Friday, August 20, 2021

सावन का महीना


यूँ तो सावन सिर्फ साल का एक महीना है लेकिन इसका जिक्र आते ही जो तस्वीर हमारे जेहन में उभरती है. वो है बरसात,हरियाली और झूले. जब इतनी सारी चीजें एक साथ हों तो हो गया न मामला पूरा फ़िल्मी.तो फिल्मों का सावन से गहरा रिश्ता रहा है. या यूँ कहें बगैर बारिश के हमारी हिंदी फिल्में कुछ अधूरी सी लगती हैं.अगर बारिश है तो गाने भी होंगे. तो क्यों न इन गानों के बहाने ही सही जाते हुए सावन को याद किया जाए. सबसे पहले 1949 में सावन शीर्षक से पहली फिल्म बनी उसके  बाद सावन आया रे , सावन भादों , `सावन की घटा´, `आया सावन झूम के´, `सावन को आने दो´ और `प्यासा सावन´ नाम से फिल्में बनीं.अब सावन का महीना है तो पवन तो शोर करेगा ही .शोर नहीं बाबा सोर जी हाँ ये गाना आज भी हमारे तन मन को मोर सा नचा देता है .सावन का महीना पवन करे सोर (मिलन).जब पवन शोर करेगा तो बादल , बिजली और बरसात आ ही जायेंगे. ये सारे सावन राजा के दरबारी हैं. तभी तो सावन को राजा का खिताब दिया गया है “ओ सावन राजा कहाँ से आये तुम” (दिल तो पागल है) .कहते हैं आग और पानी का भी रिश्ता होता है. चौंकिए मत इस रिश्ते को हमारे गीतकारों ने बड़ी खूबसूरती से गीतों में ढाला है. "दिल में आग लगाये सावन का महीना " (अलग -अलग ) या फिर "अब के सजन सावन में आग लगेगी बदन में " (चुपके -चुपके ) एक फिल्म में “रिम झिम गिरे सावन, सुलग सुलग जाए मन” (दहक) एक खूबसूरत सा गीत और है जो सावन की रूमानियत का जिक्र करता है "तुझे गीतों में ढालूँगा सावन को आने दो"(सावन को आने दो). 
अब अगर सावन की बारिश का मज़ा घर में बैठ के लिया तो ये सावन के साथ अन्याय होगा. "सावन बरसे तरसे दिल क्यों न निकले घर से दिल "(दहक). वैसे भी सावन बेशकीमती है और इसकी कीमत का अंदाजा करता ये गाना, “तेरी दो टकिया की नौकरी रे मेरा लाखों का सावन जाए” (रोटी कपडा और मकान ). वैसे भी सावन के महीने में इंसान तो क्या बादल भी दीवाना हो जाता है. "दीवाना हुआ बादल सावन की घटा छाई" (कश्मीर की कली ) जब ऐसा सुहाना मौसम हो तो किसी की याद आ ही जायेगी. "सावन के झूले पड़े तुम चले आओ "(जुर्माना ). यहाँ एक रोचक बात है कि सावन और झूलों का गहरा सम्बन्ध है घरों में झूले सावन के महीने ही में लगाये जाते हैं .बात तो सावन की चल रही है लेकिन इसे जिन्दगी से जोड़ दिया जाए तो सावन के दर्शन को समझना आसान हो जाएगा और जिन्दगी जीना भी. पहला सबक जो आएगा वो जाएगा भी. सावन भी चला जाएगा लेकिन फिर आने के लिए तो सफलता और असफलता जिंदगी के हिस्से हैं कोई भी चीज शाश्वत  नहीं हैं. तो जिन्दगी अपने हिसाब चलेगी लेकिन अपने मन के आँगन में सूखा मत पड़ने दीजियेगा अपनी खुशियों आशाओं उमंगों के सावन को साल भर बरसने दीजियेगा .
प्रभात खबर में 20/08/2021 को प्रकाशित 

