Thursday, December 8, 2016

यहाँ विकास का अर्थ कंकरीट है

विकास एक बहुआयामी धारणा है जिसके केंद्र में है मानव और उससे जुड़ा हुआ परिवेश जिसमें वह उपलब्ध संसाधनों की सहायता से अपना जीवनस्तर  बेहतर कर सके |संसाधनों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण  है प्राकृतिक संसाधन जो कि इंसानों के अस्तित्व के लिए सर्वाधिक आवश्यक है | किसी भी विकास का अंतिम लक्ष्य मानव मात्र का जीवन स्तर बेहतर करना ही होता है पर उसके मूल में प्रकृति का साथ भी होता है |दुर्भाग्य से भारत में विकास की जो अवधारणा लोगों के मन में है उसमें प्रकृति कहीं भी नहीं है,हालाँकि हमारी विकास की अवधारणा  पश्चिम की विकास सम्बन्धी अवधारणा की ही नकल है पर स्वच्छ पर्यावरण के प्रति जो उनकी जागरूकता है उसका अंश मात्र भी हमारी विकास के प्रति जो दीवानगी है उसमें नहीं दिखती है |भारत में आंकड़ा पत्रकारिता की नींव रखने वाली संस्था इण्डिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार भारत के शहर लगातार गर्म होते जा रहे हैं कोलकाता में पिछले बीस सालों में वनाच्छादन 23.4 प्रतिशत से गिरकर 7.3 प्रतिशत हो गया है वहीं निर्माण क्षेत्र में 190 प्रतिशत की वृद्धि हुई है साल 2030 तक कोलकाता के कुल क्षेत्रफल का मात्र 3.37प्रतिशत हिस्सा ही वनस्पतियों के क्षेत्र के रूप में ही बचेगा |अहमदाबाद में पिछले बीस सालों में वनाच्छादन 46 प्रतिशत से गिरकर 24 प्रतिशत पर आ गया है जबकि निर्माण क्षेत्र में 132 प्रतिशत की  वृद्धि हुई है साल 2030 तक वनस्पतियों के लिए शहर में मात्र तीन प्रतिशत जगह बचेगी |भोपाल में पिछले बाईस वर्षों में वनाच्छादन छाछट प्रतिशत से गिराकर बाईस प्रतिशत हो गया है और 2018 तक यह वनाच्छादन ग्यारह प्रतिशत रह जाएगा |भोपाल उन छोटे शहरों में है जो अभी मेट्रो शहर की श्रेणी में नहीं पर उस होड़ में शामिल हो चुके हैं जहाँ शहर को स्मार्ट होना है |इसका बड़ा कारण हमारी वह मानसिकता है जो विकास को कंक्रीट या पक्के निर्माण से जोडती है |गाँव में पक्के मकान का ज्यादा होना मतलब गाँव विकसित है |ऐसी सोच सरकारों को ज्यादा से ज्यादा पक्के निर्माण के लिए प्रेरित करती है चूँकि पर्यावरण भारत जैसे देश में उतनी प्राथमिकता अभी नहीं रखता जितना कि लोगों के जीवन स्तर में उठाव इसलिए विकास पर्यवरण की कीमत पर लगातार हो रहा है |विकसित देशों ने जहाँ एक संतुलन बनाये रखा वहीं भारत जैसे दुनिया के तमाम अल्पविकसित देश विकास के इस खेल में अपनी जमीनों को कंक्रीट और डामर के घोल पिलाते जा रहे हैं जिसका नतीजा तापमान में बढ़ोत्तरी गर्मियां ज्यादा गर्म और ठण्ड और ज्यादा ठंडी |पेड़ ,घास झाड़ियाँ और मिट्टी सूर्य ताप को अपने में समा लेती हैं जिससे जमीन ठंडी रहती है पर इस कंक्रीट केन्द्रित विकास में यह सारी चीजें हमारे शहरों से लगातार कम होती जा रही हैं |यह एक चक्र है कुछ शहर रोजगार और अन्य मूलभूत सुविधाओं के हिसाब से अन्य शहरों के मुकाबले ज्यादा बेहतर होते हैं लोग वहां रोजगार की तलाश में पहुँचने लगते हैं |गाँव खाली होते हैं चूँकि वहां ज्यादा लोग नहीं होते हैं इसलिए सरकार की प्राथमिकता में नहीं आते शहरों में भीड़ बढ़ती है|कोलतार या डामर से  नई सड़कें बनती हैं पुरानी चौड़ी होती हैं नए मकान और फ़्लैट बनते हैं |सार्वजनिक यातायात के लिए कंक्रीट के खम्भों पर कोलतार की सडक के ऊपर मेट्रो दौडती है शहरों में भीड़ बढ़ती है और कंक्रीट के नए जंगल वानस्पतिक जंगलों की जगह लेते जाते हैं और खेती योग्य जमीन की जगह ऊँची ऊँची अट्टालिकाएं लेती हैं आस पास के जंगल खत्म होते हैं |पानी के प्राकृतिक स्रोत सूख जाते हैं या सुखा दिए जाते हैं कंक्रीट केन्द्रित निर्माण के लिए  चूँकि जगह लगातार कम होती जाती है इसलिए मौसम की मार से बचने के लिए ऐसी जगह एयरकंडीशनर का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है जो गर्म हवा छोड़ते हैं और वातावरण को और गर्म करते हैं एयरकंडीशनर और अन्य विद्युत जरूरतों को पूरा करने के लिए नदियों का प्रवाह रोका जाता है और विशाल कंक्रीट के बाँध बनाये जाते हैं लोगों के घर डूबता हैं पशु पक्षियों और वनस्पतियों को हुआ नुक्सान अकल्पनीय होता है |ऐसे पर्यावरण में रहने वाला इंसान तनाव और गुस्से के कारण बहुत सी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का शिकार होता है  और विकास की यह दौड़ जारी रहती है पर अब इस दौड़ का परिणाम वनस्पतियों के खत्म होने, जंगली जानवरों के लुप्त होने और मौसम के बड़े बदलाव में दिख रहा है |इस तेजी से स्मार्ट होते हुए भारत में जहाँ हर चीज तकनीक के नजरिये से देखी जा रही हो वहां प्रकृति के बगैर स्मार्ट शहरों की अगर कल्पना हो रही हो तो यह अंदाजा लगाना बिलकुल मुश्किल नहीं है कि वहां का जीवन आने वाली पीढीयों के लिए कैसा कल छोड़ जाएगा |
अमर उजाला में 08/12/16 को प्रकाशित 

