Saturday, August 18, 2012

हिंदी के ग्लोबल होने की प्रतीक्षा


सामान्यत: माना जा रहा है कि हिंदी आज एक बड़ा बाजार है। हिंदी मीडिया का बहुमुखी विस्तार हो रहा है पर क्या वास्तव में ऐसा है और हिंदी भाषा का उन्नयन हो रहा है। आज हिंदी के अखबारों में विभिन्न विषयों से सम्बंधित लेख भरे पड़े हैं। एक पेज के सम्पादकीय पृष्ठ की परम्परा अब पुरानी हो चली है। अब तो इसके साथ-साथ विचार सम्पादकीय पृष्ठ भी दिया जाने लगा है। सूचना आधिक्य का युग सही मायनों में साकार हो रहा है पर तस्वीर का एक रुख और भी है जो असल चिंता का कारण है। सवाल है कि वास्तव में हिंदी के समाचार पत्रों में सामग्री के स्तर पर आयी यह क्रांति हिंदी के विस्तार की है या सूचना क्रांति के कारण अंग्रेजी पर बढ़ती निर्भरता और मौलिक चिंतन की उपेक्षा कर अनुवाद संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। वास्तविकता यह भी है कि आज भी सामान्यत: जब तक किसी विचार पर अंग्रेजी की मुहर नहीं लगती, उसे स्वीकृति नहीं मिलती। चाहे बात कितनी भी विशुद्ध भारतीय क्यों न हो, विचार तो किसी अंग्रेजी लेखक के ही होने चाहिए। पिछले कुछ वर्षो से अंग्रेजी लेखकों के लेखों को हिंदी के अखबारों में छापने का चलन बढ़ा है यानी ऐसे भारतीय लेखक जो मूलत: अंग्रेजी में लिखते हैं और उनके विचार अनुवाद के तहत प्रस्तुत किये जाते हैं। ऐसे ही दूसरे अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्रों के लेखों का हिंदी तर्जुमा हिंदी के समाचार पत्रों में छापा जाता है। सैद्धांतिक तौर पर इस मुद्दे पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। ज्ञान का विस्तार ऐसे ही होता है। विचारों को आयातित करना कहीं से भी गलत नहीं है। हमारे पूर्वज भी ऐसा करते रहे हैं। दूसरों को सुनना और अपनी बात कहने से ही मानव समाज की उत्तरोत्तर उन्नति होती है। इसमें किसी को आपति नहीं होनी चाहिए। अंग्रेजी के लेखक अपने ज्ञान से हिंदी पाठकों को समृद्ध कर रहे हैं पर अक्सर जो दिखता है वैसा होता नहीं है। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या हिंदी में गंभीर और गूढ़ विषयों पर विशेषज्ञ लेखकों का अभाव है? कई बार हिंदी के स्तंभकारों को अनुवाद लेखों की कीमत पर जगह नहीं दी जाती है? दरअसल पूरी बात ब्रांडिंग की है। बात समझने की नहीं बल्कि जो दिखता है, वही बिकता है वाले विचार को तरजीह मिलती है। हमारी नयी पीढ़ी हिंदी बोल और सुन तो लेती है क्योंकि परिवेश हिंदी का है पर उसे लिखना नहीं चाहती है। यह तथ्य इंगित करता है कि हिंदी का विस्तार किस तरह से हो रहा है। सारी दुनिया के लिए भारत एक बड़ा बाजार है। और उसके केंद्र में है भारत का विशाल मध्य वर्ग जो जनसंख्या के हिसाब से चाहे जितना भी हो लेकिन उसकी क्रय शक्ति ज्यादा है। दरअसल अंग्रेजी के लेखकों के साथ ग्लैमर जुड़ा होता है जिसके कारण उस लेखक और उसके विचार की ब्रांडिंग आसान हो जाती है। यह तथ्य अब किसी से छुपा नहीं है कि आज अखबार सूचना और विचार का वाहक न होकर महज एक उत्पाद बन गया है। अगर ब्रांडिंग ठीक नहीं होगी तो विज्ञापन पर संकट आ जाएगा। इस कारण हिंदी के लेखकों को तमाम मुद्दों पर अपने विचार प्रस्तुत करने का उतना मौका नहीं मिल पाता है। अंग्रेजी के कई स्तंभकार हिंदी समाचार पत्रों में नियमित रूप से छपते हैं पर यह भाषाई वैचारिक आदान-प्रदान अंग्रेजी के समाचार पत्रों से गायब है। वहां आप हिंदी के लेखकों को नहीं पाएंगे। कोई भी भाषा जितनी अधिक दूसरी भाषाओं ‘में’ और ‘से’
