Tuesday, November 26, 2019

डिजीटल वर्ल्ड का रुख करती आज की पीढी

इसमें कोई शक नहीं कि मानव सभ्यता के इतिहास को बदलने में सबसे बड़ा योगदान आग और पहिये के आविष्कार ने दिया। लेकिन यह भी सच है कि इंटरनेट की अवधारणा ने इस सभ्यता का नक्शा हमेशा के लिए बदल दिया। यह समय का एक चक्र पूरा हो जाने जैसा है। इंसान ने संचार के लिए सबसे पहले चित्रों का सहारा लिया था, जिनके साक्ष्य आदिकालीन गुफाओं में देखे जा सकते हैं। फिर भाषा और लिपि का विकास हुआ और सभ्यता लगातार आगे बढ़ती रही। संवाद के लिए भाषा पर ज्यादा निर्भरता रही। पर इंटरनेट के आगमन और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के बढ़ते चलन ने संचार के उस युग को दुबारा जीवित कर दिया जो सभ्यता की शुरु आत में हमारा साथी था। संवाद के लिए तस्वीरें और स्माइली का प्रयोग अब ज्यादा बढ़ रहा है। स्माइली ऐसे चिह्न हैं जिनसे भाव प्रेषित किए जाते हैं। मोबाइल इंटरनेट इस्तेमाल करने वाली कुल आबादी का पचहत्तर प्रतिशत हिस्सा बीस से उन्तीस वर्ष के युवा वर्ग से आता है। इसमें खास बात यह है कि यह युवा वर्ग सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सबसे ज्यादा सक्रिय है। जल्दी ही वह वक्त इतिहास हो जाने वाला है जब आपको कोई एसएमएस मिलेगा कि क्या हो रहा है और आप लिखकर जवाब देंगे। अब समय दृश्य संचार का है। आप तुरंत एक तस्वीर खींचेंगे या वीडियो बनाएंगे और पूछने वाले को भेज देंगे या एक स्माइली भेज देंगे। यानी आपको कुछ कहने या लिखने की जरूरत नहीं, कहने का काम अब तस्वीरें करेंगी। फोटो या छायाचित्र बहुत पहले से संचार का माध्यम रहे हैं, पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स और इंटरनेट के साथ ने इन्हें इंस्टेंट कम्युनिकेशन मोड (त्वरित संचार माध्यम) में बदल दिया है। अब महज शब्द नहीं, भाव और परिवेश भी बोल रहे हैं। वह भी तस्वीरों और स्माइली के सहारे। इस संचार को समझने के लिए न तो किसी भाषा विशेष को जानने की अनिवार्यता है और न ही वर्तनी और व्याकरण की बंदिशें। तस्वीरें पूरी दुनिया की एक सार्वभौमिक भाषा बनकर उभर रही हैं। 
दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाला व्यक्ति तस्वीरों और वीडियो के माध्यम से अपनी बात दूसरों तक पहुंचा पा रहा है। एसी नील्सन के नियंतण्र मीडिया खपत सूचकांक  से पता चलता है कि एशिया (जापान को छोड़कर) और ब्रिक देशों में इंटरनेट मोबाइल फोन पर टीवी व वीडियो देखने की आदत पश्चिमी देशों व यूरोप के मुकाबले तेजी से बढ़ रही है। मोबाइल पर लिखित एसएमएस संदेशों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। वायरलेस उद्योग की अंतरराष्ट्रीय संस्था सीटीआईए की रिपोर्ट के अनुसार साल 2012 में 2.19 ट्रिलियन एसएमएस संदेशों का आदान-प्रदान पूरी दुनिया में हुआ, जो 2011 की तुलना में भेजे गए संदेशों की संख्या से पांच प्रतिशत कम रहा। वहीं मल्टीमीडिया मेसेज (एमएमएस) जिसमें फोटो और वीडियो शामिल हैं, की संख्या साल 2012 में 41 प्रतिशत बढ़कर 74.5 बिलियन हो गई। एक साधारण तस्वीर से संचार, शब्दों और चिह्नों के मुकाबले कहीं आसान है। उन्नत होती तकनीक और बढ़ते स्मार्टफोन के प्रचलन ने फोटोग्राफी को अतीत की स्मृतियों को सहेजने की कला से आगे बढ़ाकर एक त्वरित संचार माध्यम में तब्दील कर दिया है। फोन पर इंटरनेट और नएनए एप्स लगातार संचार के तरीकों को बदल रहे हैं। स्नैप चैट एक ऐसा ही मोबाइल एप्लीकेशन है जो प्रयोगकर्ता को वीडियो और फोटो भेजने की सुविधा प्रदान करता है। इसमें फोटो-वीडियो देखे जाने के बाद अपने आप हमेशा के लिए नष्ट हो जाता है। स्नैप चैट के प्रयोगकर्ता प्रतिदिन 200 मिलियन चित्रों का आदान-प्रदान कर रहे हैं। फेसबुक पर लोग प्रतिदिन 300 मिलियन चित्रों का आदान-प्रदान कर रहे हैं और साल भर में यह आंकड़ा 100 बिलियन का है। चित्रों का आदान-प्रदान करने वाले लोगों में एक बड़ी संख्या स्मार्टफोन प्रयोगकर्ताओं की है जो स्मार्टफोन द्वारा सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करते हैं और यह चीज संचार के क्षेत्र में बड़ा बदलाव ला रही है। तथ्य यह भी है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स के बढ़ते इस्तेमाल में संचार के पारंपरिक तरीके, जिसका आधार भाषा हुआ करती थी, वह कुछ निश्चित चिह्नों/प्रतीकों में बदल रही है। इसे हम इमोजीस या फिर इमोटिकॉन के रूप में जानते हैं जो चेहरे की अभिव्यक्ति जाहिर करते हैं। 1982 में अमेरिकी कंप्यूटर विज्ञानी स्कॉट फॉलमैन ने इसका आविष्कार किया था। स्कॉट फॉलमैन ने जब इसका आविष्कार किया था, तब उन्होंने नहीं सोचा था कि एक दिन ये चित्र प्रतीक मानव संचार में इतनी बड़ी भूमिका निभाएंगे। व्हाट्सएप के अलावा सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक में भी इनका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल संचार के लिए हो रहा है। सिर्फ एप्पल के आईफोन में ही दो करोड़ बार इमोजी डाउनलोड किए गए हैं। बहुत से स्मार्टफोनों में सात सौ बीस से ज्यादा स्माइली आइकन मौजूद हैं। स्मार्टफोन या फिर चैट एप में पारंपरिक स्माइली वाले चेहरे से लेकर दैत्य रूपी या फिर चुलबुले चेहरे वाले आइकन मौजूद हैं। मोबाइल अब एक आवश्यक आवश्यकता बन कर हमेशा हमारे साथ रहता है। देश में जहां 116.1 करोड़ मोबाइल यूजर्स मौजूद हैं. वहीं लैंडलाइन उपभोक्ताओं की संख्या 2.17 करोड़ है. देश में टेलीफोन घनत्व की बात करें तो प्रति 100 की आबादी पर 90.11 टेलीफोन यूजर्स हैं. इनमें 88.46 मोबाइल और 1.65 लैंड लाइन यूजर्स हैं. सबसे ज्यादा टेलीफोन वाला राज्य दिल्ली है. जहां घनत्व 174.8 है. हालांकि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि तकनीकी उन्नति के रथ पर सवार तस्वीरें आने वाले वक्त में मानव संचार की दुनिया बदल देंगी, पर तस्वीर पूरी रंगीन हो ऐसा भी नहीं है। छायाचित्र संचार के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तकनीक है। भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में डिजीटल डिवाइड बढ़ रहा है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले दस वर्ष में ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 0.4 प्रतिशत परिवारों को ही घर में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध थी। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक भारत की ग्रामीण जनसंख्या का दो प्रतिशत ही इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा है। यह आंकड़ा इस हिसाब से बहुत कम है क्योंकि इस वक्त ग्रामीण इलाकों के कुल इंटरनेट उपयोगकर्ताओं में से अट्ठारह प्रतिशत को इसके इस्तेमाल के लिए दस किलोमीटर से ज्यादा का सफर करना पड़ता है। तकनीक के इस डिजीटल युग में हम अब भी रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत समस्याओं के उन्मूलन में बेहतर प्रदशर्न नहीं कर पा रहे हैं। लिहाजा, तस्वीर उतनी चमकीली भी नहीं है। इसके अतिरिक्त तस्वीरों और स्माइली पर बढ़ती निर्भरता संचार के लिए दुनिया भर की भाषाओं के लिए खतरा भी हो सकती है। इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है।
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में  26/11/2019 को प्रकाशित लेख 