Sunday, August 15, 2021

मेरे पिता, मेरा दोस्त , मेरा माशूक

लखनऊ विश्वविद्यालय पर लिखने से पहले मैं उसे पूरी तरह, जी भर के देख लेना चाहता हूं। शहर के किसी भी कोने से देखूं, कितनी भी ऊंची इमारत पर खड़ा हो जाऊं वह एक बार में पूरा कभी नहीं दिखता। जैसे पिता एक बार में पूरी तरह नहीं खुलते। पहली बार जब विश्वविद्यालय में पढ़ाई के लिए आया था तो इसे किसी माशूक की तरह चाहने लगा। गर्मियों की तपिश भरी दोपहरों में यहां के ऊंची छतों वाले लंबे कॉरिडोर तरावट तो देते ही थे, एक अजीब सा रोमैंटसिजम भी पैदा करते थे। कॅरियर के दोराहे पर था, किस फील्ड में जाना चाहिए, नौकरी कहां लगेगी? जैसे सवाल मन में घुमड़ते थे और बेचैनी बढ़ने लगती थी तो पीछे से कोई प्रोफेसर कंधे पर हाथ रख देता था और आगे जाने का रास्ता बता देता था। लगता था विश्वविद्यालय ने ही चुपके से उनके कान में फुसफुसा दिया है, जाओ उस बच्चे को देखो। इन दिनों काफी परेशान है। कभी पिता, कभी महबूब और कभी दोस्त। उम्र बदलने के साथ लखनऊ विश्वविद्यालय से आपका रिश्ता बदलता जाता हैं, लेकिन एक बार बन गया तो कायम ता उम्र रहता है। |खड़िया स्लेट के ज़माने से शुरू हुआ ये सफ़र अब डिजीटल स्लेट पर भी जारी है |आज भी जब गुजरे वक्त में यहाँ से पढ़ा कोई विद्यार्थी झांकता है तो अपनी जिन्दगी के बीते हसीं पलों का बड़ा हिस्सा लखनऊ विश्वविद्यालय के गलियारों से ही निकलता है |वो चाहे मिल्क्बार कैंटीन में दोस्तों के साथ लगे कहकहे हों या फिर जब जीवन में पहली बार मंच पर चढ़ने का मौका मिला हो |बहुत कुछ याद आता है वो पीजी ब्लॉक के कमरे हों या टैगोर पुस्तकालय के सामने का लॉन जब किताबों से ऊबे तो सामने प्रकृति की गोद में जा बैठे |वो नहर जो साल के बारह महीने न बहती हो पर उसके किनारे बैठे  कर न जाने कितने लोगों की तकदीर अपनी मंजिल तक पहुँच गयी | मालवीय हाल जहाँ याद दिलाता है कि हम किस महान परम्परा के वाहक है वहीं एपी सेन हाल कई सारी कलातमक अभिरुचियों का गवाह हमारी यादों में है | वे सम्मानित शिक्षक जिनका नाम आज भी तालीम की दुनिया में बड़े अदब से लिया जाता है |प्रो॰ टी. एन. मजूमदार, प्रो॰ डी. पी. मुखर्जी,प्रो॰ कैमरॉन, प्रो॰ बीरबल साहनी, प्रो॰ राधाकमल मुखर्जी, प्रो॰ राधाकुमुद मुखजी, प्रो॰ सिद्धान्त, आचार्य नरेन्द्र देव, जैसे शिक्षकों पर हमें हमेशा गर्व रहेगा कि कभी वे इस विश्वविद्यालय का हिस्सा रहे थे |

टैगोर पुस्तकालय भारत ही नहीं दुनिया के समर्द्ध पुस्तकालयों में से एक है जिसका वास्तु  अमेरिकन वास्तुकार वाल्टर बरले ग्रिफिन ने डिजाइन किया था | बरले ग्रिफिन ने ऑस्टेलिया का केनबरा शहर भी डिज़ाइन किया था और उनकी योजना इस पुस्तकालय के साथ एक क्लोक टावर बनाने  की भी थी पर इससे पहले ही उनका निधन हो गया |टैगोर पुस्तकालय में कई हस्तलिखित भोजपत्र पांडुलिपियाँ भी संरक्षित हैं |यह विश्वविद्यालय एक और मामले में ख़ास हैं इसके चार विभागों के पास अपने खुद के संग्रहालय हैं जिनमें प्राणी विज्ञान ,भूगर्भ विज्ञान विभाग ,मानव शास्त्र विभाग और प्राचीन भारतीय इतिहास विभाग शामिल हैं |विश्वविद्यालय के शताब्दी वर्ष में इसे टैगोर पुस्तकालय में राधा कमल मुखर्जी संग्रहालय और आर्ट गैलरी के रूप में पांचवां संग्रहालय मिला है |

