Friday, January 30, 2015

जरा सुनिए ,एक कहानी कहती है रात

सुबह हो गई.पेपर आपके हाथ में है तो कैसी बीती रात वैसे रात खूबसूरत होती है या दिन बता पाना  मुश्किल है ये सवाल मेरे जेहन में अचानक नहीं आया.इसके पीछे बड़ा छोटा सा कारण है वो कारण है सर्दियों में रातें लंबी  होती हैं तो जाड़े की एक ऐसी लंबी रात जब मैं बिस्तर पर अपने अगले लेख के विषय के लिए से जूझ रहा था तभी मुझे ख्याल आया अगर हमारे जीवन में रात न होती तो क्या होता और तब मुझे एहसास हुआ रात महज रात नहीं बल्कि एक एहसास है जीवन का एक  अहम हिस्सा जब हम दिन भर की थकान के बाद रात की गोद में आते हैं तो जो दुलार और अपनापन मिलता है वह दिन नहीं दे पाता. और इसी दुलार का एक हिस्सा उन लोरियों और कहानियां से जुड़ा होता हैं जो सिर्फ रात के लिए बचा कर रखी जाती हैं दिन कितना भी खूबसूरत क्यों न हो पर इन लोरियों और कहानियों का सुख उसके हिस्से कभी नहीं आता. वैसे कहानी से याद आया,कहानियां रात में ही सुनाई जाती हैं ,जरा अपना बचपना याद कीजिये जब रात का इंतजार सिर्फ इसलिए होता था कि रात में बाबा दादी या मम्मी पापा कहानियां सुनायेंगें|रात मतलब सपने वो भी कैसे कैसे कभी वह लोग जो हमारे जीवन से हमेशा के लिए जा चुके हैं हम अपने जीवन में उनको कभी देख नहीं पाएंगे,वो इच्छाएं जो शायद इस छोटे से जीवन में हम कभी न पूरा कर पायें सब से मिलने का सब इच्छाओं को पूरा करने का जरिया सपने बन जाते हैं सपने तो जरिया भर होते हैं पर इन सबकी असली हकदार रात ही होती है.
असल में रात ही वो पावर बैंक जो दिन में काम करने के लिए हमारे तन मन को चार्ज करता है,पर दिन के उजाले में हम रात को उतना महत्त्व नहीं देते|मुझे पता है आप इतना दिमाग नहीं लगाना चाहते है और ऐसा हो भी क्यूँ न आप अभी अभी तो रात बिता के उठे हैं.पर रात बिताना और रात को जीना दोनों अलग विषय हैं.आपने जिंदगी में न जानें कितनी रातें बिताईं होंगीं पर क्या कभी रात को जी कर देखा.रात के गहराते न जानें कितनी यादें जी उठतीं हैं .भीगी रातों की यादें मन का कोई कोना गीला कर जाती हैं तो सर्द रातों में भी दिल कैसी कैसी यादों की गुनगुनी गर्माहट से गरमा जाता है.इन बातों का पता उन्हीं को चलता है जो रात को जी कर देख रहे होते हैं.रात हमें इंतजार करना सिखाती हैं अगर आप इंतज़ार करना नहीं जानते तो समझ लीजिए सफलता का दिन आपसे हमेशा दूर ही रहेगा.हर रात आने वाले दिन का आने वाली उम्मीदों का संदेशा लेकर आती है. सुबह का इंतज़ार करते हुए रात काटना और बात है लेकिन रात को जीते हुए रात काटना बिल्कुल अलग एहसास है.नेचर का अपना एक डिस्पलीन है आप भी जीवन में अनुशासन का पालन कीजिये रात कटेगी और सूरज का उजियारा आप के भी जीवन में आएगा लेकिन क्या आप इतना वेट कर पायेंगे . रात हमें मौका देती है कुछ पल ठहरने का ,सुस्ताने का हमें अपने आप से बात करने का अपने आप के अन्दर झाँकने का, दिन की आपा धापी में हमने क्या सही किया क्या ग़लत किया.
जिस तरह सारे दिन एक जैसे नहीं होते हैं और उसी तरह से सारी रातें भी एक जैसी नहीं होती हैं किसी रात आप अपने किसी अज़ीज़ दोस्त की पार्टी में नाच गा रहे होतें तो किसी रात आप बिस्तर पर स्ट्रेस के कारण जगते हुए काट देते हैं और किसी रात आप ऐसा मस्त सपना देखते हैं कि आप सुबह होने ही नहीं देना चाहते हैं यही कहानी हर रात कहती है. जिन्दगी भी तो हमें यही कहानी सुनाती है वो चाहे दिन हो या रात सब एक जैसा नहीं होता लेकिन रात के बाद आप दिन का इंतजार  इसलिए करते हैं क्योंकि दिन ऊर्जा गति  का प्रतीक  है और ऐसा इसलिए है कि आप को पता है कि कोई दिन आपका होने वाला है इसलियी आप उस दिन का इंतजार  कर रहे हैं.हम उम्मीदों  भरे दिन का इन्तिज़ार हंसते गाते तभी कर पाएंगे जब रात को महसूस करना सीख लेंगे . सपने उम्मीदों,कहानियों और  यादों भरी रात और इसके बाद आने वाले हर चमकते हुए दिन के साथ आपको छोड़कर मैं विदा लेता हूँ पर चलते चलते ध्यान रखियेगा आने वाला दिन कैसा होगा इसकी नींव रात की उस काली स्याही से लिखी गई है जिसे दिन का उजाला भी खत्म नहीं कर पाता.
आई नेक्स्ट में 30/01/15 को प्रकाशित  

