कोरोना जैसी महामारी ने देश को स्वास्थ्य और रोग प्रतिरोधक क्षमता की अहमियत सबको करा दिया है |देश अभी दूसरी लहर की पीड़ा से उबरने की कोशिश करता हुआ दुबारा खड़े होने की कोशिश कर रहा है |विशेषज्ञ मानते हैं कि कोरोना महामारी की तीसरी लहर सितम्बर तक आ सकती है जिसका शिकार बच्चे ज्यादा होंगे |ऐसी ख़बरों के बीच महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने सूचना के अधिकार में पूछे गए सवाल के जवाब में बताया कि पिछले साल नवंबर तक देश में छह महीने से छह साल तक के करीब 9,27,606 गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों की पहचान की गई। मंत्रालय की ओर से जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक इनमें से, सबसे ज्यादा 3,98,359 बच्चों की उत्तर प्रदेश में और 2,79,427 की बिहार में पहचान की गई।
वहीं लद्दाख, लक्षद्वीप, नगालैंड, मणिपुर और मध्य प्रदेश में एक भी गंभीर रूप से कुपोषित बच्चा नहीं मिला है|यानि उत्तर प्रदेश और बिहार में देश के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे रह रहे हैं |कुपोषण सिर्फ एक स्वास्थ्य समस्या नहीं है अगर समय रहते इसका निदान न किया जाए तो यह आर्थिक और सामाजिक समस्या बन कर सामने आती है |विश्व स्वास्थ्य संगठन गंभीर कुपोषण को लंबाई के अनुपात में बहुत कम वजन हो या बांह के मध्य के ऊपरी हिस्से की परिधि 115 मिली मीटर से कम हो या पोषक तत्वों की कमी के कारण होने वाली सूजन के माध्यम से परिभाषित करता है।गंभीर कुपोषण के शिकार बच्चों का वजन उनकी लंबाई के हिसाब से बहुत कम होता है और प्रतिरक्षा तंत्र कमजोर होने की वजह से किसी भी बीमारी से उनके मरने की आशंका किसी सामान्य स्वस्थ बच्चे के मुकाबले नौ गुना ज्यादा होती है।इसके अलावा वर्ष 2019 में ‘द लैंसेट’ नामक पत्रिका द्वारा जारी रिपोर्ट में यह बात सामने आई थी कि भारत में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की 1.04 मिलियन मौंतों में से तकरीबन दो-तिहाई की मृत्यु का कारण कुपोषण है। देश में फैले कुपोषण को लेकर ये आँकड़े काफी चिंताजनक हैं। बच्चों को लंबे समय तक संतुलित आहार न मिलने से उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण वह आसानी से किसी भी बीमारी का शिकार हो सकते है|
कुपोषण के ख़िलाफ़ काम करने वाली सरकारी यहाँ तक की अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं जैसे संयुक्त राष्ट्र का ध्यान माइक्रोन्यूट्रिएंट्स पर है, ये संस्थाएं इस बात पर जोर देती हैं कि आयोडीन, आयरन या विटामिन ए का ड्रॉप पिलाएं| ऐसे में उनका ध्यान माइक्रोन्युट्रिएंट्स पर है| लेकिन ये समस्या इससे आगे की है आयरन की गोलियों से कुपोषण से निजात नहीं मिली मतलब इस समस्या का तकनीकी समाधान नहीं निकल सकता है. इसकी अपनी सीमाएं हैं|ऐसे में ज़रूरी है कि कि इसे खाद्य सुरक्षा से जोड़कर देखा जाना चाहिए | खाद्य सुरक्षा और खाने के सामान में विविधता कुपोषण दूर करने के लिए ज़रूरी है| और ये दोनों ही चीजें सीधे तौर पर व्यक्ति की आय से जुड़ी होती हैं| और आय नहीं होगी तो पोषण मिलना मुश्किल है|महिला और बाल विकास मंत्रालय ने वर्ष 2019 में भारतीय पोषण कृषि कोष की स्थापना की थी। इसका उद्देश्य कुपोषण को दूर करने के लिये बहुक्षेत्रीय ढाँचा विकसित करना है जिसके तहत बेहतर पोषक उत्पादों हेतु 128 कृषि जलवायु क्षेत्रों में विविध फसलों के उत्पादन के उत्पादन पर ज़ोर दिया जाएगा। विशेषज्ञ कृषि को कुपोषण से संबंधित समस्याओं को संबोधित करने का अच्छा तरीका मानते हैं। किंतु देश की पोषण आधारित अधिकांश योजनाओं में इस और ध्यान ही नहीं दिया गया है। पोषण आधारित योजनाओं और कृषि के मध्य संबंध स्थापित करना आवश्यक है, क्योंकि देश की अधिकांश ग्रामीण जनसंख्या आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है और सर्वाधिक कुपोषण ग्रामीण क्षेत्रों में ही देखने को मिलता है। कोविड काल ने इस समस्या को ज्यादा गंभीर बनाया है |पहले से ही गरीब लोगों के रोजगार पर असर पड़ा है और स्वास्थ्य पर व्यय बढ़ा है ये असंतुलन एक नए दुष्चक्र का निर्माण कर रहा है जिसके केंद्र में बच्चे हैं |एक ओर कोरोना के तीसरी लहर में सबसे ज्यादा उनके चपेट में आने की आशंका, वहीं गरीबी और गिरती आय पहले से ही कुपोषण के शिकार बच्चों के लिए एक ऐसी खाई का निर्माण कर रही है जिससे निकलना मुश्किल दिख रहा है |प्रख्यात बाल लेखक जैनज़ कोरज़ाक ने कहा था कि- 'बच्चे और किशोर, मानवता का एक-तिहाई हिस्सा हैं। इंसान अपनी जिंदगी का एक-तिहाई हिस्सा बच्चे के तौर पर जीता है। बच्चे...बड़े होकर इंसान नहीं बनते, वे पहले से ही होते हैं,हमें बच्चों के अंदर के इंसान को जिन्दा रखना होगा |पर क्या देश के सारे सारे बच्चे बड़े हो पायेंगे या उनमें से कई कुपोषण का शिकार हो विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त होकर काल कवलित हो जायेंगे इस मुश्किल सवाल का जवाब समाज और सरकार दोनों को मिलकर ढूँढना होगा |
राष्ट्रीय सहारा में 19/06/2021 को प्रकाशित
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