Monday, November 25, 2019

सोशल मीडिया वाले "साहित्यकारों" की पीढी बढ़ रही

नवभारत टाईम्स लखनऊ में 25/11/2019 को प्रकाशित 

पर्यटन में नवाचार से अछूता रहा लद्दाख

पिछले दिनों लेह लद्दाख के प्रवास पर था मौका पहले लद्दाख लिटरेचर फेस्टिवल का हिस्सा बनना |यह लिटरेचर फेस्टिवल लद्दाख के सम्भागीय आयुक्त सौगत बिस्वास के दिमाग की उपज थी जिससे देश के अन्य भागों के निवासी लद्दाख को जम्मू कश्मीर के चश्मे से देखने की बजाय लद्दाख के स्वतंत्र नजरिये से देखे |इस लिटरेचर फेस्टिवल के बहाने ही मैं एक ऐसे ऐतिहासिक पल का गवाह बना |जिससे लद्दाख की तकदीर और तस्वीर हमेशा के लिए बदल जाने वाली है,जब मैं लद्दाख पहुंचा तो वह जम्मू कश्मीर राज्य का एक हिस्सा भर था पर जब मेरे लौटने से पहले लद्दाख देश का एक केंद्र शासित राज्य बन गया |सच कहा जाए तो इस लिटरेचर फेस्टिवल के बहाने ही मैं लद्दाख की सम्रर्ध साहितिय्क सांस्क्रतिक परम्परा की विरासत को समझ पाया |बात चाहे  पर्यटन की हो या जम्मू कश्मीर की समस्याओं या साहित्य की  मेरे जैसे बहुत से लोगों के लिए जम्मू कश्मीर का मतलब सिर्फ कश्मीर घाटी और श्रीनगर के आस पास के इलाके ही रहे हैं| लेह लद्दाख लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र 173266.37 वर्ग किमी के कुल क्षेत्रफल के साथ भारत में सबसे बड़ा लोकसभा क्षेत्र है|लेह की चौड़ी सड़कों और संकरी गलियों में एक हफ्ते घूमने के बाद मुझे कोई भी स्थानीय निवासी ऐसा नहीं मिला जो सरकार के इस फैसले से नाराज हो|कश्मीर घाटी में रहने वाले लोगों के मुकाबले लेह लद्दाख के लोगों का जीवन ज्यादा मुश्किल भरा है पर वो लोग अपनी मांगों को मनवाने के लिए न तो हिंसक हुए और न ही उग्रवाद का सहारा लिया |लद्दाख वासियों के लिए केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) की मांग एक पुराने नारे की शक़्ल में रही है| कश्मीरी संस्कृति से लद्दाख के लोगों का कोई सीधा रिश्ता नहीं रहा,जम्मू कश्मीर राज्य की साठ फीसदी जमीन लद्दाख में है पर प्रशासन कश्मीर केन्द्रित ही रहा |
दसवीं से उन्नीसवीं सदी तक लद्दाख एक स्वतंत्र राज्य था|जहाँ  लगभग बत्तीस  राजाओं का इतिहास रहा है. लेकिन 1834 में डोगरा सेनापति ज़ोरावर सिंह ने लद्दाख पर कब्जा कर लिया  और यह जम्मू-कश्मीर के अधीन चला गया.लेकिन लद्दाख  अपनी स्वतंत्र पहचान को लेकर हमेशा मुखर रहा | केंद्र शासित प्रदेश की मांग दशकों पुरानी है| साल 1989 में इस मांग को कुछ सफलता मिलीजब यहां बौद्धों के धार्मिक संगठन लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन (एलबीए) के नेत्र्तव  में एक बड़ा आंदोलन हुआ|1993 में केंद्र और प्रदेश सरकार लद्दाख को स्वायत्त हिल काउंसिल का दर्ज़ा देने को तैयार हो गईं|इस काउंसिल के पास ग्राम पंचायतों के साथ मिलकर आर्थिक विकाससेहतशिक्षाज़मीन के उपयोगकर  और स्थानीय शासन से जुड़े फ़ैसले लेने का अधिकार है जबकि कानून व्यवस्था ,न्याय व्यवस्थासंचार और उच्च शिक्षा से जुड़े फ़ैसले जम्मू-कश्मीर सरकार के लिए ही सुरक्षित रखे गए|किसी भी राज्य के मानवसंसाधन की गुणवत्ता का आंकलन वहां स्थित शैक्षिक संस्थानों की उपलब्धता से लगाया जा सकता है |आजादी के सत्तर सालों में लेह लद्दाख में एक भी विश्वविद्यालय नहीं बना था | इसी साल फरवरी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में पहले विश्वविद्यालय यूनिवर्सिटी ऑफ लद्दाख’ की आधारशिला रखी। जिससे लेहकरगिलनुब्राजंस्करद्रास और खलतसी के डिग्री कॉलेज संबद्ध हैं।जम्मू क्षेत्र में एक आईआईटी और एक आईआईएमसी के अलावा कुल चार विश्वविद्यालय हैंवहीं कश्मीर घाटी में तीन विश्वविद्यालय और एक राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) है।
लद्दाख में दो जिले हैं लेह और कारगिल और यह इलाका सामरिक द्रष्टि से भी बहुत सम्वेदनशील है क्योंकि इसी इलाके में एक तरफ चीन है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान इसके बावजूद पिछले कुछ सालों में यहाँ पर्यटकों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है |लेकिन यहाँ साल के छ महीने जीवन आसान नहीं है ये छह महीनों के लिए लद्दाख दुनिया से कट जाता है और कुछ जगहों पर लोग माइनस 32 डिग्री सेल्सियस तापमान में भी रहते हैं|लोगों के रोजगार का एकमात्र साधन पर्यटन ही है पर अपनी भौगौलिक विषमताओं के कारण पर्यटकों का बड़ा हिस्सा जम्मू कश्मीर तक ही