Tuesday, August 21, 2012
Saturday, August 18, 2012
हिंदी के ग्लोबल होने की प्रतीक्षा
सामान्यत: माना जा रहा है कि हिंदी आज एक बड़ा बाजार है। हिंदी मीडिया का बहुमुखी विस्तार हो रहा है पर क्या वास्तव में ऐसा है और हिंदी भाषा का उन्नयन हो रहा है। आज हिंदी के अखबारों में विभिन्न विषयों से सम्बंधित लेख भरे पड़े हैं। एक पेज के सम्पादकीय पृष्ठ की परम्परा अब पुरानी हो चली है। अब तो इसके साथ-साथ विचार सम्पादकीय पृष्ठ भी दिया जाने लगा है। सूचना आधिक्य का युग सही मायनों में साकार हो रहा है पर तस्वीर का एक रुख और भी है जो असल चिंता का कारण है। सवाल है कि वास्तव में हिंदी के समाचार पत्रों में सामग्री के स्तर पर आयी यह क्रांति हिंदी के विस्तार की है या सूचना क्रांति के कारण अंग्रेजी पर बढ़ती निर्भरता और मौलिक चिंतन की उपेक्षा कर अनुवाद संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। वास्तविकता यह भी है कि आज भी सामान्यत: जब तक किसी विचार पर अंग्रेजी की मुहर नहीं लगती, उसे स्वीकृति नहीं मिलती। चाहे बात कितनी भी विशुद्ध भारतीय क्यों न हो, विचार तो किसी अंग्रेजी लेखक के ही होने चाहिए। पिछले कुछ वर्षो से अंग्रेजी लेखकों के लेखों को हिंदी के अखबारों में छापने का चलन बढ़ा है यानी ऐसे भारतीय लेखक जो मूलत: अंग्रेजी में लिखते हैं और उनके विचार अनुवाद के तहत प्रस्तुत किये जाते हैं। ऐसे ही दूसरे अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्रों के लेखों का हिंदी तर्जुमा हिंदी के समाचार पत्रों में छापा जाता है। सैद्धांतिक तौर पर इस मुद्दे पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। ज्ञान का विस्तार ऐसे ही होता है। विचारों को आयातित करना कहीं से भी गलत नहीं है। हमारे पूर्वज भी ऐसा करते रहे हैं। दूसरों को सुनना और अपनी बात कहने से ही मानव समाज की उत्तरोत्तर उन्नति होती है। इसमें किसी को आपति नहीं होनी चाहिए। अंग्रेजी के लेखक अपने ज्ञान से हिंदी पाठकों को समृद्ध कर रहे हैं पर अक्सर जो दिखता है वैसा होता नहीं है। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या हिंदी में गंभीर और गूढ़ विषयों पर विशेषज्ञ लेखकों का अभाव है? कई बार हिंदी के स्तंभकारों को अनुवाद लेखों की कीमत पर जगह नहीं दी जाती है? दरअसल पूरी बात ब्रांडिंग की है। बात समझने की नहीं बल्कि जो दिखता है, वही बिकता है वाले विचार को तरजीह मिलती है। हमारी नयी पीढ़ी हिंदी बोल और सुन तो लेती है क्योंकि परिवेश हिंदी का है पर उसे लिखना नहीं चाहती है। यह तथ्य इंगित करता है कि हिंदी का विस्तार किस तरह से हो रहा है। सारी दुनिया के लिए भारत एक बड़ा बाजार है। और उसके केंद्र में है भारत का विशाल मध्य वर्ग जो जनसंख्या के हिसाब से चाहे जितना भी हो लेकिन उसकी क्रय शक्ति ज्यादा है। दरअसल अंग्रेजी के लेखकों के साथ ग्लैमर जुड़ा होता है जिसके कारण उस लेखक और उसके विचार की ब्रांडिंग आसान हो जाती है। यह तथ्य अब किसी से छुपा नहीं है कि आज अखबार सूचना और विचार का वाहक न होकर महज एक उत्पाद बन गया है। अगर ब्रांडिंग ठीक नहीं होगी तो विज्ञापन पर संकट आ जाएगा। इस कारण हिंदी के लेखकों को तमाम मुद्दों पर अपने विचार प्रस्तुत करने का उतना मौका नहीं मिल पाता है। अंग्रेजी के कई स्तंभकार हिंदी समाचार पत्रों में नियमित रूप से छपते हैं पर यह भाषाई वैचारिक आदान-प्रदान अंग्रेजी के समाचार पत्रों से गायब है। वहां आप हिंदी के लेखकों को नहीं पाएंगे। कोई भी भाषा जितनी अधिक दूसरी भाषाओं ‘में’ और ‘से’