Wednesday, January 21, 2015

एन जी ओ की जगह लेता सी एस आर

  दुनिया भर में व्यापार करने के तरीकों में बदलाव आ रहा है। अब हर एक कम्पनी के हर कार्य पर जनता की नज़र रहती है। जिससे  कम्पनियों से यह अपेक्षा की जाने लगी है कि वे मुनाफा कमाने के साथ ही समाज एवम देश के विकास और उत्थान में भी अपना योगदान देंगी। वर्ष २०१३ में नये कम्पनी अधिनियम के लागू होते ही भारत विश्व का पहला ऐसा देश बन गया जहाँ कम्पनियों के लिये अपनी समाजिक जिम्मेदारियों के निर्वहन पर खर्च करना कानूनन जरूरी बना दिया गया है। १ अप्रैल २०१५ से सरकार इस बात का जायजा लेना शुरू कर देगी कि किस कम्पनी ने करपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी के मद में कितना पैसा खर्च किया है। जिन कम्पनियों ने ऐसा नहीं किया है उनके लिये ऐसा ना करने की वजह लिखित रूप से बताने की कानूनी बाध्यता है।
                                        नये कम्पनी कानून के मुताबिक जिन कम्पनियों का वर्षिक कारोबार १००० करोड से अधिक का है, या जिनकी कुल सम्पत्ति ५०० करोड से अधिक है या जिनकी सालाना आमदनी ५ करोड रूपये से अधिक है उनके लिये अपने पिछले तीन वर्षों के औसत मुनाफे का २ प्रतिशत करपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी के मद में वार्षिक रूप से खर्च करना आवश्यक बना दिया गया है। समीक्षक इस कानून को अनावश्यक मानते हैं। उनका कहना है कि इसे लागू करने से देश में निवेश में कमी आएगी। वे यह भी मानते हैं कि जब इन कम्पनियों की वजह से पहले से ही लाखों लोग गरीबी से मुक्ति पा रहे हैं तो फिर उनपर अतिरिक्त दबाव डालने का कोई औचित्य नहीं है। साथ ही कम्पनिया इस कानून से बचने की आपाधापी में वास्तिविक समाजिक विकास के कार्यों में ध्यान नहीं दे पायेंगी और उनका सारा ध्यान केवल खानपूर्ती में ही लगा रहेगा। और इन सबसे उपर है भ्रष्टाचार की समस्या जिसके परिणामस्वरूप इस कानून के द्वारा भ्रष्ट अधिकारियों का विकास होने की सम्भावना अधिक है। हालांकि इसके द्वारा सिर्फ नुकसान हो ऐसा नहीं है। कंपनीयां इसके द्वारा ग्राहकों के बीच अपनी छवि सुधार सकती हैं। वे अपनी समाजिक जिम्मेदारियों का उचित निर्वहन के द्वारा ग्राहकों  के दिलो-दिमाग में पैठ बना सकती हैं। पर सबसे बड़ी समस्या है इस धन के उचित मद में और अच्छे तरीके से खर्च करने की| भारत में ३३ लाख से भी अधिक गैर-सरकारी संगठन मौजूद हैं, यानी कि हर ४०० भारतीय के लिये एक गैर-सरकारी संगठन। पर ये संगठन अच्छे तरीके से काम नहीं कर रहे हैं। इनकी कार्य प्रणाली पारदर्शी नहीं है और बार-बार इनके उपर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं। कुछ बड़ी कम्पनिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के निर्वहन के लिये अपने खुद के संगठन भी खोलती हैं