सीमित रह जाता है | तथ्य यह भी है  कि लद्दाख के ठंडे पर्यावरण में भारत के किसी भी जगह से ज्यादा धूप मिलती है. लद्दाख में आसमान साफ रहता हैजिससे वहां सौर ऊर्जा के लिए अनुकूल वातावरण है. वहां मानसून के दौरान बहुत कम बारिश होती है. जाड़े में बर्फ पड़ती हैलेकिन अधिकांश समय वहां बादल नहीं होते हैं. इसलिए वहां देश के किसी दूसरे इलाके के मुकाबले सूरज की ऊर्जा को बिजली में बदलने की क्षमता ज्यादा है. विशेषज्ञों का मानना है कि पश्चिमी राजस्थान के मुकाबले लद्दाख में सोलर सेल करीब दस प्रतिशत  ज्यादा बिजली पैदा कर सकता है. जबकि लद्दाख में इस समय नेशनल हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर कारपोरेशन (एनएचपीसी) की दो पनबिजली (पानी से बिजली ) परियोजनाएं चल रही हैं। इनमें चुटक परियोजना 44 मेगावाट क्षमता की है जबकि निमो बाजगो परियोजना में 45 मेगावाट क्षमता की इंस्टाल्ड कैपेसिटी है। वहीं जम्मू-कश्मीर स्टेट पावर डेवलपमेंट कारपोरेशन (जेकेएसपीडीसी) की नौ पनबिजली परियोजनाएं चल रही हैं। इनसे 14.56 मेगावाट की बिजली बनाने की क्षमता है। एनएचपीसी और जेकेएसपीडीसी दोनों की परियोजनाओं से कुल 103.56 मेगावाट की बिजली बनाई जा सकती है। इसकी तुलना में पूरे लद्दाख क्षेत्र (लेह और कारगिल) में साल भर में बिजली की औसत मांग 50 मेगावाट से कम है।सौर और पन बिजली के क्षेत्र में जो सम्भावनाएं हैं उनका दोहन लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद ही होगा,जिससे रोजगार सृजित  होगा और वहां के निवासियों का जीवन स्तर बेहतर होगा |एकमात्र पर्यटन व्यवसाय होने के बावजूद पर्यटन में चल रहे नवाचार से लद्दाख का इलाका अछूता रहा है |होम स्टे की संख्या अभी बहुत कम है और होटल महंगे है |लद्दाख के वन्य जीवन के बारे में भी देश में लोगों को बहुत कम पता है |हेमिस राष्ट्रीय उद्यान लद्दाख क्षेत्र का सबसे ज्‍यादा ऊंचाई पर स्थित राष्ट्रीय उद्यान है। यह भारत में हिमालय के उत्तर में बना इकलौता राष्ट्रीय उद्यान है। हेमिस भारत में सबसे बड़ा अधिसूचित संरक्षित क्षेत्र और नंदा देवी बायोस्फ़ियर रिजर्व और आसपास के संरक्षित क्षेत्रों के बाद दूसरा सबसे बड़ा संरक्षित क्षेत्र है। हेमिस नेशनल पार्क में दो सौ  से ज्यादा स्नो लेपर्ड मौजूद हैं। इनके अलावा तिब्बतन भेड़िएलाल लोमड़ीयूरेशियन भूरे भालूहिमालयन चूहेमरमोथ और भी कई जीव-जंतु पाए जाते हैं। स्तनधारियों की 16 और पक्षियों की लगभग 73 प्रजातियों को यहां देखा जा सकता है।जिनमें से गोल्डेन ईगलहिमालयन ग्रिफॉन वल्चररॉबिन एसेंटरचूकरब्लैक विंग्ड स्नोफिंचहिमालयन स्नोकॉक आसानी से देखे जा सकते हैं।फिलहाल लद्दाख एक अजीब सी समस्या से जूझ रहा है वो है कुत्तों की बढ़ती संख्या और वे खाने की तलाश में कई लुप्त प्रायः छोटे जंगली जानवरों का शिकार कर लेते हैं |हालाँकि लेह प्रशासन कुत्तों की नसबंदी कर रहा है पर फिर भी यह एक बड़ी समस्या बने हुए हैं |
 लद्दाख में आईस हॉकी : लद्दाख क्षेत्र में आइस हॉकी की कई टीमें हैं, ज्यादातर आइस हॉकी खिलाड़ी लेह या लद्दाख क्षेत्र की हैंआइस हॉकी का मैदान (रिंक) फिलहाल खुले में है। लोगों को जोड़ने में यह खेल अहम भूमिका निभाता है, खासकर ठंड के दिनों में। बर्फबारी के चलते लेह आने वाली सड़कें बंद हो जाती हैं।
अनोखा स्नो लेपर्ड : ऊँची-ऊँची पहाड़ियों और बर्फ की सफेद चादर से ढका हुआ लद्दाख यहाँ की खूबसूरत वादियों में रहता है एक अद्भुत जानवर जिसे स्नो-लेपर्ड’ के नाम से जाना जाता है। इसे भूरे भूत’ का नाम भी दिया गया है इसका कारण यह है कि इसके पीले और गहरे रंग के फर होता है  जिस कारण ये लद्दाख के बर्फ में यूँ सम्मिलित हो जाता है कि पता ही नहीं चलता कि ये कब ऊपर के पहाड़ों से नीचे आता और चला जाता है।
लद्दाख के उत्सव :
हेमिस उत्सव: यह जून में मनाया जाता है। यह प्रत्येक वर्ष गुरु पद्यसंभवाजिनके प्रति लोगों का मानना है कि उन्होंने स्थानीय लोगों को बचाने के लिए दुष्टों से युद्ध किया थाकी याद में मनाया जाता है। इस उत्सव की सबसे खास बात मुखौटा नृत्य है जिसे देखने के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं।
 लोसर: यह प्रति वर्ष बौद्ध वर्ष के ग्यारहवें महीने में मनाया जाता है। यह 15वीं सदी से मनाया जाता है। इसको मनाने के पीछे यही सोच होती है कि युद्ध से पूर्व इसे इसलिए मनाया जाता था क्योंकि न जाने कोई युद्ध में जीवित बचेगा भी या नहीं।

