पिछले साल आयी फिल्म पीपली लाइव ने एक साथ कई सवाल खड़े किये पर जो सवाल सबसे महत्वपूर्ण था जिसको नज़रंदाज़ किया गया वह नत्था की जाति, जाति आधारित समाज को वर्गीय नज़रिए से देखना बिलकुल भी ठीक नहीं है क्या यह सत्य नहीं है कि गरीब किसानों की इस श्रेणी में अधिकतर वे ही समुदाय आते हैं जिन्हें हम दलित के नाम से जानते हैं . जरा गौर करें नत्था जब सबसे पहली बार गाँव के नेता से आर्थिक मदद मांगने जाता है तो उस नेता का नाम भाई ठाकुर होता है ये नाम कुछ और भी हो सकता था पर यह एक बानगी मात्र है कि फिल्मों से लेकर समाज तक जातीय वर्चस्व कितना गहरे बैठा हुआ है और हमारी फ़िल्में मीडिया की कल्टीवेशन थ्योरी के अनुरूप किस तरह का सन्देश बार बार हमारे मस्तिष्क में ठूंस रही हैं .
“कलाएं समाज से जन्म लेती हैं और अंतत समाज को प्रभावित करती हैं हिंदी फ़िल्में इस बात का अपवाद नहीं हैं हिंदी फिल्मों के इतिहास में समाज में होते हुए सांस्कृतिक परिवर्तनों को पकड़ा जा सकता है यह बात अलग है ये परिवर्तन फिल्मों में ज्यों के त्यों नहीं आये” [1]
फ़िल्में अपने समय का आइना होती हैं ये बात कुछ हद तक मानी जा सकती है लेकिन समाज और साहित्य में जो भेद भाव दलितों के साथ किया गया और किया जा रहा है वह सिलसिला फिल्मों में भी जारी है समस्या से भागने की हमारी प्रवृति और सब कुछ ठीक है वाली मनोवृति ने फिल्मों में भी दलितों के साथ अन्याय ही किया है .इसको कुछ यूँ समझा जा सकता है “वर्ग पर आधारित समाज में अधिकार प्राप्त वर्ग स्वयं के लिए कला का उपयोग मनोरंजण के रूप में करता है तथा सामान्य जनता को फुसलाने के रूप में ,ताकि आम जनता वर्तमान वस्तुस्थिति से अपरिचित रहे और भविष्य की आशा से काल्पनिक संसार में भटकती रहे”[2] चूँकि भारत में समाज वर्ग नहीं जाति आधारित है इसलिए उच्च जातियों (पढ़ें सवर्ण ) ने कलाओं का इनका इस्तेमाल दलितों को महज भरमाने के लिए किया . “दलित वह शोषित मानव है जो पैदा हुआ तब भी दलित है जिन्दा रहेगा तब भी दलित है और मरेगा तब भी दलित है और उनके विरोध का एक मात्र कारण वर्ण धर्म है”[3]आमतौर अभी भी हम ये मानने को तैयार नहीं है कि सब कुछ बदल रहा है तेजी से लेकिन हमारी मानसिकता खासकर दलितों के मामले में उतनी तेजी से नहीं बदल रही है “दरअसल दलित जिस अश्पृश्यता के शिकार हैं उसका दूसरा नाम बहिष्कार है”[4]बात उतनी आसानी से मानी नहीं जायेगी वस्तुता हिंदी फ़िल्में दिखा क्या रही हैं और कैसे दिखा रही हैंइसको समझना आवश्यक है “हिंदी फ़िल्में मुझे आज भी यथार्थ वादी दृष्टिकोण से नकली और निर्जीव प्रतीत होती हैं उनमे जीवन के यथार्थ और गति की कमी है वे अस्वाभाविक और जोड़ तोड़ कर बनाई गयी कहानियों के चौखटे में बंद होती हैं”[5]
