Friday, February 12, 2021

मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर

 कोविड महामारी ने मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे की तरफ सारी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा है और भारत भी इसमें अपवाद नहीं है लेकिन तस्वीर का दूसरा रुख यह भी है कि सरकार के पास कुल मानसिक स्वास्थ्य पेशवरों का कोई आंकडा उपलब्ध नहीं है |स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने राज्यसभा में बताया कि सरकारी और निजी क्षेत्रों में मानसिक स्वास्थ्य पेशवरों जिसमें मनोचिकित्सक भी शामिल हैं,के आंकड़े सरकार  केन्द्रीय रूप में नहीं रखती है | एक स्वस्थ तन में ही स्वस्थ  मस्तिष्क का वास होता है पर अगर  मष्तिस्क स्वस्थ नहीं होगा तो तन भी बहुत जल्दी रोगी हो जाएगा |शरीर में अगर कोई समस्या है तो जीवन के बाकी के कामों पर सीधे असर पड़ता है और इसे जल्दी महसूस किया जा सकता है पर बीमार मस्तिष्क  के साथ ऐसा नहीं होता  है |

 विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2019 के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत की 7.5 प्रतिशत जनसंख्या मानसिक स्वास्थ्य विकारों से पीड़ित है,जिनमें अवसाद प्रमुख है और कोविड महामारी के पश्चात निश्चित तौर पर इस संख्या में बढ़ोत्तरी हुई होगी |मानव संसाधन के लिहाज से ऐसे आंकड़े किसी भी देश के लिए अच्छे नहीं कहे जायेंगे|मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ मामला अवसाद का हैअवसाद से पीड़ित व्यक्ति भीषण दुःख और हताशा से गुजरते हैं|उल्लेखनीय है कि ह्रदय रोग और मधुमेह जैसे रोग अवसाद के जोखिम को तीन गुना तक बढ़ा देते हैं|समाज शास्त्रीय नजरिये से देखा जाए तो यह प्रव्रत्ति हमारे सामाजिक ताने बाने के बिखरने की ओर इशारा कर रही है|बढ़ता शहरीकरण और एकल परिवारों की बढ़ती संख्या लोगों में अकेलापन बढ़ा रहा है और सम्बन्धों की डोर कमजोर हो रही हैबदलती दुनिया में विकास के मायने सिर्फ आर्थिक विकास से ही मापे जाते हैं यानि आर्थिक विकास ही वो पैमाना है जिससे व्यक्ति की सफलता का आंकलन किया जाता है जबकि सामाजिक  पक्ष को एकदम से अनदेखा किया जा रहा हैशहरों में संयुक्त परिवार इतिहास हैं जहाँ लोग अपने सुख दुःख बाँट लिया करते थे और छतों का तो वजूद ही ख़त्म होता जा रहा हैफ़्लैट संस्कृति अपने साथ अपने तरह की समस्याएं लाई हैं जिसमें अकेलापन महसूस करना प्रमुख है |

इसका निदान लोग अधिक व्यस्ततता में खोज रहे हैं नतीजा अधिक काम करना ,कम सोना और टेक्नोलॉजी पर बढ़ती निर्भरता सोशल नेटवर्किंग पर लोगों की बढ़ती भीड़ और सेल्फी खींचने की सनक इसी संक्रमण की निशानी है जहाँ हम की बजाय मैं पर ज्यादा जोर दिया जाता है | आर्थिक विकास मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर किया जा रहा है |

इस तरह अवसाद के एक ऐसे दुश्चक्र का निर्माण होता है जिससे निकल पाना लगभग असंभव होता है |अवसाद से निपटने के लिए नशीले पदार्थों का अधिक इस्तेमाल समस्या की गंभीरता को बढ़ा देता हैभारत में नशे की बढ़ती समस्या को इसी से जोड़कर देखा जा सकता है |आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों में यह समस्या ज्यादा देखी जा रही है |जागरूकता की कमी भी एक बड़ा  कारण है,मानसिक स्वास्थ्य कभी भी लोगों की प्राथमिकता में नहीं रहा है | मानसिक समस्याओं को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता इस दिशा में सांस्थानिक सहायता की भी पर्याप्त आवश्यकता है|

मेंटल हेल्थ केयर एक्ट 2017 के मुताबिक़ जिसमें इस बात का प्रावधान है कि एक केन्द्रीय प्राधिकरण नैदानिक मनोचिकित्सक,मानसिक स्वस्थ नर्सों,मनोरोगी देखभाल सामाजिक कार्यकर्ता का आंकड़ा रखेगा| सारे रजिस्टर्ड मानसिक स्वास्थ्य पेशवरों का आंकड़ा इस उद्देश्य से राज्यों द्वारा उपलब्ध कराया जाएगा कि इस सूची को इंटरनेट और अन्य जगहों पर प्रकाशित किया जायेगा |यह एक्ट मनोचिकित्सक, मनोरोगी देखभाल सामाजिक कार्यकर्ता (psychiatric social workers), नैदानिक मनोचिकित्सक के बीच अंतर जरुर  स्पष्ट करता है लेकिन आमतौर पर समझे जाने वाले शब्द साइको थेरपिस्ट और परामर्शदाता (counselor) के बीच अंतर नहीं परिभाषित करता है |

यह उलझन मंत्रालयों के बीच भी है जहाँ नैदानिक मनोचिकित्सक को पुनर्वास पेशेवरों की तरह माना जाता है और उन्हें सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय के अधीन भारतीय  पुनर्वास परिषद् में अपना पंजीकरण करवाना होता है |देश में कोई भी नैदानिक मनोचिकित्सक भारतीय  पुनर्वास परिषद् के केन्द्रीय पंजीकरण के बिना प्रैक्टिस नहीं कर सकता |

एक ऐसा देश जहाँ मानसिक स्वास्थ्य की समस्या लगातार गहराती जा रही है और जहाँ दस हजार की आबादी में मात्र दो मानसिक स्वास्थ्य बिस्तर उपलब्ध हों वहां मेंटल हेल्थ सोहल वर्कर ,थेरेपिस्ट और काउंसलर सामुदायिक स्वास्थ्य में एक पुल की भूमिका निभा सकते हैं |माना जाता है किसी भी रोग का आधा निदान उसकी सही पहचान होने से हो जाता है |रोग की पहचान हो चुकी है भारत इसका निदान कैसे करेगा इसका फैसला होना अभी बाकी है |

 अमर उजाला में 12/02/2021 को प्रकाशित 

 

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