मौत एक सच है पर जब आप रिश्तों की डोर से किसी अपने को खोते हैं तो लगता है ऐसे जीवन का फायदा क्या ? खासकर वो लोग कभी जिनके होने से घर, परिवार बन जाया करता था ।बचपन में मेरे लिए परिवार का मतलब मेरे माता –पिता भाई और तीन चाचा सबसे बराबर का हिलना, मिलना, घूमना फिरना,किस्से कहानियां और न जाने क्या –क्या जो काम माता –पिता न कर रहे हों, वो चाचा जरुर कर देंगे .मुझे याद है घर में फ्रिज और टीवी के लिए पैसे भले ही पिता जी ने दिए हों, पर वो चाचा ही थे जिन्होंने हम लोगों की महीनों पुरानी मांग पर ध्यान दिया और पिता जी को राजी किया .हॉस्टल से जब पहली बार घर लौट रहे थे तो चाचा ही थे, जो लेने आये थे और हम भी दौड़ कर उनसे लिपट गए थे कि चाचा आ गए अब घर जायेंगे .
लगता ही नहीं था कभी इन रिश्तों के मायने भी बदलेंगे .फिर हम बड़े हुए हमारे अपने परिवार बने और वो लोग जो कभी हमारे परिवार का हिस्सा हुआ करते थे वो पीछे छूटते चले गए क्योंकि उनका अपना परिवार बन रहा था बढ़ रहा था ।हम भी बचपन को छोड़ जीवन में नए रिश्ते बना रहे थे .सब कुछ व्यवस्थित किसी से न कोई गिला था न शिकवा पर अचानक ऐसे लोग जब चले जाएं तो समझ नहीं आता कि ये सूनापन ये उदासी क्यों .हम लोग तो कबके अपने अपने परिवारों में रम चुके थे . ऐसे किसी रिश्ते के इस दुनिया के जाने वक्त जब आप श्मशान घाट पर खड़े -खड़े न जाने कितने बीते युगों को अपनी आंखों के सामने जी रहे होते हैं ,कि जब जिंदगी हसीन थी और वो रिश्ते जो अब इतिहास हो चलें हैं, कभी हमारे अपने थे | तो लोगों को अपनी उदासी का क्या सबब बताएं .वो लोग जो चले गए कभी हम भी उनके अपने अपनों में थे पर आज आप बेगाने से अपने दर्द के साथ अकेले भीड़ का हिस्सा बने खड़े हैं .
वैसे भी आज की इस भागती दौडती जिन्दगी में जब लोग अपने माता –पिता के लिए फुर्सत नहीं वहां चाचा -बुआ के जाने का मातम मनाने की फुर्सत किसे है ? आप हैं भी और नहीं भी जिन लोगों के रिश्तों से आप जुड़े थे वो तो जा चुके हैं, फिर कभी न आने के लिए और उन लोगों ने जो नए रिश्ते बनाये जिनसे वो जुड़े थे वो ये कभी जानेंगे ही नहीं कि आपको कितना दर्द है ? क्योंकि आप अब करीबी रिश्तों से दूर हो चले हैं या यूँ कहें सम्बन्धों की सामाजिक प्राथमिकता में अब आप दूर के पायदान पर हैं . जब आप उन रिश्तों के साथ थे तब कोई और नहीं था .खैर इसे जिंदगी का विस्तार कहें या रिश्तों का सिमट जाना । शायद यही है चालीस पार का जीवन जहां जिंदगी तो विस्तार पा रही है पर वो रिश्ते जो हमारे बचपन की सुहानी यादों का हिस्सा थे वे खुद ही कहानी बनते जा रहे हैं । मैं सिमट रहा हूँ या विस्तार पा रहा हूँ . सोच जारी है .
प्रभात खबर में 13/02/18 को प्रकाशित
3 comments:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन मधुबाला और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
इस मशीनी युग में रिश्तों का भी मशीनीकरण हो गया है. उपयोगितावादी संस्कृति रिश्तों पर भी हावी हो गयी है. अब चाहे वो रिश्ता अपनी माँ से हो, पिता से हो, चाचा, बुआ, मामा,मौसी, भाई, बहन किसी से भी हो. अब रिश्तों में दिल नहीं, एक व्यापारी वाले दिमाग की प्रमुख भूमिका होती है.
बहुत ही लाजवाब
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