Wednesday, December 7, 2016

भुलक्कड़ बना रहा है इंटरनेट

इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो लीपर अब वक्त है इसके और आयामों पर चर्चा करने का |आज हमारी  पहचान का एक मानक वर्च्युअल वर्ल्ड में हमारी उपस्थिति भी है और यहीं से शुरू होता है फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग से जुड़ने का सिलसिलाभारत में फेसबुक के सबसे ज्यादा प्रयोगकर्ता हैं पर यह तकनीक अब भारत में एक चुनौती बन कर उभर रही है चर्चा के साथ साथ आंकड़ों से मिले तथ्य साफ़ इस ओर इशारा कर रहे हैं  कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है|  चीन के शंघाई मेंटल हेल्थ सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिकइंटरनेट की लत शराब और कोकीन की लत से होने वाले स्नायविक बदलाव पैदा कर सकती हैलोगों में डिजिटल तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है। शहर फैल रहे हैं और इंसान पाने में सिमट रहा है|नतीजतनहमेशा लोगों से जुड़े रहने की चाह उसे साइबर जंगल की एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैजहां भटकने का खतरा लगातार बना रहता हैभारत जैसे देश में समस्या यह है कि यहां तकनीक पहले आ रही हैऔर उनके प्रयोग के मानक बाद में गढ़े जा रहे हैं|
मोबाइल ऐप (ऐप्लीकेशन) विश्लेषक कंपनी फ्लरी के मुताबिकहम मोबाइल ऐप लत की ओर बढ़ रहे हैं। स्मार्टफोन हमारे जीवन को आसान बनाते हैंमगर स्थिति तब खतरनाक हो जाती हैजब मोबाइल के विभिन्न ऐप का प्रयोग इस स्तर तक बढ़ जाए कि हम बार-बार अपने मोबाइल के विभिन्न ऐप्लीकेशन को खोलने लगें। कभी काम सेकभी यूं ही। फ्लरी के इस शोध के अनुसारसामान्य रूप से लोग किसी ऐप का प्रयोग करने के लिए उसे दिन में अधिकतम दस बार खोलते हैंलेकिन अगर यह संख्या साठ के ऊपर पहुंच जाएतो ऐसे लोग मोबाइल ऐप एडिक्टेड की श्रेणी में आ जाते हैं। पिछले वर्ष इससे करीब 7.करोड़ लोग ग्रसित थे। इस साल यह आंकड़ा बढ़कर17.करोड़ हो गया हैजिसमें ज्यादा संख्या महिलाओं की है।
 वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल 2015 रिपोर्ट के मुताबिकभारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी कुछ कहते हैंइसके अनुसारएक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58 मिनटसोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24 मिनटइसी का नतीजा हैं तरह-तरह की नई मानसिक समस्याएं- जैसे फोमोयानी फियर ऑफ मिसिंग आउटसोशल मीडिया पर अकेले हो जाने का डर। इसी तरह फैडयानी फेसबुक एडिक्शन डिसऑर्डरइसमें एक शख्स लगातार अपनी तस्वीरें पोस्ट करता है और दोस्तों की पोस्ट का इंतजार करता रहता है। एक अन्य रोग में रोगी पांच घंटे से ज्यादा वक्त सेल्फी लेने में ही नष्ट कर देता है। इस वक्त भारत में 97|8 करोड़ मोबाइल और14 करोड़ स्मार्टफोन कनेक्शन हैंजिनमें से 24|3 करोड़  इंटरनेट पर सक्रिय हैं और 11|8 करोड़ सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं|
 कैस्परस्की लैब द्वारा इस वर्ष किए गए एक शोध में पाया गया है कि करीब 73 फीसदी युवा डिजिटल लत के शिकार हैंजो किसी न किसी इंटरनेट प्लेटफॉर्म से अपने आप को जोड़े रहते हैंसाल 2011 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया द्वारा किए गए रिसर्च में यह निष्कर्ष निकाला गया था की युवा पीढ़ी किसी भी सूचना को याद करने का तरीका बदल रही हैक्योंकि वह आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध है। वे कुछ ही तथ्यों को याद रखते हैंबाकी के लिए इंटरनेट का सहारा लेते हैंइसे गूगल इफेक्ट या गूगल-प्रभाव कहा जाता है|
इसी दिशा में कैस्परस्की लैब ने साल 2015 में डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट से सभी पीढ़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव के ऊपर शोध किया हैकैस्परस्की लैब ने ऐसे छह हजार लोगों की गणना कीजिनकी उम्र 16-55 साल तक थी। यह शोध कई देशों में जिसमें ब्रिटेनफ्रांसजर्मनीइटली, स्पेन आदि देशों के 1,000 लोगों पर फरवरी 2015 में ऑनलाइन किया गयाशोध में यह पता चला की गूगल-प्रभाव केवल ऑनलाइन तथ्यों तक सीमित न रहकर उससे कई गुना आगे हमारी महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचनाओं को याद रखने के तरीके तक पहुंच गया हैशोध बताता है कि इंटरनेट हमें भुलक्कड़ बना रहा हैज्यादातर युवा उपभोक्ताओं के लिएजो कि कनेक्टेड डिवाइसों का प्रयोग करते हैंइंटरनेट न केवल ज्ञान का प्राथमिक स्रोत हैबल्कि उनकी व्यक्तिगत जानकारियों को सुरक्षित करने का भी मुख्य स्रोत बन चुका हैइसे कैस्परस्की लैब ने डिजिटल एम्नेशिया का नाम दिया हैयानी अपनी जरूरत की सभी जानकारियों को भूलने की क्षमता के कारण किसी का डिजिटल डिवाइसों पर ज्यादा भरोसा करना कि वह आपके लिए सभी जानकारियों को एकत्रित कर सुरक्षित कर लेगा। 16 से 34 की उम्र वाले व्यक्तियों में से लगभग 70 प्रतिशत लोगों ने माना कि अपनी सारी जरूरत की जानकारी को याद रखने के लिए वे अपने स्मार्टफोन का उपयोग करते हैइस शोध के निष्कर्ष से यह भी पता चला कि अधिकांश डिजिटल उपभोक्ता अपने महत्वपूर्ण कांटेक्ट नंबर याद नहीं रख पाते हैं|एक यह तथ्य भी सामने आया कि डिजिटल एम्नेशिया लगभग सभी उम्र के लोगों में फैला है और ये महिलाओं और पुरुषों में समान रूप से पाया जाता है|
वर्चुअल दुनिया में खोए रहने वाले के लिए सब कुछ लाइक्स व कमेंट से तय होता है|वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैंजिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं। और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलतातो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है और वे डिजीटल डिपेंडेंसी सिंड्रोम (डी डी सी ) की गिरफ्त में आ जाते हैं |इससे निपटने का एक तरीका यह है कि चीन से सबक लेते हुए भारत में डिजिटल डीटॉक्स यानी नशामुक्ति केंद्र खोले जाएं और इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलाई जाए
नवोदय टाईम्स में 07/12/16 को प्रकाशित 