                                            ये संगठन अच्छा काम भी करते हैं| पर पूरे ढांचे पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वह यथावत ही बना रहता है। विगत पांच दशकों में हमारे देश में गैर-सरकारी संगठनों की संख्या में काफी इज़ाफ़ा हुआ है और इनका दायरा भी बढ़ा है| इस बात पर भी कोई दोराय नहीं है कि  इनकी वजह से देश के विकास में भी काफी मदद मिली है| पर ज्यादातर जगहों या क्षेत्रों में जहाँ ये कार्यरत हैं वहां पर सरकार की मौजूदगी लगभग न के बराबर है| ऐसा लगता है मानों सरकार अपने दायित्व इन्हें सौंपकर अवकाश पर चली गयी है| गैर-सरकारी संगठन यह समझने लगते हैं कि  वही सरकार हैं और सरकार की निष्क्रियता को देखते हुए उनका ऐसा सोचना गलत भी नहीं है| पर अधिकतर मामलों में ये गैर सरकारी संगठन भी सरकार जितने ही अक्षम और अप्रभावी सिद्ध होते हैं| इस क्षेत्र में बड़ी कंपनियों द्वारा चलाये जाने वाले गैर-सरकारी संगठन काफी कारगर साबित हो सकते हैं क्योंकि वे अधिक कार्यकुशल और प्रभावी होते हैं| अपनी मातृ  संस्था के समान ही वे अधिक प्रोफेशनल होते हैं और कार्यों का निष्पादन अधिक कुशलता और प्रभावी रूप से करने में सक्षम होते हैं| इनमें काम करने वाले लोग अन्य गैर-सरकारी संगठनों को प्रक्षिक्षण दे कर उन्हें और प्रभावी बनाने में मददगार साबित हो सकते हैं| यदि कम्पनियाँ कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के निर्वहन से होने वाले फायदों को ठीक से समझ कर उनका उचित उपयोग अपनी विपणन आदि गतिविधियों के प्रोत्साहन के लिए कर सकें तो उन्हें काफी लाभ मिल सकता है
                                      यदि कंपनियां कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत खर्च होने वाले पैसे को विपणन, प्रचार  अथवा विज्ञापन पर होने वाले खर्चे के रूप में देखें और उसका वैसा ही इस्तेमाल करें तो समाज के विकास के साथ ही उनके मुनाफे में भी वृद्धि आने की अधिक संभावना है| इस बात में कोई शक नहीं है की कम्पनियाँ अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करके देश के उत्थान में योगदान देने के साथ ही अपने मुनाफे मैं भी इजाफा कर सकती हैं|

