Monday, October 13, 2025

स्वदेशी मैसेजिंग एप अरट्टै की बढ़ती लोकप्रियता

 

पिछले दिनों देश के डिजीटल मेसेजिंग  इकोसिस्टम में एक ऐसा बवंडर मचा जिसने सारी दुनिया में मशहूर हो चुके व्हाट्स एप के नीति नियंताओं के माथे पर पसीने की बूंदें ला दी. वो है  भारत का देशी मेसेजिंग एप 'अरट्टै' .प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 'स्वदेशी तकनीक' अपनाने की अपील (15 अगस्त 2025, 30 अगस्त 2020), तथा मंत्रियों और उद्योगपतियों के अभियान की वजह से अक्टूबर 2025 के पहले तीन दिनों में अरट्टै 7.5 मिलियन डाउनलोड के आंकड़े तक पहुंच गया—जहां रोजाना साइन-अप्स 3,000 से बढ़कर 3,50,000 तक जा पहुंचे। वर्तमान में अरट्टै के 1 मिलियन से अधिक मासिक सक्रिय प्रयोगकर्ताओं  हैं, जबकि व्हाट्सएप के भारत में मासिक सक्रिय प्रयोगकर्ताओं  की संख्या 535.8 मिलियन से अधिक है.यहाँ तक ऐसी भी घटनाएँ भी लोगों ने फेसबुक पर साझा की जब उन लोगों ने अरट्टै की खूबियाँ गिनाते हुए पोस्ट लिखी तो उनका अकाउंट कुछ घंटों के लिए सस्पेंड कर दिया गया .हालंकि इस तथ्य की पुष्टि नहीं हो पाई है फिर भी अरट्टै ने एक चुनौती तो जरुर पेश की है.
'अरट्टैको समझने से पहले ज़ोहो को समझना ज़रूरी है। यह कोई नई स्टार्टअप नहींबल्कि एक स्थापित भारतीय टेक्नोलॉजी दिग्गज कम्पनी है जो दुनिया भर में कारोबार करती है. ज़ोहो का इकोसिस्टम सिर्फ एक ऐप तक सीमित नहीं है। यह ज़ोहो मेल (ईमेल सेवा)ज़ोहो राइटर (डॉक्यूमेंट)ज़ोहो शीट (स्प्रेडशीट) और ज़ोहो शो (प्रेजेंटेशन) जैसे दर्जनों सॉफ्टवेयर एप्लीकेशन का एक मजबूत सूट प्रदान करता है।इसको हम गूगल सूट जैसा भी समझ सकते हैं पर  कंपनी की प्रसिद्धि उसकी गोपनीयता-केंद्रित और विज्ञापन-मुक्त नीतियों पर बनी है.जहाँ गूगल और मेटा (फेसबुक) जैसी टेक कम्पनियां प्रयोगकर्ताओं के आंकड़ों और उनको दिखाए जाने वाले विज्ञापनों पर केन्द्रित हैं वहीं  ज़ोहो फिलहाल प्रयोगकर्ताओं  के डाटा का ऐसा इस्तेमाल नहीं कर रही हैं और भारत का डाटा भारत में ही रहेगा .इसी दुनिया  का नया सदस्य है 'अरट्टै', जिसका तमिल में अर्थ है 'गपशप'। यह ऐप उन सभी बुनियादी फीचर्स के साथ आता है जिनकी आप एक मैसेजिंग ऐप से उम्मीद करते हैं - टेक्स्ट मैसेजवॉयस और वीडियो कॉल, 1000 सदस्यों तक के ग्रुप चैट और मल्टीमीडिया शेयरिंग।
भारत की एप इकोनोमी बहुत तेजी से बढ़ रही है जबकि चीन राजस्व और उपभोग के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा बाजार बना हुआ है। वहीं अमेरिकन कम्पनियां एप निर्माण के मामले में शायद सबसे ज्यादा इनोवेटिव (नवोन्मेषी) हैं। भारत सबसे ज्यादा प्रति माह एप इंस्टाल करने और उसका प्रयोग करने के मामले में अव्वल है। भारतीय एप परिदृश्य का नेतृत्व टेलीकॉम दिग्गज एयरटेल और जिओ करते हैंयद्यपि स्ट्रीमिंग कम्पनियाँ जैसे नोवी डिजिटलजिओ सावन और पेटीएमफोन पे और फ्लिप्कार्ट जैसी ई-कॉमर्स साइट्स ने अपने आप को वैश्विक परिदृश्य पर भी स्थापित किया है।फोर्टी टू मैटर्स डॉट कॉम के अनुसार गूगल प्ले स्टोर पर कुल अक्टूबर 2025 तक गूगल प्ले स्टोर पर कुल 2,083,249 ऐप्स उपलब्ध हैंजिनमें भारतीय ऐप्स की संख्या 89,083 बनी हुई हैजो कुल ऐप्स का करीब 4.3% है। कुल ऐप पब्लिशर्स की संख्या 611,857 हैजिनमें 15,541 भारतीय ऐप पब्लिशर्स हैं—यह सभी पब्लिशर्स का करीब 2.5% है।
 
