Thursday, April 7, 2022

अनछुए पहलुवो को उभारता हिन्दी सिनेमा

 स्त्रैण  हाव भाव वाले पुरुष चरित्र हिन्दी फिल्मों में हमेशा हास्य पैदा करने के माध्यम रहे हैं|चाहे वो शोले का वह कैदी हो जय वीरू को जेलर के खबरी का पता देता हो या  बोल बच्चन में अब्बास अली  हो या फिर  गैंग्स ऑफ वासेपुर में आइटम बॉय का चरित्र | ये तीनो  फ़िल्में अलग अलग दर्शक वर्ग के लिए अलग अलग समय में बनाई गयीं पर तीनों  में एक समानता हैवो है समलैंगिक किरदार|रिश्तों को अपनी कहानियों का हिस्सा बनाता आया हिंदी सिनेमा पिछले सालों में  काफी  बोल्ड हुआ और ऐसे अनछुए पहलूओं को सिनेमा के परदे  पर दर्शकों के सामने परोसने का साहस कर पाया। इन फिल्मों में रिश्तों की उलझन जटिलता उसका मर्म और दिल में दबे रहने वाले ऐसे जज्बातों को गूंथा गया जिसे आम तौर पर सभी के सामने कहने की हमारे समाज में परंपरा कभी नहीं रही है।  कुछ ने उसे अश्लीलता कहते हुए नकार दिया लेकिन सच को समाज का हिस्सा मानने वालों ने उस पर अपनी पसंद की मुहर भी लगाई।अभी रिलीज हुई फिल्म बधाई दो इसी कड़ी में एक शानदार पहल है | हिंदी सिनेमा अब केवल शादीब्याहप्रेम कहानियों में बताए जाने वाले रिश्तों तक सीमित नहीं रहना चाहता। संवेदनशील विषयों को कहने से हम अब भी झिझकते हैं.खास तौर पर वह जो हमारे समाज का छिपा सच हैं। बोल्ड का मतलब केवल अभिनेता-अभिनेत्री के अंतरंग दृश्य नहीं हैंरिश्तों की बारीकी भी है। 1990 से हिंदी सिनेमा में कथ्य और शिल्प के स्तर पर प्रयोगधर्मिता बढी है।सहजीवन,समलैंगिकता पुरूष स्ट्रीपर्स सेक्स और विवाहेतर संबंध और प्यार की नई परिभाषा से गढ़ी कहानियां फिल्मों के नए विषय हैं।जिस तेजी से समाज बदल रहा है. उतनी तेजी से फिल्मों में ये विषय नहीं आ रहे हैं।समलैंगिकता समाज का सच है पर इस मुद्दे की गंभीरता को अभी भी समझा नहीं जा रहा है इंसानी समाज का ये पक्ष अभी भी बहस के मुद्दे से दूर है | सेक्‍स को हमेशा प्रमुखता से प्रस्तुत  करने वाली हमारी फिल्मों में (कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाएतो बॉलीवुड में यौन विषयों पर आधारित तार्किक फिल्‍में कम ही बनी हैं) यह तथ्य अलग है कि आइटम डांस का तडका लगाये बिना  कोई फिल्म पूरी नहीं होती और फिल्म निर्माता हमेशा इस विषय से भय ही खाते रहे है।

मगर कुछ निर्देशक ऐसे हैं जिन्होंने समलैंगिकता जैसे संवेदनशील मुददे पर काम किया है|खासकर युवाओं ने जिन्हें समाज में वर्जित माने जाने वाले मुददों को दिखाने से कोई गुरेज नहीं। फिल्मों में गे और लेस्बियन किरदारों को या तो प्रोटागोनिस्ट दोस्तों की तरह दिखाया जाता है या फिर ड्रेस-डिजाइनर के किरदार में। समय के साथ और दर्शकों की रुचि देखते हुए बॉलीवुड खुले तौर पर सामने आ रहा है। फायरमाई ब्रदर निखिलदोस्तानाफ्रेंडशिप,फैशन  और पेज ३ में समलैंगिकों के लिए समाज का नजरिया दिखाने की कोशिश की गई है।कुछ फिल्मों ने समलैंगिकों के लिए आम आदमी का नजरिया बदला है फिर भी समाज का एक बड़ा तबका उन्हें असामान्य ही मानता है।फिल्मों में समलैंगिक किरदारों को स्वीकार तो किया जा रहा है लेकिन उन्हें ज्यादातर फैशन या मीडिया जगत से जुड़ा दिखाया जाता है।इस विषय की पहली मेनस्ट्रीम हिंदी मूवी ओनीर निर्देशित माय ब्रदर निखिल रही है|फिल्म 'बॉम्बे टॉकीज़में करण जौहर की कहानी में रणदीप हुड्डा और साकिब सलीम का प्रसंग, 'कपूर एंड सन्समें फव्वाद ख़ान का किरदारकल्कि की 'मार्गरीटा विद स्ट्रॉसहित कई फिल्मों में रिश्तों को गंभीरता से दिखाया गया|