अमर उजाला में 21/01/15 को प्रकाशित 

Friday, January 16, 2015

ऍफ़ एम् प्रस्तोताओं की फेसबुक वैचारिक शून्यता

                                     
मैं रेडियो का बहुत पुराना श्रोता रहा हूँ ,पहले आकाशवाणी फिर विविध भारती और यह सिलसिला ऍफ़ एम् आने तक जारी रहा,प्राइवेट ऍफ़ एम् आने के बाद मुझे उम्मीद जगी आकाशवाणी को प्रतिस्पर्धा मिलेगी और एक श्रोता की हैसियत से मैं फायदे में रहूँगा|रेडियो सही मायने में अभी भी भारत का जनमाध्यम है लेकिन ऐसा हुआ नहीं दिन रात बोलते रहने वाले इन निजी ऍफ़ एम् स्टेशन के रेडियो जोकियों से मैं ऊब गया|मैं इनकी ऊट पटांग बातों के अलावा इनसे कुछ और सुनना चाहता था मैं देश दुनिया के विभिन्न मुद्दों के बारे में इनकी राय जानना चाहता था |मुझे पता चला चूंकि निजी ऍफ़ एम् स्टेशन पर समाचारों के प्रसारण की छूट नहीं है इसलिए ये बेचारे दिन भर प्यार का इज़हार कैसे करें,लड़कियों को कैसे रिझाएँ  से लेकर त्यौहार कैसे मनाएं जैसी बातें करते रहते हैं |इस बीच दुनिया बदल रही थी टीवी और रेडियो के प्रस्तोता आज के नए सेलिब्रटी बनने लग गए थे|मैं भी इस बदलती दुनिया के हिस्से फेसबुक जैसी  सोशल नेटवर्किंग साईट्स में अपना मुकाम तलाशने लग गया जहाँ मुझे अखबार,टीवी और रेडियो के उन प्रस्तोताओं से दोस्ती करने का मौका मिला जिनसे साक्षात मुलाक़ात करने का मौका शायद अपने जीवन में न मिल पाए| यहाँ मुझे इनके निजी जीवन और विचार जानने का मौका मिला |वैसे भी किसी का फेसबुक अकाउंट उसके व्यक्तित्व का आईना होता है जहाँ हम उसकी पसंदगी और नापसंदगी को जान सकते हैं|
                                               