आंकड़ों के नजरिये से देश में उपभोक्ताओं की उपलब्धता के हिसाब से भारतीय ऐप की संख्या अब भी बहुत कम है।वैश्विक परिदृश्य में आंकड़ों के विश्लेषण से कई रोचक तथ्य सामने आते हैं.फोर्टी टू मैटर्स वेबसाईट के मुताबिक़ प्ले स्टोर पर भारतीय ऐप्स की औसत डाउनलोड संख्या 574,860 हैजबकि प्ले स्टोर पर सभी ऐप्स की औसत डाउनलोड संख्या 492,020 है.यह भी भारतीय ऐप विकासकों के लिए एक सकारात्मक आंकड़ा है. प्ले स्टोर पर उपलब्ध कुल भारतीय ऐप्स की औसत रेटिंग 2.75 हैजबकि प्ले स्टोर पर सभी ऐप्स की औसत रेटिंग लगभग 1.99 हैयानी भारतीय ऐप्स की गुणवत्ता वैश्विक औसत से थोड़ी बेहतर मानी जा सकती है.
किसी भी भारतीय कम्पनी का मोबाइल इतनी ग्लोबल रीच नहीं रखता। भारत चीन के बाद दुनिया में सबसे बड़ा मोबाइल बाजार हैपर कोई भी भारतीय कम्पनी मोबाइल बाजार में अपना स्थान नहीं बना पाई।ऐप बाजार में भारत के पिछड़े होने का एक बड़ा कारण कोडिंग की पढ़ाई देर से शुरू होना भी है .हालाँकि नयी शिक्षा नीति 2020 ने इस अंतर को पाटने की कोशिश की है पर इसका परिणाम साल 2030  के बाद दिखेगा.
 
ऐसे में 'अरट्टैवाकई व्हाट्सएप को कितनी कड़ी टक्कर दे पायेगा यह कहना अभी मुश्किल है .जैसे  व्हाट्सएप का एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन हर मैसेजकॉलफोटो और वीडियो को इतना सुरक्षित बनाता है कि कोई तीसरा  खुद व्हाट्सएप इन्हें पढ़ या सुन नहीं सकता। वहीं अरट्टै में यह सुरक्षा सिर्फ वॉयस और वीडियो कॉल तक सीमित हैटेक्स्ट मैसेज के लिए नहीं। जिनके लिए डिजिटल गोपनीयता सबसे ज़रूरी है,उन लोगों का भरोसा 'अरट्टै' को अभी जीतना होगा.दूसरा मैसेजिंग ऐप्स की सबसे बड़ी ताकत होता है उनका यूज़र नेटवर्क। “सभी  कोई व्हाट्सएप पर है!” ऐसे में क्यों कोई नया यूज़र उस ऐप पर जाने का जोखिम उठाएजहाँ उसके दोस्त-परिवार, , रिश्तेदार कोई है ही नहींइस  नेटवर्क इफेक्ट को तोड़ना किसी भी नए ऐप के लिए पानी पर चलने  जैसा है.
करोड़ों भारतीय व्हाट्सएप के डिजाइन और फीचर्स के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि उन्हें किसी नए प्लेटफॉर्म पर जाने के लिए  राजी करना बहुत मुश्किल काम है। एक बार जो डिजिटल आदतें बन जाती हैंउनको  बदलना बेहद धीमा और जटिल काम  है. जैसे कू व हाईक जैसे स्वदेशी ऐप्स को शुरुआती उत्साहसरकारी समर्थनऔर ट्विटर विवादों के चलते खूब डाउनलोड तो मिलेलेकिन टिकाऊ सफलता हासिल नहीं हो सकी. अरट्टै के पास ज़ोहो की तकनीकी क्षमताभारत केंद्रित सर्विसऔर प्रमोटर्स का समर्थन तो है. लेकिन प्रयोगकर्ताओं  को प्लेटफॉर्म बदलने के लिए ठोस कारण देनालोगों की निजता की गारंटी  देना और लगातार नवाचार ही अरट्टै जैसे एप के  भविष्य का निर्धारण करेगा.
प्रभात खबर में 13/10/2024 को प्रकाशित 

Thursday, October 9, 2025

डिजिटल तकनीक से जुड़ी चुनौतियाँ और सम्भावनाएं

 

डिजीटल तकनीक जरा सोचिए आप अपने घर में सोफे पर बैठे हैं, और उसी वक्त वक्त न्यूयॉर्क में एक मीटिंग में हिस्सा ले रहे हैं,टोक्यो में किसी आर्ट गैलरी में घूम रहें हैं और फिर दिल्ली में दोस्तों के साथ गपशप कर रहे हैं। यह न तो कोई सपना है और न ही कोई साइंस फिक्शन फिल्म का दृश्य बल्कि हकीकत में संभव हो रहा है।ये मेटावर्स है जहाँ तकनीक के जरिए आप एक वर्चुअल दुनिया में दाखिल होते हैं। 
दरअसल मेटावर्स एक आभासी डिजिटल दुनिया का कॉन्सेप्ट है, जिसमें आप वर्चुअल अवतार बनकर घूम सकते हैं, लोगों से मिल सकते हैं। यह इंटरनेट का अगला संस्करण है।  जहाँ लोग केवल स्क्रीन पर वेबसाइट नहीं देखते बल्कि खुद एक आभासी दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं।

