Monday, December 15, 2025

सोशल मीडिया पर प्रतिबन्ध नहीं, जागरूकता जरुरी

 

इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है. इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो लीअब इसके दूसरे पहलुओं पर भी ध्यान जाने लगा है. कई देशों के न्यूरो वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिकलोगों पर इंटरनेट और डिजिटल डिवाइस से लंबे समय तक पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं. मुख्य रूप से इन शोधों का केंद्र युवा पीढ़ी पर नई तकनीक के संभावित प्रभाव की ओर झुका हुआ हैक्योंकि वे ही इस तकनीक के पहले और सबसे बड़े उपभोक्ता बन रहे हैं.
ऑस्ट्रेलिया में 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लागू कर दिया गया है. यह एक ऐतिहासिक कदम है जिसने दुनिया भर का ध्यान खींचा है. यह कदम ऐसे समय में उठाया गया है जब कई देशों में सरकारें नाबालिगों को ऑनलाइन कंटेंट और साइबरबुलिंग से बचाने के लिए नियम बना रही हैं. पिछले साल पास हुए कानून के तहत सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुकइंस्टाग्रामकिकरेडिटस्नैपचैटथ्रेड्सटिकटॉकएक्सयूट्यूब अगर 16 साल से कम उम्र के ऑस्ट्रेलियाई बच्चों के अकाउंट हटाने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाते हैं तो उनपर 4.95 करोड़ ऑस्ट्रेलियाई डॉलर (3.29 करोड़ यूएस डॉलर) तक का जुर्माना लग सकता है.हालांकि मेटाटिकटॉक और एक्स जैसी कंपनियों को इस बैन लिस्ट में रखा गया है वहीं स्ट्रीमिंग वेबसाइट यूट्यूब को इस बैन से छूट दी गई है. कानून में तर्क दिया गया है कि चूंकि स्कूलों में यूट्यूब का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जाता है इस लिए इसे बैन से अलग रखा गया है. भारत में सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए कुछ लोग इस तरह के कदमों की मांग कर रहे हैंलेकिन क्या भारत में सोशल मीडिया पर बैन करना वास्तव में इस समस्या का हल है?बैन किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता .भारत के कुछ राज्यों में शराबबंदी लागू है पर इससे वहां शराब की तस्करी बढ़ गयी और नशे की समस्या खत्म नहीं हुई .

 दरअसल तकनीक ने पिछले कुछ बरसों में हमारे जीवन को पूरी तरह से बदलकर रख दिया है. आज स्मार्टफोनटैबलेट समेत अन्य डिजिटल डिवाइस आज हर व्यक्ति की जीवन शैली का हिस्सा है. कम्यूनिटी बेस्ड सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म लोकर सर्कल्स के एक राष्ट्रीय सर्वे के मुताबिक भारत  में 60 प्रतिशत बच्चे रोजाना 3 घंटे से अधिक सोशल मीडिया एप्स का इस्तेमाल करते हैं. वहीं किशोरों में यह आंकड़ा और अधिक है. आज भारत में सोशल मीडिया का प्रभाव काफी गहरा है. सोशल मीडिया बच्चों और किशोरों के लिए आज न केवल मनोरंजन का स्रोत है बल्कि एक शैक्षिक उपकरण के रूप में भी सामने आ रहा है. फेसबुकएक्सलिंक्डिइन जैसे प्लेटफॉर्म बच्चों और किशोरों को नए रूप में अध्ययन सामग्री प्रदान करने के लिए विचारों और अभिव्यक्ति को स्थापित करने का एक मौका पेश करते हैं. उदाहरण के तौर पर यूट्यूबइंस्टाग्राम प्लेटफॉर्म बच्चों को उनकी रचनात्मकता विकसित करने और शिक्षा से जुड़े लेक्चर्सशॉर्ट वीडियो प्रदान करते हैंजो उनके लिए काफी उपयोगी साबित होता है. भारत जैसे देश में जहाँ तकनीक पहले आ रही है उसके इस्तेमाल करने का तरीका बंद में बन रहा है .इसे यूँ कहें मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है जब दो पीढी एक साथ किसी तकनीक के इस्तेमाल करने का तरीका एक साथ सीख रहे हैं .सोशल मीडिया के सही इस्तेमाल का तरीका न माता पिता को पता और न ही बच्चों को .बढ़ते शहरीकरण ने संयुक्त परिवारों को खत्म सा कर दिया .एकल परिवार में माता पिता दोनों व्यस्त हैं तो बच्चों को व्यस्त रखने के लिए मोबाईल पकड़ा दिया जाता है .बच्चे घर से बाहर खेलने जा नहीं पाते क्योंकि खेल के मैदान या पार्क हैं ही नहीं .नतीजा सोशल मीडिया और मोबाईल का अनियंत्रित इस्तेमाल .भारत ऐसे ही दुश्चक्र का सामना कर रहा है .जिसका असर  मानसिक स्वास्थ्यपढ़ाई और सामाजिक जीवन पर नकारात्मक असर के रूप में पड़ता  है. लोगों में डिजिटल तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है. शहर फैल रहे हैं और इंसान पाने में सिमट रहा है.नतीजतनहमेशा लोगों से जुड़े रहने की चाह उसे साइबर जंगल की एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैजहां भटकने का खतरा लगातार बना रहता हैवर्चुअल दुनिया में खोए रहने वाले के लिए सब कुछ लाइक्स व कमेंट से तय होता है. वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैंजिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं. और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलतातो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है.