लद्दाख उत्सव: यह प्रत्येक वर्ष अगस्त में मनाया जाता है और इसका आयोजन पर्यटन विभाग की ओर से किया जाता है। इसके दौरान विभिन्न बौद्ध मठों में होने वाले धार्मिक उत्सवों का आनंद पर्यटक उठाते हैं।
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 25/11/2019 को प्रकाशित 

Tuesday, November 19, 2019

इमोजीज में उतरती बोलचाल की दुनिया

सोशल मीडिया प्लैटफौर्म्स पर हर जगह ईमोजी की बौछार है. अब ये हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुके हैं. बच्चों से लेकर युवा तक इनके जरिए दूसरों तक अपनी भावनाएं जाहिर करने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं. ईमोजी कितनी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, इस की एक मिसाल इस से मिलती है कि एक उपन्यास ‘मोबी डिक’ का तो ईमोजी में ही अनुवाद किया है. असल में एकएक ईमोजी जोड़ कर पूरा वाक्य बनाया जाता है और जो लोग ईमोजी में अपनी बात कहनेसुनने के आदी हैं, वे बड़ी आसानी से ईमोजी जोड़ कर बनाए गए वाक्य का अर्थ समझ जाते हैं. सिर्फ उपन्यास ही नहीं, अब तो इस पर पूरी फिल्म बनाने की बात भी हो रही है. हौलीवुड की ऐंटरटेनमैंट कंपनी सोनी पिक्चर्स एनिमेशन ने यह घोषणा की है कि वह ईमोजी पर आधारित एक एनिमेशन फिल्म बनाने की योजना पर काम कर रही है.तकनीक और का संगम  मोर्स कोड की उत्पत्ति के साथ शुरू हुआ  जब १९०० के दशक में मोर्स कोड द्वारा “प्रेम एवं चुम्बन”, “साभार”, “ढेर सारी सफलता”  जैसी भावनाओं को व्यक्त करने की कोशिश की गयी| परन्तु इस कोशिश को सच्ची सफलता मिली १९८२ में ऑनलाइन इमोटिकॉन्स के पदार्पण के  साथ  शीघ्र ही इनका काफी प्रसार हो गया | इसके बाद जापानी मोबाइल कंपनियों द्वारा नामकरण किये गए इमोजी प्रचलन में आये |  सच यह है कि आज जिस तरह साइबर दुनिया में  ईमोजी के प्रयोग को बढ़ावा मिल रहा है वह एक मूक क्रांति है एक नयी भाषा के उदय होने की |
सम्प्रेषण के लिए भाषा की आवश्यकता है,वाचिक भाषा में भावों को संचारित करना आसान होता है क्योंकि शब्दों को देह भाषा का साथ मिलता है पर लिखित भाषा में भावों को संचारित करने की एक सीमा होती है|इस सीमा को ख़त्म करने के लिए विराम चिन्हों का प्रयोग शुरू हुआ जो भावों के उतार चढ़ाव को व्यक्त करते हैं |सोशल नेटवर्किंग साईट्स के उदय और नयी सूचना तकनीक ने अभिव्यक्ति को क्लास से निकाल कर मास तक पहुंचा दिया है| सही विराम चिन्हों के इस्तेमाल का अज्ञान  और लोगों के पास घटता समय वो कारक रहे जिन्होंने ईमोजी की लोकप्रियता को बढाया | इसकी खासियत भाषा और भावों का परस्पर संचार है चित्र आधारित इस भाषा को आप आसानी से आप किसी भी भाषा में समझ सकते हैं क्योंकि मानवीय भाव सार्वभौमिक रूप से एक होते हैं मसलन रोता हुआ चेहरा किसी भी भाषा में आपके दुखी होने की निशानी है | इमोजी पात्र आपको देखने में मामूली लग सकते हैं परन्तु वे बड़ी तेज़ी से ऑनलाइन संचार की आधारशिला बनते जा रहे हैं और एक नयी भाषा के निर्माण की आधारशिला रख रहे है| विगत वर्ष केवल ट्विटर पर ही १००० करोड़(दस बिलियन )इमोजी भेजे गए| यदि इन्स्टाग्राम की बात की जाए तो पिछले वर्ष इस पर की जाने वाली पोस्टों में से लगभग पांच सौ  करोड़  में इमोजी का प्रयोग किया गया था|इस समय लगभग 1601 इमोजी चिन्हों का प्रयोग किया जा रहा है और इनकी संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है|ईमोजी जापनी भाषा के दो शब्दों ‘ई’ और ‘मोजी’ से मिल कर बना है, ‘ई’ का मतलब है इमेज यानी चित्र और ‘मोजी’ का मतलब है भाषा या लिपि| इमोटिकौन्स इमोशन (भाव) और आइकन (संकेत) से मिल कर बने हैं| इमोजी की इस प्रसिद्धि का एक कारण यह भी है कि हम लोग आमतौर पर लिखे हुए शब्दों का सही भावार्थ नहीं निकाल पाते हैं| इलिनॉय विश्वविद्यालय द्वारा कराये गए एक शोध के अनुसार केवल ५० प्रतिशत से कुछ ही अधिक लोग लिखे हुए शब्दों का सही भावार्थ लगा पाते हैं| इस शोध के दौरान केवल ५६ प्रतिशत लोग ही किसी लेख में अन्तर्निहित व्यंग्य अथवा गंभीरता के भाव का सही आंकलन कर पाए| जब यही लेख उन्हें रिकॉर्ड कर के सुनाया गया तो यह प्रतिशत लगभग एक चौथाई बढ़ गया| वैसे भी भावनात्मक रूप से जटिल सन्देश केवल शब्दों के माध्यम से भेजना एक दुरूह कार्य है|भाषा-वैज्ञानिकों के अनुसार इमोजियों की संख्या में लगातार वृद्धि होना एवं इनका और जटिल होते जाना इस बात का घोतक है कि आने वाले समय में यह एक भाषा का रूप ले सकते हैं| उनका यह भी मानना है कि इमोजी भाषा मिश्र की चित्रलिपि से भी अधिक उन्नत एवं परिष्कृत होगी|

पर जैसे-जैसे डिजिटल संचार आमने-सामने के संचार की जगह लेता जा रहा है, वैसे ही इन पर किया जाना शोध भी बढ़ रहा है जो यह बता रहा है कि इस आकार लेती नयी भाषा में कई सारी विसंगतियां भी हैं|जिससे ओनलाईन चैट और सोशल मीडिया में इनके इस्तेमाल से अक्सर भ्रम की स्थिति बन जाती है | ईमोजी भले ही भाषा के स्तर पर चित्रात्मक पर इसमें चित्र लिपि जैसी विविधता अभी तक नहीं आ पायी है और भावों के उतार चढ़ाव नहीं प्रदर्शित होता है