मेटावर्स की अवधारणा सबसे पहले साइंस फिक्शन लेखक नील स्टीफेंसन ने 1992 में अपनी किताब स्नो क्रैश में की थी। इस किताब में उन्होंने एक ऐसी काल्पनिक दुनिया का खाका खींचा था, जहां लोग अपने घरों की चारदीवारी में रहकर एक वर्चुअल रियलिटी में अपना जीवन जीते हैं। यह अवधारणा उस समय के मुताबिक भले ही काल्पनिक और दूर की बात लग सकती है, लेकिन तेजी से हो रही तकनीकी प्रगति ने इस कल्पना को सच कर दिखाया है। आज वर्चुअल रियलिटी और ऑगमेंटेड रियलिटी जैसी तकनीक के जरिये मेटावर्स हकीकत हो चला है। आप इसे ऐसे भी समझ सकते हैं जैसे आप किसी गेम की वर्चुअल दुनिया में हो, लेकिन मेटावर्स  किसी गेम से कहीं ज्यादा है। यह एक तरह का डिजिटल स्पेस है, जहाँ आप अपनी वर्चुअल पहचान बना सकते हैं, काम कर सकते हैं, मिल सकते हैं, शॉपिंग कर सकते हैं, और भी बहुत कुछ कर सकते हैं।
ग्रैंड व्यू रिसर्च के मुताबिक साल 2024 तक वैश्विक मेटावर्स मार्केट करीब 105 अरब डॉलर था वहीं साल 2030 तक यह बाजार 1.1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। आज कंपनियाँ गेमिंग, शिक्षा, स्वास्थ्य, शॉपिंग और मार्केटप्लेस से जु़ड़े मेटवर्स के क्षेत्र में बड़ा निवेश कर रही हैं। फेसबुक जो अब मेटा के नाम से जाना जाता है , ने मेटावर्स में अपनी प्रमुख भूमिका निभाई है। अक्तूबर 2021 में मार्क जकरबर्ग ने मेटावर्स से प्रेरित होकर फेसबुक का नाम मेटा कर दिया। और अपनी मेटावर्स यूनिट में करीब 10 बिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया। शुरुआत में सेकंड लाइफ जैसे प्लेटफार्मों को मेटावर्स के पहले उदाहरण के रूप में देखा गया, जहां खिलाड़ी एक वर्चुअल पहचान के साथ संवाद कर सकते थे।
रिपोर्ट्स के मुताबिक गेमिंग एप्लिकेशन मेटावर्स बाजार का सबसे बड़ा हिस्सा है। रोब्लोक्स, एपिक गेम जैसी कंपनियों ने इस क्षेत्र में भारी निवेश किया है। हाल में ही लाइफस्टाइल ब्रांड नाइके ने रोब्लोक्स पर नाइकलैंड नाम से एक वर्चुअल स्थान बनाया था  जिसके कुछ ही महीनों में 6 मिलियन से अधिक उपयोगकर्ता हो गए। वहीं डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में भी मेटावर्स को तेजी से अपनाया जा रहा है। साल 2024 में मेटा ने विक्ट्रीएक्सआर के साथ मिलकर यूरोप के विश्वविद्यालयों के डिजिटल ट्विन वर्चुअल कैंपस तैयार किये हैं। डिजिटल ट्विन कैंपस के जरिये छात्र यूनिवर्सिटीज के भौतिक परिसर का आभासी अनुकरण करते हुए रिमोट क्लास ले सकते हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र में भी मेटावर्स की भूमिका बढ़ रही है, कंपनियाँ वीआर तकनीक पर आधारित टेलीहेल्थ सेवाएं दे रही हैं। जहाँ मरीज का वर्चुअल वातावरण में इलाज किया जा रहा है। कई बड़े ब्रांड्स जैसे गुची, वालमार्ट कोका-कोला ने मेटावर्स में वर्चुअल शोरुम बनाए हैं। वालमॉर्ट और जीकिट ग्राहकों को कपड़ों के वर्चुअल ट्रॉयल की सुविधा दे रही हैं। कंसल्टिंग फर्म मैकिन्जी के मुताबिक मेटावर्स आधारित ई-कॉमर्स अवसर साल 2030 तक 2.5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। वहीं मेटावर्स पर लोग एनएफटी के जरिये लोग डिजिटल संपत्तियों में भी निवेश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए एक्सेंचर ने अपने नए कर्मचारियों की ऑनबोर्डिंग के लिए एक वर्चुअल ऑफिस एनथ फ्लोर बनाया है।