हालांकि सोशल मीडिया पर पूर्ण प्रतिबंध के बजाय इसे सीमित करना एक अधिक व्यावहारिक और संतुलित विकल्प हो सकता है. बच्चों और किशोरों को डिजिटल साक्षरता और सुरक्षा के विषय में प्रशिक्षित किया जाना चाहिएताकि वे सोशल मीडिया का उपयोग सकारात्मक और सुरक्षित तरीके से कर सकें. येल मेडिसिन की एक रिपोर्ट के सुझाव के  मुताबिक बच्चों के लिए सोशल मीडिया का उपयोग सोने से एक घंटे पहले बंद कर देना चाहिए और इसका उपयोग केवल शैक्षिक या रचनात्मक उद्देश्यों के लिए होना चाहिए. इसके साथ हीमाता-पिता को बच्चों के लिए ऐसी योजना बनानी चाहिएजिसमें गोपनीयता सेटिंग्सअजनबियों से बचने और साइबर बुलिंग को रिपोर्ट करने की जानकारी भी शामिल हो .डिजिटल युग में यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है , इसे नजर अंदाज करना छात्रों के साथ एक बेईमानी की तरह होगा कि आप उन्हें वर्चुअल दुनिया से काट दें .छात्र सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर इस्तेमाल अपनी शिक्षा और करियर को पंख दे सकते हैं.
प्रभात खबर में 15/12/2025 को प्रकाशित 

Thursday, December 4, 2025

हमेशा ऑन लाइन रहने की कीमत

 

डिजिटल संचार जहाँ एक ओऱ संवाद को तात्कालिक और सुलभ बना रहा हैवहीं दूसरी ओर यह हमारी निजी और कामकाजी जिंदगी की सीमाओं को धुंधला कर रहा है। मसलन व्हाट्सएपमेटा के स्वामित्व वाला मैसेजिंग एप्लिकेशन आज वैश्विक संचार का पर्याय बन गया है। स्टैस्टिका के आंकड़ों के मुताबिक विश्वभर में करीब 2.7 अरब और भारत में 50 करोड़ से अधिक लोग इस एप का इस्तेमाल करते हैं। यह अब मात्र व्यक्तिगत चैट तक सीमित नहीं रहा  है बल्कि एक व्यावसायिक पारिस्थितिकी तंत्र बन चुका है। हालांकि हमें इस सुविधा की एक कीमत चुकानी पड़ रही है। हमेशा ऑन रहने की संस्कृति ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जहाँ काम के घंटे अनिश्चित हो गये हैं। दफ्तर का समय खत्म होने के बाद भी व्हाट्सएप पर बॉस या सहकर्मियों के मैसेज आना आम बात हो गई है और अनजाने में ये तात्कालिकता और हर समय उपलब्ध रहने की प्रवृत्ति लोगों में तनावचिंता और बर्नआउट का एक प्रमुख कारण बन रही है। अब काम केवल वो जगह नहीं रह गई जहाँ आप रोज 9 से 5 जाते हैं बल्कि एक ऐसी गतिविधि हो गई है जिसे आप लगातार करते हैं।

 अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट भी इस बात पर प्रकाश डालती है कि डिजिटल उपकरणों का उपयोग करने वाले कर्मचारी न केवल अधिक घंटे काम करते हैंबल्कि अपने काम और जीवन के बीच संघर्ष का अनुभव करते हैं। व्हाट्सएप 'डिजिटल प्रेजेंटिज्मनाम की इस नई घटना को जन्म देता है जहाँ कर्मचारी दफ्तर में न होने पर भी ऑनलाइन उपलब्ध रहने के लिए मजबूर महसूस करते हैं। यह ईमेल प्रवृत्ति के ठीक विपरीत है जहाँ कर्मचारी को सोचने और जवाब देने के लिए पर्याप्त समय मिलता था। व्हाट्सएप का 'ब्लू टिकऔर 'लास्ट सीनफीचर इस दबाव को और बढ़ा देता हैजिससे एक अलिखित अपेक्षा पैदा होती है कि संदेश देख लिया गया है तो उसका तुरंत जवाब भी दिया जाना चाहिए।

 इसके साथ ही वाह्ट्सएप जैसे इंस्टेंट मैसेजिंग प्लेटफॉर्म पर  बातचीत में इमोजीस्टिकर और शब्दों को छोटा करके बोलना आम है। चूंक लिखित चैट में चेहरे के भावआवाज का भार और शारीरिक संकेत नहीं मिलते हैं तो पाठक को बहुत कुछ अनुमान लगाना पढ़ता है। एक बॉस द्वारा भेजा गये साधारण अंगूठे का इमोजी के कर्मचारी कई अर्थ निकाल सकता हैजिससे उसे संदेश के मूल को समझने के लिए अतिरिक्त मानसिक ऊर्जा लगती है। एक औपचारिक ईमेल के माध्यम से किये गए अतिरिक्त काम के अनुरोध करना आसान होता हैलेकिन वहीं अनुरोध अगर व्हाट्एप पर एक अनौपचारिकमैत्रीपूर्ण संदेश के रूप में आता है तो उसे मना करना असभ्य लग सकता है। एटलैसिएन की रिपोर्ट बताती है कि अस्पष्ट ईमेल या चैट की वजह से हर साल कर्मचारी औसतन 40 घंटे बर्बाद कर देते हैं।

 हमारा मस्तिष्क एक समय में एक ही कार्य पर  गहराई से ध्यान केंद्रित करने के लिए बना हैलेकि व्हाट्सएप हमें लगातार कोड स्विचिंग के लिए मजबूर करता हैएक पल में ऑफिस का कोई महत्वपूर्ण काम वहीं  दूसरे पल फैमिली ग्रुप पर  व्यक्तिगत चैट। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोध से पता चलता है कि निरंतर मल्टीटास्किंग हमारी कार्यशील मेमोरी  को कमजोर करती है और अंतत: बर्नआउट की ओऱ ले जाती है। यूँ तो ये घटना वैश्विक है लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में सामाजिक आर्थिक कारक इसे कही अधिक गंभीर चुनौती बना देते हैं।

 हालांकि अब समय आ गया है जब लोगों और कंपनियों को इसके समाधान की दिशा में सक्रियता से काम करना होगा। कंपनियों को एक विस्तृत कम्यूनिकेश चार्टर या नीति बनाने कि आवश्यकता है जिसमें यह स्पष्ट रूप से परिभाषित हो कि किस संचार के लिए कौन सा प्लेटफॉर्म उपयोग किया जाए। साथ ही अपेक्षित प्रतिक्रिया का समयटाइम को डिस्कनेक्ट इसकी भी नीतियाँ बनाई जानी आवश्यक है।

प्रभात खबर में 04/12/2025 को प्रकाशित 

 

