अभी हाल ही में आयी डिज्नी की फिल्म जंगलबुक ने सिर्फ तीन दिन में बॉक्स ऑफिस परअभी हाल ही में आयी डिज्नी की फिल्म जंगलबुक ने सिर्फ तीन दिन में बॉक्स ऑफिस पर 40|19 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई की है।जो भारत में प्रदर्शित किसी भी हॉलीवुड फिल्म के एक दिन में सबसे अधिक कमाई का रिकॉर्ड है।भारत में हौलीवुड की इस फिल्म को हाथों हाथ लिया गया |खास बात ये है कि काफी समय बाद इस फिल्म में इंसान के साथ जानवर भी मुख्य भूमिका में हैं |कुछ ऐसा ही स्वागत साल 2012 में आयी जानवर और इंसान के रिश्तों पर बनी आंग ली निर्देशित फिल्म "लाइफ ऑफ पाई" का भी हुआ था इस फिल्म ने भी भारत में खासी कमाई की थी |उल्लेखनीय तथ्य यह है कि दोनों फ़िल्में भारत केन्द्रित इंसान और जानवर के रिश्तों पर बनी थी और दोनों ही हॉलीवुड के निर्माताओं की देन थी,इस जानकारी में कुछ भी नया नहीं है पर जब हम दुनिया में सबसे ज्यादा फ़िल्में बनाने वाले देश की फिल्म इंडस्ट्री पर नजर डालते हैं तो हम पाते हैं हमारी फिल्मों से जंगल और जानवर लगातार गायब होते जा रहे हैं और उनकी जगह हमें दिख रही है मानव निर्मित कृत्रिमता,पर हमेशा से ऐसा नहीं था | हिन्दी फिल्मों में जानवरों का इस्तेमाल उतना ही पुराना है, जितना इसका इतिहास। अगर आप हिन्दी सिनेमा की पहली फिल्म राजा हरीशचंद्र भी देखें, तो वहां भी दृश्यों में जानवर नजर आएंगे। यह विकास और प्रगति की चाह में बगैर सोचे भागने का साईड इफेक्ट है |यह स्थापित तथ्य है इंसान और जानवर अलग होकर वर्षों तक नहीं जी सकते और शायद इसीलिये हिन्दी फिल्मों में जानवर लंबे समय तक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे| फिल्मों में जानवरों की उपस्थिति 1930 और 40 के दशक में नाडिया की फिल्मों में देखी जा सकती है पर उसके बाद ये सिलसिला बहुत तेजी से आगे बढ़ा जिसमे रानी और जानी, धरम वीर, मर्द, खून भरी मांग, तेरी मेहरबानियां, दूध का कर्ज़, कुली और अजूबा, जैसी फ़िल्में शामिल हैं|दो हजार के दशक में अक्षय कुमार अभिनीत “इण्टरतेन्मेंट” ही एक मात्र उल्लेखनीय फिल्म रही जिसमें इंसान के साथ साथ जानवर भी अहम् भूमिका में था,इसके अलावा सुंदर बन के बाघों पर बनी फिल्म रोर का भी उल्लेख किया जा सकता है | एक वक्त में जानवरों के चरित्र की व्यापकता को देखते हुए इन्हें सहनायक या जानवर मित्र की संज्ञा मिली थी | जो वर्षों तक हमारी फिल्मों का प्रभावकारी हिस्सा रहे|वो हमें कहीं हंसा रहे थे तो कहीं भावनात्मक रूप से संबल भी दे रहे थे|पिछले दो दशकों में ऐसी फिल्मों की संख्या में काफी कमी आयी है|यह मनुष्य और प्रकृति के कमजोर होते सम्बन्धों का सबूत है| प्रकृति से हमारा ये जुड़ाव सिर्फ मनोहारी दृश्यों तक सीमित हो गया है|हमें बिलकुल भी एहसास नहीं हुआ कि कब हमारे जीवन में प्रमुख स्थान रखने वाले जानवर सिल्वर स्क्रीन से कब गायब हो गए|आज फिल्मों में आधुनिकता के सारे नए प्रतीक दिखते हैं|मॉल्स से लेकर चमचमाती गाड़ियों तक ये उत्तर उदारीकरण के दौर का सिनेमा हैं| समीक्षक हिन्दी सिनेमा से जानवरों के गायब हो जाने के पीछे कड़े होते जाते वन्य जीव कानून का हवाला देते हैं और मानते हैं कि निर्माता कानूनी पचड़ों में नहीं पड़ना चाहते इसलिए फिल्मों में जानवरों का कम इस्तेमाल होने लगा है|पर तर्क यह भी है कि हॉलीवुड तकनीक के सहारे नियमित अंतराल पर जानवर और इंसान के रिश्तों पर फिल्म बना सकता है तो भारतीय फिल्म उद्योग क्यों नहीं ?