अपनी स्थापना से लेकर अब तक ये विश्वविद्यालय कई बदलावों का गवाह रहा है.एक अंग्रेज गवर्नर की याद में इसकी नींव पड़ी. अंग्रेजी हुकूमत के विरोध का बिगुल भी यहाँ से फूंका गया.बीरबल साहनी जैसे वैज्ञानिक यहाँ के शिक्षक रहे तो डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा जैसे राजनीतिज्ञों ने पढ़ाई के साथ-साथ राजनीति का ककहरा भी यहीं से सीखा | एक मई 1864 को हुसैनाबाद में हुसैनाबाद कोठी में शुरू होने के बाद ये शहर के विभिन्न स्थानों से होते हुए वर्तमान परिसर तक पहुंचा.इसी कैनिंग कॉलेज को 25 नवंबर 1920 को विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया और 1921 में यहां पढ़ाई की शुरुआत हो गई.कॉलेज को यूनिवर्सिटी का दर्जा देने के लिए लखनऊ मेडिकल कॉलेज को इससे संबद्ध किया गया जबकि 1870 से शुरू हुए आईटी गर्ल्स कॉलेज को इसका पहला एसोसिएट कॉलेज बनाया गया.|इसके बनने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है वैसे अधिकारिक तौर पर लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ाई की शुरुआत जुलाई 17 ,1921 से शुरू हुई पर उससे काफी पहले ही लखनऊ में उच्च शिक्षा की अलख कैनिंग कॉलेज के रूप में जगाई जा चुकी थी |जिसकी स्थापना में अवध के तालुकेदारों का विशेष योगदान रहा जिन्होंने लार्ड कैनिंग की स्मृति में 27 फ़रवरी 1864  को लखनऊ में कैनिंग कालेज के  नाम से एक विद्यालय स्थापित करने के लिए पंजीकरण कराया। 1 मई 1864 को कैनिंग कालेज का औपचारिक उद्घाटन अमीनुद्दौला पैलेस में हुआ। शुरुआत  में 1887 तक कैनिंग कालेज कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध किया गया। उसके बाद1888 में इसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्धता दे दी गयी । सन 1905 में प्रदेश सरकार ने गोमती की उत्तर दिशा में लगभग नब्बे  एकड़ का भूखण्ड कैनिंग कालेज को स्थानांतरित किया गया , जिसे बादशाहबाग के नाम से जाना जाता है। वास्तव से यह अवध के नवाब नसीरूद्दीन हैदर का निवास स्थान था ।कैनिंग कॉलेज की शुरुआत ताल्लुकेदार्स ने कर के रूप में वसूली गई धनराशि में से आधा फीसदी चंदा देकर की थी.ताल्लुकेदार्स के प्रस्ताव पर अंग्रेजी हुकूमत ने भी इसके बराबर राशि देने पर सहमति जताई.वर्ष 1921 में लखनऊ यूनिवर्सिटी की स्थापना के समय भी इसके लिए चंदा दिया गया.चंदे की ये रकम 30 लाख रुपये के बराबर थी. उससे इस विश्वविद्यालय की शुरुआत की गई.उन्हीं दिनों महमूदाबाद के नवाब मोहम्मद अली मोहम्मद खान ,खान बहादुर ने उन दिनों के प्रसिद्द अखबार पायनियर में “लखनऊ विश्वविद्यालय” की स्थापना को लेकर एक लेख लिखा जिसने उन दिनों संयुक्त प्रांत के गवर्नर सर हरकोर्ट बटलर का ध्यान अपनी ओर खींचा और दस नवम्बर 1919  को इस विषय पर एक सम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता हरकोर्ट बटलर ने की जिसमें लखनऊ विश्वविद्यालय की स्थापना का खाका खींचा गया | धीरे –धीरे लखनऊ विश्वविद्यालय ने आकार लेना शुरू किया शुरुआती दौर में तीन महाविद्यालय इसके अधीन लाये गए जिनमें किंग जोर्ज मेडिकल कॉलेज (अब किंग जोर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी ),कैनिंग कॉलेज (अब लखनऊ विश्वविद्यालय मुख्य  परिसर ) और आई टी कॉलेज जोड़े गए |विश्विद्यालय का लोगो वाक्य “लाईट एंड लर्निंग” अंगरेजी के ख्यातिप्राप्त साहित्यकार एच जी वेल्स उपन्यास “जोंन एंड पीटर” से उद्घृत है |  माननीय श्री ज्ञानेन्द्र नाथ चक्रवर्ती लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति, मेजर