सिनेमा के १०० वर्षों के इतिहास में अगर झांक के देखें तो आप को पता चलेगा कि रामायण ,और महाभारत लंबे समय तक फिल्मों के कथानक का श्रोत रहे जिनका मूलाधार चतुर् वर्ण व्यवस्था को कायम रखना और इनका महिमा मंडन करना ही रहा है. “इसका अर्थ यह भी नहीं कि फ़िल्में जाति प्रथा के प्रति कोई दृष्टिकोण पेश नहीं करती सतही तौर पर हिंदी फ़िल्में उंच नीच के भेद को अस्वीकारती नज़र आती हैं ठाकुर साहब हम गरीब हैं तो क्या हमारी भी इज्ज़त है ,ऐसे संवाद हम अक्सर सुनते रहते हैं .हम ठाकुर हैं जान दे देंगे लेकिन किसी के सामने सर नहीं झुकायेंगे,ब्राह्मण की संतान होकर तूने यह कुकर्म किया ,एक सच्चा राजपूत ही ऐसा कर सकता है आदि .अगर हम थोडा ध्यान दें तो देखेंगे कि हिंदी फ़िल्में जातियों का उल्लेख किया बिना ही उच्च वर्ण की श्रेष्ठता और उसके दृष्टिकोण को स्वीकार करके चलती हैं .अछूत कन्या , सुजाता ,अंकुर ,पार .सद्गति ,दीक्षा ,समर जैसे कुछ अपवाद नामों को छोड़ दें तो हिंदी सिनेमा जाति प्रथा पर प्रहार करता कभी नज़र नहीं आया”[6]
फिल्मों के नाम से ही पता पड़ता है कि सवर्ण मानसिकता की गुलामी से अभी हमारा हिंदी सिनेमा बाहर नहीं निकला है मि.सिंह vs मिसेज मित्तल (२०१० ), मित्तल v/s मित्तल (२०१० ) , रोकेट सिंह सेल्स मैन ऑफ दा इयर (२००९ ), सिंह इस किंग (२००८ ), मंगल पांडे (२००५ ), भाई ठाकुर (२००० ), अर्जुन पंडित (१९७६, १९९९ )क्षत्रिय (१९९३ ), राजपूत (१९८२) ,जस्टिस चौधरी (१९८३ ),पंडित और पठान (१९७७ ) ये कुछ उदाहरण हैं जो बता रहे हैं कि हमारे फिल्मकारों के दिमाग में क्या चल रहा होता है चलिए सृजनात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर इन सारे नामों को स्वीकार कर लिया जाए फिर भी क्या कारण है कि दलित ,दुसाध ,मंडल पासवान जैसी दलित जातियों के नाम पर फिल्म नहीं बनती क्या दलित हमारे समाज का हिस्सा नहीं हैं ,अगर हैं तो वो फिल्मों में क्यों नहीं दिखते और अगर दिखते भी हैं तो हमेशा की तरह पीड़ित सताए हुए इसका क्या अर्थ निकला जाए या तो धरातल पर सामजिक परिवर्तन के नाम पर कुछ ठोस नहीं हुआ है और अगर हुआ है तो भी हम इसे सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त हो स्वीकार नहीं पाए हैं तथ्य यह भी है कि राजनैतिक रूप से दलित लामबंद होकर उभर रहे हैं और उन्हें एक वोट बैंक के रूप में देखा जा रहा है जो सरकारों की तकदीर बना बिगाड़ सकते हैं लेकिन एक औडिएंस के रूप में उनकी इच्छाओं ,अपेक्षाओं और जरूरतों को महत्व नहीं दिया जा रहा है “एक निर्देशक के लिए एक फोटोग्राफर के लिए फिल्म भले ही कला का माध्यम हो लेकिन फिल्म निर्माता के लिए एक उद्योग ही है .”[7]