अनुवादित होगी, उतनी ही आगे बढ़ेगी और अंग्रेजी में इसमें अग्रणी है। ‘अंग्रेजी में’ और ‘अंग्रेजी से’ सर्वाधिक अनुवाद हुए हैं। इसीलिए अंग्रेजी के विस्तार को सहज ही देखा- समझा जा सकता है। संस्कृति, सभ्यता और भाषा आगे बढ़ने में एक-दूसरे की मदद करती हैं। इसके बाई प्रोडक्ट के रूप में हिंग्लिश हमारे सामने है जो हिंदी और इंग्लिश भाषा के मिलन से आयी है। यूनिर्वसटिी ऑफ वेल्स के भाषा विज्ञानी डेविड क्रिस्टल ने गणना कर बताया है कि दुनिया में हिंग्लिश बोलने वाले जल्दी ही इंग्लिश बोलने वालों की संख्या से ज्यादा हो जाएंगे। ध्यान देने वाली बात यह है कि इस भाषा के विकास के लिए न तो कोई दिवस मनाया गया और ना ही पखवाड़ा। दरअसल ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि हिंग्लिश के पीछे बाजार खड़ा है। इसके उलट हिंदी के पास न तो स्टेटस सिम्बल का ग्लैमर है और न ही बाजार का सीधा समर्थन। इसका ताजा उदाहरण कुछ दिनों पहले अंग्रेजी के एक प्रख्यात लेखक का सोशल साइट पर देश के भावी प्रधानमंत्री के बारे में सवाल उछालना और उसी आधार पर हिंदी के एक समाचार पत्र के सम्पादकीय पेज पर एक लेख लिखना है। यह ताकत हिंदी के किस लेखक के पास है? इसका सीधा संबंध बाजार से है। अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद एक बड़े बाजार का रूप ले चुका है जबकि अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद का कोई बड़ा बाजार नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो अंग्रेजी को बाजार का साथ मिला जबकि हिंदी अभी भी बाजार में अपना अस्तित्व तलाश रही है। बाजारवाद का एक पहलू यह भी है कि भाषा वही आगे बढ़ेगी जिसके पाठक के पास क्रय शक्ति ज्यादा होगी। दरअसल अनुवाद एक भाषा के कथ्य को दूसरी भाषा में बदल देने की कला भर नहीं है। इसके जरिए एक भाषा में कही गई बात और उसमें प्रस्तुत भावों को बहुत ही गंभीरता से दूसरी भाषा में अनूदित कर प्रस्तुत करना होता है। अनुवाद के जरिए सिर्फ भाषा ही नहीं वरन एक पूरी संस्कृति को भी संचारित किया जाता है। यही वह प्रमुख कारण है कि हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद कम या न के बराबर होता है। हैरी पॉटर और नार्नियां सीरीज की वि प्रसिद्ध किताबें आज हिंदी के पाठकों के लिए सर्वसुलभ हैं। इनके अलावा अंग्रेजी की कई बेस्ट सेलर किताबों के हिन्दी संस्करण भी आसानी से बाजार में उपलब्ध हैं लेकिन हिंदी का मौलिक चिंतन और लेखन अंग्रेजी में कब जा पाएगा, यह प्रश्न लंबे समय बना हुआ है और शायद बना रहने वाला है। वैीकरण और उदारीकरण ने भारतीय फिल्मों और खाने को तो ग्लोबल कर दिया है लेकिन हिन्दी भाषा का मामले में स्थिति अभी बहुत चिंतनीय है। वैीकरण और उदारीकरण अच्छा है या खराब, यह बहस का विषय हो सकता है पर हिन्दी के लिए यह एक अवसर है क्योंकि इन्ही कारणों से भारतीय सारी दुनिया में फैले और उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। लेकिन हिन्दी लेखन को बड़े पैमाने अनूदित किया जाए, ऐसा अब तक नहीं हो सका है। हिंदी अखबारों द्वारा अनूदित अंग्रेजी के लेखों को छापना यह सिद्ध करता है अंग्रेजी ने वैीकरण को एक अवसर के रूप के रूप में अच्छी तरह से इस्तेमाल किया है और वह ज्यादा पाठकों तक पहुंची है। बहरहाल भविष्य में यह उम्मीद की जानी चाहिए कि यह दौर खत्म होगा और हिंदी सही मायने में ग्लोबल होगी और पाठक को मौलिक सामग्री मिलेगी।
राष्ट्रीय सहारा में दिनांक 12/08/12 को प्रकाशित
Monday, August 13, 2012
Factual Entertainment
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जिंदगी में अगर इंटरटेन्मेंट ना हो तो लाईफ कितनी बोरिंग हो जायेगी इंटरटेन्मेंट बोले तो चिल करना ,फिल्म देखना ,नेट सर्फ़ करना और कुछ नहीं तो टीवी देखना |क्यों सच कहा ना टीवी देखना सबसे कॉमन तरीका है इंटरटेन् होने का इसीलिये तो टीवी को बुद्धू बक्सा कहा जाता है पर अब ये बुद्धू बक्सा इंटेलिजेंट हो गया है|मुझे पता है आपका वक्त कीमती है आप मेरे लेख को यूँ ही नहीं पढेंगे तो मैं कुछ ऐसा बता रहा हूँ जो आप जान तो रहे हैं पर मान नहीं रहे है देखिये इंटरटेन्मेंट एक रिस्पेक्तिव टर्म है अलग अलग समय पर लोग इंटरटेन्मेंट के नए नए तरीके निकालते रहे हैं पिछले बीस सालों से हम इंसानी रिश्ते परिवारों की आपसी उठा पटक को देख कर खुश होते रहे पर इन बीस सालों में दुनिया कितनी बदल गयी टेक्नॉलाजी हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन गयी और यांगिस्तानियों की एक नयी फ़ौज दर्शक बन गयी जिसे चीजों के