Saturday, December 3, 2016

मोरक्को छोडिये ,भारत भी अपवाद नहीं

मोरक्को  के सरकारी टेलिविजन चैनल 2M को मेकअप पर एक प्रोग्राम दिखाना भारी पड़ गया है. इस प्रोग्राम में दिखाया गया के कैसे मेकअप के जरिए महिलाओं पर होने वाली घरेलू हिंसा के निशानों को कैसे छुपाया जा सकता है|इस कार्यक्रम के प्रसारित होने के बाद इसे लेकर काफी विवाद खड़ा हो गया और बड़ी संख्या में लोगों ने तीखी प्रतिक्रिया दी. सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर लोगों ने बहुत नाराजगी जताई. इतनी आलोचनाओं के बाद टीवी चैनल को  दर्शकों से माफी मांगनी पडी |इस तरह के कार्यक्रमों का बनना और प्रसारित होना यह साफ़ बताता है कि दुनिया के तमाम अल्पविकसित देश महिलाओं और घरेलु हिंसा के प्रति क्या सोच रखते हैं |भारत भी इसमें अपवाद नहीं है |घरेलू हिंसा कानून लागू होने से पहले यह माना ही नहीं जाना जाता था कि घरों में भी हिंसा होती है और इसका सबसे ज्यादा शिकार महिलायें होती हैं वो चाहे विवाहित हों या अविवाहित|26 अक्टूबर 2006 को जब से यह कानून लागू हुआ तब से लेकर आज तक घरेलू हिंसा से होने वाले नुकसान का आंकलन विभिन्न शोधों से लगातार किया जा रहा है इन शोधों से प्राप्त आंकड़े डराते  हैं|एसेक्स यूनिवर्सिटी  की शोध छात्रा सुनीता मेनन द्वारा किये गए शोध से पता चलता है कि भारत में होने वाली कुल बाल मौतों के दसवें हिस्से का कारण घरेलू हिंसा है |इस शोध का आधार नेशनल फैमली एंड हेल्थ सर्वे 2007 का वह आंकड़ा है जिसमें सोलह से उनचास वर्ष की 124,385 महिलाओं का साक्षात्कार किया गया था|शोध में शामिल किये गए सैम्पल को अगर सिर्फ ग्रामीण जनसँख्या तक सीमित कर दिया जाये तो यह आंकड़ा दुगुना होकर हर पांच में से एक पर जा सकता है | महिलाओं को अधिकारों की सुरक्षा को अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दशक (1975-85) के दौरान एक पृथक पहचान मिली थी। सन् 1979 में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ में इसे अंतर्राष्‍ट्रीय कानून का रूप दिया गया था। विश्‍व के अधिकांश देशों में पुरूष प्रधान समाज है। पुरूष प्रधान समाज में सत्‍ता पुरूषों के हाथ में रहने के कारण सदैव ही पुरूषों ने महिलाओं को दोयम दर्जे का स्‍थान दिया है। यही कारण है कि पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं के प्रति अपराध, कम महत्‍व देने तथा उनका शोषण करने की भावना बलवती रही है।राष्ट्रीय अपराध रिकोर्ड ब्यूरो के 2014 आंकडो के अनुसार पति और सम्बन्धियों द्वारा महिलाओं के प्रति किये जाने वाली क्रूरता में साढ़े सात प्रतिशत की वृद्धि हुई है |घरेलू हिंसा अधिनियम भारत का  पहला ऐसा कानून है जो भारतीय महिलाओं को उनके घर में सम्मानजनक एवं गरिमापूर्ण तरीके से रहने के अधिकार को सुनिश्चित करता है |प्रचलित अवधारणा के विपरीत समाजशास्त्रीय नजरिये से हिंसा का मतलब सिर्फ शारीरिक हिंसा नहीं है इसलिए घरेलू हिंसा अधिनियम में महिलाओं को सिर्फ शारीरिक हिंसा से बचाव का अधिकार नहीं दिया गया  है बल्कि इसमें  मानसिक ,आर्थिकएवं यौन हिंसा भी शामिल हैं | पुरुष प्रधान भारतीय समाज में महिलाओं को दिवीतीय दलित की संज्ञा दी जा सकती है जो सामाजिक ,आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से शोषित की भूमिका में हैं |हिंसा कैसी भी हो वह महिलाओं के मनोविज्ञान को प्रभावित करती है |
घरेलू हिंसा अपने आप में एक ऐसी हिंसा जिनसे व्यवहारिक दृष्टि से सामाजिक रूप से मान्यता मिली हुई है यानि घर में हुई हिंसा को हिंसा की श्रेणी में नहीं माना जाता है ऐसी स्थिति में घर की लड़कियां ,महिलाएं उसे अपनी नियति मान लेती हैं |महिलाओं के नजरिये से उनके प्रति हुई हिंसा इसलिए ज्यादा गंभीर हैं क्योंकि वे जननी होती हैं ,देश का भविष्य उनके गर्भ में ही पलता है |गर्भवस्था के दौरान हुई हिंसा का असर महिला के बच्चे पर भी पड़ता है|मोरिसन और ओरलेंडो के एक शोध के अनुसार विकासशील देशों में महिलाओं के साथ हुई   हिंसा में कैंसर ,मलेरिया,ट्रैफिक एक्सीडेंट और युद्ध में हुई मौतों के मुकाबले ज्यादा मौत होती है |दुनिया की ज्यादातर सभ्यताओं में लिंग आधारित हिंसा पाई जाती है पर भारतीय स्थतियों में ज्यादातर ऐसी हिंसा को सामाजिक व्यवहार,सामूहिक मानदंडों और धार्मिक विश्वास का आधार मिल जाता है जिससे स्थिति काफी जटिल हो जाती है |दूसरे घरेलू हिंसा का साथ अपने सगे सम्बन्धियों से होता है इसलिए इसमें निजता और शर्म का घालमेल हो जाता है |इस विषय पर बात करना मुनासिब नहीं समझा जाता है और लोग खुल कर बोलने से कतराते हैं जिससे इस समस्या से संबंधित व्यवस्थित आंकड़े नहीं उपलब्ध हो पाते हैं |जागरूकता की कमी,सामाजिक रूप से बहिष्कृत किये जाने का डर समस्या को और विकराल बनाता है शहरों की हालात से ग्रामीण इलाकों की स्थिति का महज अंदाजा लगाया जा सकता है जहां जागरूकता और शिक्षा की खासी कमी है |इससे यह बात सिद्ध होती है कि घरेलू हिंसा के दर्ज कराये जा रहे आंकड़े और घरेलू हिंसा की वास्तविक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर हैघरेलू हिंसा से महिलाओं  की सार्वजनिक भागीदारी में बाधा होती है उनकी कार्य क्षमता घटती है, और वे  डरी-डरी भी रहती है। परिणामस्‍वरूप प्रताडि़त महिला मानसिक रोगी बन सकती  है जो कभी-कभी पागलपन की हद तक पहुंच जाती है। यह तो स्थापित तथ्य है कि महज कानून बनाकर किसी सामाजिक समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है |महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा का सीधा संबंध उनकी वित्तीय आत्मनिर्भरता से जुड़ा हुआ है |वह महिलायें ज्यादा प्रताड़ित होती हैं जो वित्तीय रूप से किसी और संबंधी पर निर्भर हैं |वित्तीय आत्मनिर्भरता का सीधा संबंध शिक्षा से है जैसे –जैसे भारतीय महिलायें शिक्षित होती जायेंगी वे अपने अधिकार के लिए लड़ पाएंगी|घरेलू हिंसा का शिकार होने पर उन्हें पता होगा कि उन्हें क्या करना है |
नवोदय टाईम्स में 03/12/16 को प्रकाशित लेख 

