अमर उजाला में 23/06/2021 को प्रकाशित
अमर उजाला में 23/06/2021 को प्रकाशित
कोरोना जैसी महामारी ने देश को स्वास्थ्य और रोग प्रतिरोधक क्षमता की अहमियत सबको करा दिया है |देश अभी दूसरी लहर की पीड़ा से उबरने की कोशिश करता हुआ दुबारा खड़े होने की कोशिश कर रहा है |विशेषज्ञ मानते हैं कि कोरोना महामारी की तीसरी लहर सितम्बर तक आ सकती है जिसका शिकार बच्चे ज्यादा होंगे |ऐसी ख़बरों के बीच महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने सूचना के अधिकार में पूछे गए सवाल के जवाब में बताया कि पिछले साल नवंबर तक देश में छह महीने से छह साल तक के करीब 9,27,606 गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों की पहचान की गई। मंत्रालय की ओर से जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक इनमें से, सबसे ज्यादा 3,98,359 बच्चों की उत्तर प्रदेश में और 2,79,427 की बिहार में पहचान की गई।
वहीं लद्दाख, लक्षद्वीप, नगालैंड, मणिपुर और मध्य प्रदेश में एक भी गंभीर रूप से कुपोषित बच्चा नहीं मिला है|यानि उत्तर प्रदेश और बिहार में देश के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे रह रहे हैं |कुपोषण सिर्फ एक स्वास्थ्य समस्या नहीं है अगर समय रहते इसका निदान न किया जाए तो यह आर्थिक और सामाजिक समस्या बन कर सामने आती है |विश्व स्वास्थ्य संगठन गंभीर कुपोषण को लंबाई के अनुपात में बहुत कम वजन हो या बांह के मध्य के ऊपरी हिस्से की परिधि 115 मिली मीटर से कम हो या पोषक तत्वों की कमी के कारण होने वाली सूजन के माध्यम से परिभाषित करता है।गंभीर कुपोषण के शिकार बच्चों का वजन उनकी लंबाई के हिसाब से बहुत कम होता है और प्रतिरक्षा तंत्र कमजोर होने की वजह से किसी भी बीमारी से उनके मरने की आशंका किसी सामान्य स्वस्थ बच्चे के मुकाबले नौ गुना ज्यादा होती है।इसके अलावा वर्ष 2019 में ‘द लैंसेट’ नामक पत्रिका द्वारा जारी रिपोर्ट में यह बात सामने आई थी कि भारत में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की 1.04 मिलियन मौंतों में से तकरीबन दो-तिहाई की मृत्यु का कारण कुपोषण है। देश में फैले कुपोषण को लेकर ये आँकड़े काफी चिंताजनक हैं। बच्चों को लंबे समय तक संतुलित आहार न मिलने से उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण वह आसानी से किसी भी बीमारी का शिकार हो सकते है|
कुपोषण के ख़िलाफ़ काम करने वाली सरकारी यहाँ तक की अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं जैसे संयुक्त राष्ट्र का ध्यान माइक्रोन्यूट्रिएंट्स पर है, ये संस्थाएं इस बात पर जोर देती हैं कि आयोडीन, आयरन या विटामिन ए का ड्रॉप पिलाएं| ऐसे में उनका ध्यान माइक्रोन्युट्रिएंट्स पर है| लेकिन ये समस्या इससे आगे की है आयरन की गोलियों से कुपोषण से निजात नहीं मिली मतलब इस समस्या का तकनीकी समाधान नहीं निकल सकता है. इसकी अपनी सीमाएं हैं|ऐसे में ज़रूरी है कि कि इसे खाद्य सुरक्षा से जोड़कर देखा जाना चाहिए | खाद्य सुरक्षा और खाने के सामान में विविधता कुपोषण दूर करने के लिए ज़रूरी है| और ये दोनों ही चीजें सीधे तौर पर व्यक्ति की आय से जुड़ी होती हैं| और आय नहीं होगी तो पोषण मिलना मुश्किल है|महिला और बाल विकास मंत्रालय ने वर्ष 2019 में भारतीय पोषण कृषि कोष की स्थापना की थी। इसका उद्देश्य कुपोषण को दूर करने के लिये बहुक्षेत्रीय ढाँचा विकसित करना है जिसके तहत बेहतर पोषक उत्पादों हेतु 128 कृषि जलवायु क्षेत्रों में विविध फसलों के उत्पादन के उत्पादन पर ज़ोर दिया जाएगा। विशेषज्ञ कृषि को कुपोषण से