इसका एक कारण उदारीकरण के पश्चात जीवन का अधिक पेचीदा हो जाना और मशीनों पर हमारी बढ़ती निर्भरता है|याद कीजिये फिल्म “नया दौर” को जिसमें जानवर और मशीन के बीच फंसे इंसान के चुनाव के विकल्प का द्वन्द दिखाया गया था जिसमें आखिर में जीत जानवर की होती है पर विकास की इस दौड़ में जैसे जैसे हमारी मशीनों पर निर्भरता बढी जानवरों से हमारा रिश्ता कम होता चला गया |इस तथ्य को नाकारा नहीं जा सकता कि विकास जरुरी है और अवश्यम्भावी भी पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विकास प्रकृति और जानवरों की कीमत पर न हो |इसमें कोई शक नहीं है कि जंगल कम हुए हैं और जानवरों की बहुत सी प्रजातियाँ लुप्त होने की कगार पर हैं |भारत में “सेव द टाइगर”कैम्पेन इसका उदाहरण है |जंगल और जानवर तभी बचेंगे जब हम इनको लेकर जागरूक और जिम्मेदार बनेंगे और फ़िल्में इस जागरूकता को बढ़ाने का एक अच्छा माध्यम हो सकती हैं | पिछले दो साल में ही देश के 728 वर्ग किलोमीटर भू-भाग से जंगलों का खात्मा हो चुका है। जंगलों की इस कहानी में नटखट बंदरों का जिक्र इसलिए जरूरी है कि वे सिर्फ एक उपमा हैं, यह बताने का कि वन्य जीवन जब असंतुलित होता है तो हमारे जीवन को कैसे प्रभावित करता है आजकल समाचार पत्र इस तरह की अक्सर सूचनाएं देते है कि अमुक क्षेत्र में तेंदुवा ने लोगों का शिकार किया या बंदरों के उत्पात से लोग परेशान |ऐसी ख़बरें साफ़ इशारा कर रही हैं कि इंसान और जानवरों के बीच बना संतुलन बिगड़ रहा है |
गौरतलब है कि इन मशीनों ने सिनेमा को तकनीकी तौर पर बेहतर किया है अब जानवरों को परदे पर दिखाने के लिए असलियत में उनकी जरुरत भी नहीं इसके लिए एनीमेशन और 3 डी तकनीक का सहारा लिया जा रहा है|दर्शकों की रूचि मानव निर्मित सभ्यता के नए प्रतीकों को देखने में ज्यादा है|उपभोक्तावाद ने हमें इतना अधीर कर दिया है कि विकास का मापदंड सिर्फ भौतिकवादी चीजें और पैसा ही रह गया है|हमारी फ़िल्में भी इसका अपवाद नहीं हैं आखिर सिनेमा को समाज का दर्पण यूँ ही नहीं कहा गया है| वैचारिक रूप से परिपक्व होते हिन्दी सिनेमा में जंगल और जानवरों के लिए जगह नहीं है यह उत्तर उदारीकरण के दौर का असर है या कोई और कारण यह शोध का विषय हो सकता है पर असल जीवन में कटते पेड़ और गायब होते जानवरों के प्रति संवेदना को बढ़ाने का एक तरीका सिनेमा की दुनिया में उनका लगातार दिखना एक अच्छा उपाय हो सकता है |
अमर उजाला में 31/05/16 को प्रकाशित
17 comments:
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति विश्व तंबाकू निषेध दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
this was indeed a very interesting point that requires people to bring their attention on. Unfortunately there have been very few films in bollywood which have animals as an important part. i guess Entertainment was last film from bollywood that had an animal playing the equivalent important part in the film. however the film did not do that well, but eventually grasped more controversies. One of them being the animal, here dog, named entertainment. This is i guess one of the problems in India, that they look on the aspects which do not require such attentions but are hyped uselessly. People less noticed the aspects that were shown in the movie that an animal can be a better friend that a man to another man. I too hope with time as we are increasing in technology we also improve our relation with nature and animals as well. and put our technology to showcase animals in our films as well as done by hollywood.