फेसबुक और ट्विटर जैसी साईट्स में अखबार और टीवी की दुनिया के बड़े नाम देश और दुनिया के मुद्दों पर धारदार तरीके से अपनी बात रख जनमत बनाने का काम कर रहे थे वहीं रेडियो की दुनिया के स्वनामधन्य रेडियो जॉकी (प्रस्तोता) हेलो कैसे हैं आप लोग, क्या आपने कभी किसी से  प्यार किया है,जैसी बेसिर पैर की बातें जो वे पहले से रेडियो पर बोलते चले जा रहे हैं  वही फेसबुक और अन्य सोशल नेटवर्किंग पर भी कर रहे हैं|तर्क यह दिया जा सकता है कि फेसबुक हर किसी का अपना व्यक्तिगत माध्यम है और कोई किसी को हर मुद्दे पर लिखने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है|बात सही भी है पर फेसबुक जैसा माध्यम जिसकी आजकल जनमत निर्माण में बड़ी भूमिका है वहां लोग आपसे महज इसलिए जुड़े हुए हैं कि आप रेडियो के बड़े प्रस्तोता हैं उन लोगों को देश दुनिया और अन्य मुद्दों के बारे में आपकी क्या व्यक्तिगत राय मायने रखेगी और किसी मुद्दे या घटना विशेष के संदर्भ में जनमत निर्माण में असर डालेगी |फेसबुक जैसी अन्य सोशल नेटवर्किंग साईट्स में यहाँ रेडियो अन्य जन माध्यमों के प्रयोगकर्ताओं के मुकाबले एकदम फिसड्डी नजर आता है|
                                                      टीवी और समाचारपत्रों से जुड़े हुए लोग उन मुद्दों और घटनाओं पर बेबाकी से अपने फेसबुक अकाउंट के माध्यम से अपने विचार रख रहे हैं| वहीं निजी ऍफ़ एम् स्टेशन के ये रेडियो जॉकी जिनके पास  पर्याप्त मात्र में फेसबुक पर जनसमर्थन मौजूद है वे अपने फेसबुक अकाउंट को निजी ऍफ़ एम् का साइबर संस्करण बनाये हुए हैं जिनमें न तो कोई दिशा है न कोई विचार है न किसी बदलाव की छटपटाहट अगर कुछ है तो सिर्फ जो चल रहा है उसे चलाते रहो| उत्तर भारत के कई बड़े रेडियो जॉकी के फेसबुक अकाउंट को खंगलाने के बाद मैंने यह पाया कि यह रेडियो को एक ऐसा जनमाध्यम बनाने पर तुले हैं जो यह चाहता ही नहीं कि लोग किसी मुद्दे पर सोचें |सरकार ने सिर्फ रेडियो समाचारों के प्रसारणों पर रोक लगाई है आप जो रेडियो पर नहीं कह पा रहे हैं तो उसके लिए  फेसबुक और अन्य सोशल नेटवर्किंग  को जरिया बनाया जा सकता है पर यहाँ  एक खतरा है फेसबुक पर कुछ कहने के लिए विचार होने चाहिए और ये रेडियो जॉकी या तो विचार शुन्यता का शिकार हैं या ये अपने एक्सपोज हो जाने का खतरा नहीं मोल लेना चाहते क्यूँकी जब आप किसी मुद्दे पर स्टैंड लेंगे तो लोगों को आपकी वैचारिक प्रतिबद्धता का पता पड़ जाएगा और ये खतरा कोई भी जॉकी नहीं उठाना चाहता |तर्क यह भी दिया जाता है कि रेडियो संस्थान किसी भी मुद्दे पर अपने फेसबुक पेज से किसी वैचारिक विमर्श की इजाजत नहीं देते ठीक है आप अपने फेसबुक पेज से विमर्श को बढ़ावा नहीं दे सकते लेकिन आप अपने व्यक्तिगत अकाउंट से तो यह कार्य कर ही सकते हैं |फिलहाल इन सबके बीच में ऍफ़ एम्  रेडियो से कुछ जा रहा है तो वह है विचार