भारत जो डिजिटल क्रांति के दौर से गुजर रहा है, मेटावर्स की इस जादुई दुनिया में तेजी से कदम रख रहा है। संस्था मार्केट रिसर्च फ्यूचर के मुताबिक 2025 में भारत का मेटावर्स बाजार करीब 9 बिलियन डॉलर का है जो 2034 तक बढ़कर 167 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी मंत्रालय ने एआई, वीआर तकनीकों के स्टार्टअप संवर्धन के लिए एक्स आर स्टार्टअप प्रोग्राम की शुरुआत की है। जिसमें अमेरिकी कंपनी मेटा भी सहभागिता दे रहा है। इसके साथ ही मंत्रालय ने आईआईटी भुवनेश्वर में वीआई और एआर सेंटर ऑफ एक्सीलेंस स्थापित किया है। जिससे इस क्षेत्र में नवाचार और शोध को गति मिल रही है। हाल ही में टीवी प्रोग्राम शार्क टैंक पर आए एक मेटावर्स स्टार्टअप एप लोका ने भी देश के लोगों में मेटावर्स के प्रति जागरूकता फैलाई है। इसके अलावा मेटावर्स का क्रेज आम लोगों में भी काफी लोकप्रिय हो रहा है। अफैक्स डॉट कॉम की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल युग मेटावर्स नामक एक प्लेटफॉर्म पर एक कपल ने शादी भी की थी, जिसने काफी सुर्खियाँ बटोरी थी। वहीं अगले कुछ सालों में बड़े मंदिरों और ऐतिहासिक जगहों के भी वर्चुअल मेटावर्स बनाने पर काम किया जा रहै है।  वहीं शिक्षा के क्षेत्र में आईआईटी गुवाहाटी द्वारा वीआर प्लेटफॉर्म ज्ञानधारा को केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से पीएम श्री स्कूलों में लागू किया जा रहा है। हालांकि भारत में डिजिटल अवसंरचना और इंटरनेट पहुंच की सीमाएं मेटावर्स के विकास में कुछ रुकावटें पैदा कर रही दरअसल भारत में 60 प्रतिशत से अधिक उपयोगकर्ता शहरी क्षेत्रों से हैं। जबकि ग्रामीण भारत में वीआर, एआर तकनीक और हाई स्पीड इंटरनेट की पहुँच सीमित है। ट्राई ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि ग्रामीण एवं दूरदराज क्षेत्रों में पर्याप्त बैंडविड्थ के बिना मेटावर्स तक पहुँच मुमकिन नहीं होगी। फिलहाल भारत में अधिकांश इंटरनेट कनेक्शन कम गति या उच्च लैटेन्सी वाले हैं, जो रियल टाइम वीआर, एआर अनुभव के लिए पर्याप्त नहीं है। वहीं एआर, वीआर हेडसेट, इमर्सिव डिस्प्ले और अन्य हार्डवेयर काफी महंगे हैं। भारत में अभी मेटावर्स तकनीक अपने शुरुआती दिनों में है।
हालांकि मेटावर्स में डेटा की गोपनीयता और डिजिटल लत जैसे मुद्दे भी उभर रहे हैं। विशेषज्ञों ने मेटावर्स में सुरक्षा, नैतिकता और स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताएं व्यक्त की हैं। हाल ही में ब्रिटेन में एक 16 वर्षीय लड़की के साथ वर्चुअल वातावरण में उत्पीड़न का मामला सामने आया, जिसने मेटावर्स में सुरक्षा और निगरानी के गंभीर सवाल खड़े किए हैं। इसके साथ ही मेटावर्स में लंबे समय तक रहने से डिजिटल एडिक्शन का भी खतरा बढ़ा है। लंबे समय तक वीआर हैडसेट पहने रहने से लोगों को सिम्युलेटर सिकनेस या साइबर सिकनेस भी हो सकती है। यह एक प्रकार का मोशन सिकनेस है जिसमें जिसमें उपयोगकर्ताओं को VR अनुभवों के दौरान चक्कर आना, मतली, सिरदर्द, और थकान जैसी समस्याएँ होती हैं।
मेटावर्स के लिए खरबों डॉलर का निवेश किया जा रहा है, लेकिन यह अभी भी अस्थिर है और इसमें कई जोखिम हैं। कोविड महामारी के समय जब सभी लोग अपने घरों में कैद थे, तब दुनिया की सभी दिग्गज कंपनियाँ मेटावर्स में भारी निवेश को लेकर उत्साहित थीं। लेकिन आंकड़े दर्शाते हैं कि कुछ कंपनियों ने अपने निवेश का अवलोकन करना शुरु कर दिया है। मार्क जकरबर्ग की मेटा की रियलिटी लैब्स ने 2020 से अबतक करीब 60 बिलियन से अधिक का नुकसान उठाया है। 2025 की पहली तिमाही में कंपनी ने करीब 4 बिलियन डॉलर का घाटा दर्ज किया है।  एआई और मशीन लर्निंग, जो पहले से ही मेटावर्स के मुकाबले ज्यादा प्रभावी साबित हो रहे हैं जिसके कारण कंपनियों ने इस मेटावर्स के मुकाबले एआई पर अपना निवेश बढ़ा दिया है। इन तमाम संभावनाओं और चुनौतियों के बावजूद मेटावर्स अभी भी एक उभरती हुई अवधारणा है। भले ही मेटावर्स अपनी शुरुआती चरण में है, पर यह शिक्षा, स्वास्थ्य, वर्कप्लेस और सामाजिक जुड़ाव को पूरी तरह से पुनर्परिभाषित कर सकता है।
दैनिक जागरण में 09/10/2025 को प्रकाशित 