बारे में जानने का शौक है जीवन को समझने की चाह और इसीलिये टीवी इन्फोटेनमेंट से फैक्चुअल इंटरटेन्मेंट की तरफ बढ़ चला जहाँ कोई फंतासी नहीं है जीवन की सच्ची कहानियां हैं टीवी ज्ञान दे रहा है हमें अवेयर कर रहा है|है जिसमे वास्तविक तथ्यों को मनोरंजक बना कर प्रस्तुत किया जा रहा है|जो समाचार और वृतचित्रों का मिला जुला रूप है| जहाँ इतिहास जीवंत हो रहा है और वर्तमान को भविष्य के लिए संजोया जा रहा है |इस तरह के कार्यक्रम डिस्कवरी,हिस्ट्री,फोक्स,एनीमल प्लैनेट जैसे चैनलों पर प्रमुखता से दिखाया जा रहे है| कुछ ट्रक ड्राईवर दुनिया की दुर्गम सड़कों पर ट्रक चला रहे हैं तो कहीं हाथ से मछली पकड़ने की होड लगी,कहीं एक युवक सुपर मानवों की तलाश में दुनिया का चक्कर काट रहा है,कहीं एक यात्री दुनिया के अलग अलग देशों में अलग अलग व्यापार कर यात्रा के पैसे जुटा रहा है |हमारे आस पास के जीवन में इतना मनोरजन होगा किसी ने सोचा ना था|कार्यक्रमों में नए कंटेंट के लिए बस अपने आस पास कुछ ऐसा खोजना है जो आपके आस पास हो पर आप उसकी अहमियत ना समझ रहे हों बस अपने ओब्सर्वेशन को कीन करना है |भारत में कितने लोग डेली पैसेंजर हैं जिनके जीवन का आधे से ज्यादा हिस्सा अपने काम के सिलसिले में ट्रेन में बीतता है कितनी कहानी रोज जन्म लेती हैं कितने झूठे सच्चे वायदे किये जाते हैं कोई अपनी पत्नी की बेरुखी की समस्या बता कर अपनी महिला मित्र से संवेदना बटोर रहा होता कोई उस दिन का इन्तजार जब वो इस ट्रेन पकड़ने छोड़ने के सिलसिले से मुक्त हो जाएगा, है ना मजेदार अब कथाक्रम को धारावाहिक बना टीवी पर दिखाया जाएगा जिसमे सबकुछ असली होगा तो यांगिस्तानियों को डायरेक्ट दिल से मजा आएगा
जिंदगी में अगर इंटरटेन्मेंट ना हो तो लाईफ कितनी बोरिंग हो जायेगी इंटरटेन्मेंट बोले तो चिल करना ,फिल्म देखना ,नेट सर्फ़ करना और कुछ नहीं तो टीवी देखना |क्यों सच कहा ना टीवी देखना सबसे कॉमन तरीका है इंटरटेन् होने का इसीलिये तो टीवी को बुद्धू बक्सा कहा जाता है पर अब ये बुद्धू बक्सा इंटेलिजेंट हो गया है|मुझे पता है आपका वक्त कीमती है आप मेरे लेख को यूँ ही नहीं पढेंगे तो मैं कुछ ऐसा बता रहा हूँ जो आप जान तो रहे हैं पर मान नहीं रहे है देखिये इंटरटेन्मेंट एक रिस्पेक्तिव टर्म है अलग अलग समय पर लोग इंटरटेन्मेंट के नए नए तरीके निकालते रहे हैं पिछले बीस सालों से हम इंसानी रिश्ते परिवारों की आपसी उठा पटक को देख कर खुश होते रहे पर इन बीस सालों में दुनिया कितनी बदल गयी टेक्नॉलाजी हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन गयी और यांगिस्तानियों की एक नयी फ़ौज दर्शक बन गयी जिसे चीजों के बारे में जानने का शौक है जीवन को समझने की चाह और इसीलिये टीवी इन्फोटेनमेंट से फैक्चुअल इंटरटेन्मेंट की तरफ बढ़ चला जहाँ कोई फंतासी नहीं है जीवन की सच्ची कहानियां हैं टीवी ज्ञान दे रहा है हमें अवेयर कर रहा है|है जिसमे वास्तविक तथ्यों को मनोरंजक बना कर प्रस्तुत किया जा रहा है|जो समाचार और वृतचित्रों का मिला जुला रूप है| जहाँ इतिहास जीवंत हो रहा है और वर्तमान को भविष्य के लिए संजोया जा रहा है |इस तरह के कार्यक्रम डिस्कवरी,हिस्ट्री,फोक्स,एनीमल प्लैनेट जैसे चैनलों पर प्रमुखता से दिखाया जा रहे है| कुछ ट्रक ड्राईवर दुनिया की दुर्गम सड़कों पर ट्रक चला रहे हैं तो कहीं हाथ से मछली पकड़ने की होड लगी,कहीं एक युवक सुपर मानवों की तलाश में दुनिया का चक्कर काट रहा है,कहीं एक यात्री दुनिया के अलग अलग देशों में अलग अलग व्यापार कर यात्रा के पैसे जुटा रहा है |हमारे आस पास के जीवन में इतना मनोरजन होगा किसी ने सोचा ना था|कार्यक्रमों में नए कंटेंट के लिए बस अपने आस पास कुछ ऐसा खोजना है जो आपके आस पास हो पर आप उसकी अहमियत ना समझ रहे हों बस अपने ओब्सर्वेशन को कीन करना है |भारत में कितने लोग डेली पैसेंजर हैं जिनके जीवन का आधे से ज्यादा हिस्सा अपने काम के सिलसिले में ट्रेन में बीतता है कितनी कहानी रोज जन्म लेती हैं कितने झूठे सच्चे वायदे किये जाते हैं कोई अपनी पत्नी की बेरुखी की समस्या बता कर अपनी महिला मित्र से संवेदना बटोर रहा होता कोई उस दिन का इन्तजार जब वो इस ट्रेन पकड़ने छोड़ने के सिलसिले से मुक्त हो जाएगा, है ना मजेदार अब कथाक्रम को धारावाहिक बना टीवी पर दिखाया जाएगा जिसमे सबकुछ असली होगा तो यांगिस्तानियों को डायरेक्ट दिल से मजा आएगा