संबंधित समस्याओं को संबोधित करने का अच्छा तरीका मानते हैं। किंतु देश की पोषण आधारित अधिकांश योजनाओं में इस और ध्यान ही नहीं दिया गया है। पोषण आधारित योजनाओं और कृषि के मध्य संबंध स्थापित करना आवश्यक है, क्योंकि देश की अधिकांश ग्रामीण जनसंख्या आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है और सर्वाधिक कुपोषण ग्रामीण क्षेत्रों में ही देखने को मिलता है। कोविड काल ने इस समस्या को ज्यादा गंभीर बनाया है |पहले से ही गरीब लोगों के रोजगार पर असर पड़ा है और स्वास्थ्य पर व्यय बढ़ा है ये असंतुलन एक नए दुष्चक्र का निर्माण कर रहा है जिसके केंद्र में बच्चे हैं |एक ओर कोरोना के तीसरी लहर में सबसे ज्यादा उनके चपेट में आने की आशंका, वहीं गरीबी और गिरती आय पहले से ही कुपोषण के शिकार बच्चों के लिए एक ऐसी खाई का निर्माण कर रही है जिससे निकलना मुश्किल दिख रहा है |प्रख्यात बाल लेखक जैनज़ कोरज़ाक ने कहा था कि- 'बच्चे और किशोर, मानवता का एक-तिहाई हिस्सा हैं। इंसान अपनी जिंदगी का एक-तिहाई हिस्सा बच्चे के तौर पर जीता है। बच्चे...बड़े होकर इंसान नहीं बनते, वे पहले से ही होते हैं,हमें बच्चों के अंदर के इंसान को जिन्दा रखना होगा |पर क्या देश के सारे सारे बच्चे बड़े हो पायेंगे या उनमें से कई कुपोषण का शिकार हो विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त होकर काल कवलित हो जायेंगे इस मुश्किल सवाल का जवाब समाज और सरकार दोनों को मिलकर ढूँढना होगा |
राष्ट्रीय सहारा में 19/06/2021 को प्रकाशित
इंटरनेट साईट स्टेटीस्टा के अनुसार देश में साल 2020 में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की संख्या सात सौ मिलियन रही जिसकी साल 2025 तक 974मिलीयन हो जाने की उम्मीद है | भारत दुनिया का सबसे बड़ा ऑनलाईन बाजार है |यह डाटा आज की सबसे बड़ी पूंजी है यह डाटा का ही कमाल है कि गूगल और फेसबुक जैसी अपेक्षाकृत नई कम्पनियां दुनिया की बड़ी और लाभकारी कम्पनियां बन गयीं है|डाटा ही वह इंधन है जो अनगिनत कम्पनियों को चलाए रखने के लिए जिम्मेदार हैं |वह चाहे तमाम तरह के एप्स हो या विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साईट्स सभी उपभोक्ताओं के लिए मुफ्त हैं |असल मे जो चीज हमें मुफ्त दिखाई दे रही है वह सुविधा हमें हमारे संवेदनशील निजी डाटा के बदले मिल रही है | बिजनेस स्टैण्डर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2019 में भारत में गूगल और फेसबुक ने 1०००० करोड़ रुपये कमाए |वहीँ इकॉनमिक टाइम्स की रिपोर्ट के हिसाब से 2019 में रिलायंस इंडस्ट्रीज ने 11,262 करोड़ रुपये कमाए परन्तु जब हम दोनों कम्पनीज से मिले प्रत्यक्ष रोजगार और साथ ही उसके साथ बने इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास को देखते हैं तो दोनों में जमीन आसमान का अंतर मिलता हैं | जैसे 90 बिलियन डॉलर वाली रिलायंस इंडस्ट्रीज 194056 लोगों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार देती है और इससे कहीं ज्यादा लोग वेन्डर कंपनियों के माध्यम से रोजगार पाते हैं।|मजेदार तथ्य यह है कि फेसबुक कोई भी उत्पाद नहीं बनाता है और इसकी आमदनी का बड़ा हिस्सा विज्ञापनों से आता है और आप क्या विज्ञापन देखेंगे इसके लिए आपको जानना जरुरी है |यही से आंकड़े महत्वपूर्ण हो उठते हैं | देश में जिस तेजी से इंटरनेट का विस्तार हुआ उस तेजी से हम अपने निजी आंकडे (फोन ई मेल आदि) के प्रति जागरूक नहीं हुए हैं परिणाम तरह तरह के एप मोबाईल में भरे हुए जिनको इंस्टाल करते वक्त कोई यह नहीं ध्यान देता कि एप को इंस्टाल करते वक्त किन –किन चीजों को एक्सेस देने की जरुरत है |