Wednesday, October 8, 2025

इस माईक्रो ड्रामा के आप भी किरदार

भारत आज दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ मोबाइल इंटरनेट का बाजार है। औसतन हर व्यक्ति दिन में लगभग पाँच घंटे अपनी स्क्रीन से चिपका रहता है। यह सिर्फ एक आदत नहीं बल्कि हमारे समय, ध्यान और जीवनशैली पर तकनीक की गहरी पकड़ का संकेत है। पर सवाल यह है कि इन पाँच घंटों में हम देख क्या रहे हैं? लंबी फीचर फिल्में और टीवी धारावाहिक धीरे-धीरे हाशिए पर जा रहे हैं। आज का युवा सब कुछ शॉर्ट फॉर्म में चाहता है, चाहे मनोरंजन हो, भावनाएं हों या कहानियाँ। रील्स देखते-देखते उसकी ध्यान अवधि में लगातार गिरावट हो रही है, नतीजन घंटे भर के सीरियल पर गौर करना अब बड़ी चुनौती हो गई है। इस बदलते परिदृश्य को समझते हुए कंटेंट निर्माताओं ने हमारे सामने एक नया विकल्प पेश किया है, माइक्रो ड्रामा। यानी कुछ ही मिनटों में पूरी हो जाने वाली कहानियाँ, जिनमें सस्पेंस भी है, इमोशन भी और क्लाइमेक्स भी।

माइक्रो ड्रामा जिसे लोग वर्टिकल माइक्रो वेब-सीरीज भी कहते हैं, असल में स्मार्टफोन के लिए बनी एक नई कंटेंट स्टाइल है। ये छोटे-छोटे एपिसोड होते हैं, जिनकी समय अवधि 1-2 मिनट होती है। सबसे खास बात यह है कि ये वीडियो हॉरिजॉन्टल नहीं बल्कि पोर्ट्रेट मोड में बनाए जाते हैं ताकि इन्हें मोबाइल स्क्रीन पर आसानी से देखा जा सके। हर एपिसोड तेज रफ्तार, डायलॉग्स और ट्विस्ट से भरा होता है। कि देखने वाले को अगली कड़ी देखने का मन हो जाए। अमेरिका और चीन जैसे देशों में यह नया कंटेंट फॉर्मेट बाजार का रूप ले चुका है। चीन में इसका विस्तार सबसे ज्यादा हुआ है। समाचार एजेंसी शिन्हुआ के मुताबिक साल 2024 के अंत तक माइक्रो ड्रामा का बाजार 7 अरब डॉलर से भी अधिक हो गया है। यानी माइक्रो ड्रामा ने चीन के बॉक्स ऑफिस से भी अधिक राजस्व इकठ्ठा कर लिया। चीनी प्लेटफॉर्म क्वाइशोउ पर हर दिन 27 करोड़ लोग माइक्रो ड्रामा देखते हैं। इसी तरह अमेरिका में भी इन एप्स ने करीब डेढ़ अरब डॉलर का राजस्व हासिल किया है। भारत में भी इस माइक्रो ड्रामा फॉर्मेट ने अपने पैर पसारने शुरु कर दिए हैं। वेन्चर इन्टेलिजेंस के आंकड़ों के मुताबिक साल 2024 में माइक्रो ड्रामा ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने करीब 28 मिलियन डॉलर की रकम जुटाई वहीं इस साल जुलाई तक ही 44 मिलियन डॉलर का निवेश हासिल किया है। फाइनेंशनियल एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत का माइक्रो-ड्रामा बाजार अगले पाँच सालों में 5 से 10 अरब डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है। उदाहरण के लिए भारत में माइक्रो ड्रामा प्लेटफॉर्म कुकू टीवी ने एक साल के भीतर ही 5 करोड़ से अधिक डाउनलोड्स दर्ज किये हैं। इसी तरह रील टीवी,पॉकेट टीवी रील शॉर्ट, फ्लिकरील्स जैसे कई प्लेटफॉर्म भी इस नए शॉर्ट वीडियो फॉर्मेट में उतरे हैं। दिग्गज एंटरटेंनमेंट प्लेयर जैसे जी, टीवीएफ, एमएक्स प्लेयर जैसे बड़े प्लेटफॉर्म भी इसमें काफी निवेश कर रहे हैं। जी ने हाल ही में अपने वर्टिकल एप बुलेट को लॉन्च किया है।