आई नेक्स्ट में 13/08/12 को प्रकाशित
Friday, July 27, 2012
Time for real friendship
प्रिय दोस्त अनूप
दिन बीत रहे हैं यादों में फिर वो बीते दिन फिल्म के फ्लैश बैक की तरह सामने आ रहे हैं जब हम वाकई साथ थे जेबें खाली होने के बाद भी साथ फिल्में देखने का मौका और पैसा जुटा लेते थे... और आज.... । जेबों में उतने पैसे पड़े रहते हैं, जितनी उस समय कल्पना में भी नहीं थे, पर समय? साथ? बीते दिनों के धुंधलकों में कहीं खो गए हैं कुछ सवाल हैं, जो अपना जवाब चाहते हैं, पर कारणों की कसौटी पर कुछ भी ऐसा नहीं कि जो समझा कर उसे शांत कर सकूं...। इन्हीं बातों की वजह से आज सालों बाद तुम्हें कुछ लिखने का फैसला किया मोबाइल के कीपैड और कंप्यूटर के की-बोर्ड पर नाचती अंगुलियों में वह मजा नहींआता जो कभी 25 पैसे के पोस्टकार्ड में था पर समय बदल चुका है और तुम भी तब लिखना इतना मुश्किल भी नहीं था लाईफ में इतने कॉम्प्लीकेशन नहीं थे |आज भी पानी बरस रहा है। पानी की बूंदें की टपटप वो दिन याद दिला रही हैं, जब हम भीगते हुए साइकिल से पूरे शहर का चक्कर लगाते थे। वो समोसे याद हैं,यूनिवर्सिटी के आज फिर मन हो रहा खाने का और साइकिल चलाते हुए भीगने का, मगर....। साइकिल नहीं अब तो कार है, भीग नहीं सकते हम... सुना है वहां अब समोसे भी वैसे नहीं रह गए ठीक हमारी दोस्ती की तरह| वो सरकारी स्कूल की दीवारें हमें कभी मिलने से नहीं रोक पाईं| मै हमेसा तुम्हारे साथ बंक मार कर वहीँ पहुँच जाता जहाँ साइकिलें हमारा इंतजार करतीं थीं और फिर शहर का कोई सिनेमा हाल हमारी पहुँच से दूर नहीं होता । इन पलों में हमारी साइकिलें भी ना जाने कितने ख्वाब बुन लिया करती थीं|ख्वाब तब हम लोग भी खूब देखते थे स्कूल में छुट्टी हो जाए इसके लिए किसी के भी मरने की दुवा मांग लेते थे कितने भोले थे सोचते थे बड़े हो कर हम खूब फ़िल्में देखेंगे साथ घूमेंगे दोस्ती के रिश्ते की वो गर्मी कहाँ गयी जब जाड़े में बगैर स्वेटर पहने तुमसे मिलने निकल पड़ते थे कितनी दीवारें फांद लेते थे आज फेसबुक और ट्वीटर जैसी वर्चुअल दीवारों को नही लाँघ पा रहे हैं | जिंदगी में हमारे पैदा होते ही ज्यादातर रिश्ते हमें बने बनाये मिले और उसमे अपनी च्वाईस का कोई मतलब था ही नहीं तुमसे हुई दोस्ती ही ऐसी थे जिसे मैंने खुद बनाया था फिर दोस्ती की नहीं हो जाती है दोस्ती तो हो जाती है |
कॉलेज और हमारी पढ़ाई का मिजाज़ बदले लेकिन हम नही बदले।जो बदल जाएँ वो हम कहाँ तब किसी ने कहा था रिश्ते हमेशा एक जैसे नहीं रहते तो कैसा मजाक उडाया था उसका हमने,ये नहीं जानते थे कि जिंदगी की राहों में दौड़ते दौड़ते कब हम अपना मजाक खुद बना बैठे पता ही नहीं चला |तुम हमेशा कहा करते थे कि जिंदगी जब सिखाती है अच्छा ही सिखाती है जिंदगी ने सिखाया तो पर बड़ी देर से कम्पटीशन की इस रेस में कब हम एक दूसरे के कमपटीटर बन गए पता ही नहीं चला| आज ऑफिस का टारगेट शब्द सोते जागते कानो में गूंजता है साल दर साल पूरा भी होता है लेकिन एक दूसरे से मिलने की हसरत कहाँ गुम हो गयी इसकी तलाश है| इतने पुराने रिलेशन में कुछ शेयर करने जैसा था ही नहीं सब कुछ इतना स्वाभाविक था कि न मुझे कुछ बोलना पड़ता और न तुम्हें कुछ समझाना |मैं कहा भी करता था अनूप आँखों की भाषा पढ़ लेता है पर दोस्त जीवन में सब कुछ पा लेने की चाह में हम कब अजनबी बन गए पता ही नहीं चला तुमने अपने आप को साइलेंस के परदे में लपेट लिया और मैं कुछ कह ही नहीं पाया |गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट टू रिलीज हो रही है टिकट बुक कर रहा हूँ तुम्हारा इंतज़ार करूँगा मुझे उम्मीद है फेसबुक पर मुझे वर्चुअल देख कर बोर हो चुके होगे आज रीयल में मिलते हैं और पुराने लम्हों को जीते हैं .