टी० एफ० ओ० डॉनेल प्रथम कुल सचिव और श्री ई० ए० एच० ब्लंट प्रथम कोषाध्यक्ष नियुक्त हुए। विश्वविद्यालय कोर्ट की पहली बैठक 21 मार्च 1921 को हुई। अगस्त से सितम्बर 1921 के मध्य कार्य परिषद (एक्जीक्यूटिव काऊंसिल) तथा अकादमिक परिषद(एकेडेमिक काउन्सिल ) का गठन किया गया। सन 1922 में पहला दीक्षान्त समारोह आयोजित किया गया। सन 1991 से लखनऊ विश्वविद्यालय का द्वितीय परिसर सीतापुर रोड पर प्रारम्भ हुआ, जहाँ अभी  में विधि,इंजीनियरिंग  तथा प्रबंधन की कक्षाएँ चलती  हैं।लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के आजीवन  मानद सदस्यों में पूर्व प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ,लालबहादुर शास्त्री ,खान अब्दुल गफ्फार खान ,मोरारजी देसाई एवं इंदिरा गांधी जैसे नेता शामिल हैं और इनके दिए हुए सहमतिपत्र आज विश्वविद्यालय की धरोहर का हिस्सा हैं |पिछले पचहतर सालों में दुनिया बहुत बदली और जाहिर इसका असर हमारे कैम्पस के हर क्षेत्र पर  पडा है लड़कों के बेलबॉटम और बैगी पैंट के ज़माने से आगे बढ़ते हुए अब युनिवर्सल पहनावा जींस का है जिसमें लिंग भेद नहीं है|अब सलवार कमीज की जगह टीशर्ट और सूट हैं |जींस तो अब छात्रों के जीवन का अंग बन ही चुकी है |बालों में तेल चुपड़े लड़के लडकिया अब इतिहास हो चुके हैं |वो कैंटीन जहाँ पहले सिर्फ समोसा चाय या गुलाब जामुन ही मिला करते थे अब वहां चाउमीन ,बर्गर घुसपैठ कर चुके हैं|उस  अलमस्ती के  दौर में  जहाँ बहसों के केंद्र में ज्यादातर राजनीति के मुद्दे ही हावी रहते थे अब कौन सा वीडियो वाइरल रहा है या क्लास के व्हाट्स  एप ग्रुप पर क्या चल रहा है की गोसिप्स के बीच में कैंटीन के कोने अब भी गुलजार रहते हैं |मोबाईल पर  उंगलियाँ थिरकाते हुए छात्र अब अपने भविष्य के प्रति ज्यादा संजीदा रहते हैं | बात कैम्पस में आये बदलाव की चल रही है  तो पढ़ने के तौर तरीके भी बदले हैं और टेक्नोलॉजी पर हमारी निर्भरता बढ़ी है|तीन  का स्क्वायर रूट रटने या कागज कलम से निकालने की जरुरत नहीं|किसी जगह की राजधानी पता करनी हो| समस्या कोई भी हो समाधान एक है गूगल कर लो |कुछ जोड़ना या घटाना है, मोबाईल निकला जेब से और उँगलियाँ उसके टच पर थिरकने लग गयीं|सेकेंडो में जवाब हाजिर अब नोट्स एक्सचेंज करने के लिए व्हाट्स एप पर ग्रुप है तो क्लासेज की सूचना के लिए फेसबुक पेज,सब कुछ इतना आसान हो गया है |आप हर पल हर क्षण कनेक्टेड हैं हमारी निर्भरता “गूगल” और तकनीक  पर ज्यादा बढ़ी है और सेल्फ स्टडी पर जोर कम हुआ है| एक जमाना था   जब  हार्बेरियम फाईल बनाना हो या घर की बेकार की चीजों से कोई मॉडल  कितना तेज़ हमारा दिमाग चलता था पर अब वो दिमाग गूगल का मोहताज है|खड़िया डस्टर की जगह व्हाईट बोर्ड, मार्कर आ गए हैं क्लास रूम अब स्मार्ट हो गए हैं जहाँ पढ़ाई आडिओ वीडिओ के साथ होती है|ऑनलाईन क्लास भी हो सकती है ये इस सौ साल के विश्वविद्यालय में पहले कभी किसी ने नहीं  सोचा होगा पर आज ऑनलाईन पढ़ाई कैम्पस की हकीकत है |कैम्पस के स्टैंड में एक वक्त जहाँ साइकिलों की भरमार हुआ करती थी और स्कूटर लक्जरी अब वहां की दुनिया भी बदल चुकी है| साइकिल अब नहीं दिखती हैं मोटरसाइकिल और चौपहिया वाहनों की भरमार है | बदलाव की ये बयार लगातार बहती जा रही है पर यह इस गौरवशाली विश्वविद्यालय की महानता है कि वक्त कैसा भी हो यह लगातार बढ़ता जा रहा है और फैलता भी |

नवभारत टाईम्स के लखनऊ संस्करण में 15/08/2021 को प्रकाशित 

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