this was indeed a very interesting point that requires people to bring their attention on. Unfortunately there have been very few films in bollywood which have animals as an important part. i guess Entertainment was last film from bollywood that had an animal playing the equivalent important part in the film. however the film did not do that well, but eventually grasped more controversies. One of them being the animal, here dog, named entertainment. This is i guess one of the problems in India, that they look on the aspects which do not require such attentions but are hyped uselessly. People less noticed the aspects that were shown in the movie that an animal can be a better friend that a man to another man. I too hope with time as we are increasing in technology we also improve our relation with nature and animals as well. and put our technology to showcase animals in our films as well as done by hollywood.
i agree with the post but want to add that today people in India focus more on the 100Cr. club and therefore people are more interested in the masala movies than focusing on movies on animals. Which is really sad as compared to the hollywood movies.
aaj ka insaan vikas ki hod me aage to badha jaa raha hai lekin bhaunatmak roop se khokhla hota ja raha hai. jab insaan, insaan ko nahi samajhta to janwar bichare kis ginti mein aate hai.
the films have very big space to everyone but bollywood is dependent on what action or recreation of films ..
as of it entertainment of akshay kumar seen a lot about on dogs.
and haathi mera saathi and lots..
आज कल के फिल्म निर्माताओं को बस फिल्म के बिज़नेस से मतलब होता है । और कहीं न कहीं आज की जनरेशन भी जानवरो को उतना महत्व नहीं देती है । लेकिन द जंगल बुक, लाइफ ऑफ़ पाई, जैसी फिल्मे देख कर अच्छा लगता है, लेकिन इन सब मे एक जानवर अपने आप को सबसे लकी ,खुशनसीब मानता होगा वो है इंसानो का सबसे वफादार जानवर कुत्ता जो की लगभग आज कल सभी फिल्मो मे होता है । उसमें भी इंसानो का स्वार्थ है । तभी वो फिल्मो मे होता है । फिल्म निर्माताओं को चाहिए की वो फिल्मो मे सभी जानवरो को महत्व दे ,क्योंकि फिल्मो से ही हमारी जनता ,दूनिया लोग बहुत कुछ सीखते है ।
पर्यावरण में हुए बदलावों से कई जीव-जंतु दुनिया से हमेशा के लिए खत्म हो गये है।जानवरो के लुप्त होने का खतरा आज भी है और इस खतरे का एक कारण मनुष्यो का जानवरो के प्रति लगाव कम होना भी है।इस खतरे को कम करने के लिये फिल्म भी एक सफल साधन सिद्ध हो सकती है जिन्हें देख कर लोगो में जानवरो के प्रति लगाव,जागरूकता पैदा हो सकती है। जिसके लिये फिल्मो को भी अनिवार्य रूप से पर्यावरण संरक्षण और जानवरो के अस्तित्व को बनाये रखने के बारे में बताना चाहिए।
The use of real animals has stopped greatly in films,it's the roar of kindness towards four-legged creatures that seems to have got stronger.Also because of the rules of Animal Welfare Board Of India (AWBI) which are so strict that directors or producers don't want to go for such movies.Other reason is due to lack of techniques as we are a developing country and thus making movies with the help of VFX etc. is not possible as a huge amount of money is required.Another option is real animals but they also cost high because of their maintenance.As they need extra care and a trainer too.But I hope our producers and directors notice this change and try to make more films by using 3D or VFX if not real animals.So,that we will be able to see some good films in future.
