भारतीय लोकतंत्र में कोई भी चुनाव बगैर नारों के सम्पन्न नहीं हो सकते| नारे न तो कविता हैं न ही कहानी ,इन्हें साहित्य की श्रेणी में रखा गया है |पर वे नारे ही हैं जो लोगों को किसी दल और उसकी सोच को जनता के सामने लाते हैं | नारों को अगर परिभाषित करना हो तो कुछ यूँ परिभाषित किया जा सकता है, राजनैतिक, वाणिज्यिक, धार्मिक और अन्य संदर्भों में, किसी विचार या उद्देश्य को बारंबार अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त एक यादगार आदर्श वाक्य या सूक्ति को नारा कहा जाता है| इनकी आसान अभिव्यक्ति विस्तृत विवरणों की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती है और इसलिए शायद वे अभीष्ट श्रोताओं के लिए प्रक्षेपण की बजाय, एकीकृत उद्देश्य की सामाजिक अभिव्यक्ति के रूप में अधिक काम करते हैं| देश के चार राज्यों में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है|ये विधानसभा चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इनके तुरंत बाद लोकसभा चुनाव की बारी आ जायेगी ,तो इस तरह से पांच साल में आने वाला चुनावी नारों का दौर लौट आया है लेकिन सभी राजनैतिक पार्टियों के नारों में न मौलिकता है न प्रयोगधर्मिता |दलों के भावी शासन का दर्शन भी नदारद है इससे ये पता पड़ता है कि हमारे राजनैतिक दल विचारों के दिवालियापन का शिकार हो चुके हैं |ये विचारों का दिवालियापन ही है कि ज्यादातर नारे फिल्मी गानों की तर्ज़ पर या उनके इर्द गिर्द रचे जा रहे हैं या फिर पूर्व प्रचलित नारों के शब्दों में थोडा हेर फेर कर दिया जा रहा है | सोशल मीडिया के आगमन ने चुनाव लड़ने के तौर तरीकों पर भी असर डाला है |तकनीक की सर्वसुलभता ने राजनैतिक दलों की लोगों तक पहुँच आसान कर दी है पर इस चक्कर में मौलिकता का पतन हुआ है |चुनाव के समय में दलों का चरित्र हनन और मज़ाक उडाना अब आम बात हो गयी है |सन्दर्भ से कटे हुए वीडियो हों या मजाक उड़ाते मीम या फिर फेक न्यूज यह सब आज के चुनावी तरकश के तीर हैं जिसमें भौंडापन ज्यादा है और चुनावी प्रचार की गरिमा कम |
पहले के चुनाव नारों पर लड़े जाते थे पर अब चेहरों पर लड़े जा रहे हैं|राजनैतिक दल सत्ता में आने के बाद शासन का कैसा चेहरा देंगे जोर इस पर नहीं बल्कि कौन सा चेहरा शासन करेगा जोर इस पर है |जब चेहरे शासन करने लग जाएँ तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि लोकतंत्र में कैसे राजतंत्र प्रवेश कर गया है |नारे तो अभी भी गढे जा रहे हैं लेकिन न तो उनमे वो वैचारिक स्पष्टता और न ही नैतिक प्रतिबद्धता जिससे मतदाता उनसे प्रभावित हो या वोट देते वक्त नारे उसके निर्णय को प्रभावित करें ,गरीबी हटाओ जैसा नारा आज भी लोगों को याद है|भले ही व्यवहार में गरीबी देश से न खत्म हुई हो लेकिन गरीबी जैसे विषय को सरकार की प्राथमिकता जरुर मिली |
भ्रष्टाचार के विरोध में जब पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने कांग्रेस पार्टी छोड़ी तो “राजा नहीं फ़कीर है देश की तकदीरहै” जैसे नारों से उनका स्वागत किया गया और उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू की,भले ही इसके लिए उन्हें अपनी सरकार कुर्बान करनी पडी|कथनी करनी के अंतर की यह कहानी सारी हकीकत खुद बयां कर रही है |अब तो ये आलम है सुबह नेता गण टिकट के लिए किसी दल की लाइन में लगे हैं और वहां से निराश होने पर शाम को किसी और दल की लाइन में लग लिए |