जब यह विशुद्ध उद्योग ही है तो इस सच्चाई को कला से क्यों जोड़ा जाता है हमेशा हिट फिल्मों के फार्मूले की तलाश में रहने वाला हमारा फिल्म उद्योग कहीं न कहीं असमंजस की स्थिति में दिखता है और इसलिए हमारी फिल्मों के नायक ख्याली दुनिया में खोये हुए रूमानी माहौल में जिंदगी को देखते हैं जहाँ किसी तरह की कोई समस्या नहीं है यदि ऐसा न होता तो क्या कारण है कि इतनी राजनैतिक चेतना वाले दलित आंदोलन को किसी भी फिल्म का कथ्य नहीं बनाया गया सिर्फ फ़िल्में न चलने का अगर बहाना होता तो कई फिल्मकार अपनी एक फिल्म के फ्लॉप हो जाने के बाद इस उद्योग को अलविदा कह गए होते पर ऐसा नहीं हुआ कई बार प्रयोगधर्मी फ़िल्में बनाई गयीं महज़ अपनी सोच को दुनिया के साथ बाँटने के लिए पर दलितों के मामले में ऐसा नहीं हुआ न तो फिल्म उद्योग में उन्हें उचित मौके मिले और न ही उनके कथ्य को फिल्मों का विषय बनाया गया. “दलित होने के कारण हिंदी और भोजपुरी फिल्म से जुड़े गोपाल एक वाकया बताते हैं जब उन्हें शूटिंग के लिए बुलाया गया लेकिन जब उनकी जाति का पता वहां के इंचार्ज को लगा तो उन्हें आने जाने का किराया देकर विदा कर दिया गया”[8]
सिनेमा में क्या दिखाया जा रहा है यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि कैसे दिखाया जा रहा है यह महत्वपूर्ण है और इसी से दिखाने वाले की मानसिकता का पता चलता है यूँ तो उँगलियों पर गिनी जा सकने वाली संख्या में ऐसी कई फिल्मे में हैं जिनका कथानक आधार दलित रहे हैं जिनके नाम की महज़ चर्चा करना सिर्फ स्थान की बर्बादी ही होगी पर दुनिया में सबसे ज्यादा फ़िल्में बनाने वाला hamaraहमारा हमारा फिल्म उद्योग देश की सबसे बड़ी आबादी को कैसे नज़रंदाज़ कर सकता है ये सवाल जरुर विचारणीय है .गंभीरता के स्तर पर फिल्मों को भले ही हलके में लिया जाए पर यह नहीं भूला जा सकता कि हर फिल्म अपने वक्त का आईना होती है कथानक भले ही कैसा हो पर कहीं न कहीं समाज में क्या चल रहा है इसकी एक झलक आपको मिल ही जायेगी इसको हम यूँ भी समझ सकते हैं कि शहरी समाज के बदलाव में तकनीक की भूमिका क्या रही है इसकी झलक २००० के दशक की फिल्मों में दिख जाएगा ७० के दशक की फिल्मों को देख कर कम से कम हम ये अंदाज़ा लगा सकते हैं कि तकनीक के लिहाज़ से हम उस दशक में काफी पीछे थे ,हमारी फ़िल्में एक ट्रेंड पर बना करती हैं जिसमे कभी कामेडी का दौर आता है कभी प्रेम कहानी का कभी सामजिक समस्याओं को आधार बना फिल्मों का निर्माण किया जाता है लगभग सौ साल के सिनेमा के इतिहास में ये सिलसिला अनवरत जारी है जब सती प्रथा और विधवा विवाह जैसे कुरीतियाँ हमारे समाज में थीं उन पर फ़िल्में बनी और व्यवसायिक रूप से सफल भी रहीं छुआ छूत को आधार बना कर फ़िल्में खूब बनी पर उनके केंद्र में कभी दलित विमर्श नहीं रहा आमतौर पर वो आदर्श में रची पगी फ़िल्में सबको मानवता भाई –चारा का सन्देश दे कर समाप्त हो जाती है. “‘सुजाता’ याद है आपको? कितनी अच्छी फिल्म थी। बिलकुल पंडित नेहरु के जाति-सौहार्द को साकार करती! अछूत-दलित कन्या ‘सुजाता’ को किस आधार पर स्वीकार किया जाता है, और उसे शरण देनेवाला ब्राह्मण परिवार किस तरह अपने आत्म-द्वंद्व से मुक्ति पाता है? वहां भी उसकी औकात-जात का वर ढूंढ कर जब लाया जाता है, तो वह