filmo me janwaron ko dhiek kr luft uthane se accha hoga ki hm unki lupt hoti ja rhe prajtiyon ko bachane ki sochen. agar sahi mayene me hm janwaron se pyar krte hai tho unke natural habitat ko preserve karen. kyonki bharat desh me filme matre ek manoranjan ka zariya mani jati hai. film dhiekte waqt tho hm log bht bhavuk ho jate hai aur badi badi baate krne lagte hai ki ye galat hai aur hmne isse badalna chaiye, par guzarte samaye ke sath hm unn muddon ko bhool jate hai.. haal me ayi film pink ki hi baat ki jaye tho jaise hi iss movie ka zikar ata hai waise sab hi ek taraf se ladkiyon ki pareshaniyon ki baat krne lag jate hai par kya sach me unke mann me ladkiyon ke prati izzat hoti hai ? main ye nai kehta ki iss aise log kisi aur ke samne apni safai de, bas ek sawal jo woh khud apne aap se kre ki kya road pe jarai kisi ladki ke prati unhone kabi kuch galat nai socha. duniyan me do type ki badlav hote hai, ek tho woh badlav hai jo log chilla chilla ke, jata jata ke logo ko sunane ki koshish krte hai aur dusra woh badlav hai jo kisi ke certificate ka mohtaj nai hota kyonki woh apne andar mehsoos krne ka badwal hota hai jo hmko sahi rah dhiekta hai.
aaj ke daur me jo bhi film banai jati hi vah matra byavsaik parpaj se hoti hai.Aaj ka byakti janvari ko mahatva nahi deta agar film me janvaro ke role ko dikhaya jay to janvaron palane aur unake prati lagav ,jagrukta paida ho sakti hai.
Iska ek udaharn to aaj bhi hamare samne hai
Aaj pure bharat desh me nare jor sor se lagaye ja rahe hai ki. "Gay hamari mata hai" . Or iska jo bahiskar kare or jo ispar Atyachar karega vo desh drohi hi . Kya nare lagane se hi sab ho jayega kya hamara ye farj nhi banta ki ham Gay ko pale or unki dekh bhal kare lekin koi nhi ye karna chahta . Kyoki aaj inshan itna shworthi ho gya hai ki vo apne shwarth k aage apno ko chor deta hai . To janwaro ka sath kaise chahega . Yahi karan hai jo aaj kal ki filmo se janwar gayab ho rahe hai ye filmo se nhi balki hamare bich se bhi gayab ho rahe hai .
Iska ek udaharn to aaj bhi hamare samne hai
Aaj pure bharat desh me nare jor sor se lagaye ja rahe hai ki. "Gay hamari mata hai" . Or iska jo bahiskar kare or jo ispar Atyachar karega vo desh drohi hi . Kya nare lagane se hi sab ho jayega kya hamara ye farj nhi banta ki ham Gay ko pale or unki dekh bhal kare lekin koi nhi ye karna chahta . Kyoki aaj inshan itna shworthi ho gya hai ki vo apne shwarth k aage apno ko chor deta hai . To janwaro ka sath kaise chahega . Yahi karan hai jo aaj kal ki filmo se janwar gayab ho rahe hai ye filmo se nhi balki hamare bich se bhi gayab ho rahe hai .
इसका एक कारण बढ़ता हुआ शहरी करण और जंगलों का विनाश भी है.
इसका एक कारण बढ़ता हुआ शहरी करण और जंगलों का तेजी से विनाश भी है.
इसका कारण बढ़ता हुआ शहरी करण और जंगलों का तेजी से होता विनाश भी एक कारण है.
It is a very unique and most important aspect which has been brought to some light n therefore to discuss on it becomes important.
But it is also because the audience waking into the cinemas are very much interested into seeing love stories n sensational things in comparison to animals, biopics , mythological movies n stuff.
They are only interested to watch romance thrill actions.
Therefore according to the needs the storyline is being set and movies earn handsome amount.
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