 निर्देशक करण राजदान की गर्लफ्रेंड में लेस्बियन रिश्तों पर फोकस है। करण जौहर निर्देशित दोस्ताना गे-कॉमेडी थी। यह फिल्म दर्शकों को काफी रास आई यह फिल्म इसलिए भी चर्चित रही कि इसमें पहली बार दो पुरुषों के चुम्बन द्रश्य को दिखाया गया । लेस्बियन लव स्टोरी 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगाफिल्म में इस तरह के  रिश्ते को लेकर स्पष्टता और निडरता देखी जा सकती है | आयुष्यमान खुराना और जितेन्द्र कुमार की 'शुभ मंगल ज्यादा सावधानभी इसी दिशा में समाज की बदलती सोच को दिखाने में सफल रही|

 बहुत से फिल्म निर्माता समलैंगिकता को केवल हास्य के रूप में इसलिए रखते हैं ताकि उन्हें फिल्म की रिलीज के दौरान दिक्कत न हो इसलिये फिल्मों में ऐसे चरित्र तो बढ़ रहे हैं जिनके हाव भाव समलैंगिकों वाले हैं पर उनकी यौन रूचि पर सीधे कोई बात नहीं की जाती और फिल्मों के कथ्य में वो महज मजाक बन कर रह जाते हैं|भले ही फिल्मों का विषय और प्रस्तुति काल्पनिक हो लेकिन कोई भी फिल्म अपने समय से निरपेक्ष नहीं रह सकती हर फिल्म पर उस समय का असर जरुर होता है जिस समय वह निर्मित की जा रही होती हैसमलैंगिक किरदारों को हास्य के साथ प्रस्तुत करना समाज में उनके प्रति गलत छवि का निर्माण करता है |यह समलैंगिकों के साथ अन्याय भी है ।लिसा रे और शीतल सेठ की आइ कांट थिंक स्ट्रेट स्त्री समलैंगिकता पर आधारित थी। शमीम शरीफ निर्देशित फिल्म में दोनों अभिनेत्रियां अपनी यौन पहचान समझने की कोशिश में रहती हैं। फिल्म् “डू नो वाय... न जाने क्यों” पुरुषों के समलैंगिक रिश्तों की कहानी है। जो विषमलैगिक ढांचे के अनुसार नहीं चलते हैंपश्चिमी देशों में पुरुष और स्त्री को अपने सेक्स रिश्ते के चुनाव की पूरी आजादी हैं। इसे विचार अभिव्यक्ति का ही हिस्सा माना जाता है पर भारत में स्थिति अलग है|यहाँ सेक्स अभी भी टैबू है जिस पर बात करना वर्जित है | हम भारत से बाहर की फिल्में देखकर ऐसे बोल्ड विषयों को कहने के साहस पर खुश होते है लेकिन वही काम अगर भारत में हो तो पचा नहीं पाते। निर्देशकों के चरित्र उसकी प्रवृत्ति पर सवाल खड़े का कर देते हैं।साल 2015 में  आई मनोज बाजपेयी की अलीगढ़ ने समलैंगिकता पर चल रही बहस को न सिर्फ एक नया मोड़ दिया बल्कि यह इस मामले में हिन्दी  सिनेमा के गंभीर  हो जाने की दिशा में बड़ा हस्तक्षेप  था |

 समलैंगिकों की  स्थिति का काफी दस्तावेजीकरण हो रहा हैजिनसे पता चलता है कि गे ,लेस्बियन हिजडाट्रांसजैन्डर्डऔर बाईसेक्स्युअल लोगों की मानव प्रतिष्ठा का बार-बार किस प्रकार उल्लंघन किया जाता है। उल्लंघनों का क्षेत्र व्यापक है। किन्नरों का सेक्स रैकेट के रूप में प्रयोग और पुलिसवालों द्वारा उनके बार-बार बलात्कार की घटनाएं हैं और उनके मानवाधिकारों का हनन भी शामिल है ।बहरहाल समलैंगिकता पूरी दुनिया में हमेशा मौजूद रही है परंतु इसे हमने सामाजिक कालीन के नीचे छिपा दिया था जो अब प्रकट हो रहा है। हाल ही में ऐसी फिल्मों की बढ़ती तादाद और प्रमुख अभिनेताओं द्वारा समलैंगिक किरदारों का निभाया जाना इस ओर इशारा करता है कि बॉलीवुड भी इस गंभीर मुद्दे की ओर उन्मुख है। समलैंगिकता को देश में कानूनी मान्यता मिल गई है तो उम्मीदें भी बढ़ी हैं। अब देखना दिलचस्प होगा कि हिंदी फिल्मकार किस तरह से इसको अपने विषयों का हिस्सा बनाते हैं। क्या वह दबी आवाजें कुचले रिश्ते संबंधों की कसमसाहट और समाज की नैतिकता किस चोले में रजत पटल का हिस्सा बनेगी|