व्यभिचारी, शराबी और दुहाजू ही होता है, और कमसिन सुजाता का जोड़ बिठाते हुए, अविचलित माताजी के अनुसार ‘इन लोगों में यही होता है’। पूरी फिल्म में ब्राह्मण-दलित संवाद स्थापित ही नहीं हो पाता। बस ब्राह्मण-ब्राह्मण का ही द्वंद्व है, जिसमें दयालु-दाता मॉडर्न ब्राह्मण और ‘संस्कारी ब्राह्मण’ का डिस्कोर्स उभरता है। दलित कन्या में कोई गुण नहीं निकल पाता, बस सामाजिक जिम्मेदारी के तहत ही वह स्वीकार्य होती है… फिल्म इस संभावना के साथ खत्म होती है कि अगर अपने बेटों की बात नहीं मानी और उनके प्रेम विवाह में रोड़े अटकाये तो वे बगावत कर देंगे। पिता पुत्र की आधुनिकता एक गुण के तौर पर उभरती है और हां, खून सबका एक है – ये मेडिकल फैक्ट भी स्थापित होता है। जहां तक सुजाता का सवाल है, उसका संस्कृतिकरण पूर्ण है। वो चुप रहनेवाली, गुनी, सुशील और त्यागी ‘मैरिज-मैरिटल’ यानी सेविका ही बन पाती है जबकि उसी परिवार-परिवेश की असली बेटी एक प्रतिभावान मंचीय नर्तकी, आधुनिका, वाचाल और अपनी मर्जी की इज्जत करनेवाली शख्सियत बनती है”[9]
कहते हैं सिनेमा बदल रहा है बदल तो रहा है नयी तकनीक तेजी से आ रही है फिल्मों के डिजीटल प्रिंट धड़ा धड रिलीज हो रहे हैं रोज नए मल्टीप्लेक्स खुल रहे हैं सिनेमा तो बदल रहा है एक चीज जो नहीं बदल रही है वह है सिनेमा का जातिगत स्वरुप अपने आप को प्रगतिशील कहने वाला मुंबई फिल्म उद्योग हमेशा सवर्णों पर मेहरबान रहा है आजादी के बाद सोचिये कितने दलित अभिनेता फिल्म में आये हैं या उन्हें मौके मिले है .हमेशा की तरह हमारी फ़िल्में टैलेंट की क़द्र करती हैं और दलित टैलेंटेड नहीं होते अन्यथा क्या कारण है कि फिल्मों की दुनिया में कुछ परिवारों का राज चलता है उसके बाद अगर किसी के लिए जगह बचती है तो वो भद्र कुलीन सवर्ण जातियों के लोग ही होते हैं . “ १९८८ के पश्चात दलित समाज में जो सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना जागृत हुई उसकी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से होना ही था. आज हिन्दी में अनेक रचनाकार विभिन्न विधाओं में निरन्तर सृजनरत हैं. इतने अल्प समय में दलित-साहित्य का विकास आश्वस्तिकारक है. प्रारम्भ में भले ही ’दलित-साहित्य’ और ’दलित-साहित्यकार’ की अवधारणा ने जन्म न लिया हो लेकिन गत कुछ समय से यह चर्चा का विषय बन गया है कि क्या वही साहित्य दलित-साहित्य की परिधि में आता है जो दलित-साहित्यकारों द्वारा लिखा जा रहा है या वह साहित्य भी दलित-साहित्य है जिसके लेखक गैर दलित हैं, लेकिन जिनमें दलित जीवन की सघन , विश्वसनीय और वास्तविक अभिव्यक्ति हुई है”[10].