अमेरिका की मिनेसोटा विश्वविद्यालय में किये गए एक शोध में यह खुलासा हुआ है कि लोग रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाले बिम्बों के जो अर्थ निकलते हैं उसमें तमाम विसंगतियां हैं| लोग अक्सर एक ही इमोजी को भिन्न-भिन्न तरीके से समझते हैं| कुछ लोग एक इमोजी को सकारात्मक मानते हैं तो दुसरे उसी इमोजी को या तो नकारात्मक अथवा तटस्थ समझते हैं|शोध के दौरान यह भी सामने आया कि भ्रम की यह स्थिति तब और भी बढ़ जाती है जब एक ही इमोजी के अलग-अलग संस्करण लोगों के सामने  रखे जाते हैं| उदहारण के लिए मुस्कराते हुए चेहरे और हंसती हुई आँखों वाले इमोजी के लगभग १७ भिन्न-भिन्न संस्करण हैं| यह सभी सोशल  मीडिया एवं स्मार्टफोन पर विभिन्न कंपनियों जैसे एप्पल, सैमसंग आदि द्वारा भिन्न-भिन्न रूप में दर्शाए जाते हैं| जब इसी इमोजी का एप्पल द्वारा बनाया गया संस्करण जिसमें कि पात्र दांतों के साथ मुस्कराता है उसे अधिकतर लोगों ने नकारात्मक माना जबकि इसका अर्थ उन्हें सकारात्मक लगना चाहिए था|

मुद्रण कला से जुड़े लोग काफी समय से इस प्रयास  में लगे हैं कि किस प्रकार भावनाओं को विरामचिन्हों के माध्यम से व्यक्त किया जाये| यदि वे अपनी इस कोशिश में सफल रहते हैं तो आने वाले समय में इमोजी केवल एक बिम्ब न रहकर एक पूर्ण भाषा का दर्जा हासिल कर लेंगे और यह एक ऐसी भाषा होगी जिसे संसार के सभी भागों के लोग समझ सकेंगे.

आई नेक्स्ट /दैनिक जागरण में 19/11/2019 को प्रकाशित 




Monday, November 18, 2019

क्या टेलीविजन को पछाड़ देगा इंटरनेट

एक ऐसा समय जहाँ गति ही सब कुछ है वहां एक मनोरंजक माध्यम के रूप में टेलीविजन बहुत तेजी से इंटरनेट से पिछड़ रहा है क्योंकि उसके पास कार्यक्रमों की न तो ऐसी विविधता है और न ही गति जैसी इंटरनेट के पास । वह गति के मामले में इंटरनेट से मुकाबला नहीं कर पा रहा है और कंटेंट के स्तर पर हमारी जानकारियों में कुछ नया जोड़ नहीं पा रहा है।भारत में सूचना शिक्षा और मनोरंजन के उद्देश्य से शुरू हुआ टेलीविजन (पढ़ें दूरदर्शन )को इंटरनेट से सूचना के क्षेत्र में कड़ी चुनौती मिली पर लम्बे समय तक वह मनोरंजन के क्षेत्र में अपनी बादशाहत बनाये रखने में सफल रहा पर अब मनोरंजन के क्षेत्र में उसकी बादशाहत खतरे में है | दूसरी ओरमोबाइल वीडियो उपभोक्ता की रुचियों के हिसाब से कंटेंट उपलब्ध कराता है। टेलीविजन ने शिक्षा के क्षेत्र में तो पांव ही नहीं पसारे। जो कुछ हुआ भीवह सरकारी टेलीविजन चैनलों में हुआहालांकि वे कार्यक्रम भी खासे नीरस और प्रभावहीन रहेजबकि यूट्यूब किसी भी मुद्दे पर वीडियो का विकल्प देता है। कंसलटेंसी संस्था के पी एम् जी और इरोस की एक संयुक्त रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में अस्सी प्रतिशत दर्शक जिन लोगों ने ओवर द टॉप (ओ टी टी)टफोर्म की सेवाएँ ले रखीं हैं |वे अपनी मनोरंजन जरूरतें ऑनलाइन कंटेंट से पूरी कर रहे हैं|जिनमें फिल्म देखने से लेकर मैच देखना तक शामिल है |जिसमें में से अडतीस प्रतिशत लोग पारम्परिक  टीवी देखना पूरी तरह से छोड़ने के बारे में सोच रहे हैं |यह सर्वे देश के सोलह राज्यों में किया गया | रिपोर्ट के मुताबिक़ वितीय वर्ष 2023 भारत में पांच सौ मिलियन ऑनलाईन वीडियो उपभोक्ता होंगे और यह चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार होगा |
