फिल्मी दुनिया समय के साथ काफी बदली है।
कहानी बदली, संगीत बदला, फिल्म का
प्रस्तुतिकरण और प्रमोशन बदला लेकिन हर चीज में बदलाव को नोटिस करने वाली लोगों की
पैनी नजर के सामने फिल्मों का खलनायक भी बदल गया, यहाँ से
पचास पचास कोस दूर जब कोई बच्चा रोता है कहने वाला वाला गब्बर कब गाँव के बीहड़ों
से निकलकर शहर के उस आम इंसान जैसा हो गया कि उसको पहचानना मुश्किल ही नहीं
नामुमकिन हो गया। काफी समय तक खलनायको का चरित्र,नायकों के
बराबर का हुआ करता था|ये
तथ्य अलग है कि इनके रूप,नाम और
ठिकाने बदलते रहे कभी ये धूर्त महाजन, जमींदार, डाकू तो
कभी तस्कर और आतंकवादी के रूप में हमारे सामने आते रहे। व्यवस्था से पीड़ित
हो खलनायक बन जाना कुछ ही फिल्मों का कथ्य रहा है पर एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन
के बाद खलनायक बस खलनायक ही हुआ करता था वह क्यों गलत है इस प्रश्न का उत्तर किसी
भी फिल्म में नहीं मिलता। नब्बे के दशक के बाद में मानसिक रूप से बीमार या अपंग
खलनायकों का दौर आया परिंदा में नाना पाटेकर, डर में
शाहरुख खान, ओंकारा में
सैफ अली खान,'दीवानगी' के अजय
देवगन और 'कौन' की उर्मिला
ऐसे ही खलनायकों की श्रेणी में आते हैं । एक मजेदार तथ्य यह भी है कि दुष्ट
सासों की भूमिका तो खूब लिखी गयी पर महिला खलनायकों को ध्यान में रखकर हिन्दी
फिल्मों में चरित्र कम गढे गए अपवाद रूप में खलनायिका,गुप्त राज, और कलयुग
जैसी गिनी चुनी फिल्मों के नाम ही मिलते हैं । समय के साथ इनके काम करने के तरीके
और ठिकाने बदल रहे थे। जंगलों बीहड़ों से निकलकर पांच सितारा संस्कृति का हिस्सा
बने खलनायक मानो अपने वक्त की कहानी सुना रहे हैं कि कैसे हमारे समाज में बदलाव आ
रहे थे |गाँव ,खेत खलिहान,जानवर
फ़िल्मी परदे से गायब हो रहे थे और उनकी जगह कंक्रीट के जंगल सिनेमा के मायालोक का
हिस्सा हो रहे थे। साम्प्रदायिकता कैसे हमारे जीवन में जहर घोल रही है इसका आंकलन
भी हम फ़िल्में देखकर सहज ही लगा सकते हैं। सिनेमा के खलनायकों के कई ऐसे कालजयी
खलनायक चरित्र जिनके बारे में सोचते ही हमें उनका नाम याद आ जाता है। कुछ नामों पर
गौर करते हैं गब्बर, शाकाल, डोंन,मोगेम्बो, जगीरा जैसे
कुछ ऐसे चरित्र हैं जो हमारे जेहन में आते हैं पर इन नामों से उनकी सामजिक,जातीय
धार्मिक पहचान स्पष्ट नहीं होती वो बुरे हैं इसलिए बुरे हैं पर आज ऐसा बिलकुल भी
नहीं है। संसधानों के असमान वितरण से परेशान पहले डाकू खलनायक आते हैं.मुझे जीने
दो ,मदर इन्डिया,पान सिंह
तोमर जैसी फ़िल्में इसकी बानगी भर हैं फिर समाजवाद व्यवस्था ने हर चीज को सरकारी
नियंत्रण में कर दिया जिसका नतीजा तस्करी के रूप में निकला और विलेन तस्कर हो
गया.अमिताभ बच्चन का दौर कुछ ऐसी फिल्मों से भरा रहा,कालिया,दीवार, राम बलराम
जैसी फिल्मे उस दौर की हकीकत को बयान कर रही थी। तस्करों ने पैसा कमाकर जब राजनीति
को एक ढाल बनाना शुरू किया तो इसकी प्रतिध्वनि फिल्मों में भी दिखाई पडी अर्जुन,आख़िरी
रास्ता और इन्कलाब जैसी फ़िल्में समाज में हो रहे बदलाव को ही रेखांकित कर रही थी
फिर शुरू हुआ उदारीकरण का दौर जिसने नायक और खलनायक के अंतर को पाट दिया एक इंसान
एक वक्त में सही और गलत दोनों होने लगा,भौतिक
