चिंता करना राष्ट्रीय कर्तव्य है और इस चिंता में अक्सर गाँवों का जिक्र आ जाता है पर गाँव है कि विकसित होता नहीं योजना आयोग की योजनाएं साल दर साल आती जाती रहती हैं पर गाँव तो बेचारा है यादों में रहने वाले गाँव की हकीकत उतनी रूमानी नहीं है इस तथ्य को समझने के लिए किसी आंकड़े की जरुरत नहीं है गाँव में वही लोग बचे हैं जो पढ़ने शहर नहीं जा पाए या जिनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है, दूसरा ये मिथक कि खेती एक लो प्रोफाईल प्रोफेशन है जिसमे कोई ग्लैमर नहीं है फिर क्या गाँव धीरे धीरे हमारी यादों का हिस्सा भर हो गए हैं जो एक दो दिन पिकनिक मनाने के लिए ठीक है और शायद इसीलिये गाँव खाली हो रहे हैं और शहर जरुरत से ज्यादा भरे हुए आखिर समस्या कहाँ है गाँव को पुरानी पीढ़ी ने इसलिए पीछे छोड़ा क्यूंकि तरक्की रास्ता शहर से होकर जाता था फिर जो गया उसने मुड़कर गाँव की सुधि नहीं ली क्यूंकि गाँव के लोग शहर जाकर विकसित हो रहे थे पर गाँव आर्थिक रूप से पिछड़े ही रहे एक तरफ 6लाख छोटे गाँव और दूसरी तरफ 600 शहर, कोई भी जागरूक और धन से संपन्न ग्रामीण शहर ही जाना चाहेगा और हुआ भी कुछ ऐसा ही दुनिया की हर विकसित अर्थव्यवस्था ऐसे ही आगे बढ़ी है जिसमे कृषि क्षेत्र की उत्पादकता को बढ़ाया गया और बची श्रम शक्ति को औधोगिकी करण में इस्तेमाल किया गया|भारत के गाँव के सामने विकल्प हैं पर यदि समय रहते इनको आजमा लिया जाए,गाँव से पलायन इसलिए होता है कि वहां सुविधाएँ नहीं है सुविधाएँ के लिए धन की जरुरत है वो दो तरीके से आ सकता है पहला सरकार द्वारा दूसरा पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप से,सरकार अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से काम करती है इसमें अगर तेजी लानी है तो पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देना होगा अब यहाँ समस्या ये है कि गाँव ,जनसँख्या के अनुपात में शहरो से काफी छोटे होते हैं इसलिए आधारभूत सेवाओं के विकास में लागत बढ़ जाती है और इनकी वसूली में भी देर होती है जिससे निजी निवेशक पैसा लगाने से कतराते हैं दूसरी समस्या ग्रामीण जनसँख्या का आर्थिक रूप से कमजोर होना भी है जो जनसँख्या वर्ग दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा हो उसे सुविधाओं की जरुरत बाद में होगी जिससे गाँव विकास की दौड में पीछे छूटते जा रहे हैं और इससे ग्राम पलायन के एक ऐसे दुष्चक्र का निर्माण होता है जिससे देश आजतक जूझ रहा है सुविधाओं के अभाव में जिसको मौका मिलता है लोग गाँव छोड़ देते हैं क्यूंकि शहर में मूलभूत बिजली पानी और सडक की स्थिति गाँव से बेहतर है और ऐसे लोग दुबारा गाँव नहीं लौटते|खेती फायदे का सौदा छोटे और मझोले किसानों के लिए अब नहीं रही कारण जोत छोटी होने के कारण लागत ज्यादा आती है और लाभ कम, एक और कारण गाँव में आधारभूत सुविधाओं का अभाव समस्याओं को बढाता है और ये दुष्चक्र चलता रहता है,ग्रामीण अर्थव्यवस्था इस हद तक कृषि के इर्द गिर्द घूमती है कि कोई और विकल्प उभर ही नहीं पाया, पारम्परिक कुटीर उद्योग और कला ब्रांडिंग और मार्केटिंग के अभाव में रोजगार का अच्छा विकल्प नहीं बन पाए तो पर्यटन के अवसरों को कभी पर्याप्त दोहन किया ही नहीं गया नतीजा एक ऐसे गाँव में रहना जहाँ सुविधाएँ नहीं वहां के लोग शहर जाकर मजदूरी करना बेहतर समझते हैं बन्स्बत अपने गाँव में रहकर खेती करना, सुविधाएँ किस तरह लोगों को आकर्षित करती हैं इसको पंजाब के खेतों में देखा जा सकता है जहाँ बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँव के किसान,खेतों मजदूरी और अन्य कार्य करने हर साल आते हैं|पर अब तस्वीर थोड़ी बदल रही है हर बदलाव जहाँ कुछ चुनौतियाँ लाता है वहीं कुछ अवसर भी उदारीकरण की बयार से गाँव के लोगों की क्रय शक्ति बढ़ रही है|नेशनल सैम्पल सर्वे संगठन और क्रिसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत शहरी भारत के मुकाबले ज्यादा खर्च कर रहा है1, यानि गाँव उस दुष्चक्र से निकलने की कोशिश में कामयाब हो रहा है जो उसकी तरक्की में सबसे बड़ी बाधा रही है ग्रामीण भारत की क्रय शक्ति बढ़ रही है|
ग्राम्य सन्देश पत्रिका के जुलाई अंक में प्रकाशित
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