पिछले पांच सालों में मोबाईल ने तेजी से हमारे दिमाग और घरों में जगह जमाई है और दर्शकों का व्यवहार भी तेजी से बदला है|वे अब टीवी के महज दर्शक न होकर उपभोक्ता बन गए हैं और वे किसी भी एक तरीके पर ज्यादा देर नहीं टिकना चाहते |यह गति टेलीविजन के पारम्परिक माध्यम के पास नहीं है | कम से कम शहरों में पूरा परिवार एक साथ बैठकर अब टीवी नहीं देखता। स्मार्टफोन  और कंप्यूटर ने हमारी इन आदतों को बदल दिया है। आज की  पीढ़ी की दुनिया अब मोबाइल और लैपटॉप में हैजो अपना ज्यादा वक्त इन्हीं साधनों पर बिताते हैं। जहां कोई कभी भी अपने समय के हिसाब से अपना मनपसन्द कार्यक्रम (वीडियो ) देख सकता है। इंटरनेट के वीडियो (धारावाहिक/फ़िल्में/वृत्तचित्र/गाने)  कंटेंट के स्तर पर युवाओं की आशा और अपेक्षाओं की पूर्ति करते हुए नवोन्मेष  को बढ़ावा दे रहे हैं।जहाँ न जबरदस्ती के विज्ञापनों का शोर है और न ही कार्यक्रमों के बीच में छूट जाने का डर |कोई भी कभी भी अपने समय के हिसाब से पूरी सीरिज एक दिन में देख सकता है |इसके लिए हफ्ते या दिन का इन्तजार करने की जरुरत नहीं |
पिछले चार सालों में करीब तीस वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफोर्म देश में लांच हुए हैं |जिसमें अमेरिकन ब्रांड अमेजन प्राईम और नेत्फ्लिक्स के अलावा आल्ट बालाजी,सोनी लिव,हॉटस्टार,ज़ी फाईव,वूट,जैसे नाम शामिल हैं|ई मार्केटर के आंकलन के मुताबिक़ साल 2020 में भारत डिजीटल वीडियो देखे जाने वाले समय में अमेरिका को पीछे छोड़ देगा |अभी एक व्यस्क भारतीय औसतन एक घंटा बारह मिनट वीडियो देखने में समय बिताता है जिसमें ज्यादातर (76.5 %)यह वीडियो अपने मोबाईल पर देखते हैं  | डिजीटल विज्ञापनों पर बढ़ता खर्च भी इसी तथ्य को इंगित कर रहा है साल 2015 में जहाँ इन पर 6010 करोड़ रुपये खर्च किये गये जिसके साल 2020 तक करीब चार गुना 25,520 करोड़ रुपये हो जाने की उम्मीद है | नेटफ्लिक्स ने सेट टॉप बॉक्स से टीवी देखने वाले दर्शकों के लिए हाथवे,टाटा स्काई वोडा फोन और एयरटेल  से करार किया है ,जिसमें सेट टॉप बॉक्स के साथ एक ऐसा रिमोट आएगा जिसके प्रयोग से दर्शक सीधे नेटफ्लिक्स के कंटेंट को स्ट्रीम से देख पायेगा |देश में प्रति व्यक्ति डाटा उपभोग साल 2014 में .26 जीबी थी वह साल 2018 में बढ़कर 7.69 जीबी हो गयी |इस बढ़ोत्तरी का एक बड़ा कारण ओनलाईन वीडियो देखे जाने के चलन में  बढ़ोत्तरी रही है |
इन तथ्यों के बावजूद यह मान लेना जल्दीबाजी होगी कि देश में पारम्परिक टीवी दर्शन जल्दी ही इतिहास हो जाने वाला है डकास्ट ऑडियंस रिसर्च कौंसिल  (BARC)  ने जुलाई 2018 में  जो आंकड़े जारी किये वह यह  बताते है कि 2016 से अबतक भारत में टेलीविज़न के दर्शकों की तादाद में बारह प्रतिशत की बढ़त हुई है भारत के  लगभग 66 प्रतिशत भारतीय घरों में टीवी सेट हैं शहरी भारत में टीवी सेट खरीदे जाने की वृद्धि दर चार प्रतिशत वहीं उल्लेखनीय रूप से गाँवों में यह दर दस प्रतिशत है |टीवी देखने में बिताये  जाने वाले  समय में शहरों में दस प्रतिशत की वृद्धि हुई है वहीं गाँव में यह दर तेरह प्रतिशत है |ट्राई (TRAI) की रिपोर्ट के अनुसार चीन के बाद भारत में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा टीवी बाजार है |टीवी एक व्यवस्थित माध्यम हैजबकि इंटरनेट वीडियो को अभी व्यवस्थित होना है। लाभ के लिए अब भी विज्ञापन एक बड़ा स्रोत हैयद्यपि अमेजन प्राइम वीडियो और नेटफ्लिक्स के सब्सक्रिप्शन प्लान की सफलता ने यह धारणा तोड़ी है कि लोग माध्यमों पर पैसा खर्च करना नहीं चाहतेपर अभी यह काफी शुरुआती अवस्था में है। इंटरनेट वीडियो पर हिंसा और अश्लीलता बढाने के आरोप लगातार लगते रहे हैं और इनको सेंसर के दायरे में लाने की मांग अब लगातार बढ़ रही है ,इसके बावजूद मोबाइल वीडियो का चलन तो निरंतर बढ़ ही रहा है और टीवी एक मनोरंजक माध्यम के रूप में अपनी पहचान बनाये रखने की लड़ाई लड़ रहा है |
नवभारत टाईम्स में 18/11/2019 को प्रकाशित 