तुम्हारा मुकुल
आई नेक्स्ट में 27/07/12 को प्रकाशित
Friday, July 20, 2012
हथियारों की यह होड हमें कहाँ ले जायेगी
ब्रिटेन की संस्था ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार हर साल दुनिया भर में छोटे हथियारों के लिए गोले-बारूद का चार अरब डॉलर से अधिक का कारोबार होता है. दुनिया भर में हर साल 12अरब गोलियों का उत्पादन किया जाता है, और अगर धरती पर रहने वाली कुल जनसंख्या के आधार पर इसका अनुपात निकाला जाए तो हर व्यक्ति के हिस्से दो गोलियाँ आती हैं. आमतौर पर युद्ध के प्राथमिक हथियार गोली और बारूद ही होते हैं और जिस हिसाब से युद्ध बढ़ता जाता है उसमे और बड़े हथियार शामिल हो जाते हैं पर सभी हथियारों के कार्यकरण में मूलतःगोली और बारूद की ही भूमिका होती है. दुनिया के बड़े संघर्ष मैदान बंदूकों और हथियार के जखीरे ही हैं. ऑक्सफैम के 'स्टॉप ए बुलेट, स्टॉप ए वार' नामक अभियान का उद्देश्य गोले बारूद की बिक्री पर नियंत्रण लगाना है. जिससे किसी भी संघर्ष को सशस्त्र और घातक होने से बचाया जा सके.अब जरा कुछ और तथ्यों पे भी गौर करें. साल २०१२ में एशिया के तीन देशों भारत, पाकिस्तान और चीन ने अपने रक्षा बजट में बेतहाशा वृद्धि की थी. चीन का रक्षा बजट ११ फ़ीसदी की वृद्धि के साथ १०६ अरब डालर यानि ५२०० अरब रूपये से ऊपर पहुँच गया, जबकि भारत ने १७ फ़ीसदी वृद्धि के साथ १९३४०७ करोड़ और पाकिस्तान ने १० फ़ीसदी वृद्धि के साथ ५४५ अरब रुपए का बजट रखा. इन तीनो देशो में रक्षा पर किया जाने वाला खर्च विकास के अन्य मदों की अपेक्षा काफी अधिक होता है. भारत में ही लें तो इस बार शिक्षा और स्वास्थ्य पर कुल मिलकर भी उतना खर्च नहीं किया गया होगा जितना रक्षा पर खर्च किया जा रहा है. यह चिंताजनक है. वैसे तो दुनिया में रक्षा पर सबसे ज्यादा खर्च करने वाला देश अमेरिका है पर एशिया के इन तीन देशों में रक्षा पर खर्च होने के मायने इससे कहीं अलग हैं. ऑक्सफैम की रिपोर्ट इसलिए अहम् हैं कि गोलियों की यह संख्या तो एक नमूना मात्र है कि हथियारों कि होड़ में हमने कितने विनाश के साधन जुटा डाले हैं. बदलती दुनिया के साथ संघर्ष के नए रूप सामने आ रहे हैं इन संघर्षों के बढ़ने का मुख्य कारण अनियोजित विकास और आर्थिक असमानता ही है. बाजार का अर्थशास्त्र नफे नुकसान से तय होता है और गोलियों का कारोबार लागत के हिसाब से एक अच्छा व्यवसाय है जब जंग के मैदान में बाजार घुस जाए तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है जरुरत इस तथ्य को समझने की है कि आज संघर्ष एक बड़ा बाजार है. फ्रांस के रक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2001 से 2010 के बीच अमेरिका, यूरोपीय संघ, रूस और इजरायल का दुनिया के नब्बे प्रतिशत हथियार बाजार पर कब्जा रहा है जिसमे अमेरिका की भागीदारी 53.7 प्रतिशत रही.स्टॉक होम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (एस आई पी आर आई ) की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2002-2006 के पांच सालों की तुलना में वर्ष 2007-11 में विश्व में हथियारों की खरीद और बिक्री में 24 प्रतिशत की बढोत्तरी हुई.आंकड़े खुद बता रहे हैं की इस संघर्ष के बाजार में अमेरिका,इस्राईल और फ्रांस जैसे देश कितने बड़े खिलाड़ी बनकर उभरे हैं.इन आकडों में अवैध हथियारों की खरीद बिक्री शामिल नहीं है.एशिया और अफ्रीका के अल्पविकसित देश जंग का मैदान बने हैं पर इन संघर्ष में प्रयोग किये जाने वाले ज्यादातर हथियार दुनिया के उन विकसित देशों में बन रहे हैं .