कंपनियों के लगातार निवेश से साफ है कि यह नया फॉर्मेट अब महज़ एक ट्रेंड नहीं बल्कि आने वाले मनोरंजन उद्योग की मुख्य धारा बनने की ओर बढ़ रहा है। भारत में इस साल तक इंटरनेट उपयोगकर्ताओं ने 80 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया है। हाल ही में एक इंटरनेट के इस्तेमाल से जुड़ा एक चौकाने वाला आंकड़ा सामने आया है। कंसल्टिंग फर्म बर्नस्टीन की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में दूसरी और तीसरी श्रेणी के शहरों के इंटरनेट यूजर्स महीने में औसतन 35-40 जीबी डाटा का उपयोग करते हैं। जबकि मेट्रो शहरों में यह आंकड़ा 30 जीबी से भी कम है। ऐसे में माइक्रो ड्रामा बनाने वाले एप्स अपना ध्यान इन शहरों के लोगों पर ज्यादा कर रहे हैं। मसलन अलग-अलग भारतीय भाषा, संस्कृति और ऐसी कहानियाँ जिससे कोई भी जुड़ जाए। इन ड्रामों में ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं होती है, कई बार ये पारंपरिक धारावाहिकों की तरह बिना तर्क और बे सिर-पैर के भी दिखाई देते हैं। जिससे छोटे शहरों और कस्बों में माइक्रो ड्रामा अच्छी लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं। दिलचस्प बात यह भी है कि महिलाओं की हिस्सेदारी भी इसके दर्शक वर्ग में लगातार बढ़ रही है। दर्शक अक्सर बस या मेट्रो में सफर के दौरान, बिस्तर पर सोने से पहले या छोटे-छोटे ब्रेक में इन्हें देखकर अपना खाली समय भरते हैं।

हालांकि ये माइक्रो ड्रामा बड़े बजट, बड़े सेट या बड़े एक्टर्स के मोहताज नहीं होते हैं। बस अच्छी कहानी और कुछ ठीक-ठाठ कलाकारों से भी काम चल जाता है। फिल्म इंडस्ट्री में पहचान बनाने की राह देख रहे एक्टर्स-इंफ्लुएंसर्स के लिए भी यह एक अच्छा मंच है। साथ ही इसे बनाने में खर्च भी काफी कम होता है और शूटिंग भी जल्दी खत्म हो जाती है। इसलिए कंटेंट इडस्ट्री और प्लेटफॉर्म्स इस तरह के कंटेंट पर अच्छा खासा निवेश कर रहे हैं। अब तो इंस्टाग्राम रील्स और यूट्यूब शॉर्ट्स पर इन्फुलएंसर्स और कंटेंट क्रियेटर्स खुद का माइक्रो ड्रामा बना रहे हैं। वे अपने लंबे वीडियो को छोटे-छोटे क्लिप्स में काटकर हर क्लिप का अंत ऐसा रखते कि लगे अगले पार्ट में क्या होगा। इससे दर्शक खुद ही अगले पार्ट के लिए बेताब हो जाते है। हालांकि इस तरह के कंटेंट से क्रियेटर्स पर अब दबाव भी बना है कि कैसे कम समय में इतना कुछ कैसे दिखाया जाये। गाने पर लिप्सिंग, छोटे संदेश या इन्फॉर्मेटिव वीडियो तो करना आसान है, मगर एक मिनट में कोई कहानी या ड्रामा दिखाना काफी मुश्किल भी है। वह भी इतनी तेजी से कि दर्शक बीच में स्क्रॉल न कर दे। इसका मतलब है कि क्रियेटर को अब निर्देशक की तरह कहानी में इमोशन भी डालने है, सस्पेंस भी रचना है और क्लाइमेक्स भी  गढ़ना है वो भी चंद मिनटों में ।

हालांकि माइक्रो ड्रामे की लोकप्रियता के साथ-साथ उनकी कंटेंट गुणवत्ता पर प्रश्न उठते हैं। चूंकि प्रोडक्शन तेज और बजट कम होता है, तो कई बार कहानियाँ सतही और बिना मतलब की होती है। आलोचक कहते हैं इनमें कई बार इनमें विवादित और अश्लील कंटेंट का भी उपयोग होता है। साथ ही चीन और अमेरिका की तरह भारत का दर्शक वर्ग अभी कंटेंट के लिए ज्यादा पैसे चुकाने का आदी नहीं है। भारत में इन देशों की तर्ज पर अभी हर एपिसोड के लिए भुगतान और फ्रीमियम जैसे मॉडल उतने सहज नहीं है। हालांकि कुकू टीवी जैसे एप्स अपने सब्सक्रिपशन मॉडल और कुछ एप्स अपने विज्ञापन मॉडल के जरिए पैसा बनाने की कोशिश कर रहे हैं, मगर यह अभी उतने कारगर नहीं है। अंत में माइक्रो ड्रामा न सिर्फ क्रिएटर्स और प्लेटफॉर्म्स के लिए नए अवसर खोल रहा है बल्कि दर्शकों की बदलती आदतों को भाँप कर मनोरंजन का नया फॉर्मेट भी परोस रहा है। छोटे एपिसोड, तेज़ और सस्पेंस भरी कहानी और मोबाइल-फ्रेंडली डिजाइन ने इसे डिजिटल दर्शकों के बीच बेहद लोकप्रिय बना दिया है। साथ ही भविष्य में यह बड़े बजट वाले प्रोजेक्ट्स का भी हिस्सा बन सकता है। इन शॉर्ट फॉर्म कंटेंट ने यह तो साफ कर दिया है कि सोशल मीडिया के दौर में कहानी कहने का तरीका बदल गया है , अब स्क्रीन छोटी है, समय म है लेकिन दर्शकों को मनोरंजन भरपूर और पहले से अधिक चाहिए।
अमर उजाला में  08/10/2025  को प्रकाशित लेख 