दलितों में आयी राजनैतिक चेतना का असर साहित्य में भी दिखा लेकिन फ़िल्में इससे अछूती ही रहीं इसके पीछे बाजार के अर्थशाश्त्र को जिम्मेदार ठहराया जाता है पर गौर करने वाली बात यह भी है कि फिल्म एक सृजनात्मक माध्यम भी है देवानंद जैसे फिल्मकार जो ८७ वर्ष की उम्र में फ़िल्में बना रहे हैं और उनकी आख़िरी हिट फिल्म १९७८ में बनी देश परदेश थी लेकिन फिल्मों के प्रति उनकी दीवानगी उन्हें लगातार फ़िल्में बनाने के लिए प्रेरित कर रही है इसके पीछे बाजार नहीं बल्कि उनकी सर्जनात्मकता है तो इससे ये दावा तो ध्वस्त होता ही दिखता है कि फिल्म महज एक व्यवसायिक माध्यम है .दलितों को केंद्र में रखकर फिल्म बनाई जा सकती है पर वो हमारे फिल्मकारों की सर्जनात्मक प्राथमिकता में नहीं है तभी तो आप देखिये जहाँ हमारा हीरो अपने आपको कभी राहुल बजाज बताता है तो कभी सिंहानिया ,कभी गुप्ता जी तो कभी लाला जी ,विजय और राज महरोत्रा को तो बिल्कुल भूला नहीं जा सकता उपरी तौर पर वो जाति के प्रति बहुत आग्रही नहीं दिखता पर अंदर से वो पूरा सवर्ण हिंदू मर्द ही होता है . ये चंद नाम एक बानगी हैं कि फिल्मों में जाति कितनी महतवपूर्ण है . पिछले दो दशक की समकालीन फिल्मों में सिर्फ एक फिल्म चाची ४२० ही ऐसी है जिसके नायक का नाम राजेश पासवान है .यह निर्देशक की सोच है या मूलत एक दक्षिण भारतीय फिल्म होने के कारण जहाँ दलित उभार ज्यादा गहनता से उभरे हैं यह नाम आ गया हो ,यह शोध का विषय है . दलित पात्र हमेशा पीड़ित ,शोषित और न्याय की गुहार के लिए दर दर भटकता दिखेगा उसका कल्याण भी किसी सवर्ण के ही हाथों होता है. “सवाल दलितों पर फ़िल्में बनाने का नहीं है, सवाल ये है की वे जब परदे पर उतारे जाते हैं तो किस तरह का चरित्र उनमें उभारा जाता है.‘सौन्दर्यबोध-कैटरीना’ से परे जा कर सोचिये कि आत्म-बोध, आत्म-सम्मान, मनुष्यगत-अस्मिता, स्वाभिमान जैसे गुण उसमें क्यूँ नहीं होते? वह अपने तिरस्कार पर ख़ुद क्यों चीत्कार करता नहीं दिखता? वह अपने प्रति हर ज़्यादती-अत्याचार को आत्मसात करनेवाला ही क्यों है? उसकी ये छवि उसके असल जीवन में अत्याचारों के विरुद्ध उठाए प्रतिकारों-चीत्कारों को ख़ारिज करती है. उसके आत्म-सम्मान के संघर्ष को नकारती है. एक सवर्ण हीरो में गुणों-ख़ूबियों की अथाह मौजूदगी हाशियाग्रस्त दुनिया के आत्मसम्मान और नैतिकता को ध्वस्त कर पैदा की जाती है”[11]
क्या सीमा बिस्वास में योग्यता नहीं थी या रघुवीर और राजपाल यादव मे नहीं है इन तीन नामों के अलावा समकालीन हिंदी सिनेमा में किसी दलित अभिनेता या अभिनेत्री की जानकारी मुझे उपलब्ध नहीं हो पायी है अन्य कलात्मक व्यवसाय की तरह यहाँ भी जाति का ही राज चल रहा है किसी की तीसरी पीढ़ी यहाँ काम कर रही है और किसी की चौथी और इस पीढ़ी गत व्यवसाय में किसी भी दलित का प्रवेश निषेध है हिंदी फिल्म के अब तक के सभी बड़े सितारे अच्छे खाते पीते घरों से आये हैं वो चाहे अमिताभ बच्चन हो या दिलीप कुमार या कोई और सिनेमा में मौका सबको मिलता है पर मौके की संख्या में जाति का एक बड़ा हाथ होता है उसे मौके ज्यादा मिलेंगे जो सवर्ण होगा दलितो को या तो मिलेंगे ही नहीं और मिलेंगे भी तो कम .