Tuesday, November 29, 2016

घरेलू बचतों में सरकारी सेंधमारी


भारत में लोकतंत्र है जिसका मतलब नीतियां कौन बनाएगा और इसका असर क्या होगा इसका फैसला करने का अधिकार देश के नागरिकों के पास है पर भारत या दुनिया के किसी अन्य पितृ सत्तामक देश में जब नीतियां बनती हैं तो उनको  लैंगिक समानता के नजरिये से भी देखा जाना चाहिए क्योंकि किसी भी देश का लगभग आधा तबका उस वर्ग से आता है जिसे हम “महिला” कहते हैं |पूरा देश हजार और पांच सौ के नोट बदलो अभियान में लगा हुआ है और बैक लोगों की भीड़ से भरे हुए हैं पर उस भीड़ में जो महिलायें खडी  हैं वो कौन हैं यह जानना बहुत जरुरी है  |इस पूरे प्रक्रम में वो महिलायें हैं जिनसे भारत बनता है जो घर का सारा काम काज सम्हालती हैं और सकुचाते हुए कहती हैं वो “कुछ नहीं करती ” देश की जी डी पी में उनके द्वारा किये गए घरेलू श्रम का कोई योगदान नहीं होता है |
तो ये महिलायें जो कुछ नहीं करतीं अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए परिवार के उन पुरुषों पर निर्भर रहती हैं जो उन्हें घर खर्च के लिए महीने की शुरुवात में एकमुश्त रकम दी जाती है और ये महिलायें जो कथित्त  रूप से कुछ नहीं करती उन रुपयों से पूरे घर का ख्याल रखती हैं और अपने शानदार आर्थिक नियोजन से बगैर कॉमर्स और एम् बी ए की पढ़ाई किये हुए कुछ धन बचा लेती हैं अपने परिवार के आने वाले कल के लिए जाहिर है बचत का ये हिस्सा बैंक में नहीं जमा होता है और बचत का यही भाग किसी भी भारतीय मध्य वर्ग और निम्न वर्ग का वो आधार तैयार करता है जिसकी नींव पर उन  महिलाओं को स्वालंबन का एहसास होता  है “जो कुछ नहीं करतीं” जिसके भरोसे वो जिन्दगी की लड़ाई आत्मविश्वास से लडती हैं |बचत का यही हिस्सा वह  आसरा होता है जिससे शहरी माध्यम वर्ग की “कुछ न करने वाली महिलायें” किटी पार्टी करती हैं और आपस में एक दूसरे को आर्थिक रूप से सहायता देती हैं |उल्लेखनीय है यही वो छोटी बचतें थी जिनके बूते  2008 में आयी वैश्विक आर्थिक मंदी में भारत मजबूती से खड़ा रहा |उनका जो भरोसा टूटा है अपने ही परिवार में जो उन्हें सवालों के जवाब देने पड़ रहे हैं और इन छोटी घरेलू बचतों से जो उनमें एक स्वाभिमान का भाव जग रहा था जैसे कुछ सवाल हैं जो इस तरह की नीतियां बनाते वक्त ध्यान में रखे जाने चाहिए |
घरेलू बचतें क्यों नहीं होतीं बैंक में जमा
यू एन डी पी रिपोर्ट के अनुसार साल 2014 के अंत तक अस्सी प्रतिशत भारतीय महिलाओं के पास बैंक अकाउंट नहीं थे |अगर यह मान भी लिया जाए कि प्रधानमंत्री जनधन योजना के अंतर्गत महिलाओं ने अपने बचत खाते खोले होंगे तब भी यह आंकड़ा कुछ ज्यादा नहीं बदलेगा |इसके लिए भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक स्थितियां जिम्मेदार हैं |आम तौर पर इस पुरुष सत्तामक समाज में अधिकारिक तौर पर खर्च बचत के फैसले का सर्वाधिकार एक सामान्य भारतीय परिवार में पुरुषों के हाथ में होता