प्रगति और वित्तीय लाभ में मूल्य और नैतिकता पीछे छूटती गयी और सारा जोर
मुनाफे पर आ गया इसके लिए क्या किया जा रहा है इससे किसी को मतलब नहीं महत्वपूर्ण
ये है कि मुनाफा कितना हुआ जिसने स्याह सफ़ेद की सीमा को मिटा दिया और फिल्म
चरित्र में एक नया रंग उभरा जिसे ग्रे(स्लेटी)कहा जाने लग गया पर इन सबके बीच में
खलनायकों की बोली भी बदल रही थी। सत्तर और अस्सी के दशक तक उनकी गाली की सीमा सुअर
के बच्चों,कुत्ते के
पिल्ले और हरामजादे तक ही सीमित रही पर अब गालियाँ खलनायकों की बपौती नहीं रह गयी।
भाषा के स्तर पर भी नायक और खलनायक का भेद मिटा है. बैंडिट क्वीन से शुरू हुआ ये
गालियों का सफर गैंग्स ऑफ वासेपुर तक जारी है जाहिर है गाली अब अछूत शब्द नहीं है
वास्तविकता दिखाने के नाम पर इनको स्वीकार्यता मिल रही है और सिनेमा को बीप ध्वनि
के रूप में नया शब्द मिला है.रील लाईफ के खलनायकों की ये कहानी समाज की रीयल्टी को
समझने में कितनी मददगार हो सकती है ये भी एक नयी कहानी है ।
प्रभात खबर में 12/04/16 को प्रकाशित
4 comments:
सिनेमा एक प्रभावशाली माध्यम है और इसका असर समाज पर और समाज का असर इस पर
किसी रिवर्सिबल केमिकल रिएक्शन की तरह होता आया है और होता रहेगा. इनके बीच ही एक
और किरदार आया था 'एंटी हीरो' जो रोल शाहरुख ने फिल्म बाजीगर में निभाया था. ये एक
ऐसा तत्व है जिससे दर्शक को हमदर्दी हो जाती है.
the fact is very well proven when we say that the society and movies do effect each other. There are several times that cult movies like Pink which showcases the real society but there are no immediate change, well change is the only constant and does take time. however the showcasing of villains is considered people do know that he is wrong but in reality they too have done something that is wrong. Moreover the actors nowadays give statements that they really want to work on a script that shows them in a negative role. so, i hope that there are better films and the use of such words be minimal or actually such that it does not effect sentiments of others.
एकदम सही तथ्य है इस लेख में |देखा जाए तो भारतीय सिनेमा में केवल खलनायको को लेकर ही नहीं बल्कि हर तरह से बहुत बदलाव आये हैं |भाषा का तो इस तरह से प्रयोग हो रहा है कुछ फिल्मों में जो, परिवारों को विवश कर देता हैं एक साथ बैठ कर फिल्म न देखने को ,जबकि पहले फिल्म देखने का आनंद ही परिवार के साथ आया करता था | कॉमेडी के नाम पर भी फूहड़ता पेश की जा रही है आजकल | भारतीय सिनेमा का जो असली अस्तित्व था वो पुराने खलनायको की तरह ही विलुप्त होता जा रहा है |
खलनायको मे 90s से लेकर अब तक बहुत बदलाव आये है। चूकि सिनेमा बदल गया । वो दौर चला गया। आज की जनरेशन जो पसंद कर रही है या जैसा आज का स्टाइल है उसी के अनुरूप सिनेमा और खलनायक हो गया है। ठीक उसी तरह हमारे जीवन में बहुत से बदलाव हुए है। हाँ पहले सिनेमा और हमारे कल्चर में एक फिल्मो को लेकर सम्मान था या कहे तो आज की फिल्मों की तरह अश्लीलता नहीं थी इतनी जितनी की आज है। हालांकि दौर बदला तो खलनायक को तो बदलना ही था।
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