Tuesday, November 12, 2019

टेक्नोलॉजी में नहीं है अवसाद का हल

कहा जाता है एक स्वस्थ तन में ही स्वस्थ  मष्तिस्क का वास होता है पर अगर  मष्तिस्क स्वस्थ नहीं होगा तो तन भी बहुत जल्दी रोगी हो जाएगा |शरीर में अगर कोई समस्या है तो जीवन के बाकी के कामों पर सीधे असर पड़ता है और इसे जल्दी महसूस किया जा सकता है पर बीमार मस्तिस्क के साथ ऐसा नहीं है | साल 2019 में संयुक्त राष्ट्र विश्व खुशहाली रिपोर्ट में इस साल भारत 140 वें स्थान पर रहा जो पिछले साल के मुकाबले सात स्थान नीचे है| भारत 2018 में इस मामले में 133 वें स्थान पर था जबकि इस वर्ष 140 वें स्थान पर रहा। संयुक्त राष्ट्र की सातवीं वार्षिक विश्व खुशहाली रिपोर्टजो दुनिया के 156 देशों को इस आधार पर रैंक करती है कि उसके नागरिक खुद को कितना खुश महसूस करते हैं। इसमें इस बात पर भी गौर किया गया है कि चिंताउदासी और क्रोध सहित नकारात्मक भावनाओं में वृद्धि हुई है.
 विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत छत्तीस प्रतिशत की अवसाद दर के साथ दुनिया के सर्वाधिक  अवसाद ग्रस्त देशों में से एक है मतलब ये कि भारत में मानसिक अवसाद से पीड़ित लोगों की जनसँख्या लगातार बढ़ रही है |मानव संसाधन के लिहाज से ऐसे आंकड़े किसी भी देश के लिए अच्छे नहीं कहे जायेंगे जहाँ हर चार में से एक महिला और दस में से एक पुरुष इस रोग से पीड़ित हों | जिसकी पुष्टि मानसिक अवसाद रोधी दवाओं के बढ़ते कारोबार से हो रही है |
देश में ही 2001 से 2014 के बीच 528 प्रतिशत अवसाद रोधी दवाओं का कारोबार बढ़ा है|जो यह बता रहा है कि मानसिक रोग कितनी तेजी से देश में अपना पैर पसार रहा है फार्मास्युटिकल मार्केट रिसर्च संगठन एआईओसीडी एडब्लूएसीएस के अनुसार भारत में अवसाद रोधी दवाओं का कारोबार बारह प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा है | ”डेली”(डिसेबिलिटी एडजस्ट लाईफ इयर ऑर हेल्थी लाईफ लॉस्ट टू प्रीमेच्योर डेथ ऑर डिसेबिलिटी ) में मापा जाने वाला यह रोग विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ 2020 तक बड़े रोगों के होने का सबसे बड़ा कारक बन जाएगाअवसाद से पीड़ित व्यक्ति भीषण दुःख और हताशा से गुजरते हैं|
उल्लेखनीय है कि ह्रदय रोग और मधुमेह जैसे रोग अवसाद के जोखिम को तीन गुना तक बढ़ा देते हैं|समाज शास्त्रीय नजरिये से देखा जाए तो यह प्रव्रत्ति हमारे सामाजिक ताने बाने के बिखरने की ओर इशारा कर रही है|बढ़ता शहरीकरण और एकल परिवारों की बढ़ती संख्या लोगों में अकेलापन बढ़ा रहा है और सम्बन्धों की डोर कमजोर हो रही है|रिश्ते छिन्न भिन्न हो रहे हैं तेजी से
 बदलती दुनिया में विकास के मायने सिर्फ आर्थिक विकास से ही मापे जाते हैं यानि आर्थिक विकास ही वो पैमाना है जिससे व्यक्ति की सफलता का आंकलन किया जाता है जबकि सामाजिक  पक्ष को एकदम से अनदेखा किया जा रहा हैशहरों में संयुक्त परिवार इतिहास हैं जहाँ लोग अपने सुख दुःख बाँट लिया करते थे और छतों का तो वजूद ही ख़त्म होता जा रहा हैफ़्लैट संस्कृति अपने साथ अपने तरह की समस्याएं लाई हैं जिसमें अकेलापन महसूस करना प्रमुख है |
इसका निदान लोग अधिक व्यस्ततता में खोज रहे हैं नतीजा अधिक काम करना ,कम सोना और टेक्नोलॉजी पर बढ़ती निर्भरता सोशल नेटवर्किंग पर लोगों की बढ़ती भीड़ और सेल्फी खींचने की सनक इसी संक्रमण की निशानी है जहाँ हम की बजाय मैं पर ज्यादा जोर दिया जाता है | आर्थिक विकास मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर किया जा रहा है |
इस तरह अवसाद के एक ऐसे दुश्चक्र का निर्माण होता है जिससे निकल पाना लगभग असंभव होता है |अवसाद से निपटने के लिए नशीले पदार्थों का अधिक इस्तेमाल समस्या की गंभीरता को बढ़ा देता हैभारत में नशे की बढ़ती समस्या को इसी से जोड़कर देखा जा सकता है .आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों में यह समस्या ज्यादा देखी जा रही है |जागरूकता की कमी भी एक बड़ा  कारण है,मानसिक स्वास्थ्य कभी भी लोगों की प्राथमिकता में नहीं रहा है |व्यक्ति या तो पागल होता है या फिर ठीक बीच की कोई अवस्था है ही नहीं है |इस बीमारी के लक्षण भी  ऐसे नहीं है जिनसे इसे आसानी से पहचाना जा सके आमतौर पर इनके लक्षणों को व्यक्ति के मूड से जोड़कर देखा जाता है|अवसाद के लक्षणों में हर चीज को लेकर नकारात्मक रवैया ,उदासी और निराशा जैसी भावना,चिड़ चिड़ापनभीड़ में भी अकेलापन महसूस करना और जीवन के प्रति उत्साह में कमी आना हैआमतौर पर यह ऐसे लक्षण नहीं है जिनसे लोगों को इस बात का एहसास हो कि वे अवसाद की गिरफ्त  में आ रहे हैंदुसरी समस्या ज्यादातर भारतीय एक मनोचिकित्सक के पास मशविरा लेने जाने में आज भी हिचकते हैं उन्हें लगता है कि वे पागल घोषित कर दिए जायेंगे इस परिपाटी को तोडना एक बड़ी चुनौती है |जिससे पूरा भारतीय समाज जूझ रहा है |उदारीकरण के बाद देश की सामाजिक स्थिति में खासे बदलाव हुए हैं पर हमारी सोच उस हिसाब से नहीं बदली है |अपने बारे में बात करना आज भी सामजिक रूप से वर्जना की श्रेणी में आता है ऐसे में अवसाद का शिकार व्यक्ति अपनी बात खुलकर किसी से कह ही नहीं पाता और अपने में ही घुटता रहता है |एक आम भारतीय को ये पता ही नहीं होता कि वह किसी मानसिक बीमारी से जूझ रहा है और इलाज की सख्त जरुरत है तथ्य यह भी है कि इस तरह की समस्याओं को देखने का एक मध्यवर्गीय भारतीय नजरिया है जो यह मानता है कि इस तरह की समस्याएं आर्थिक तौर पर संपन्न लोगों और बिगडैल रईसजाड़ों को ही होती हैं मध्यम या निम्न आय वर्ग के लोगों को नहीं जबकि मानसिक अवसाद से कोई भी गसित हो सकता है |इस स्थिति में अवसाद बढ़ता ही रहता है जबकि समय रहते अगर इन मुद्दों पर गौर कर लिया जाए तो स्थिति को गंभीर होने से बचाया जा सकता है |तथ्य यह भी है कि देश शारीरिक स्वास्थ्य के कई पैमाने पर विकसित देशों के मुकाबले बहुत पीछे है और शायद यही कारण है कि देश की सरकारें भी मानसिक स्वाथ्य के मुद्दे को अपनी प्राथमिकता में नहीं रखतीं |
देश में कोई स्वीकृत मानसिक स्वास्थय  नीति नहीं है और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधयेक अभी संसद में लंबित है जिसमें ऐसे रोगियों की देखभाल और उनसे सम्बन्धित अधिकारों का प्रावधान है |मानसिक स्वास्थ्य के प्रति बरती जा रही है लापरवाही का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अक्तूबर 2014 से पूर्व मानसिक स्वास्थ्य नीति का कोई अस्तित्व ही नहीं था |इसका खामियाजा मनोचिकित्सकों की कमी के रूप में सामने आ रहा है देश में 8,500 मनोचिकित्सक और 6,750 मनोवैज्ञानिकों की भारी कमी है |इसके अतिरिक्त 2,100 योग्य नर्सों की कमी हैमानसिक समस्याओं को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता इस दिशा में सांस्थानिक सहायता की भी पर्याप्त आवश्यकता है|माना जाता है किसी भी रोग का आधा निदान उसकी सही पहचान होने से हो जाता है | 
रोग की पहचान हो चुकी है भारत इसका निदान कैसे करेगा इसका फैसला होना अभी बाकी है |
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 12/11/2019 को प्रकाशित 