है और महिलाओं आर्थिक रूप से उतनी आत्मनिर्भर नहीं हैं |इसलिए महीने के घर खर्च में से बचाए गए पैसे आधिकारिक रूप से बचत का हिस्सा नहीं होते यह उस महिला या गृहिणी के पैसे होते हैं “जो कुछ नहीं करती” अगर वो इन पैसों को घोषित करके बैंक में जमा भी कर दे तो तो उसकी अपनी बचत पर पूरे परिवार का दावा हो जाता है |दूसरा अगर वो अपने नाम से खाता खुलवा भी ले जिसकी संभावना ग्रामीण भारत में काफी कम है तो भी उसे खर्च करने का अधिकार उसके पास न होकर घर के किसी पुरुष के पास ही होगा |बस बचत बैंक खाते में ही उसका नाम होगा शेष सारे दायित्व उसके पास नहीं रहते |दूसरे भारत की महिलाओं का सामजिक एक्सपोजर कम रहता है और अशिक्षा का होना भी एक बड़ी बाधा है ऐसे में  एक समान्य भारतीय महिला से यह उम्मीद नहीं की जायेगी कि वो अकेले जाकर बैंक में अपना खाता खुलवा ले |ऐसे हालात में इन महिलाओं के लिए बैंक कभी भरोसेमंद विकल्प के रूप में उभर नहीं पाए |ऐसे परिवेश में वो छोटी बचतें कभी रसोई के किसी डिब्बे में ,किसी कथरी के सिरहाने सिल कर इस भरोसे के साथ रखी गयीं थी कि उन्होंने भी अपने परिवार के आने वाले कल के लिए कुछ जोड़ा है या अपनी छोटी मोटी जरूरतों के लिए हर वक्त कभी पति ,बेटे या किसी और के आगे हाथ नहीं पसारना पड़ेगा |
परिवार का मनोविज्ञान और बचत का खर्च हो जाना
अब जब ऐसी छोटी छोटी बचतें परिवार के सामने आ रही हैं तो सबसे पहले घरों में पहली प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक है कि इतनी बचत हो गयी पर अब उस बचत पर सबका हिस्सा हो गया है जाहिर है ये ऐसे परिवार हैं जिनकी आमदनी कम या सीमित है और आय के ज्यादा स्रोत नहीं हैं अब यह बचत उसकी स्वामिनी के पास बदले नोटों में वापस जायेगी या परिवार के खर्च में शामिल हो जायेगी इस प्रश्न का उत्तर हम भारतीय परिवार के मनोविज्ञान से जानने की कोशिश करते हैं चूँकि स्त्री देवी है और त्याग करने का सर्वाधिकार उसके पास सुरक्षित है तो अमूमन होगा यही अमूमन वह अपनी बचत परिवार के नाम पर कुर्बान कर देगी परिवार में जश्न होगा क्योंकि ऐसे परिवारों में जश्न मनाने के मौके कम ही आते हैं और वह महिला जो इस महत्वपूर्ण बचत के लिए जिम्मेदार अपनी इच्छाओं की एक बार फिर कुर्बानी देगी और देवी के रूप में स्थापित हो जायेगी | पिछले लगभग तीन  दशकों के दौरान 'नीचकही जाने वाली जातियां और औरतें अपने बूते खड़ा होेनेपढ़ने-लिखने के हथियार के जरिए आगे बढ़ने की कोशिश में थीं और यह छोटी-छोटी घरेलू बचतों के जरिए भी हो रहा था लेकिन अब कथित ईमानदारी के नाम पर उनसे उनकी ईमानदारी की कमाई की बचत को भी लूट के राडार पर लाकर सबसे पहले उनके उस भरोसे तोड़ा गया है ताकि उनके दिमाग में यह डर हमेशा मौजूद  रहे कि किसी तरह  चार साल में बचाए गए उनके चालीस हजार रुपए पर सरकार नजर हो सकती है  और इसीलिए किसी तरह उसे खर्च कर दो ।
नवभारत टाईम्स में 29/11/16 को प्रकाशित लेख 