किसी भी देश के लिए हथियारों पर होने वाला खर्च किसलिए होता है, ताकि वह आने वाली लड़ाईयों के लिए खुद को तैयार रख सके. जंग रोज नहीं होती पर कभी कभार होने वाली जंग के नाम पर डर का एक ऐसा वातावरण बन गया है कि सब एक दूसरे से आगे रहना चाहते हैं. आंकड़ों के मुताबिक एशियाई और ओशिनियाई देशों की हथियार हिस्सेदारी कुल आयात में 44 प्रतिशत है जबकि यूरोपीय देशों ने 19 प्रतिशत , मध्य पूर्व देशों ने 17 प्रतिशत और अमेरिकी देशों ने11 प्रतिशत हथियारों का आयात किया. सबसे कम अफ्रीकी देशों ने नौ प्रतिशत हथियार आयात किए. दुनिया के कुल हथियार आयात में भारत की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत रही और वह सबसे बड़ा हथियार आयातक देश बना इसके बाद दक्षिण कोरिया ने दुनिया के कुल छह प्रतिशत और पाकिस्तान व चीन ने पांच-पांच फीसदी हथियारों का आयात किया.रक्षा पर होने वाली यह भारी भरकम राशि जंग के इंतज़ार में खर्च होती रहती है. हथियारों को सहेजा जाता है. फिर वे वक़्त के साथ पुराने होकर बाहर हो जाते हैं और नए हथियारों पर खर्च. यानि जो पैसा खर्च हुआ उसका कोई फायदा नहीं. रक्षा पर खर्च होने वाले ये पैसे अगर विकास कार्यों पर खर्च हो जाएँ तो ज्यादा बेहतर होगा भारत पाक और चीन आपसी मसले बातचीत से सुलटा लें तो इन खर्चों पर लगाम लगेगी और तीनो एक बड़ी संभावनाओं को जन्म देंगे. हथियारों कि यह होड़ और कुछ नहीं मानवता के खिलाफ लड़ाई है. क्या विकास के पैसों को सिर्फ आने वाली लडाइयों के नाम पर बर्बाद करना उस देश के लोगों का मानवाधिकार का हनन नहीं है. इस पर हमें विचार करना होगा. शायद तभी हम समझ पाएंगे कि किसी देश को कितने हथियार चाहिए और किसी को कितनी गोलियाँ
अमर उजाला कॉम्पैक्ट में 20/07/12 को प्रकाशित लेख
Thursday, July 12, 2012
घर ना लौट पाने वाले बच्चों की दुनिया
किसी खोये या अपह्रत बच्चे का मिल जाना करुणा जगाता है और सनसनी खेज खबर भी पर उन बच्चों का क्या जो दुबारा कभी अपने घर नहीं लौटते.जो नहीं लौटते उनमे से ज्यादातर बाल तस्करी का शिकार हो जाते हैं.बाल तस्करी के कारणों में प्रमुख हैं बंधुआ मजदूरी,अवैध रूप से बच्चा गोद देना,भीख मांगना,पॉकेट मारी और वैश्यावृति आदि इसके अतिरिक्त वे बच्चे भी बाल तस्करी का शिकार होते हैं जो घर से भागे होते हैं या किन्हीं कारणों से अपने घर वालों से बिछड जाते हैं.स्थिति की भयावहता की तसदीक बचपन बचाओ संस्था के शोध द्वारा जुटाये गए वह आंकड़े करते हैं जिनके अनुसार वर्ष 2008 से 2010 के मध्य 1,17,480 बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ कराई गयी. इनमें से 74,209 बच्चों को तो ढूंढ लिया गया पर 41,546 का आज तक कोई सुराग नहीं लग सका है. खाए पिए अघाए लोगों के लिए ये महज आंकड़े हो सकते हैं पर जिन परिवारों ने अपने बच्चों को खोया है उनकी आवाज़ महज़ एक सिसकी बनकर रह जाती है.2006 में निठारी कांड में देश यह जानकर स्तब्ध रह गया था कि किस तरह तीस बच्चों का अपहरण कर उनकी हत्या कर दी गयी और पुलिस को कुछ पता ही नहीं चला.बचपन बचाओ शोध में जिन 20 राज्यों और 4 केंद्रशासित प्रदेशों को शामिल किया गया उनमें से बच्चों के लापता होने की सर्वाधिक घटनाएँ एक अपेक्षाकृत विकसित राज्य महाराष्ट्र से सामने आयीं जहां वर्ष 2008 से 10 के मध्य 26,211 बच्चों के लापता होने की रिपोर्ट दर्ज कराई गई हालांकि सबसे ज्यादा बच्चों के वापस मिलने के आंकड़े (18,706) भी महाराष्ट्र के ही हैं.आज भी गुम हुए 1,17,480 बच्चों में से लगभग 45 प्रतिशत यानि कि 41,546 के बारे में आज तक कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है.