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आज के बच्चे कहानी सुनने की बजाय कार्टून देख कर सोते हों पर ज्यादातर कार्टून उन्हें यात्रा पर ले जाते हैं. यात्राओं के बारे में सोचते हुए राहुल संस्कृतयन याद न आयें ऐसा हो सकता है क्या ? यात्रा वृतांत पढ़ते वक्त हमेशा ऐसा लगता है कि घुमक्कड़ी के बाद इतना शानदार कैसे लिख लेते हैं लोग .लेकिन अब समझ में आने लगा है कि जब हम यात्राओं को जीना शुरू कर देते हैं तो यात्रा वृतांत अपने आप जी उठते हैं. कहते है किसी पल को जीभर कर जी लेने के बाद ही डूब कर लिखा जा सकता है .
यात्राएँ हमारे चिंतन को विस्तार देती हैं आप ने वो गाना जरूर सुना होगा " जिन्दगी एक सफर है सुहाना यहाँ कल क्या हो किसने जाना" यूँ तो देखा जाए तो जिन्दगी का सफ़र है तो सुहाना लेकिन इसके साथ जुडी हुई है अनिश्चितता और ऐसा ही होता है जब हम किसी सफ़र पर निकलते हैं. ट्रेन कब लेट हो जाए. बस कब ख़राब हो जाए ,वगैरह वगैरह मुश्किलें तों हैं पर क्या मुश्किलों की वजह से हम सफ़र पर निकलना छोड़ देते हैं. भाई काम तो करना ही पड़ेगा न गर्मियों में धुप कितनी भी तेज क्यों न हो. दैनिक यात्री तो वही ट्रेन पकड़ते हैं जिसे वो साल भर जाते हैं.
कभी छोटी छोटी बातें जिन्दगी का कितना बड़ा सबक दे जाती हैं और हमें पता ही नहीं पड़ता है. हर सफ़र हमें नया अनुभव देता है जिस तरह हमारे जीवन का कोई दिन एक जैसा नहीं होता वैसे ही दुनिया का कोई इंसान ये दावा नहीं कर सकता कि उसका रोज का सफ़र एक जैसा होता है. कुछ चेहरे जाने पहचाने हो सकते हैं लेकिन सारे नहीं, जिन्दगी भी ऐसी ही है .अब देखिये न गर्मी तो सबको लगती है. मंजिल तभी तक दूर लगती है जब तक
प्रभात खबर में 10/05/2024 को प्रकाशित
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