Wednesday, November 23, 2016

सोशल मीडिया से ताज़ा ख़बरों की दस्तक

ऐसे समय में, जब फेसबुक समेत सोशल मीडिया के लगभग सभी माध्यम झूठी और फर्जी खबरों की समस्या से जूझ रहे हैं, कुछ ऐसा भी हो रहा है, जो बहुत उम्मीद बंधाता है। इस साल अगस्त में जब फेसबुक ने लाइव फीचर शुरू किया था, तो किसी ने नहीं सोचा था कि कैसे फेसबुक में लाइव वीडियो फीचर का यह छोटा-सा ‘आइकन’ भारत को सिटिजन जर्नलिज्म की अगली पीढ़ी में ले जाने वाला है और टीवी पत्रकारिता के तौर-तरीके पर गहरा असर डालने वाला है। इस वक्त जब पूरा देश नोट बदलने के लिए एटीएम या बैंक के बाहर लाइन में लगा है, स्थिति की गंभीरता को दिखाने के लिए महज तस्वीरों से ही नहीं, बल्कि इस लाइव वीडियो का भी सबसे सटीक इस्तेमाल हो रहा है। अखबारों, टीवी चैनलों ने भी इस अवसर का फायदा उठाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है। नए नोट पाने या पुराने नोट निपटाने के लिए लाइन में लगे लोगों को दिखाने और उनकी प्रतिक्रिया को समझने के लिए फेसबुक लाइव फीचर एक औजार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। इसी दौरान, नमक की कमी को लेकर फैली अफवाह को खत्म करने में भी लोगों ने इस फीचर का बखूबी इस्तेमाल किया, जिससे स्थिति खराब नहीं होने पाई।
फेसबुक का यह फीचर प्रयोगकर्ताओं को रियल टाइम में सीधे प्रसारण की सुविधा देता है। यह ठीक है कि पहले लोगों ने मजे के लिए लाइव होना शुरू किया, मगर धीरे-धीरे इसमें गंभीरता आनी शुरू हो गई है। इस फीचर के मानक गढ़ने और सीखने में फेसबुक के भारतीय उपयोगकर्ताओं ने ज्यादा वक्त नहीं लगाया। जो यह भी बताता है कि देश नए मीडिया के प्रयोग के तौर-तरीके बहुत जल्दी आत्मसात कर रहा है। जिसे हम डिजिटल इंडिया कहते हैं, वह भले ही एक सरकारी प्रयास और नारा है, लेकिन सच यह है कि देश की युवा पीढ़ी डिजिटल बदलावों और औजारों को लेकर काफी सहज हो चुकी है। अब नए बदलाव की राह इसी सहजता से निकलेगी।
भारत में इस समय 15 करोड़ से ज्यादा लोग फेसबुक का उपयोग कर रहे हैं। अब आगे इस संख्या को लगातर बढ़ाते रहना फेसबुक की सबसे बड़ी चुनौती है। ऐसी ही चुनौती देश में सक्रिय सोशल मीडिया के दूसरे प्लेटफॉर्म की भी है। शोध बताते हैं कि लोगों का समाचार पाने का तरीका सोशल मीडिया के आने के बाद बदला है और वे समाचारों के लिए टीवी की बजाय सोशल नेटवर्किंग साइट्स की ओर रुख कर रहे हैं। फेसबुक के पास टेक्स्ट, तस्वीरें और वीडियो शेयर करने की व्यवस्था पहले से ही थी, पर लाइव वीडियो फीचर ने इसमें एक नया आयाम जोड़ दिया है। सिटिजन जर्नलिज्म की अवधारणा में जिस गति की कमी सोशल मीडिया साइट्स में महसूस की जा रही थी, उसको लाइव वीडियो ने भर दिया है। उम्मीद की जा रही है कि इसका असर हमारे समाचार टीवी चैनलों पर भी जल्द दिखेगा।
यह भी मुमकिन है कि खबरों को पाने का उनका सबसे बड़ा माध्यम सोशल मीडिया ही बन जाए। ओबी वैन से सीधा प्रसारण बहुत जल्द ही इतिहास हो जाने वाला है। असल में, यही एक ऐसा तत्व है, जो एक आम इंटरनेट प्रयोगकर्ता के पास नहीं था, इसलिए उसकी निर्भरता समाचार और सूचना पाने के लिए टीवी पर थी। अभी तक की तकनीकी व्यवस्था में सीधे प्रसारण के कारण टीवी ज्यादा विश्वसनीय था, पर अब वह दूरी भी खत्म हो गई है। इस बीच भारत में लगातार स्मार्टफोन की संख्या बढ़ती जा रही है, जो इस बात का द्योतक है कि फेसबुक का यह फीचर अभी और ज्यादा लोकप्रिय होगा और लोगों को अपनी बात जनता तक पहुंचाने के लिए टीवी चैनल जैसे महंगे माध्यम की जरूरत नहीं होगी। उनके पास खुद का अपना माध्यम होगा।
बेशक इसके रास्ते में कई बाधाएं हैं। सबसे बड़ी बाधा इंटरनेट की गति है। 4जी तकनीक का विकास और विस्तार इसकी गति को कितना तेज कर सकता है? इससे भी बड़ी चुनौती नागरिक पत्रकारिता के नाम पर सामग्री की भरमार की है। सोशल मीडिया इस अराजकता से निकलकर सुगठित रूप में कैसे निखरेगा, यह कोई नहीं जानता। फिर इसे विश्वसनीयता कायम करने के लिए भी संघर्ष करना होगा।
हिन्दुस्तान में 23/11/16 को प्रकाशित 