फिल्म के कथानक में भी दलित पात्रों को विकसित होने का पूरा मौका नहीं दिया जाता उन्हें जिंदगी में जो कुछ भी हासिल हो रहा है उसके लिए उनकी उधम शीलता नहीं बल्कि लोगो की दया और भगवान के आशीर्वाद का महत्त्व ज्यादा होता है इस तरह हमारा फिल्म मीडिया एक सवर्ण एजेंडा सेटिंग सिद्धांत के अनुसार कार्य करता है अर्थात उनमें अमूमन तो स्वाभिमान की भावना पैदा न होने दो और अगर उनकी जिंदगी में कुछ सकारात्मक हो रहा है तो उसके लिए भगवान को उत्तरदायी ठहराओ .
१९९१ की उदारी करण की नीति के बाद काफी कुछ बदला और इस बदलाव का असर हमारे सिनेमा पर भी पड़ा यह असर द्वि स्तरीय है सिनेमा में बेहतर तकनीक का प्रयोग होना शुरू वहीं कथानक के स्तर पर भी काफी अनूठे प्रयोग देखने को मिले लेकिन ये प्रयोग उस दर्शक को ध्यान में रखकर किये जा रहे थे जिसके पास सब कुछ है उसके जीवन के सपनों आशाओं दिनचर्या को विषय बनाकर ऐसे फ़िल्मी संसार की रचना की गयी जिससे वो शहरी मध्वर्ग उसकी ओर आकर्षित हो जो थोडा है थोड़े की जरुरत है के द्वंद में फंसा हुआ है समान्तर सिनेमा के अवसान से जो दलित कभी कभार परदे पर दिख जाया करते थे उनके दिखने की उम्मीद भी अब कम ही है पिक्चर हाल के बंद होने और मल्टीप्लेक्स संस्कृति के विकास से अब निर्माताओ का मुख्य ध्यान शहरी मध्य वर्ग पर ही रहता है ऐसे में लाजिमी है कि फिल्मों का कथानक विवाहेतार सम्बन्ध लड़का लड़की का प्यार या किसी मर्डर मिस्ट्री के आस पास ही होगा ये सब कुछ ऐसे विषय में जिनकी ओर शहरी मध्य वर्ग का ज्यादा रुझान रहता है .
जो फ़िल्में बनी भी हैं उनमे दलित को सहानुभूति के रवैये से दिखाया गया है. एक सह्शाक्त सामाजिक हिस्से के रूप में नहीं. उससे हमेशा दीन हीन ही माना गया और उसका कल्याण भी किसी सवर्ण के ही हाथों होता है.फिल्मों में दलित पात्रों का प्रादुर्भाव और उनको उचित प्रतिनिधित्व तभी मिलेगा जब दलित आर्थिक रूप से समृद्ध होंगे और फिल्म निर्माण क्षेत्र में आगे आयेंगे वहीं दर्शकों के नज़रिए से दलितों को उस कोटर से बाहर निकलना होगा जिसके अंदर उन्हें सवर्ण इतिहासकारों ने बैठा दिया है फिल्म में जो कुछ दिखाया जा रहा है जरूरी नहीं कि वो सत्य हो पर वो सत्य के करीब भी हो सकता है इस लिए फिल्म को देखते वक्त महज़ फिल्म न देखें बल्कि निहितार्थ को भी समझें तब शायद स्थिति सुधरे .
*लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं
कथादेश पत्रिका के मीडिया वार्षिकी अंक अप्रैल २०११ में प्रकाशित लेख
[6] .लोकप्रिय सिनेमा और सामजिक यथार्थ (२००१):जवरीमल्ल परख ,अनामिका पब्लिशर्स नयी दिल्ली पृष्ठ संख्या ११४
14 comments:
very factual aspects...which are always been taken as grant.. sir apke article se bhot achchi-achchi baatien bhi pata chali jinhe hum jaante to hai par dhyan nahi jata kabhi un par aur na kabhi parakh paate hai..thanks for such a precious note...
sahi kaha sir, film main wohi dikhaya jata hai jo hamare is samaz mai ho raha hai, waqai main hum aaj bhaut aage chale gaye hain..lekin kuch cheeze aaj bhi nahi badli...unhi mai se ek hai humari jati per uthte prashan......tabhi to aaj bhi kahi election vikas ke naam per lade jate aur kahi per jati per...logo ko sochne per majboor karta sahi aur marmik lekh..very good sir.
सारगर्भित लेख लिखने के लिए बधाई...बड़े दिनों बाद कोई विचारोत्तेजक लेख पढ़ा है। लेकिन आपकी कही सारी बात से सहमत होने को जी नहीं चाहता है।
एक बात है गुरु जी जब भी हम लोग किसी को किसी भी प्रकार की सहानुभूति देते है तब कही न कही हम लोगो उनके विषय पर कोई भी टिप्पड़ी करनी बहुत कठिनाई का काम हो जाता है....
शायद यही कारण है की सिनेमा भी दलितों को कुछ दूर ही रखना पसंद करता है क्यों की लोगो मन ये बात आ जाती है की ये समाज उनका मजाक उड़ा रहा है...
shayad aaj bhi smaaj mein daliton ka whi chitran hai jo kyi saalon pehle tha...aapka ye lekh kyi baaton pr vichar krne ko prerit kr rha h...
मुकुल, मैं तुम्हारी बात से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ. यह अवश्य मानता हूँ कि बहुत सी जगहों पर भारतीय समाज में जाति का प्रभाव शायद वर्ग के प्रभाव से अधिक महत्वपूर्ण है. पर फ़िल्मी दुनिया में जाति अधिक महत्वपूर्ण है, यह नहीं लगता, बल्कि लगता है कि पैसा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है और कल अगर दलित होना बिकाऊ होगा कि इस विषय पर फ़िल्में भी बनेंगी, उनके नाम भी होंगे, उनके पात्र भी होंगे. इसलिए हिन्दी फ़िल्में गोरे सुन्दर चेहरे खोजती हैं, चाहे वे ईसाई हो या मुसलमान, दक्षिण भारतीय हो या बँगाली. जाति का भेदवाव जो फ़िल्मों में है, मेरे विचार में इसका कारण जातिबोध नहीं बल्कि यह सोच है कि इस विषय पर बनी फ़िल्म को व्यवसायिक लाभ नहीं होगा, बिकेगे नहीं, पैसे नहीं बनायेगी. इस बात के अपवाद भी होंगे, ऐसे लोग भी होंगे तो अपने जीवन में भेदभाव करते होंगें, पर उनके लिए भी अगर पैसे बन सकते हों तो जातपात नहीं देखेंगे.