Tuesday, November 5, 2019

डिजीटल विज्ञापनों ने बदली मार्केट स्ट्रेटजी

नया मीडिया अपना कारोबार व इश्तिहार भी बढ़ा रहा है।इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो लीअब इसके दूसरे पहलुओं पर भी ध्यान जाने लगा है।इंटरनेट शुरुवात में किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह एक ऐसा आविष्कार बनेगा जिससे मानव सभ्यता का चेहरा हमेशा के लिए बदल जाएगा आग और पहिया के बाद इंटरनेट ही वह क्रांतिकारी कारक जिससे मानव सभ्यता के विकास को चमत्कारिक गति मिली.इंटरनेट के विस्तार के साथ ही इसका व्यवसायिक पक्ष भी विकसित होना शुरू हो गया.प्रारंभ में इसका विस्तार विकसित देशों के पक्ष में ज्यादा पर जैसे जैसे तकनीक विकास होता गया इंटरनेट ने विकासशील देशों की और रुख करना शुरू किया और नयी नयी सेवाएँ इससे जुडती चली गयीं  . भारत के डिजिटल विज्ञापन बाजार के 2020 तक 25,500 करोड़ रुपए को पार करने के लिए 33.5 फीसदी की एक समग्र वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) से बढऩे की उम्मीद है। कुल विज्ञापन राजस्व में इंटरनेट का हिस्सा 2013 में आठ प्रतिशत से बढ़ कर 2018 में 16 प्रतिशत हो जाने का अनुमान है। ऑनलाइन विज्ञापनजो 2013 में 2,900 करोड़ रुपए थाआने वाले पांच सालों में तीन गुना बढ़ोतरी के साथ 10,000 करोड़ रुपए तक जा सकता है. ऑनलाइन विज्ञापन की इस बढ़त में भारत में स्मार्ट फोन की बढ़ती संख्या का बड़ा योगदान है। लेकिन विज्ञापनों का यह बढ़ता बाजार अपने साथ समस्याएं भी ला रहा है. भारत जैसे देश में यह समस्या ज्यादा गंभीर इसलिए हो जाती हैक्योंकि यहां इंटरनेट का विस्तार बहुत तेजी से हो रहा हैमगर नेट जागरूकता की खासी कमी है। भारत में इंटरनेट के ज्यादातर प्रयोगकर्ताओं के लिए यह एक नई चीज है और वे कुछ चालाक विज्ञापनदाताओं की चाल का शिकार भी बन जाते हैं.भारत में विज्ञापनों का नियमन करने वाले संगठन भारतीय विज्ञापन मानक परिषदयानी एएससीआई ने भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ शिकायत करने के लिए बाकायदा एक व्यवस्था बना रखी है. लेकिन इंटरनेट अन्य विज्ञापन माध्यमों जैसा नहीं है। इंटरनेट के विज्ञापनों पर नजर रखना कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण काम हैक्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि भ्रामक विज्ञापन का शिकार बनने वाला भारत के किसी शहर में होजबकि विज्ञापनदाता सात समंुदर पार किसी दूसरे देश में। प्रिंट माध्यम के लिए तो इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी जैसी संस्था हैजो विज्ञापन एजेंसी को मान्यता देती है और किसी शिकायत पर वह मान्यता खत्म भी कर सकती है।वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल  रिपोर्ट के मुताबिकभारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी कुछ कहते हैं। इसके अनुसारएक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58 मिनटसोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24मिनट। इस बीच टेलीकॉम कंपनी एरिक्सन ने अपने एक शोध के नतीजे प्रकाशित किए हैंजो काफी दिलचस्प हैं। इससे पता चलता है कि स्मार्टफोन पर समय बिताने में भारतीय पूरी दुनिया में सबसे आगे हैं.एक औसत भारतीय स्मार्टफोन प्रयोगकर्ता रोजाना तीन घंटा 18 मिनट इसका इस्तेमाल करता है। इस समय का एक तिहाई हिस्सा विभिन्न तरह के एप के इस्तेमाल में बीतता है। एप इस्तेमाल में बिताया जाने वाला समय पिछले दो साल की तुलना में 63फीसदी बढ़ा है. स्मार्टफोन का प्रयोग सिर्फ चैटिंग एप या सोशल नेटवर्किंग के इस्तेमाल तक सीमित नहीं हैलोग ऑनलाइन शॉपिंग से लेकर तरह-तरह के व्यावसायिक कार्यों को स्मार्टफोन से निपटा रहे हैं.निकट भविष्य में रेडियोटीवी और समाचार-पत्रों की विज्ञापनों से होने वाली आय में कमी होगीक्योंकि ये माध्यम एकतरफा हैं. मोबाइल के मुकाबले इन माध्यमों पर विज्ञापनों का रिटर्न ऑफ इन्वेस्टमेंट (आरओआई) कम है। मोबाइल आपको जानता हैउसे पता है कि आप क्या देखना चाहते हैं और क्या नहीं देखना चाहते हैं.मोबाइल फोन के इस्तेमाल से जुड़ा एक दिलचस्प आंकड़ा यह भी है कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या में कोई खास अंतर नहीं है. मोबाइल के जरिये अब बेहद कम खर्च पर देश के निचले तबके तक पहुंचा जा सकता है। इसमें बड़ी भूमिका फ्री मोबाइल ऐप निभा रही हैंजिनके साथ विज्ञापन भी आते हैं.इस बात ने विज्ञापनदाताओं का भी ध्यान बहुत तेजी से अपनी ओर आकर्षित किया है. इस समय भारत में दिए जाने वाले कुल मोबाइल विज्ञापनों का लगभग 60प्रतिशत टेक्स्ट के रूप में होता है. आधुनिक होते मोबाइल फोन के साथ अब वीडियो और अन्य उन्नत प्रकार के विज्ञापन भी चलन में आने लगे हैं. मोबाइल फोन एक अत्यंत ही व्यक्तिगत माध्यम है और इसीलिए इसके माध्यम से इसको उपयोग करने वाले के बारे में सटीक जानकारी एकत्रित की जा सकती है.
                                  इंटरनेट के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है.दूसरा पहलू डाटा के उपभोग से जुड़ा है. इंटरनेट पर जब भी कोई काम किया जाता हैतो कुछ डाटा खर्च होता हैजिसका शुल्क इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियां वसूलती हैंपर किसी-किसी  वेबसाइट पर जाते ही उपभोक्ता से बगैर पूछे अचानक कोई वीडियो चलने लगता हैतो काम भी बाधित होता है और उपभोक्ता का कुछ अतिरिक्त डाटा भी खर्च होता हैजिसके पैसे तो उससे वसूल लिए जाते हैंपर उस विज्ञापन को देखने या सुनाने के लिए उससे अनुमति नहीं ली जाती है. यू-ट्यूब के वीडियो में शुरुआती कुछ सेकंड आपको मजबूरी में देखने पड़ते हैंजिसमें आपका अतिरिक्त डाटा खर्च होगा. निजता का मामला भी इसी से जुड़ा मुद्दा है। हम क्या करते हैं इंटरनेट परक्या खोजते हैंइन सबकी जानकारी के हिसाब से हमें विज्ञापन दिखाए जाते हैं. अमेरिका की चर्चित संस्था नेटवर्क एडवर्टाइजिंग इनिशिएटिव (एनआईए) ने ऐसे मामलों के लिए भी संहिता बनाकर कंपनियों को निर्देश दिया है कि वे उपभोक्ताओं को ऐसे विज्ञापनों को न देखने का विकल्प भी उपलब्ध कराएं. निजता की रक्षा के लिए भी यह जरूरी है. भारत में इंटरनेट का बाजार अभी आकार ले रहा हैइसलिए सतर्कता बरतने का यह सबसे सही समय है.
आई नेक्स्ट /दैनिक जागरण में 05/11/2019 में प्रकाशित 

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