जनसत्ता में 20/01/15  को प्रकाशित 

Friday, January 9, 2015

हैशटैग है एक नई भाषा की शुरुआत

फ्रांस की पत्रिका शार्ली एबदो  पर हुए आतंकी हमले के बाद सोशल मीडिया पर दुनिया भर की राय जानने का सबसे बड़ा औजार बना हैशटैग | ट्विटर जैसी साईट्स पर दिन भर हैशटैग ‘शर्ले हेब्दो' टाईप करने पर  ट्विटर पर औसत रूप में हर  पांच  मिनट में तीन सौ से ज्यादा सन्देश आ रहे थे |बुधवार को शुरू हुआ यह सिलसिला अगले दिन देर शाम तक जारी था |यह पहला मौका नहीं है जब हैशटैग का इस तरह इस्तेमाल हुआ हो | पेशावर में स्कूली बच्चों पर हुए आतंकी हमले के समय भी यह हुआ था |दुनिया में जब भी कोई बड़ी घटना घटती है तो कह्ब्रों ,जानकारियों ,लोगों की राय वगैरह को जानने का यह सबसे अच्छा तरीका बन जाता है |
लेकिन यह हैश टैग है काया ?यह एक प्रतीक चिन्ह है -#,जिसे मूल रूप से कंप्यूटर प्रोग्रामिंग की भाषा के लिए तैयार किया गया था |1970  के दशक में बनाये गए इस प्रतीक चिन्ह ने अब अंगरेजी के की बोर्ड पर अपने लिए स्थाई जगह बना ली है ,पर हिन्दी के ज्यादातर की बोर्ड में यह अभी तक नहीं पहुंचा है |मूल रूप से यह दुनिया की किसी भी प्रचलित भाषा का शब्द या प्रतीक नहीं ,पर सब इसे धीरे धीरे अपना रहे हैं |इसे आप यूँ भी देख सकते हैं कि कंप्यूटर और सोशल मीडिया लोगों को एक नयी भाषा दे रहे हैं |अगर हैश टैग तकनीक न होती ,तो किसी घटना विशेष के बाद दुनिया भर के लोगों का क्या मत है ,इसका ठीक से पता नहीं चल पाता|
आज हैश टैगों से सोशल नेटवर्किंग साईट्स अटी पड़ी हैं |लोग इनका इस्तेमाल अपने विचारों को कोई नाम देने,अनुशासित और सजाने के लिए कर रहे हैं | हैशटैग सोशल (#) मीडिया में अपनी बात को व्यवस्थित तरीके से कहने का नया तरीका  बन रहा है जागरूकता के निर्माण के अलावा यह उन संगठनों के लिए वरदान है जिनके पास लोगों को संगठित करने के लिए विशाल संसाधन नहीं है |जिन लोगों के पास न तो समय है और न ही किसी ख़ास विचार धारा के प्रति  प्रतिबद्धता कि वे किसी मार्च ,धरने या अध्ययन समूह में जा सकें वे  हैशटैग के सहारे तर्क वितर्क का हिस्सा बन रहे हैं | सोशल मीडिया पर चलने वाली दिशाहीन बहसें जटिल मुद्दों  को व्यवस्थित कर ज्ञान में एक नया आयाम जोड़ रही हैं | हैशटैग के पीछे नेटवर्क नहीं विचारों का संकलन तर्क शामिल है इससे जब आप किसी हैशटैग के साथ किसी विचार को आगे बढाते हैं तो वह इंटरनेट पर मौजूद उस विशाल जनसमूह का हिस्सा बन जाता है जो उसी हैश टैग के साथ अपनी बात कह रहा है |यह हैश टैग से बना  दबाव ही था जब दुनिया न्यूयॉर्क में एरिक गार्नर की हत्या पर पुलिस के नस्लभेदी चरित्र को जान पाई और अमेरिकी सरकार पर दबाव बढ़ा|यह पुरानी सोच से आगे जाकर देखने का नजरिया दे रहा है |हैश टैग के साथ किसी प्रोडक्ट, कम्पनी या सेवा की शिकायत करने के लिए “बैशटैग” सामान्य चलन का हिस्सा बन रहे है |इसकी लोकप्रियता का नदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि शीर्ष पर ट्रेंड कर रहे मुद्दे  पर सरकार और मीडिया का ध्यान तेजी से पानी तरफ खींचने में सफल रहे हैं |
हिन्दुस्तान में 09/01/2015 को प्रकाशित 

