विश्व पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल को दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण के लिए समर्थन देने के लिए मनाया जाता है। इसकी शुरुआत अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन ने 1970 में एक पर्यावरण शिक्षा के रूप की थी। अब इसे 192 से अधिक देशों में प्रति वर्ष मनाया जाता है और भारत इसमें अपवाद नहीं है |वर्ल्ड हेल्थ ओर्गानाईजेशन ने प्रदूषण पर अपनी ताज़ा ग्लोबल रिपोर्ट में चेताया है कि दुनिया के बीस सबसे प्रदूषित शहरों में से चौदह भारत में हैं. भारत दुनिया का सबसे प्रदूषित देश है जहां हर साल बीस लाख से ज़्यादा लोग प्रदूषित हवा की वजह से मरते हैं. ये संख्या दुनिया में सबसे ज़्यादा है.इन सबके बावजूद इस धरती को बचाने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं .देश में चुनाव जारी हैं पर पर्यावरण और धरती का बचाव कहीं कोई मुद्दा नहीं है .
लेंसेट काउंट डाउन रिपोर्ट 2018 के अनुसार प्रदुषण और क्लाइमेट चेंज से होने वाले खतरे की आशंका पहले के अनुमानों से कहीं अधिक है। इस रिपोर्ट में दुनिया के 500 शहरों में किए गए सर्वे के बाद निष्कर्ष निकाला गया कि उनका सार्वजनिक स्वास्थ्य आधारभूत ढांचा जलवायु परिवर्तन के कारण बुरी तरह प्रभावित हो रहा है जो यह बताता है कि संबंधित रोगियों की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही है .उस तेजी से रोगों से निपटने के लिए दुनिया के हॉस्पिटल तैयार नहीं हैं। इसमें विकसित और विकासशील दोनों देश शामिल हैं. बीती गर्मियों में चली गर्म हवाओं ने सिर्फ इंग्लैंड में ही सैकड़ों लोगों को अकाल मौत का शिकार बना डाला। दरअसल इंग्लैंड के अस्पताल क्लाइमेट में अचानक हुए इस परिवर्तन के कारण बीमार पड़े लोगों से निपटने के लिए तैयार नहीं थे.वर्ष 2017 में अत्यधिक गर्मी के कारण 153 बिलियन घंटों का नुकसान दुनिया के खेती में लगे लोगों को उठाना पड़ा. कुल नुकसान का आधा हिस्सा भारत ने उठाया जो यहां की कुल कार्यशील आबादी का सात प्रतिशत है जबकि चीन को 1.4 प्रतिशत का ही नुकसान हुआ। रिपोर्ट बताती है कि प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिग दो अलग मसले नहीं हैं, बल्कि आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं.
पर्यावरण के मामले में भारत दुनिया के बेहद असुरक्षित देशों में है। अधिकांश उद्योग पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी से चल रहे हैं . देश की आबोहवा लगातार खराब होती जा रही है। शोध अध्ययन से यह पता चला है कि कम गति पर चलने वाले यातायात में विशेष रूप से भीड़ के दौरान जला हुआ पेट्रोल /डीजल चार से आठ गुना अधिक वायु प्रदूषण उत्पन्न करता है, क्योंकि डीजल और पेट्रोल से निकले धुएं में 40 से अधिक प्रकार के प्रदूषक होते हैं.यह तो रही शहर की बात जहां यातायात प्रदूषण एक ग्लोबल समस्या के रूप में लाइलाज बीमारी बनी हुई है.विकासशील देशों में आने के नाते हमारी हालत अन्य विकास शील देशों जैसी ही है जो जल्दी विकसित होने की चाह में प्लास्टिक और पौलीथीन का अंधाधुंध इस्तेमाल कर रहे हैं और फिर उनसे निकले कूड़े का कोई उचित प्रबन्धन नहीं है .आधुनिक विकास की अवधारणा के साथ ही कूड़े की समस्या मानव सभ्यता के समक्ष आयी .