इस भौतिक समाज में बहुत सी ऐसी मनोवैज्ञानिक अवधारणायें हैं जो कल तक इस वर्च्युल दुनिया का हिस्सा नहीं थी पर सोशल मीडिया साईट्स के बढ़ते इस्तेमाल और तकनीकी डेवेलपमेंट ने इन सीमाओं को धीरे –धीरे समाप्त करना शुरू किया और संचार के साथ –साथ भावों को भी व्यक्त करने के तरीके उपलब्ध कराये| पहले हम सोशल मीडिया में अपने गुस्से का इजहार करना चाहें तो हमें इसे लिख कर बताना पड़ता था पर इमोजी के आने से यह आसान हो गया पर ऐसे बहुत से भाव अभी भी छूटे हैं |जिनको व्यक्त करने या महसूस कराने के लिए पर्याप्त संकेतों का अभाव है| ईगो का मसला उसमें से एक है |आज हम एक डिजिटल युग में जी रहे हैं जहां हमारी एक वर्चुअल पहचान है| सोशल मीडिया प्रारंभ में सिर्फ लोगों से मिलने जुलने का साधन भर था पर धीरे धीरे इसकी लोकप्रियता में बढौत्तरी ने इसे एक आवश्यक आवश्यकता वाले माध्यम में बदल दिया और यही से शुरुआत होती है इसका इस्तेमाल करने वाले सिटीजन ,नेटिजन में तब्दील हो गए | ये पहचान अस्थाई है और जैसे ही हम अपना उपकरण फोन या लैपटॉप बंद करते हैं, हमारी ये पहचान खत्म नहीं होती बल्कि उसका अस्तित्व बना रहता है |इसलिए आज लोग अपनी सोशल पहचान के लिए ज्यादा सतर्क रहते हैं |‘डिजिटल ईगो’ इसी आम धारणा को खारिज करता है यानि कंप्यूटर बंद करने के बाद भी हमारी वर्च्युल पहचान अपना काम करती रहती है |
कोरिया एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के सहायक प्रोफेसर जैकब वैन कोक्सविज़ ने अपनी किताब ‘डिजिटल ईगो: वर्चुअल आइडेंटिटी के सामाजिक और कानूनी पहलू’ में इसको परिभाषित करते हुए लिखते हैं | वर्चुअल पहचान किसी इंसान की महज एक ऑनलाइन पहचान नहीं है बल्कि ये एक नई तकनीकी और सामाजिक घटना है|मान लीजिये कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा संचालित सॉफ्टवेयर एजेंट डिजिटल मार्केटप्लेस में आपकी ओर से काम करना शुरू कर दें तो क्या होगा? इन वर्चुअल एजेंट द्वारा किए गए निर्णयों के कानूनी परिणाम क्या हो सकते हैं?बाजार, राजनीति और संस्कृति से प्रभावित होकर साइबरस्पेस, हमारी मूर्त दुनिया की तुलना में, एक हाईली रेगुलेटेड दुनिया बनता जा रहा है, जहां हमारे आचरण को ज्यादा सख्ती से कंट्रोल किया जाएगा|कोक्सविज़ वर्चुअल आइडेंटिटी के सामाजिक और कानूनी पहलुओं की एक विस्तृत श्रृंखला को संबोधित करते हैं| जैसे कि असल दुनिया की कानूनी प्रणालियों में वर्चुअल परिवेश की स्थिति, तथा वर्चुअल व असल पहचान में अंतर |
हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की ओर बढ़ रहे हैं जहां गैर-मानवीय वर्चुअल आइडेंटिटी की संभावनाएं बढ़ती हुई नजर आ रही हैं| इसमें मीडिया आउटलेट्स,विज्ञापन प्रंबंधक तथा सामान्य कंप्यूटर उपयोगकर्ता अहम भूमिका निभा रहे हैं|
हमारी दुनिया में डिजिटल ईगो पनपता कैसे है? लोगों की वर्चुअल स्पेस पर निर्भरता बढ़ती जा रही है| सोशल मीडिया के हम आदी होते जा रहे हैं| ऐसे में जब हम किसी को या कोई हमें इस मंच पर नकारता है, वहीं से इस डिजिटल ईगो का जन्म होता है|विशेषज्ञों का मानना है कि सोशल नेटवर्क पर अस्वीकृति आमने-सामने के टकराव से भी बदतर हो सकती है क्योंकि लोग आमतौर पर ऑनलाइन होने की तुलना में आमने-सामने ज्यादा विनम्र होते हैं।हम कोई स्टेट्स किसी सोशल मीडिया प्लेटफोर्म पर डालते हैं और देखते हैं कि अचानक उसमें कुछ ऐसे लोग स्टेट्स के सही मंतव्य को समझे बगैर टिप्पणियाँ करने लगते हैं जिनसे हमारी किसी तरह की कोई जान पहचान नहीं होती |यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया होती है जिसमें ईगो का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है |ये स्थिति घातक भी हो सकती है| डिजिटल ईगो को पहचान पाना आसान नहीं है| हम ये आसानी से नहीं समझ सकते कि इंटरनेट व सोशल मीडिया पर अवहेलना क्या वास्तविक है या इसके पीछे और कोई और वजह छिपी है|