Thursday, January 8, 2015

प्लास्टिक कचरे से पटता समुद्र


 तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन की समस्या ने हवा-पानीरहित खतरनाक भविष्य का खाका खींचना शुरू कर दिया है। समय रहते समाधान नहीं किया गया तो आने वाला कल कैसा होगा इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है। यह समस्या अंतरराष्ट्रीय समस्या का रूप ले चुकी है। विकसित या विकासशील देश ही नहीं, पूरा विश्व इसकी चपेट में है। इसलिए तमाम देश व संयुक्त राष्ट्र संघ इस समस्या से निजात पाने के लिए गंभीरता से विचार कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन और  पर्यावरण के प्रमुख मुद्दों में कूड़ा प्रबंधन भी है। कूड़ा पृथ्वी के लिए ही नहीं बल्कि समुद्रों के लिए भी बड़ा खतरा बनता जा रहा है। आमतौर पर यह मान्यता है कि सागर बहुत विशाल है, इसमें कुछ भी डाल दिया जाए तो पर्यावरण पर इसका फर्क नहीं पड़ेगा। पर वास्तविकता इसके उलट है। धरती पर उपलब्ध पानी का लगभग 97 प्रतिशत सागर में है। सागर हमारी धरती के लगभग 71 प्रतिशत हिस्से पर है। सागर की उपस्थिति पर धरती का अस्तित्व निर्भर करता है। परंतु विगत कुछ वर्षो से धरती पर मौजूद अन्य जलाशयों की भांति ही मनुष्यों ने सागर को भी अपने अविवेकपूर्ण एवं लापरवाह आचरण का शिकार बनाना शुरू कर दिया है और अधिक   चिंताजनक विषय यह है कि इस ओर हमारे पर्यावरणविदों का ध्यान न के बराबर ही है। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के लिए भोजन, रोजगार और ऊर्जा मुहैया कराने का दारोमदार भी अब समुद्रों पर है। तीन दशक पूर्व बड़े देश अपना कचरा जहाजों में भरकर समुद्रों में डालते रहे हैं। 1998 में ऐसे ही कचरे के कारण नाइजीरिया भीषण त्रासदी से गुजरा, जिसके कोको बंदरगाह में इटली की एक कम्पनी 3800 टन खतरनाक कचरा छोड़ गई। कचरे में रेडियो एक्टिव पदार्थ होने से लोग मरने लगे। कोको में बचे लोगों को स्थानांतरित करना पड़ा। लेकिन भारी तादाद में समुद्री जीव-जंतुओं, मछलियों के नुकसान की भरपाई नहीं हो सकी। हाल ही में दुर्घटना का शिकार हुए मलेशिया के विमान का मलबा ढूंढते समय स्वच्छ समझे जाने वाले सागर में जिस मात्रा में अत्यधिक प्रदूषक कूड़ा निकला है उसने संपूर्ण विश्व का ध्यान समुद्री प्रदूषण की विकराल होती समस्या की ओर आकर्षित किया है। बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण भूमि संसाधनों पर निरंतर बढ़ते जा रहे दबाव से यह तो तय है कि आने वाले वक्त में हमें अपनी भूख और प्यास मिटाने के लिए सागर की ही शरण में जाना पड़ेगा। इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपने सागर का संरक्षण करें। सागर में हम प्लास्टिक से लेकर रेडियोधर्मी कचरे तक सब कुछ डाल रहे हैं। सागर के लिए सबसे बड़ा खतरा है प्लास्टिक। बदलती जीवन शैली, ‘प्रयोग करो और फेंकोकी मनोवृत्ति और सस्ते प्लास्टिक की उपलब्धता ने प्लास्टिक का उत्पादन और कचरा दोनों ही बढ़ाया है। प्लास्टिक कचरे के निस्तारण की पर्याप्त व्यवस्था अभी सभी देशों के पास उपलब्ध नहीं है।  