जब तक यह टेंडेंसी नेचर फ्रैंडली थी परेशानी की कोई बात नहीं रही क्योंकि ऐसे कूड़े को प्रकृति आसानी से पचा लेती थी पर इंसान जैसे जैसे नेचर को चुनौती देता गया और विज्ञान आगे बढ़ता गया. कई ऐसे कूड़े मानव सभ्यता के सामने आये जिनको प्रकृति अपने में समाहित नहीं कर सकती और कूड़ा प्रबंधन एक गंभीर समस्या में तब्दील होता गया क्योंकि मानव ऐसा कूड़ा छोड़ रहा था जो प्राकृतिक तरीके से समाप्त नहीं होता या जिसके नष्ट होने में समय लगता है और उसी बीच कई गुना और कूड़ा इकट्ठा हो जाता है, जो इस प्रोसेस को और लम्बा कर देता है जिससे कई तरह के प्रदुषण का जन्म होता है . पिछले एक दशक में भारतीय रहन सहन में पर्याप्त बदलाव आये हैं और लोग प्लास्टिक की बोतल और प्लास्टिक में लिपटे हुए उत्पाद सुविधाजनक होने के कारण ज्यादा प्रयोग करने लग गए हैं . नतीजा शहरों में गर्मी का लगातर बढ़ना इण्डिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार भारत के शहर लगातार गर्म होते जा रहे हैं कोलकाता में पिछले बीस सालों में फारेस्ट डेंसटी 23.4प्रतिशत से गिरकर 7.3 प्रतिशत हो गया है. वहीं निर्माण क्षेत्र में 190 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. साल2030 तक कोलकाता के कुल क्षेत्रफल का मात्र 3.37 प्रतिशत हिस्सा ही वनस्पतियों के क्षेत्र के रूप में ही बचेगा .अहमदाबाद में पिछले बीस सालों में फारेस्ट डेंसटी 46 प्रतिशत से गिरकर 24 प्रतिशत पर आ गया है जबकि निर्माण क्षेत्र में 132 प्रतिशत की वृद्धि हुई है साल 2030 तक वनस्पतियों के लिए शहर में मात्र तीन प्रतिशत जगह बचेगी .भोपाल में पिछले बाईस वर्षों में फारेस्ट डेंसटी छाछट प्रतिशत से गिराकर बाईस प्रतिशत हो गया है.वनों में कमी का मतलब वर्षा में कमी जो अंत में जल की कमी के रूप में समाने आता है | जल संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 2001 में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता के आंकड़ों के सन्दर्भ में 2025 तक इसमें छतीस प्रतिशत की कमी आयेगी. वहीं2050 तक जब भारत की जनसँख्या 1.7 बिलियन होगी साठ प्रतिशत प्रति व्यक्ति कम जल की उपलब्धता होगी .चेतावानी की घंटी बज चुकी है अब यह हमें तय करना है हम प्रकृति के साथ सबका विकास चाहते हैं या ऐसा विकास जो सिर्फ आर्थिक रूप से समर्द्ध लोगों के लिए हो .भारत जैसे दुनिया के तमाम अल्पविकसित देश विकास के इस खेल में अपनी जमीनों को कंक्रीट और डामर के घोल पिलाते जा रहे हैं जिसका नतीजा तापमान में बढ़ोत्तरी गर्मियां ज्यादा गर्म और ठण्ड और ज्यादा ठंडी .पेड़ ,घास झाड़ियाँ और मिट्टी सूर्य ताप को अपने में समा लेती हैं जिससे जमीन ठंडी रहती है पर इस कंक्रीट केन्द्रित विकास में यह सारी चीजें हमारे शहरों से लगातार कम होती जा रही हैं . लेकिन इस धुंधली तस्वीर का दूसरा पहलू यह बता रहा है कि भारत सरकार गैर-परंपरागत ऊर्जा नीतियों को लेकर काफी गंभीर है. देश में सोलर एनर्जी की संभावनाएं भी काफी अच्छी हैं. हैंडबुक ऑन सोलर रेडिएशन ओवर इंडिया के अनुसार, भारत के अधिकांश भाग में एक वर्ष में 250 से 300 धूप निकलने वाले दिनों सहित प्रतिदिन प्रति वर्गमीटर चार से सात किलोवॉट घंटे का सौर विकिरण प्राप्त होता है. राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में यह स्थिति अन्य राज्यों की अपेक्षा ज्यादा है.
जागरण /आईनेक्स्ट में 22/04/2019 को प्रकाशित