sir aapka ye article bahut acha laga, aur jo baat hue patra nahi thi aaj pata chali, jis tarah se dilito ke saat bhed bhaw ho raha us par ankush laga bahut hi jarruri hai. bhartiya cinema se dailit abhi bahut dur hain. aur jitani bhi filme ban rahi hai o sab savarno ko lekar hi ban rahi hai, filmo ke naam aur patra doni hi swarno par hain dalito par nahi. kuch dini me sayad lo Baba SAhab bhem rao Ambedkar ko bho bhul jayenge jinhone dalito ko ek naye disha di aur appne adhikaro ko samjhaya aur duniya me sir utha ke jina sikhaya, aaj log dekhate hain ukna bhi majak uada rahe hain jo bahut hi dukhdaye ha is desh ke liye, agar aise hi bhed bhaw hota raha o di dur nahi ki dusare desh iska fayad utha le.
Sir baat phir bhi wohin aa jaati hai agar kahte ki filmein samaaj ka aaina hoti hai to woh dikhati bhi wohi hai jo samaaj dekhna chahta hai,jab tak hamari soch nahi badlegi kuch nahi hoga .....kala ki koi jaat nahi hoti hai aur sirji jab kudrat kala baatne mein fark nahi karti to bhala ham kaun hote hai.
Aapki baat me mujhe kahi sahmti or khi asahmti nazar a rai hai kyoki har baar is samsya ko jatigat bedhbhav ka naam dena sahi nai hai
this article contains new and intresting facts which are very use full but again the question arises about the priority wchich is given mostly to entertainment based movies instead if educational or movie based on serious issues.
sir mein aapki baton se kisi had tak sehmet hun lekin mere khayal mein jaise aapne kaha jo samaj mein ho raha hai wahi films mein dikhaya jata hai to sir iska matlab hum logon ne hi dalits ko accept nahi kiya hai thats y uski chap films mein dikhti hai kyunki filmi duniya ke log koi uper se to aaye nahi hai hai to woh bhi samaaj ka hissa..or phr ek do logon ke sochne se yeh samasya nahi jayegi kyunki yeh bohat purani ho chuki hai or jab bohat se log iske khilaaf honge tabhi iska samaadhaan nikelega..
and sir ek baat or aapka article padhke mujhe saari information mili jo mere liye nayi thi..:)
films toh ek zariya hai kisi ke viyaktigat vicharo ko viyakt karne ka , aur aisa zaroori nahi hai ki jo ek insaan soch raha ho , wahi uske sath khada insaan bhi soche , apni apni neeji soch ke adhar par yeh kehna ki films mein dalit ya aur kisi bhi kaum ko khas tareeqe se dikhaya jaye ..
mere hisab se films ko ek azad soch ke sath apnane mein hi accha hai --haider
आज का सिनेमा गंभीर सिनेमा नहीं रह गया है.. पैसा एक बड़ा कारक है जो इन फिल्मो को प्रभावित करता है.. सुनील दीपक जी ने बिलकुल ठीक कहा.. जिस दिन दलित बिकाऊ होंगे.. उनके नाम भी होंगे, फिल्मे भी बनेगी.. फिल्म अगर समाज का आईना है तो वह वही दिखाएगी जो समाज देखना चाहेगा.. फिल्मे क्रांतिकारी की भूमिका में नहीं है.. वे व्यवसायिकता से प्रेरित हैं..
I Agree Sir जातिवाद का भेदभाव तो लगभग पूरे भारत में है ,दलितों से भेदभाव आज भी किया जाता है,उनको प्रताड़ित किया जाता है,और अगर इन मुद्दों पर फिल्म बनती है,लेकिन फ्लॉप हो जाती है क्योंकि हमारा समाज ऐसी चीज़े देखना और सुनना नहीं चाहता। आज दलितों पर राजनीति होती है, यह सुधार हमे खुद से लाना होगा । सभी को भेदभाव को त्यागना होगा । तभी देश का विकास और दलितों का विकास होगा । आज के इस दौर में फिल्मे लगभग कारोबार पर ध्यान देती है,निर्माताओ को चाहिए की आज भी इन मुद्दों को जाग्रत करते रहना चाहिए ।
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