पश्चिम बंगाल जहां महाराष्ट्र के पश्चात सर्वाधिक बच्चों के गुम होने के मामले सामने आए, जिनमे से अधिकतर आज भी लापता हैं, के सीमावर्ती इलाकों इस प्रकार की वारदातें सबसे ज्यादा रिपोर्ट की गईं। इससे ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि गुमशुदा बच्चों में से कईयों सीमा पार ले जाया गया होगा. देश के पाँच मेट्रो दिल्ली, कोलकाता, हैदराबाद, बेंगलुरु और मुंबई में सबसे चिंताजनक स्थिति दिल्ली और कोलकाता की है जहां से इन शहरों से गायब होने वाले 24,744 बच्चों मे से लगभग 89 प्रतिशत बच्चे गायब हुए. जब ये हाल देश के सबसे आधुनिक एवं विकसित समझे जाने वाले शहरों का है तो बाकी शहरों की स्थिति के बारे में कुछ बेहतर सोचना ही बेमानी होगा. दिल्ली पुलिस के आकड़ों के अनुसार, राजधानी में प्रतिदिन औसतन 14 बच्चे गायब हो जाते है.आंकड़ों के अनुसार विगत दो वर्षों के दौरान १,१७,४८० बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई गयी.यदि हम इन आंकड़ों को आधार मानकर सभी जिलों के आंकड़ों का अनुमान लगाएँ तो भारत मे प्रतिवर्ष लापता होने वाले बच्चों की संख्या लगभग ९६००० आएगी अर्थात प्रतिदिन अनुमानतः २६३ बच्चे लापता होते हैं.चिंताजनक बात यह है कि ये आंकड़े सिर्फ लिखित अभिलेखों पर आधारित हैं. ऐसे जाने कितने ही मामले होते हैं जो भिन्न-भिन्न कारणो से प्रकाश में ही नहीं आते हैं. हमारे देश मे इस संबंध में किसी निश्चित कानून का न होना भी बाल-तस्करी से जुड़े वास्तविक आंकड़े जुटाने में बाधक होता है.सरकार भी इस बेहद संवेदनशील मसले को आंकड़ों में उलझाकर अपनी ज़िम्मेदारी से बचती रहती है.पुलिस भी इस तरह के अपराधों के प्रति संवेदनशील रवैया नहीं अपनाती.इन गायब होते बच्चों के लिए हमारा सामजिक आर्थिक ढांचा जिम्मेदार है गरीबी ,बीमारी,अशिक्षा और ज्यादा बच्चे एक ऐसा दुष्चक्र रचते हैं कि कुछ लोगों के लिए बच्चे बोझ हो जाते हैं और इससे बच्चे अपने परिवारों में ही बेगाने हो जाते हैं ऐसे में बच्चों का गायब होना वे नियति का फैसला माँ लेते हैं .एक तथ्य और भी उल्लेखनीय है कि ज्यादातर गायब होने वाले बच्चे ऐसे परिवारों से आते हैं जो सामजिक और आर्थिक रूप से समाज के निचले पायदान पर हैं .सड़कों पर भीख मांग रहे बच्चे किसके हैं ,कहाँ से आते हैं साल दरसाल इनकी संख्या क्यों बढ़ रही है. ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके जवाब अभी नहीं मिले हैं.
दैनिक हिंदुस्तान में 12/07/12 को प्रकाशित
Thursday, July 5, 2012
हाशिए की आवाज़ की अनदेखी
ब्रेख्त ने बीसवीं शताब्दी में रेडियो के लिए कहा था कि रेडियो एकाउस्टिकल डिपार्टमेंटल स्टोर के रूप में केवल वितरण प्रणाली बनकर रह गया है पर वक्त के बदलाव के साथ रेडियो भी बदलता गया. इसके लिए भारतीय सुप्रीम कोर्ट का फरवरी 1995 में दिया गया निर्णय मील का पत्थर बना जिसमे कहा गया था कि ध्वनि तरंगे तरंगे सार्वजनिक सम्पति है और इससे रेडियो के बहुआयामी विकास का रास्ता खुला पर इस बदलाव में वो सामाजिक क्षेत्र पीछे छूट गया जहाँ भारत बसता है .अपने रेडियो का सपना देखने वाले ग्रामीण क्षेत्र की आवाज़ को सुनने में किसी को दिलचस्पी न रही.इन्हीं बदलाओं की प्रक्रिया में सामुदायिक रेडियो का जन्म हुआ जो अपने प्रसारण से भौगोलिक और समान अभिरुचि के श्रोताओं की सेवा कर सकते हैं. वे ऎसी सामग्री का प्रसारण करते हैं जो कि किन्हीं स्थानीय/विशिष्ट श्रोताओं में लोकप्रिय है, जिनकी अनदेखी वाणिज्यिक या जन-माध्यम प्रसारकों द्वारा की जा सकती है.