अनुवादित होगी, उतनी ही आगे बढ़ेगी और अंग्रेजी में इसमें अग्रणी है। ‘अंग्रेजी में’ और ‘अंग्रेजी से’ सर्वाधिक अनुवाद हुए हैं। इसीलिए अंग्रेजी के विस्तार को सहज ही देखा- समझा जा सकता है। संस्कृति, सभ्यता और भाषा आगे बढ़ने में एक-दूसरे की मदद करती हैं। इसके बाई प्रोडक्ट के रूप में हिंग्लिश हमारे सामने है जो हिंदी और इंग्लिश भाषा के मिलन से आयी है। यूनिर्वसटिी ऑफ वेल्स के भाषा विज्ञानी डेविड क्रिस्टल ने गणना कर बताया है कि दुनिया में हिंग्लिश बोलने वाले जल्दी ही इंग्लिश बोलने वालों की संख्या से ज्यादा हो जाएंगे। ध्यान देने वाली बात यह है कि इस भाषा के विकास के लिए न तो कोई दिवस मनाया गया और ना ही पखवाड़ा। दरअसल ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि हिंग्लिश के पीछे बाजार खड़ा है। इसके उलट हिंदी के पास न तो स्टेटस सिम्बल का ग्लैमर है और न ही बाजार का सीधा समर्थन। इसका ताजा उदाहरण कुछ दिनों पहले अंग्रेजी के एक प्रख्यात लेखक का सोशल साइट पर देश के भावी प्रधानमंत्री के बारे में सवाल उछालना और उसी आधार पर हिंदी के एक समाचार पत्र के सम्पादकीय पेज पर एक लेख लिखना है। यह ताकत हिंदी के किस लेखक के पास है? इसका सीधा संबंध बाजार से है। अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद एक बड़े बाजार का रूप ले चुका है जबकि अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद का कोई बड़ा बाजार नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो अंग्रेजी को बाजार का साथ मिला जबकि हिंदी अभी भी बाजार में अपना अस्तित्व तलाश रही है। बाजारवाद का एक पहलू यह भी है कि भाषा वही आगे बढ़ेगी जिसके पाठक के पास क्रय शक्ति ज्यादा होगी। दरअसल अनुवाद एक भाषा के कथ्य को दूसरी भाषा में बदल देने की कला भर नहीं है। इसके जरिए एक भाषा में कही गई बात और उसमें प्रस्तुत भावों को बहुत ही गंभीरता से दूसरी भाषा में अनूदित कर प्रस्तुत करना होता है। अनुवाद के जरिए सिर्फ भाषा ही नहीं वरन एक पूरी संस्कृति को भी संचारित किया जाता है। यही वह प्रमुख कारण है कि हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद कम या न के बराबर होता है। हैरी पॉटर और नार्नियां सीरीज की वि प्रसिद्ध किताबें आज हिंदी के पाठकों के लिए सर्वसुलभ हैं। इनके अलावा अंग्रेजी की कई बेस्ट सेलर किताबों के हिन्दी संस्करण भी आसानी से बाजार में उपलब्ध हैं लेकिन हिंदी का मौलिक चिंतन और लेखन अंग्रेजी में कब जा पाएगा, यह प्रश्न लंबे समय बना हुआ है और शायद बना रहने वाला है। वैीकरण और उदारीकरण ने भारतीय फिल्मों और खाने को तो ग्लोबल कर दिया है लेकिन हिन्दी भाषा का मामले में स्थिति अभी बहुत चिंतनीय है। वैीकरण और उदारीकरण अच्छा है या खराब, यह बहस का विषय हो सकता है पर हिन्दी के लिए यह एक अवसर है क्योंकि इन्ही कारणों से भारतीय सारी दुनिया में फैले और उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। लेकिन हिन्दी लेखन को बड़े पैमाने अनूदित किया जाए, ऐसा अब तक नहीं हो सका है। हिंदी अखबारों द्वारा अनूदित अंग्रेजी के लेखों को छापना यह सिद्ध करता है अंग्रेजी ने वैीकरण को एक अवसर के रूप के रूप में अच्छी तरह से इस्तेमाल किया है और वह ज्यादा पाठकों तक पहुंची है। बहरहाल भविष्य में यह उम्मीद की जानी चाहिए कि यह दौर खत्म होगा और हिंदी सही मायने में ग्लोबल होगी और पाठक को मौलिक सामग्री मिलेगी।
राष्ट्रीय सहारा में दिनांक 12/08/12 को प्रकाशित 

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