टेक एआर सी की एक रिपोर्ट के अनुसार एक भारतीय कम से कम चौबीस एप का इस्तेमाल करता है और यह आंकड़ा वैश्विक औसत से लगभग तीन गुना ज्यादा है | यह तथ्य बताता है कि एक आम भारतीय किसी एप को डाउनलोड करने में कितनी कम सावधानी बरत रहे हैं |सबसे ज्यादा सोशल मीडिया एप का इस्तेमाल किया जाता है और यही से इंसान के डाटा बनने का खेल शुरू हो जाता है | यह सोचने में अच्छा है कि हमारे ऑनलाइन प्रोफाइल पर हमारा नियंत्रण है | हम तय करते हैं कि हमें कौन सी तस्वीरें साझा करनी हैं और कौन सी निजी रहनी चाहिये | पर तथ्य इससे अलग है कि जब आपके डिजिटल प्रोफाइल की बात आती है, तो आपके द्वारा साझा किया जाने वाला डेटा केवल एक आइसबर्ग का टिप होता है | हम बाकी को नहीं देखते हैं जो मोबाइल एप्लिकेशन और ऑनलाइन सेवाओं के अनुकूल इंटरफेस के पानी के नीचे छिपा हुआ है | हमारे बारे में सबसे मूल्यवान डेटा हमारे नियंत्रण से परे है | यह ऐसी गहरी परतें हैं जिन्हें हम नियंत्रित नहीं कर सकते हैं जो वास्तव में निर्णय लेते हैं, वो हम नहीं हैं बल्कि हमारे डाटा को विश्लेषित करने वाला होता है |
पहली परत वह है जिसे आप नियंत्रित करते हैं | इसमें वह डेटा होता है जो आप सोशल मीडिया और मोबाइल एप्लिकेशन में फीड करते हैं | इसमें आपकी प्रोफ़ाइल जानकारी, आपके सार्वजनिक पोस्ट और निजी संदेश, पसंद, खोज, अपलोड की गई फ़ोटो, आदि चीजें शामिल हैं |
दूसरी परत व्यवहार संबंधी टिप्पणियों से बनी है | ये इतने विकल्प नहीं हैं जो आप होशपूर्वक बनाते हैं, लेकिन मेटाडेटा जो उन विकल्पों को संदर्भ देता है | इसमें ऐसी चीजें शामिल हैं जिन्हें आप शायद हर किसी के साथ साझा नहीं करना चाहते हैं, जैसे कि आपका वास्तविक समय स्थान और आपके अंतरंग और पेशेवर संबंधों की विस्तृत समझ | जैसे एक ही घर में अक्सर एक ही कार्यालय की इमारतों या आपके आराम करने के समय के वक्त आपके मोबाईल की जगह को दिखाने करने वाले स्थान पैटर्न को देखकर, कंपनियां बहुत कुछ बता सकती हैं कि आप किसके साथ अपना समय बिताते हैं। ऑनलाइन और ऑफलाइन, आपके द्वारा क्लिक की गई सामग्री, आपके द्वारा इसे पढ़ने में बिताए गए समय, खरीदारी पैटर्न, कीस्ट्रोक डायनेमिक्स, टाइपिंग स्पीड, और स्क्रीन पर आपकी उंगलियों के मूवमेंट (जो कुछ कंपनियों का मानना है कि भावनाओं और विभिन्न मनोवैज्ञानिक विशेषताओं को प्रकट करते हैं)|
तीसरी परत पहले और दूसरे की व्याख्याओं से बनी है | आपके डेटा का विश्लेषण विभिन्न एल्गोरिदम द्वारा किया जाता है और सार्थक सांख्यिकीय सहसंबंधों के लिए अन्य उपयोगकर्ताओं के डेटा के साथ तुलना की जाती है | यह परत न केवल हम क्या करते हैं बल्कि हम अपने व्यवहार और मेटाडेटा पर आधारित हैं, के बारे में निष्कर्ष निकालते हैं | इस परत को नियंत्रित करना बहुत अधिक कठिन है, इन प्रोफ़ाइल-मैपिंग एल्गोरिदम का कार्य उन चीजों का अनुमान लगाना है, जिन्हें आप स्वेच्छा से प्रकट करने की संभावना नहीं रखते हैं। इनमें आपकी कमजोरियां, साइकोमेट्रिक प्रोफाइल, आईक्यू लेवल, पारिवारिक स्थिति, व्यसनों, बीमारियों, चा