Wednesday, October 1, 2025

ट्रैवल व्लॉगिंग का जादू और नेपथ्य में जाता यात्रा लेखन

 
पहले जहाँ यात्राएं आत्ममंथन और समाज-विश्लेषण का जरिया होती थींवहीं अब यह फॉलोवर्स और व्यूज बटोरने का मात्र जरिया बनती जा रही हैं। इस व्लॉगिंग के जादू ने परंपरागत यात्रा वृत्तांत लेखन को किनारे कर दिया है। ऑप्टिनमॉन्स्टर की एक रिपोर्ट के मुताबिक इंटरनेट पर करीब 600 मिलियन से अधिक ब्लॉग्स हैं जिनमें यात्रा एक लोकप्रिय विषय है। वहीं फ्यूचर डेटा स्टैट्स 2024 के मुताबिक ट्रैवल व्लॉग्स का दुनिया भर का वैश्विक बाजार साल 2025 में 4.5 अरब डॉलर तक पहुँच गया है जो कि 2032 तक 9 अरब डॉलर तक पहुँच सकता है। हालांकि बढ़ते व्लॉग्स का यात्रा—वृतांत लेखन पर सीधा असर पड़ा है। वॉशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक जहाँ साल 2006 में अमेरिका में 1.9 करोड़ यात्रा से जुड़ी किताबें बिकती थी वहीं अगले दशक यह आंकड़ा आधा हो गया। भारतीय पब्लिशिंग इंडस्ट्री में भी यात्रा-वृतांत अब कम बिकने वाले खंडो में गिना जाने लगा है। हिंदी साहित्य में जो यात्रा लेखन कभी धर्मयुगसाप्ताहिक हिंदुस्तानऔर नवनीत जैसी पत्रिकाओं का स्थायी स्तंभ होता थावह अब सीमित हो गया है।
पिछले एक दशक में भारत ने इंटरनेट के क्षेत्र में एक क्रांति देखीसस्ते मोबाइल डेटा पैक्सकिफायती स्मार्टफोन और सोशल मीडिया के व्यापक प्रसार ने हमारे हर अनुभव को दृश्य केंद्रित बना दिया है। नतीजन व्लॉगिंग और खासकर ट्रैवल व्लॉगिंग ने पारंपरिक यात्रा लेखन की लोकप्रियतामाँग और गुणवत्ता को खासा नुकसान पहुँचाया है। बड़े प्रकाशकों जैसे राजकमलवाणी और अन्य प्रकाशनों की ओर से यात्रा साहित्य की नई श्रृंखलाएं काफी कम प्रकाशित हुई हैं। इसके विपरीत ट्रैवल व्लॉगर्स जैसे नोमैडिक इंडियनमाउंटेन ट्रैकरदेसी गर्ल ट्रैवलर जैसे यूट्यूबर्स ने ट्रैवल व्लॉगिंग के जरिए करोड़ों व्यूज और फॉलोवर्स अर्जित किये हैं। यात्रा साहित्य में आये इस आर्थिक संकट का एक कारण यह भी है कि पर्यटन विभागराज्य बोर्ड और होटल कंपनीज भी अब अपना प्रचार व्लॉगर्स के माध्यम से ही कर रहे हैं। उदाहरण के लिए उत्तराखंड सरकार ने साल 2023 में सैकड़ों व्लॉगर्स को फ्री टूर पर बुलायालेकिन किसी पारंपरिक यात्रा लेखक को जगह नहीं दी।
बीते दशकों में यात्रा-वृत्तांत केवल सैर-सपाटे की दास्तान नहीं रहेबल्कि वे स्थानों की संस्कृतिमनुष्यता और समयबोध को समझने का एक अनोखा माध्यम रहे हैं। पारंपरिक यात्रा-लेखक किसी भी स्थल को केवल देखते नहीं थेवे वहां रुकतेलोगों के समझते और उस जगह को महसूस करते थे। चाहे वह राहुल सांकृत्यायन की ‘दार्जिलिंग यात्रा’ होनिर्मल वर्मा की यूरोपीय यात्राओं की झलक या फिर अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में लिखे गए यात्रा संस्मरण इन सभी में लेखक अपने भीतर और बाहर के संसारों को एक साथ टटोलते थे। वह जो देखता थाउसे सांस्कृतिक संदर्भऐतिहासिक पृष्ठभूमिऔर मूलवासी अनुभवों के साथ जोड़ता था। नतीजतनपाठक केवल एक जगह की यात्रा नहीं करता थावह एक समयबद्ध अनुभव से गुजरता थाजिसमें स्थानकाल और संस्कृति का जीवंत चित्रण होता था।