परत दर परत इसको समझने की कोशिश करते हैं| मान लीजिए मैंने अपने एक मित्र को फेसबुक पर मैसेज किया| मुझे ये दिख रहा है कि वो मैसेज देखा जा चुका है| लेकिन वहां से कोई जवाब नहीं आ रहा है| तो मैं ये मान लेता हूं कि मेरे वह मित्र मुझे नजरंदाज़ कर रहा है|जबकि वास्तविकता में ऐसा न हो सकता है कि उसके पास जवाब देने का वक्त न हो| या फिर उसका अकाउंट कोई और ऑपरेट कर रहा हो| बिना इन बिंदुओं पर विचार किए मेरा किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना अनुचित है।
ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर हमारे चेहरे के भाव नहीं दिखते, कोई आवाज का लहजा नहीं होता| ऐसे में किसी भी ई-मेल की गलत व्याख्या करना आसान हो जाता है| इसलिए यहां किसी से भी जुड़ते समय शब्दों के चुनावों में और भाव-भंगिमाओं के संकेत देने में बहुत स्पष्ट रहना चाहिए |यहीं से ई डाउट की शुरुआत होती है ऐसा शक जो हमारी वर्च्युल गतिविधियों से पैदा होता है जिनका हमारे वास्तविक जीवन से कोई लेना देना नहीं होता है |
यही चीज हमें मशीन से अलग करती है| आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की तकनीक पूरी तरह से मशीन पर निर्भर है| एक बार जो कमांड दे दिया गया उसी के अनुरूप हर स्थिति की व्याख्या की जाएगी| अब जब ये दुनिया इसी तकनीक पर चलने वाली है तो समय आ गया है कि हम मानव व्यवहार की हर स्थिति की पुनर्व्याख्या करें| आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हमें मानव स्वभाव पर और गहराई से अध्ययन करने को प्रेरित करता है|
हमारा ईगो डिजिटल युग को पसंद क्यों करता है क्योंकि यह व्यक्तिवाद को बढ़ावा देता है जिसमें शामिल है ‘आई’’ ‘मी’ और “माई” “आई-फोन” जिसमें सामूहिकता की कहीं कोई जगह नहीं है और शायद इसीलिये लोगों ज्यादा से ज्यादा लाईक्स,शेयर और दोस्त वर्च्युल दुनिया में पाना चाहते हैं |यह एक और संकट को जन्म दे रहा है जिससे लोग अपने वर्तमान का लुत्फ़ न उठाकर अपने अतीत और भविष्य के बीच झूलते रहते हैं | अपनी पसंदीदा धुन के साथ हम मानसिक रूप से अपने वर्तमान स्थिति को छोड़ सकते हैं और अपने अस्तित्व को अलग डिजिटल वास्तविकता में परिवर्तित कर सकते हैं|वैसे भी ईगो के लिए वर्तमान के कोई मायने नहीं होते हैं| ईगो मन अतीत के लिए तरसता है क्योंकि ये आपको परिभाषित करता है| ऐसे ही ईगो अपनी किसी आपूर्ति के लिए भविष्य की तलाश में रहता है| हमारे डिजिटल उपकरण वर्तमान से बचने का बहाना देते हैं|फेसबुक जैसी तमाम सोशल नेटवर्किंग साईट्स की सफलता के पीछे हमारे दिमाग की यही प्रव्रत्ति जिम्मेदार है |जब हम कहीं घूमने जाते हैं तो प्राकृतिक द्रश्यों की सुन्दरता निहारने की बजाय हम तस्वीरें खिंचाने में ज्यादा मशगूल हो जाते हैं और अपने वर्तमान को पीछे छोड़कर भविष्य में उस फोटो के ऊपर आने वाले कमेन्ट लाईक्स के बारे में सोचने लग जाते हैं | डिजिटल ईगो जब हमारे रोजमर्रा का हिस्सा हो जाएगा तब हम पूरी तरह वर्चुअल हो चुके होंगे| स्मार्टफोन कल्चर आने से आज परिवार में संवाद बहुत कम हो रहा है| तकनीकी विकास से हम पूरी दुनिया से तो जुड़े हैं लेकिन पड़ोस की खबर नहीं रख रहे हैं|
हमारा सामाजिक दायरा तेजी से सिमट रहा है और आपसी सम्बन्ध जिस तेजी से बन रहे हैं उसी तेजी से टूट भी रहे हैं | हमारी पूरी दुनिया वर्चुअल होती जा रही है| ऐसे में हमें मानव स्वभाव पर पूरा अध्ययन कर डिजिटल ईगो का निवारण करना पड़ेगा ताकि जब डिजिटल संचार ही सर्वोपरि हो जाए तब हम संदेशों की गलत व्याख्या करने से बच सकें|
दैनिक जागरण /आईनेक्स्ट में 23/07/19 को प्रकाशित