वे व्यवहार संबंधी भविष्यवाणियाँ और व्याख्याएँ विज्ञापनदाता के लिए बहुत मूल्यवान हैं | चूंकि विज्ञापन का मतलब जरूरतों को बनाना है और आपको ऐसे निर्णय लेने के लिए प्रेरित करना है जिन्हें आपने (अभी तक) नहीं किया है, चूंकि कम्पनियां जानती हैं कि आप उन्हें सीधे कुछ नहीं बताएंगे कि यह कैसे करना है| बैंकों, बीमा कंपनियों, और सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा किए गए बाध्यकारी निर्णय बिग डेटा और एल्गोरिदम द्वारा किए जाते हैं, न कि लोगों द्वारा| यह मनुष्यों से बात करने के बजाय डेटा को देखते है जो बहुत समय और पैसा बचाता है |इसलिए, विज्ञापन उद्योग में एक साझा विश्वास है कि बड़ा डेटा झूठ नहीं है | यदि किसी उपभोक्ता ने मौसम का हाल जानने के लिए कोई एप डाउनलोड किया और एप ने उसके फोन में उपलब्ध सारे कॉन्टेक्ट तक पहुँचने की अनुमति माँगी तो ज्यादातर लोग बगैर यह सोचे की मौसम का हाल बताने वाला एप कांटेक्ट की जानकारी क्यों मांग रहा है उसकी अनुमति दे देंगे |अब उस एप के निर्मताओं के पास किसी के मोबाईल में जितने कोंटेक्ट उन तक पहुँचने की सुविधा मिल जायेगी|यानि एप डाउनलोड करते ही उपभोक्ता आंकड़ों में तब्दील हुआ फिर उस डाटा ने और डाटा ने पैदा करना शुरू कर दिया |इस तरह देश में हर सेकेण्ड असंख्य मात्रा में डाटा जेनरेट हो रहा है पर उसका बड़ा फायदा इंटरनेट के व्यवसाय में लगी कम्पनियों को हो रहा है |यह भी उल्लेखनीय है कि डेटा चुराने के लिए बहुत से फर्जी एप गूगल प्ले स्टोर पर डाल दिए जाते हैं और गूगल भी समय समय पर ऐसे एप को हटाता रहता है पर ओपन प्लेटफोर्म होने के कारण जब तक ऐसे एप की पहचान होती है तब तक फर्जी एप निर्माता अपना काम कर चुके होते हैं |ग्रोसरी स्टोर और कई तरह के क्लब जब कोई उपभोक्ता वहां से कोई खरीददारी करता है या सेवाओं का उपभोग करता है तो वे उपभोक्ताओं के आंकड़े ले लेते हैं लेकिन उन आंकड़ों पर उपभोक्ताओं पर कोई अधिकार नहीं रहता है |
उपभोक्ता अधिकारों के तहत अभी आंकड़े(डाटा) नहीं आये हैं |किसी भी उपभोक्ता को ये नहीं पता चलता है कि उसकी निजी जानकारियों का (आंकड़ों )किस तरह इस्तेमाल होता है और उससे पैदा हुई आय का भी उपभोक्ता को कोई हिस्सा नहीं मिलता |आंकड़ों की दुनिया में भी वर्ग संघर्ष का दौर शुरू हो गया है किसी के निजी आंकड़ों की कीमत उसकी इंटरनेट पर कम उपस्थिति से तय होती है यानि अगर आप कई तरह की सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर हैं तो आपका डाटा यूनिक नहीं रहेगा | लोगों के निजी डाटा सिर्फ कम्पनियों के प्रोडक्ट को बेचने में ही मदद नहीं कर रहे बल्कि यह आंकड़े हमें भविष्य के समाज के लिए तैयार भी कर रहे हैं |पूर्व में फ़ेसबुक ने यह स्वीकारा था कि उनके ग्रुप द्वारा व्हाट्सऐप और इंस्टाग्राम के डाटा को मिला कर के उसका व्यवसायिक इस्तेमाल किया जा रहा है| फ़ेसबुक ने यह भी स्वीकार किया था कि उसके प्लेटफ़ॉर्म में अनेक ऐप के माध्यम से डाटा माइनिंग और डाटा का कारोबार होता है| इसका बड़ा कारण इंटरनेट द्वारा पैदा हो रही आय और दुनिया भर की सरकारों में अपनी आलोचनाओं को लेकर दिखाई जाने वाली अतिशय संवेदनशील रवैया है |कम्पनियां अनाधिकृत डाटा के व्यापार में शामिल हैं भले ही वे इसको न माने पर वे अपना डाटा देश की सरकार के साथ नहीं शेयर करना चाहती वहीं सरकार इस तरह के नियम बना कर अपनी आलोचनाओं को कुंद कर सकती है |फिलहाल देश इन्तजार कर रहा है की सोशल मीडिया पर आने वाला वक्त अभिवक्ति की स्वंत्रता और लोगों की निजता के बीच कैसे संतुलन बनाएगा और व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक जो अभी तक लंबित है |क्या लोगों को इंटरनेट पर वो आजादी का एहसास करा पायेगा जिसके लिए लोग इंटरनेट पर आते हैं | भविष्य का भारतीय समाज कैसा होगा यह इस मुद्दे पर निर्भर करेगा कि अभी हम अपने निजी आंकड़ों के बारे में कितने जागरूक है |
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में 05/06/2021 को प्रकाशित