गाँव की चिंता सबको है आखिर भारत गाँवों का देश है पर क्या सचमुच गाँव तो जिन्दा हैं पर गाँव की संस्कृति मर रही है गाँव शहर जा रहा है और शहर का बाजार गाँव में आ रहा है पर उस बाजार में गाँव की बनी हुई कोई चीज नहीं है.सिरका,बुकनू(नमक और विशेष मसालों का मिश्रण)पापड जैसी चीजों से सुपर मार्केट भरे हैं पर उनमें न तो गाँवों की खुशबू है न वो भदेसपन जिसके लिए ये चीजें हमारे आपके जेहन में आजतक जिन्दा हैं .सच ये है कि भारत के गाँव आज एक दोराहे पर खड़े हैं एक तरफ शहरों की चकाचौंध दूसरी तरफ अपनी मौलिकता को बचाए रखने की जदोजहद.विकास और प्रगति के इस खेल में आंकड़े महत्वपूर्ण हैं भावनाएं संवेदनाओं की कोई कीमत नहीं .वैश्वीकरण का कीड़ा और उदारीकरण की आंधी में बहुत कुछ बदला है और गाँव भी बदलाव की इस बयार में बदले हैं .गाँव की पहचान उसके खेत और खलिहानों और स्वच्छ पर्यावरण से है पर खेत अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं भारत के विकास मोडल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह गाँवों को आत्मनिर्भर बनाये रखते हुए उनकी विशिष्टता को बचा पाने मे असमर्थ रहा है यहाँ विकास का मतलब गाँवों को आत्मनिर्भर न बना कर उनका शहरीकरण कर देना भर रहा है.विकास की इस आपाधापी में सबसे बड़ा नुक्सान खेती को हुआ है .भारत के गाँव हरितक्रांति और वैश्वीकरण से मिले अवसरों के बावजूद खेती को एक सम्मानजनक व्यवसाय के रूप में स्थापित नहीं कर पाए.इस धारणा का परिणाम यह हुआ कि छोटी जोतों में उधमशीलता और नवाचारी प्रयोगों के लिए कोई जगह नहीं बची और खेती एक बोरिंग प्रोफेशन का हिस्सा बन भर रह गयी.गाँव खाली होते गए और शहर भरते गए.इस तथ्य को समझने के लिए किसी शोध को उद्घृत करने की जरुरत नहीं है गाँव में वही युवा बचे हैं जो पढ़ने शहर नहीं जा पाए या जिनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है, दूसरा ये मान लिया गया कि खेती एक लो प्रोफाईल प्रोफेशन है जिसमे कोई ग्लैमर नहीं है फिर क्या गाँव धीरे धीरे हमारी यादों का हिस्सा भर हो गए जो एक दो दिन पिकनिक मनाने के लिए ठीक है पर गाँव में रहना बहुत बोरिंग है फिर क्या था गाँव पहले फिल्मों से गायब हुआ फिर गानों से धीरे धीरे साहित्य से भी दूर हो गया.समाचार मीडिया में वैसे भी गाँव सिर्फ अपराध की ख़बरों तक सीमित और इस स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है.पंजाब हरित क्रांति से फायदा उठाने वाले राज्यों में सबसे आगे है वहीं उत्तर प्रदेश और बिहार के बहुत से मजदूर अपने खेतों को छोड़कर पंजाब में दूसरे के खेतों में मजदूरी कर रहे हैं क्योंकि उन्हें अपनी खेती से वो सम्मान नहीं मिलता जो परदेश में नौकरी करने के झूठे दंभ में मिलता है समस्या की जड़ यही है.वैश्वीकरण का रोना छोड़कर हमें उससे मिले अवसरों का फायदा उठाना था जिसमे हम असफल रहे हमारे खेत और गाँव के उत्पाद अपनी ब्रांडिंग करने में असफल रहे.खेती में नवचारिता वही किसान कर पाए जिनकी जोतें बड़ी थीं और आय के अन्य स्रोत थे ऐसे लोग आज भी सफल हैं और अक्सर मीडिया की प्रेरक कहानियों का हिस्सा बनते हैं किन्तु ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है.सहकारी आंदोलन की मिसाल लिज्जत पापड और अमूल दूध जैसे कुछ गिने चुने प्रयोगों को छोड़कर ऐसी सफलता कहानियां दुहराई नहीं जा सकीं.जिसका परिणाम ये हुआ कि गाँवों को शहर लुभाने लग गए और गाँव शहर बनने चल पड़े गाँव शहरों की संस्कृति को अपना नहीं पाए पर अपनी मौलिकता को भी नहीं बचा पाए जिसका परिणाम ये हुआ कि अपनी चिप्स और सिरका दोयम दर्जे के लगने लग गए पर यही ब्रांडेड चीजें अच्छी पैकिंग में हमें लुभाने लग गयीं हम अपनी सिवईं को भूल कर नूडल्स को दिल दे बैठे आखिर इनके विज्ञापन टीवी से लेकर रेडियो तक हर जगह हैं पर अपना चियुड़ा,गट्टा किसी और देश का लगता है .सारी दुनिया की निगाह आज भारत पर इसलिए है क्योंकि हमारे पास दुनिया का एक बड़ा बाजार है पर उस बाजार में हमारी अपनी बनाई चीजों के लिए कोई जगह नहीं है.गाँव के ऐसे उत्पाद और कुटीर उद्योग गाँव के आर्थिक स्वावलंबन का सहारा बन सकते थे जिनसे हमारी शहरों और शहरी चीजों पर निर्भरता कम होती पर ऐसा हुआ नहीं.सरकार के ग्रामीण विकास के मॉडल इस समस्या को समझने में असमर्थ रहे कि चुनौती कितनी बड़ी .ब्रांडिंग के इस युग में भारत के गाँव और उनके उत्पादों को जब तक ब्रांडिंग का सहारा नहीं मिलेगा हम अपनी विरासत को यूँ ही नष्ट होते देखते रहेंगे .
गाँव कनेक्शन साप्ताहिक के 2 मार्च अंक में प्रकशित
4 comments:
एक सार्थक आलेख !!
बहुत सही कहा आपने ...
सत्य का बखान करता बढ़िया लेख |
आशा
कही इन सेवई की तरह आने वाली पीढ़ी गांवों को भी न भूल जाये कही।
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