भारत दुनिया की एक तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था मोबाईल ,और फेसबुक प्रयोगकर्ताओं के लिहाज से दुनिया के तीन बड़े देशों में इसका नाम लिया जाता है पर तस्वीर का एक और रुख भी है|उच्च शिक्षा के मामले में भारत को अभी लंबा रास्ता तय करना है जिसमे योग्य शिक्षकों का चुनाव और उनका विकास भी शामिल है पर उससे पहले जरा कुछ आंकड़ों पर भी नज़र डाल ली जाए दुनिया के 21 विश्वविद्यालयों के समूह ‘यूनिवर्सिटास 21’ ने अपने सर्वे में भारत को ब्रिक्स देशों से भी नीचे 48वें पायदान, पर जगह दी है जबकि अमेरिका शीर्ष स्थान पर है।‘साल 2011 के विश्व के 200 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सालाना सूची में भारत के किसी भीविश्वविद्यलय को जगह नहीं मिल पायी है| टाइम्स हाइयर एजुकेशन मैगजीन के इस सर्वे में शिखर पर हार्वर्ड, स्टैनफ़ोर्ड और ऑक्सफ़ोर्ड जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों को रखा गया है|इसमें कोई शक नहीं है कि विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ी है पर गुणवत्ता आधारित शिक्षा और योग्य शिक्षकों की कमी से देश के विश्वविद्यलय और संस्थान जूझ रहे हैं | विश्वविद्यलयों में योग्य शिक्षकों के चुनाव के लिए उच्च शिक्षा का नियामक संगठन विश्व विद्यालय अनुदान आयोग (यू जी सी )साल में दो बार देश भर में राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट )आयोजित करता है जिसमे चुने गए अभ्यर्थियों को विश्वविद्यालयों में पढाने की पात्रता हासिल हो जाती है इस परीक्षा का उद्देश्य अभ्यर्थी की विषय पर पकड़, विश्लेषण करने की क्षमता तथा तार्किकता का आंकलन होता है| जिसके लिए तीन प्रश्नपत्र होते हैं जिसमें पहला शैक्षिक अभिरुचि ,दूसरा विषय से सम्बंधित ज्ञान का बहुविकल्पीय प्रश्नपत्र और तीसरा विषय से सम्बन्धित निबंधात्मक प्रश्नपत्र होता है परीक्षा का स्वरुप ऐसा होता है कि यदि कोई छात्र पहले और दूसरे प्रश्न पत्र में निर्धारित अंक नहीं प्राप्त करता तो तीसरे प्रश्न पत्र को नहीं जांचा जाता| इस साल विश्व विद्यालय अनुदान आयोग (यू जी सी ) ने एक विचित्र फैसला करते हुए राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट ) के सभी प्रश्नपत्रों को बहुविकल्पीय कर दिया हालांकि अभी अंतिम आंकड़े आने बाकी है पर इसका नतीजा यह हुआ कि विश्वविद्यलयों में आवेदनकर्ताओं की बाढ़ आ गयी है आवेदन कर्ताओं की बढ़ती भीड़ के कारण यू जी सी को ऑफ लाइन फॉर्म भरने का भी विकल्प देना पड़ा इन आवेदनकर्ताओं उम्मीदवार हैं जो बहुविकल्पीय प्रश्नों की आड़ में शिक्षक बनने की योग्यता हासिल करने का सपना देख रहे हैं|उच्च शिक्षा के संस्थान और विश्वविद्यलय शोध और विषय के विकास के लिए जाने जाते हैं ना कि बने बनाये ढर्रे पर लोगों को महज़ साक्षर करना इन्हीं बिंदुओं को ध्यान में रखकर विश्वविद्यलयों को स्वायत्तशासी बनाया गया जिससे वे बाहरी हस्तक्षेप से दूर रहकर दुनिया को नयी दिशा दें| जरा सोचिये व्याकरण, काव्य, भाषा, श ैली, अलंकारशास्त्र, वक्तृत् वकला, संगीत, , अर्थशास्त्र राजनीति और पत्रकारिता जैसे ना जाने कितने विषयों के शिक्षकों का चयन सिर्फ उनके अर्जित किताबी के आधार पर किया जाए तो किस तरह की गुणवत्ता शिक्षा का लक्ष्य हासिल होगा| भारतीय छात्रों ने अपनी मेधा का लोहा पूरी दुनिया में मनवा चुके हैं अमेरिका के राष्टपति बराक ओबामा सार्वजनिक मंचों से कई बार अपने नागरिकों को इस बारे में खुले मंचों से चेतावनी तक दे चुके हैं।छात्रों की इस मेधा के पीछे इस देश के शिक्षकों का विस्तृत ज्ञान भी है। अब अगर शिक्षक ही बहुविकल्पीय ज्ञान से आऐंगे तो देश से यह यह रूतबा भी छिनते देर नही लगेगी। यूजीसी के इस फैसले केा लेकर शिक्षकों और बुद्धिजीवियों में आक्रोश और चिंता है । तथ्य यह भी है कि इस प्रक्रिया से विषय के कुछ चुनिंदा क्षेत्र को पढने वाले आसानी से शिक्षक बनेंगे तो विषय को लेकर उनका दष्टिकोण भी ऑबजेक्टिव ही होगा। इसका बुरा असर तैयार हो रही नयी पीढी पर पडेगा। हमारे बच्चे भी सतही ज्ञान के साथ विदेशी बच्चों की भीड में शामिल हो जाएंगे। उनकी अलग पहचान को तोडने का यह षडयंत्र भी हो सकता है।
यहाँ ध्यान देने कि बात ये है कि अब तक होने वाले नेट जे आर एफ कि परीक्षा में प्रथम और द्वितीय प्रश्नपत्र बहुविकल्पीय होते थे और तृतीय प्रश्नपत्र व्यख्याक्यात्मक होता था. इससे परीक्षा के बाद अभ्यर्थी के किताबी ज्ञान के साथ साथ उसके अनुभवातीत एवं व्यावहारिक पक्ष की भी पड़ताल होती थी. यह प्रणाली कम से कम शोध छात्रों के लिए काफी कारगर थी. अगर आगे बढ़ने के लिए किसी नयी प्रणाली का विकास करना ही था तो इसी प्रक्रिया को और समयानुकूल और सटीक बनाने कि आवश्यकता थी. न कि अभ्यर्थियों का बोझ कम करने नाम पर प्रक्रिया में गुणवत्ता के साथ समझौता किया जाये. दबाव कम करने के लिए गुणवत्ता से समझौता और तकनीक का अत्यधिक इस्तेमाल काम में सुगमता तो लाता है, परन्तु इसके दूरगामी परिणाम घातक होते हैं. फिर भारत में तो शोध कि गुणवत्ता को लेकर काफी समय से हंगामा उठता रहा है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि नयी प्रणाली मूल्यांकन में पारदर्शिता और तेजी तो लाएगी लेकिन छात्र कसौटी पर कितना कसे जा सकते हैं विचारणीय है. देखना होगा कि प्रयोग सफल होगा या प्रक्रिया का चक्का उल्टा घूमेगा और नसीहत देगा पुरानी प्रक्रिया की ओर लौटने की......
अमर उजाला कॉम्पेक्ट में 17/05/12 को प्रकाशित
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