इस तेजी से बदलती संस्कृति का अहम प्रभाव स्थानीय भाषाओं और सांस्कृतिक प्रस्तुति पर भी पड़ा है। पारंपरिक यात्रा लेखन में अक्सर स्थानीय बोलीलोक कथाएंकहावतें और गीत परंपरा भी शामिल होती थी। लेकिन आज अधिकांश भारतीय ट्रैवल-व्लॉगिंग या तो अंग्रेजी में और या हिंदी-अंग्रेजी की मिश्रित बोली में होते हैं। जिससे प्रादेशिक भाषाओं में रचना का प्रवाह कम हुआ है। टाइम्स पत्रिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक अधिकांश ट्रैवल व्लॉग्स कई बार अनजाने में औपनिवेशिक दृष्टिकोण को दोहराती हैं। कई व्लॉग्स में उत्तर-पूर्व भारत या आदिवासीजनजाति क्षेत्रों में रहस्यमय इलाकों की तरह दिखाया जाता हैजिनमें न तो कई ऐतिहासिक संदर्भ होता और न ही स्थानीय दृष्टिकोण।
पर्यटन विभाग की ओर से जारी हुई इंडिया टूरिज्म स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट 2023 के मुताबिक  कोविड महामारी के बाद भारतीय पर्यटकों की विदेश यात्रा फिर से कोविड के पुराने आंकड़ों के पास पहुँच गई है। साल 2019 में जहाँ करीब  ढाई करोड़ लोग विदेशी यात्राओं पर गये थे वहीं साल 2024 में यह संख्या बढ़कर करीब 3 करोड़ हो गई है। वहीं वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम के ट्रैवल एंड टूरिज्म डेवलेपमेंट इंडेक्स में साल 2024 में भारत ने 39वाँ स्थान हासिल किया है। जो कि भारत के पर्यटन क्षेत्र में हो रहे ढाँचागत परिवर्तनों और उसकी वैश्विक मान्यता की ओर इशारा करता है। हालांकि इस बढ़ते वैश्विक और राष्ट्रीय पर्यटन के पीछे डिजिटल कंटेंट और ट्रैवल व्लॉग्स का गहरा प्रभाव है। स्टैस्टिका की 2023 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में करीब 74 प्रतिशत युवा पर्यटक किसी नई जगह पर जाने से पहले उससे जुड़े यूट्यूब वीडियोज और व्लॉग्स देखते हैं। वहीं 2022 में भारत में जॉस्टल द्वारा कराये गये एक सर्वे में पाया गया कि 65 प्रतिशत भारतीय युवा अपना अगला पर्यटन स्थल चुनने के लिए इंस्टाग्राम और यूट्यूब की मदद लेते हैं। यही नहीं गूगल ट्रैवल ट्रैंड्स के अनुसार भारत में हर महीने, “बेस्ट प्लेसेस की विजिट इन...बेस्ट टूरिस्ट डेस्टिनेशन.. जैसे कीवर्ड्स पर करीब 1 करोड़ से अधिक सर्च किया जाता है। अब पर्यटन केवल मंत्रालयोंविज्ञापनों और ट्रैवल एजेंसियों की सिफारिशों से निर्देशित नहीं होता है बल्कि यह कंटेंट क्रियेटर्सट्रैवल व्लॉगर्स द्वारा संचालित होता है। इसका सीधा नतीजा यह हुआ है कि कई नए और कम जाने वाले पर्यटन स्थलजिन्हें गिने-चुने यात्रा-वृतांतों में जगह मिली थी , अब अचानक से वायरल डेस्टिनेशन बन जाते हैं। उदाहरण स्वरूप हिमाचल का जिबीकेरल का वागामोनलद्दाख का तुरतुक और मेघालय के दावकी जैसे स्थान जो पहले सीमित पर्यटक आकर्षण थेअब व्लॉगिंग के कारण वायरल डेस्टिनेशन हो चले हैं। यह ट्रेंड न केवल पर्यटकों के निर्णयों को प्रभावित कर रहा हैबल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्थापर्यावरणीय दबावऔर सांस्कृतिक अंतःक्रिया की प्रकृति को भी नए सिरे से परिभाषित कर रहा है।
 हालांकि इन सबके बीच यात्रा लेखन जैसे यात्रा-वृतांतयात्रा संस्मरणयात्रा निबंध और यात्रा डायरी ये सारी विधाएं कहीं पीछे छूटती नजर आ रही हैं। कैमरे और स्क्रीन पर हम बहुत कुछ देख सकते हैंलेकिन महसूस करने के लिए शब्दों की ज़रूरत होती है। यात्रा लेखन केवल जगहों का ज़िक्र नहीं करतावह उनके साथ जुड़ी संवेदनाओंइतिहासऔर लोगों की कहानियों को भी सामने लाता है। जरूरी नहीं इन दोनों विधाओं में टकराव हो , जरूरत है तो बस एक संतुलन की। यात्रा सिर्फ घूमने-फिरने का नाम नहीं हैबल्कि अपने भीतर झाँकने का एक मौका भी है और उन महसूस किये गये अनुभवों को जिंदा रखने के लिए सबसे सच्चा तरीका आज भी शब्द ही हैं।
 प्रभात खबर में 01/10/2025  को प्रकाशित 

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