Tuesday, November 22, 2016

'काला रंग' निराला रे

आजकल हर जगह काले धन की ही चर्चा है बात जब काले की होती है तो हम थोडा सचेत हो जाते हैं क्योंकि काला आते ही न जाने क्या क्या नकारात्मक हमारे जहन में आने लगता है जैसे काला धंधा ,काली किस्मत और न जाने क्या क्या |इतनी सारी काली चीजों के बारे में सोचते हुए मैंने भी न जाने अपनी कितनी रातें काली की हैं | मेरी रातें जरुर काली हो रही थीं पर मुझे इस काले रंग के कई सारे उजले पक्ष के बारे में जानने का मौका मिला | जहाँ सरकार काले धन से छुटकारा पाना चाहती है वहीं बाजार में काले से गोरा बनाने वाली क्रीम की भरमार है | काला बाज़ार से लेकर काले रंग तक हम किसी न किसी तरह से काले के प्रभाव में रहते हैं| 
क्या काला रंग वाकई इतना बुरा होता है जितना हम उसे मानते हैं या यह महज हमारे दिमाग के नजरिये का मामला है कि हमने काले रंग को गलत चीजों के साथ जोड़ दिया है  |कहानी में यहीं से थोडा बदलाव  आता है क्योंकि ये लेख लिखते हुए मेरे काले कम्पूटर की काली स्क्रीन में काले अक्षर ही उभर रहे हैं वैसे मेरी त्वचा का रंग भी काला है और मुझे इस पर फख्र है |यूँ तो काला रंग हमेशा से प्रभुत्व और वर्चस्व के प्रतीक रूप में इस्तेमाल होता आया है| सफ़ेद ने अगर शांति के प्रतीक के रूप में अपनी पहचान बनायीं  है तो काला रंग जाने अनजाने अपने अंदर एक अलग आकर्षण रखता है| फिर चाहे वह ब्लैक ब्यूटी हो या फिर कोई ब्लैक वेहिकल| अफ्रीका के काले लोगों की शारीरिक सौष्ठव की बात हो या फिर भारत में बंगाल के काले जादू की| सबकी अपनी एक पहचान है| अमावस की काली रात हो या काल भैरव की पूजा हर जगह काले का ही बोलबाला है आइये कुछ और आगे चलते हैं और देखते हैं कि हमारे जीवन में ये काला रंग क्या महत्व रखता है जिंदगी की डगर पर अगर आगे बढ़ना है तो पेन्सिल की काली रेखा की जरुरत होगी या फिर इस डिजीटल दुनिया  में ओ एम् आर शीट के काले गोले जो आपको सफलता के दरवाजे तक ले जायेंगे |

जीवन में सफल होने के लिए सिर्फ शिक्षा की ही जरुरत नहीं होती जरा  सोचिये जेम्स वाट ने किस तरह भाप की शक्ति को पहचान कर काले  कोयले को उर्जा के एक नए साधन के रूप में दुनिया से परिचित कराया और बाद में इन्ही भाप के इंजनों ने औधोगिकी करण की नीव रखी जिससे हम सबकी जिंदगी बेहतर हुई |बात जब जिंदगी की चल पडी है तो फिर हमारा आपका किस्सा तो होगा ही तो इस किस्से को और आगे बढ़ाते हुए कुछ खूबसूरत सी चीज़ आपको याद दिलाना चाहता हूँ सही पहचाना आपने काला तिल कितना कुछ है हमारे जीवन में जो काला होते हुए भी सुन्दर है आकर्षक है वो चाहे बालों का काला रंग हो या कजरारे नैनभगवान कृष्ण के सांवले सलोने रूप को ही ले लीजिए | नीबू वाली काली चाय का असली मजा तो आप तभी ले सकते हैं जब आसमान में काली घटायें छाई हो मेरे जैसे न जाने कितने लेखकों ने कितने पन्ने काले कर दिए सिर्फ अपनी बात को दूसरों तक पहुँचाने के लिए हाँ मेरे और आपके सभी के शैक्षिक जीवन  की शुरुआत का  आधार भी एक काला बोर्ड ही होता है  लेकिन फिर भी हम काले रंग से न जाने क्यों एक बचना चाहते हैं|

जीवन ने  हमें कई रंग दिए हैं उनमे से एक रंग काला भी है इंसान या उससे जुडी हुई कोई चीज़ अच्छी बुरी हो सकती है पर रंग नहीं आप रंगों की भाषा में आप इसको यूँ समझें हम काले रंग के खिलाफ नहीं है बल्कि समाज में होने वाली काली करतूतों के खिलाफ हैं फिर वो चाहे काला धन हो या काला बाजारी तो अपना रंग गोरा करने की बजाय जो रंग भगवान ने आपको दिया है उसमे खुश रहें पर समाज के कालेपन को खतम करने के लिए जो आप कर सकते हैं वो जरुर करें तो याद रखियेगा कोई रंग बुरा नहीं होता |
प्रभात खबर मे 22 /11/16 को प्रकाशित 

Sunday, November 20, 2016

शौचालय निर्माण तो स्वच्छ भारत का "पहला पड़ाव"

मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही स्वच्छ भारत अभियान को अपनी प्राथमिकता में सबसे ऊँची पायदान पर रखा जिसमें साल 2014-15 में सरकार ने पचास लाख अस्सी हजार (5.8 मिलियन ) शौचालय बनाने का  लक्ष्य रखा था| स्वच्छ भारत मिशन के दो वर्ष के दौरान देश के शहरी क्षेत्रों में 22,97,389 व्यक्तिगत घरेलू शौचालयों का निर्माण किया गया है। पहले दो वर्षो अर्थात मिशन की 40 प्रतिशत अवधि में 35 प्रतिशत लक्ष्य पूरा किया गया है। ऐसा खुले में शौच की प्रथा को समाप्त करने के लिए किया जा रहा है।
बयान के अनुसारगुजरात और आंध्र प्रदेश ने इस वर्ष सितंबर तक तीन वर्ष पहले ही मिशन लक्ष्य पूरा कर लिया है। गुजरात में 4,06,388 शौचालयों के निर्माण का लक्ष्य पूरा किया गया हैजबकि आंध्र प्रदेश ने शहरी क्षेत्रों में 1,93,426 शौचालयों का निर्माण कर अपने आप को शहरी क्षेत्रों को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया है।सरकार को उम्मीद थी कि शौचालयों के निर्माण से देश स्वच्छता के मामले में बेहतर स्थिति में आ जाएगा पर व्यवहार में ऐसा होता नहीं दिख रहा है |इस समस्या के और भी पहलू हैं जिनको शौचालय निर्माण प्रक्रिया के साथ देखा जाना चाहिए |
अभी  आयी  भारत सरकार की स्वच्छता स्थिति रिपोर्ट” भारत में सफाई की समस्या के एक नए रुख की ओर इशारा कर रही है कि महज शौचालयों के निर्माण से भारत स्वच्छ नहीं हो जाएगाइस रिपोर्ट में भारतीय आंकड़ा सर्वेक्षण कार्यालय (एन एस एस ओ ) से प्राप्त आंकड़ों को आधार बनाया गया है |देश में कूड़ा प्रबंधन (वेस्ट मैनेजमेंट) एक बड़ी समस्या है |ग्रामीण भारत में तरल कूड़े के लिए कोई कारगर व्यवस्था नहीं है जिसमें मानव मल भी शामिल है देश के 56.4 प्रतिशत शहरी वार्ड में सीवर की व्यवस्था का प्रावधान है आंकड़ों के मुताबिक़ देश का अस्सी प्रतिशत कूड़ा नदियों तालाबों और झीलों में बहा दिया जाता है|यह तरल कूड़ा पानी के स्रोतों को प्रदूषित कर देता है|यह एक गम्भीर समस्या है क्योंकि भूजल ही पेयजल का प्राथमिक स्रोत है |प्रदूषित पेयजल स्वास्थ्य संबंधी कई तरह की समस्याएं पैदा करता है जिसका असर देश के मानव संसधान पर भी पड़ता है |
गाँव के 22.6 प्रतिशत वार्ड और शहर के 8.6 प्रतिशत वार्ड में एक भी स्वच्छ शौचालय लोगों के इस्तेमाल के लिए नहीं है |गंदे शौचालय महिलाओं में मूत्र संबंधी संक्रमण और त्वचा संबंधी रोगों का एक बड़ा कारण है |देश के 22.6 सामुदायिक शौचालय कभी साफ़ ही नहीं किये जाते हैं गाँवों में कूड़ा प्रबंधन का कोई तंत्र नहीं है लोग कूड़ा या तो घर के बाहर या खेतों ऐसे ही में डाल देते हैं |शहरों की हालत गाँवों से थोड़ी बेहतर है जहाँ 64 प्रतिशत वार्डों में कूड़ा फेंकने की जगह निर्धारित है लेकिन उसमें से मात्र 48 प्रतिशत ही रोज साफ़ किये जाते हैं |देश के तैंतालीस प्रतिशत शहरी वार्ड में घर घर जाकर कूड़ा एकत्र करने की सुविधा उपलब्ध है |पर जनवरी 2016 तक देश में एकत्रित कुल कूड़े का मात्र अठारह प्रतिशत का ही निस्तारण किया जा सका है|पर्याप्त कूड़ा प्रबन्धन(वेस्ट मैनेजमेंट ) के अभाव में शौचालय निर्माण प्रक्रिया के औचित्य पर सवालिया निशान लग जाते हैं |कूड़ा और मल का अगर उचित प्रबंधन नहीं हो रहा है तो भारत कभी स्वच्छ नहीं हो पायेगा |दिल्ली और मुमबई जैसे भारत के बड़े महानगर वैसे ही जगह की कमी का सामना कर रहे हैं वहां कूड़ा एकत्र करने की कोई उपयुक्त जगह नहीं है ऐसे में कूड़ा किसी एक खाली जगह डाला जाने लगता है वो धीरे –धीरे कूड़े के पहाड़ में तब्दील होने लग जाता है और फिर यही कूड़ा हवा के साथ उड़कर या अन्य कारणों से साफ़ –सफाई को प्रभावित करता है जिससे पहले हुई सफाई का कोई मतलब नहीं रहा जाता |इस व्यवस्था को यूँ भी समझा जा सकता है कि बारिश से पहले शहरों    के नगर निगम नाले की सिल्ट निकालते हैं और उस सिल्ट को नाले के किनारे ही छोड़ देते हैं और धीरे धीरे निकाली गयी सिल्ट फिर नाले में चली जाती है |
वेस्ट टू एनर्जी  रिसर्च एंड टेक्नोलॉजी कोलम्बिया विश्वविद्यालय के एक  शोध के मुताबिक  भारत में अपर्याप्त कूड़ा  प्रबन्धन  बाईस बीमारियों का वाहक बनता है |शौचालय निर्माण स्वच्छता मापने का एकमात्र पैमाना नहीं हो सकता |शौचालय तो मानव मल को एक जगह एकत्र करके उसे आगे बढ़ा देता है पर महत्वपूर्ण सवाल ये है कि इस मानव मल का होता क्या है शहरों में यह मानव मल एसटीपी में जाता है और अगर एस टी पी नहीं है या काम नहीं कर रहा है तो इसे नदियों तालाबों में बहा दिया जाता है जो जल को प्रदूषित कर देता है स्वच्छ भारत का यह मिशन तभी अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकेगा  जब उचित कूड़ा और मल प्रबन्धन के तरीकों के साथ शौचालयों का निर्माण हो और उनकी साफ़ सफाई की व्यवस्था भी सुनिश्चित की जाए |
नवोदय टाईम्स में 20/11/16 को प्रकाशित 

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