पर्यावरण संस्था ग्रीन पीस के आंकलन के मुताबिक हर साल लगभग 28 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है जिसका बीस प्रतिशत हिस्सा सागर में चला जाता है। कितना प्लास्टिक हमारे सागर के तल में जमा हो चुका है इसका वास्तविक अंदाजा किसी को नहीं है। उल्लेखनीय है कि ये कचरा सागर के ऊपर तैरते कचरे से अलग है। प्लास्टिक की वजह से समुद्री खाद्य श्रृंखला पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। प्लास्टिक की वजह से न केवल समुद्री जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है, बल्कि पूरे के पूरे समुद्री पारितंत्र के भी बिखरने का खतरा उत्पन्न हो गया है। पेयजल, ठंडे मीठे पेय की पैठ सुदूर अंचलों तक हो चली और जगह-जगह प्लास्टिक के अंबार लगते जा रहे हैं। पानी पाउच, फास्ट फूड पैकेट्स, नमकीन की थैलियां आदि हर गली, मुहल्ले, रेलवे स्टेशनों और जंगल पहाड़ों से गुजरते रेल मार्ग और सड़क मार्ग में बिखरी पड़ी हैं। इनके निस्तारण की उचित व्यवस्था न होने से समुद्र इनके लिए अंतिम शरणस्थली बनते हैं। प्लास्टिक को प्रकृति नष्ट नहीं कर सकती, कीड़े खा नहीं सकते, इसलिए समूचे प्रकृति चक्र में यह अपना दुष्प्रभाव फैला रहा है। ग्रीनपीस संस्था के आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग दस लाख पक्षी और एक लाख स्तनधारी जानवर समुद्री कचरे के कारण काल का ग्रास बन जाते हैं। विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 14 हजार करोड़ पाउंड कूड़ा-कचरा सागर में फेंका जाता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार समुद्री कचरे का लगभग अस्सी प्रतिशत जमीन पर इंसानी गतिविधियों तथा बचा हुआ बीस प्रतिशत सागर में इंसान की गतिविधियों के फलस्वरूप आता है। जापान में 2011 में आई सुनामी ने प्रशांत महासागर में कूड़े का एक सत्तर किमी लंबा टापू बना दिया। यह तो केवल एक उदाहरण भर है। विश्व भर में समुद्री कूड़े से बने ऐसे अनेकों टापू हैं और यदि सागर में कूड़ा डालने की मौजूदा गति बरकरार रही तो वह दिन दूर नहीं जब सागर में हर तरफ सिर्फ कूड़े के टापू ही नजर आएंगे। समुद्री कचरा जमीनी कचरे की तरह एक जगह इकट्ठा न होकर पूरे सागर में फैल जाता है। यह पर्यावरण, समुद्री यातायात, आर्थिक और मानव स्वास्थ्य को भारी नुकसान पहुंचाता है। समुद्र में पानी की तरह कचरा भी लगातार बह रहा है। लहरें उन्हें अपने साथ ले जाती हैं- एक जगह से दूसरी जगह, एक महासागर से दूसरे महासागर। उत्तर प्रशांत सागर में तो ग्रेट पैसिफिक गार्बेज पैच की बात कही जाती है। कचरे का यह कालीन मध्य यूरोप के बराबर है। विश्व के कई देशों में इस समस्या का हल खोजने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। भारत में भी वर्ष 2000 में ठोस कचरे के निस्तारण को लेकर एक नीति बनाई गई थी, पर वह आज भी कागजों पर ही है। हम अपने सीवेज के केवल तीस प्रतिशत का ही निस्तारण कर पाते हैं। बाकी का सीवेज वैसे का वैसा ही नदियों में डाल देते हैं जो अंतत: सागर में जाता है। देश की आठ हजार किमी लंबी तटरेखा सघन रूप से बसी हुई है जिसमें मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, गोवा और सूरत जैसे शहर शामिल हैं। तथ्य यह भी आर्थिक रूप से विकसित इन शहरों में जनसंख्या का दबाव बढ़ रहा है और शहर अपने कूड़े को सागर में डाल रहे हैं। अल्पविकसित देशों के लिए कूड़ा निस्तारण हेतु सागर एक अच्छा विकल्प साबित होते हैं। इससे समस्या का फौरी तौर पर तो समाधान हो जाता है, पर लंबे समय में यह व्यवहार पर्यावरण और मानवजाति के लिए खतरा ही बनेगा। विशालता के कारण समूचे सागर की सफाई संभव नहीं है। इससे बचने का एकमात्र रास्ता जागरूकता और बेहतर प्लास्टिक कूड़ा प्रबंधन है। इस दिशा में ठोस पहल की जरूरत है। सागर की स्थिति में स्थाई सुधार के लिए सरकारों और लोगों की सोच में बदलाव आना जरूरी है।

राष्ट्रीय सहारा में 08/01/14 को प्रकाशित लेख 

पसंद आया हो तो