Tuesday, December 2, 2025

आपकी पसंद के अनुरूप जवाब

 "जो तुमको हो पसंदवही बात कहेंगेतुम दिन को अगर रात कहोरात कहेंगे… 1970 में आई फिल्म सफर का यह मशहूर गीत आज के इस तकनीकी दौर की एक डरावनी हकीकत बन रहा है।

 क्या हो अगर आपके पास एक ऐसा सलाहकार है जो आपकी हर बात से सहमत है। वह आपकी हर राय को सही ठहराता हैआपके हर नैतिक संदेह को सही होने का प्रमाण पत्र देता है। पहली नजर में यह सुखद लग सकता है मगर गहराई में सोचें तो यह इंसान को उसके बौद्धिक पतन की ओर ले जा सकता है। दुर्भाग्य से एआई विशेष रूप से एलएलएम मॉडल्स तेजी से इसी वास्तविकता की ओर बढ़ रहे हैं। हाल ही में स्टैंडफोर्ड और कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक चौंकाने वाला खुलासा किया है। प्रकाशित ताजा शोध में सामने आया है कि एआई सिस्टम इंसानों की तुलना में 50 प्रतिशत से भी अधिक चापलूस होते हैं। चैटजीपीटीजैमिनीग्रोक समेत 11 से अधिक एआई सिस्टम पर किये गए इस शोध में पाया गयाकि ये मॉडल्स अक्सर वही बात करते हैं जो लोग सुनना चाहते हैं। आसान भाषा में समझे को एआई आपकी नजरों में अच्छा बनने के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ के पेश करता है। शोधकर्ताओं ने इस व्यवहार को एआई साइकोफैंसी या एआई चापलूसी का नाम दिया है।

 हालांकि पहली नजर में एआई का चापलूसी व्यवहार किसी तरह की तकनीकी खामी लग सकता हैमगर विशेषज्ञ इसे एक सचेत डिजाइन का परिणाम बताते हैंजो हमारे मनोविज्ञान के साथ खिलवाड़ कर रहा है। हमारे दिमाग में यह सवाल भी खड़ा होता हैकि आखिर एक मशीन को चापलूसी करने की क्या जरूरत हैउसे कौन सा हमसे प्रमोशन चाहिए या कौन सा चुनाव लड़ना है। असल में यह सब सिखाने के तरीके का नतीजा है। इन एआई मॉडल्स को अक्सर इंसानों द्वारा दिए गए फीडबैक से सिखाया जाता हैइसे तकनीकी भाषा में आरएलएचएफ कहते हैं। आसान शब्दों में समझे तो जब एआई जवाब देता है तो इंसानी परीक्षक उसे रेटिंग देते हैं। अगर एआईव्यक्ति के सवालों का रूखा जवाब दे या कहे आप गलत हो तो लोग उसे खराब रेटिंग देते हैं। और वहीं एआई अगर प्यार सेचापलूस बातें करे तो उसे अच्छी रेटिंग मिलती है। बस फिर क्या मशीन को भी उतनी अक्ल आ गई कि फाइव स्टार रेटिंग चाहिए तो मालिक की हाँ में हाँ मिलाते रहो । क्योंकि एआई को सच बोलने का इनाम नहीं मिलता बल्कि आपको खुश रखने का इनाम मिलता है।

 साथ ही इसके पीछे कंपनियों का बढ़ता मुनाफा भी एक कारण है। गूगलमेटाओपनएआई जैसी बड़ी कंपनियाँ चाहती हैं कि आप उनके मॉडल्स पर अधिक से अधिक समय बिताएँ। आप खुद सोचिए आप किस दोस्त के पास बार-बार जाना पसंद करेंगेजो हर बात पर आपकी गलतियाँ निकालता हो याजो ये कहे जो तुम कहो वही सही है।