इनका सञ्चालन सामुदायिक स्तर पर होता है जो लाभ कमाने के लिए नहीं होते ,यह व्यक्ति विशेष, समूह और समुदायों की अपनी विविध कहानियों को कहने, अनुभवों को बांटने की प्रक्रिया को सुगम बनाते हैं,इससे पूर्व रेडियो दो तरह की प्रसारण भूमिका में शामिल था एक में रेडियो की भूमिका व्यवसायिक थी और दूसरे में जन प्रसारक रूप में पर सामुदायिक रेडियो एक विकल्प देता है उन श्रोताओं को जो संख्या के हिसाब से रेडियो प्रसारकों के लिए महत्वपूर्ण नहीं है या बाजार के नजरिये से जिनका कोई महत्त्व नहीं है सामुदायिक रेडियो स्टेशन पचास वॉट की शक्ति वाले ट्रांसमीटर की सहायता से पांच से पंद्रह किलोमीटर के कवरेज क्षेत्र तक पंहुचने वाले छोटे रेडियो स्टेशन हैं जो ऍफ. एम. बैंड पर प्रसारण करते हैं. सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा इनकेव्यापारिक उपयोग पर रोक है। इन स्टेशनों को कॉमर्शियल एफ.एम. की तरह कारोबार करने की छूट कतई नहीं है. इनकी स्थापना का मुख्य मकसद मनोरंजन करना न होकर शिक्षा,स्वास्थ्य, पर्यावरण पर जनजागृति लाना और लोकसंस्कृति के संरक्षण के लिए कार्य करना है. यह सीमित मात्रा में ही विज्ञापन ले सकते हैं .आज भारत में कुल मिलकर मात्र १२६ हैं.देश की जनसँख्या ,आकार और विभिन्न भाषाओँ और संस्कृति के हिसाब से यह संख्या नाकाफी है. भारत के दो छोटे पडोसी देश नेपाल और श्रीलंका का रिकोर्ड सामुदायिक रेडियो के संदर्भ में बहुत बेहतर है. संभावनाओं के लिहाज़ से सरकार ने इसके विकास पर ध्यान नहीं दिया है. अब तक यही माना जाता रहा है कि सामुदायिक रेडियो का जिम्मा उस समुदाय से सम्बंधित लोगों को ही संभालना होगा. सरकार इस सन्दर्भ में मात्र स्पेक्ट्रम शुल्क में ही कुछ छूट दे रही है .अभी हाल ही में लाइसेंस फीस को तीन गुना बढाकर ९१ हज़ार किया जाना और फिर उसे घटाना यह दिखाता है कि सरकार सामुदायिक रेडियो के विकास के लिए सिर्फ बात ही करना चाहती है काम नहीं. सूचना समाज के इस युग में देश में बढते डिजीटल डिवाईड को कम करने का सामुदायिक रेडियो एक सशक्त माध्यम हो सकता है वंचितों के इस माध्यम को स्थापित करने में कोई सरकारी अनुदान या प्रोत्साहन नहीं दिया जाता यही कारण है कि सामुदायिक स्तर पर इसको चलाना इतना आसान नहीं है. सरकार लोगों को साक्षर करने के नाम पर करोड़ो खर्च कर रही है पर लोगों तक सूचना और ज्ञान का प्रसार करने के सबसे सशक्त माध्यम के रूप में पहचाने जाने वाले इस माध्यम के विकास पर खर्च करना उसे गंवारा नहीं है.जनप्रसारक आकाशवाणी भी अब विज्ञापन से होने वाली आय पर ध्यान केंद्रित करने लग गया है .ऐसे में सामुदायिक रेडियो चैनलों की संख्या कैसे बढे यह यक्ष प्रश्न अभी भी कायम है . बाजारवाद के इस दौर में जब कारपोरेट समूहों द्वारा समाजसेवा भी इसलिए कि जाती है ताकि उनकी ब्रांड इमेज सुधारे तब यह उम्मीद करना कि कोई समूह आगे आकर सिर्फ समाजसेवा के लिए लिए पैसे खर्च करेगा बेमानी है.रही बात स्वयंसेवी संस्थाओं की तो यह सभी संस्थाएं अपने काम के लिए कहीं न कहीं से अनुदान पर निर्भर करती हैं और इन्हें मिलने वाले अनुदान में एक बड़ा हिस्सा सरकारी होता है. वस्तुस्थिति यह है कि कुछ स्टेशनों को छोड़ दिया जाए तो सामुदायिक रेडियो स्टेशन अपना रोजमर्रा का खर्च निकालने में भी असमर्थ हैं, वे यह चाहते हैं कि सरकार कम से कम उन्हें वार्षिक लाईसेंस शुल्क से मुक्त कर दे.
बिना सरकारी प्रोत्साहन के सामुदायिक रेडियो का विकास असंभव नहीं तो कठिन ज़रूर है. सरकार को इसे मात्र रेडियो के रूप में न देखकर सूचना प्रसार के साधन के रूप में देखना होगा सरकार इस माध्यम का विकास करके समाज के वंचित लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने में प्रभावी भूमिका निभा सकती है.
अमर उजाला में 05/07/12 को प्रकाशित
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