञानिकों और
पर्यावरणवादियों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग में कमी के लिए मुख्य रुप से
सीएफसी गैसों का ऊत्सर्जन कम रोकना होगा और इसके लिए फ्रिज़, एयर
कंडीशनर और दूसरे कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग
करना होगा जिनसे सीएफसी गैसें कम निकलती हैं|औद्योगिक
इकाइयों की चिमनियों से निकले वाला धुँआ हानिकारक हैं और इनसे निकलने वाला कार्बन
डाई ऑक्साइड गर्मी बढ़ाता है| इन इकाइयों में प्रदूषण
रोकने के उपाय करने होंगे|वाहनों में से निकलने वाले धुँए का
प्रभाव कम करने के लिए पर्यावरण मानकों का सख़्ती से पालन करना होगा|उद्योगों और ख़ासकर रासायनिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे को फिर से उपयोग
में लाने लायक बनाने की कोशिश करनी होगी|और प्राथमिकता के
आधार पर पेड़ों की कटाई रोकनी होगी और जंगलों के संरक्षण पर बल देना होगा|अक्षय ऊर्जा के उपायों पर ध्यान देना होगा यानी अगर कोयले से बनने वाली
बिजली के बदले पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा और पनबिजली पर
ध्यान दिया जाए तो आबोहवा को गर्म करने वाली गैसों पर नियंत्रण पाया जा सकता है|याद रहे कि जो कुछ हो रहा है या हो चुका है वैज्ञानिकों के अनुसार उसके लिए
मानवीय गतिविधियाँ ही दोषी हैं|
प्रभात खबर में 02/12/15 को प्रकाशित लेख
1 comment:
The biggest challenge that mankind is facing in this century is "global warming" and there is a "global warning" given by scientist to save the earth.It has become a big cry from every corner of the world "How to save the earth from global warming-
Follow this three important three green rules:
1. Reduce 2. Reuse and 3. Recycle
" ONE EARTH WE HAVE
ONE LIFE WE LIVE
LET NOT DESTROY OTHER LIVES
BUT TO SAVE IT
SAVE MOTHER EARTH FROM POLLUTANTS".
STOP GLOBAL WARMING. SAVE THE NATURE.SAVE THE LIFE.
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