जाहिर है हम दूसरे वाले के पास जाएंगे। एआई कंपनियाँ इसी मनोविज्ञान का फायदा उठा रही हैं। एक ऐसा चैटबॉट जो आपको वैलिडेट करता होवह आपको अपना आदी बना लेता है। ग्रैंड व्यू रिसर्च के मुताबिक साल 2024 में एलएलएम मॉडल्स का राजस्व करीब 6 बिलियन डॉलर था जो 2030 में बढ़कर करीब 35 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। इसके साथ ही कंसल्टिंग फर्म बेन एंड कपंनी के मुताबिक 2030 तक एआई की वैश्विक माँग को पूरा करने के लिए करीब 2 ट्रिलियन डॉलर के निवेश की आवश्यकता है। ऐसे में कंपनियाँ अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए इंसान से उसकी सबसे कीमती चीज यानी समय चाहती है। वेबसाइट आर्जिव पर प्रकाशित एक प्रीप्रिंट अध्ययन के मुताबिक 85 प्रतिशत एआई यूजर्स प्रतिदिन चैटजीपीटी या अन्य किसी एआई चैटबॉट का इस्तेमाल करते हैं। भारत में यूथ की आवाज और वाईएलएसी की एक सर्वे में पाया गया कि किशोर और युवा तनाव या अकेलापन दूर करने के लिए एआई का भावनात्मक समर्थन लेते हैं।

 लेकिन ये चैटबॉट्स हमारे दिमाग के साथ क्या खेल खेल रहे हैंहमें यह समझना बहुत जरूरी है। मसलन अगर आपने गुस्से में अपने परिवार में किसी को कुछ बुरा-भला कह दियाऔर आपके मन में थोड़ा संदेह है कि शायद आपने गलत किया। जब आप एआई से इस बारे में पूछते हैं तो वह कहता है कि गुस्सा आना तो स्वाभाविक हैशायद आपके परिवार वालों ने ही आपको यह करने पर मजबूर किया हो। फिर क्या हमे क्लीन चिट मिल गई । यानी मशीन अब इंसानी रिश्तों को खत्म रखने की ताकत रख रही है। ब्रूकिंग्स की एक रिपोर्ट के मुतााबिक एआई चापलूसी से कई तरह के सामाजिक और नैतिक खतरें सामने आये हैं। हम पहले से ही सोशल मीडिया पर अपनी पसंद की चीजें देखते के आदी हो चुके हैं और एआई इस इको चैंबर को और भी संकरा बना रहा है। यह एक तरह के डिजिटल ब्रेनवॉश की तरह भी काम कर सकता है। मसलन एआई को पता है कि आपको कैसे खुश करना हैंतो अगर उसे कोई उत्पाद आपको बेचना हो तो वह धीरे-धीरे आपको कोई प्रोडेक्ट खरीदनेकिसी विचारधारा से जुड़ने के लिए भी मना सकता है। हालांकि दुनियाभर में बढ़ रही चिंताओं को लेकर अब कंपनियों ने भी इस पर  कदम उठाने की पहल की है। इस साल मई में चैट जीपीटी ने अपना जीपीटी 4o अपडेट को वापस लिया और मॉडल की चापलूसी कम करने के लिए एक प्रशिक्षण आधारित उपाय भी लागू किये। हालांकि जब तक कंपनियाँ पूरी तरह से यह काम नहीं करती तब तक यह जिम्मेदारी हमारे ऊपर है।

 हमें यानी आम यूज़र्स को अपनी अक्ल का इस्तेमाल बंद नहीं करना चाहिए। हमें यह याद रखना होगा कि चैटजीपीटी या कोई भी एआई कोई ज्ञानी महात्मा नहीं है। वह एक सॉफ्टवेयर है जो शब्दों का खेल खेल रहा है। जब भी एआई आपकी बहुत ज्यादा तारीफ करे या आपको किसी गलत काम के लिए भी सही ठहराएतो आपके कान खड़े हो जाने चाहिए। आपको खुद से सवाल पूछना चाहिए कि "क्या यह सच बोल रहा है या सिर्फ मुझे खुश कर रहा है?" साथ ही हमें यह समझना ज़रूरी है कि हम तकनीक का इस्तेमाल अपनी मदद के लिए कर रहे हैंन की तकनीक की गुलामी करने के लिए ।


दैनिक जागरण में 02/12/2025 को प्रकाशित लेख 

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