इंदिरा गांधी जहाँ अपने “गरीबी हटाओ” जैसे नारों के लिए जानी जाती हैं वहीं उनके खाते में कुछ ऐसे नारे भी हैं जो आपातकाल की भयावता को बताते हैं "जमीन गई चकबंदी मे, मकान गया हदबंदी में,द्वार खड़ी औरत चिल्लालए, मेरा मर्द गया नसबंदी में” |नारों में आक्रामकता जरुर रहती थी पर राजनैतिक चुहल भी खूब चलती थी |जली झोपड़ी भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल (साठ के दशक में जनसंघ का चुनाव चिह्न दीपक था जबकि कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी थी)इसका जवाब कुछ यूँ दिया गया“इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं”|वहीं आज के नारों को अगर समाजशास्त्रीय नजरिये से देखा जाए तो ये चुनावी नारे कुछ शब्दों का संग्रह मात्र हैं |जिनमे लफ्फाजी ज्यादा है |देश बदलना राज्य बदलना सुनने में भले ही अच्छा लगे पर ये होगा? कैसे इसकी कोई रूपरेखा कोई भी राजनैतिक दल नहीं दे पा रहा है| साठ के दशक में राम मनोहर लोहिया ने जब नारा दिया था,
“सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ” तो ये महज़ नारा नहीं एक बदलाव की पूरी तस्वीर थी| जय प्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति के नारे ने पूरे देश की राजनीति को प्रभावित किया जिसकी चरम परिणिति सरकार परिवर्तन के रूप में सामने आयी |श्रीकांत वर्मा ने अपने संग्रह “मगध” में इसी वैचारिक खाली पन को कुछ यूँ बयान किया था :“राजसूय पूरा हुआ,आप चक्रवर्ती हुए–वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गये हैं,जैसे कि यह –कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,कोसल में विचारों की कमी है |राजनीतिक दलों के नारे अक्सर देश का मूड भांपने की किसी दल की क्षमता को स्पष्ट करते हैं| एक अच्छा नारा धर्म, क्षेत्र, जाति और भाषा के आधार पर बंटे हुए लोगों को एक सूत्र में बाँध सकता है|जिनसे एक नागरिक के तौर पर प्राथमिकताएं स्पष्ट होती हैं | लेकिन एक ख़राब नारा राजनीतिक महत्वाकांक्षा को बर्बाद कर सकता है| भारत में राजनीतिक नारों में से कई यादगार रहे हैं| जैसे कि "गरीबी हटाओ", "इंडिया शायनिंग", "जय जवान, जय किसान"|पर आज की राजनीति जैसे विचार शून्यता की शिकार हो चली है | नेता तो आ रहे हैं दल भी बढ़ रहे हैं पर विचार खत्म हो रहे हैं |परिवारवाद हर राजनैतिक दल के लिए एक आवश्यक आवश्यकता हो गया है बची हुई सीटों पर कास्ट और करेंसी जैसे फैक्टर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं|हमें ये बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि नारे किसी भी लोकतंत्र के शासन के प्राथमिक माध्यम हैं ऐसे में नारे अगर विचार केंद्रित ना होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएँ तो हमें समझ लेना चाहिए कि सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा| किसी भी लोकतंत्र में नए विचारों का न आना एक तरह की राजनैतिक शून्यता पैदा कर देता है जो शासन की दृष्टि से उचित नहीं होगा राजनैतिक दल सत्ता में|
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 19/11/2018 को प्रकाशित
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-11-2018) को ."एक फुट के मजनूमियाँ” (चर्चा अंक-3161) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन महान स्वतंत्रता सेनानी महारानी लक्ष्मी बाई और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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