 दैनिक जागरण में 07/04/2022 को प्रकाशित 

Tuesday, April 5, 2022

रेखाएं बेहद अहम हैं

 


नवरात्रि में घर की सफाई में एक पुरानी किताब मिली जानते हैं उसका विषय था ज्योमेट्री जी हाँ रेखा गणित और क्या कुछ आँखों के आगे घूम गया वो स्कूल के दिन वो एल एच एस इस ईक्युल टू आर एच एस और इतिसिद्धम. तब लगता था हम ये सब क्यूँ पढते हैं वैसे भी गणित मुझे बहुत बोर करती थी. जिंदगी तो आगे बढ़ चली पर अब समझ आ रहा है जीवन में रेखा का क्या महत्व हैक्योंकि इसी पर जिंदगी का गणित टिका हुआ है. रेखा मतलब लाइनलिमिट ,सीमा या फिर कुछ आड़ी तिरछी सीधी पंक्ति वैसे इनका कोई मतलब नहीं है पर इन्हें सिलसिलेवार लगा दिया जाए तो किसी के घर का नक्शा बन जाता है. तो कोई कुछ ऐसा जान जाता है जिसे कल तक कोई नहीं जानता था.रेखा ही है वो टूल है जिससे आप अपने सपनों को वास्तविकता का जामा पहना सकते हैं पर ये ध्यान रहे कि उस रेखा का डायरेक्शन किस तरफ है क्योंकि वो चाहे गणित का सवाल हो या जिंदगी की उलझन काफी कुछ आपके दिमाग के डायरेक्शन पर निर्भर करता है.

विषय कोई भी हो चाहे इतिहासभूगोल गणित या फिर साहित्य बगैर रेखाओं के इनका कोई अस्तित्व नहीं है अब देखिये ना लिपि या स्क्रिप्ट भी तो कुछ रेखाओं का कॉम्बिनेशन है यानि दुनिया को समझने के लिए हमें रेखाओं की जरुरत है. इतिहास में समयरेखा है तो भूगोल में अक्षांश और भूमध्य जैसी रेखाएं. कॉपियों में लिखने का अभ्यास पहले लाईनदार पन्नों से होता है बाद में जब हम अभ्यस्त हो जाते हैं तो उनकी जगह सफ़ेद पन्ने ले लेते है और तब हम कितनी भी जल्दी क्यूँ ना लिखें शब्द अपनी जगह से नहीं भागते. वे उसी तरह लिखें जाते हैं जैसे हम लाईनदार कॉपियों में लिखते हैं.

क्यूँ कुछ तस्वीर साफ़ हो रही है.जीवन में इन रेखाओं का कितना बड़ा दायरा है वो जीवन की रेखा से लेकर गरीबी रेखा तक देखा और समझा जा सकता है. जीवन  में स्वछंदता और उन्मुक्तता मौज मस्ती अच्छी है पर उसकी एक सीमा होनी चाहिए और इस रेखा को हमें ही खींचना चाहिए. त्यौहार  हमें जश्न मनाने का जहाँ  मौका देते हैं. वहीं ये भी बताते हैं कि जीवन महज मौजमस्ती का नाम नहीं बल्कि समाज में हमारा सकारात्मक योगदान  भी  है.महत्वपूर्ण है कि ये बात कोई दूसरा हमें ना बताये क्योंकि सेल्फ रेग्युलेशन,खुद  से ही आता है और यही सेल्फ रेग्युलेशन जो हमें अनुशासित करता है.जब हम दूसरे की सीमाओं का सम्मान करेंगे तो लोग खुद ब खुद हमें अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र छोड़ देंगे पर हम ये सोचें कि हम सबके बारे में कुछ भी गॉसिप कर सकते हैं पर कोई हमारे बारे में कोई कुछ नहीं बोलेगा ऐसा होना मुश्किल है. सफल होने की कोई सीमा नहीं है पर ख्वाब अगर हकीकत के आइने में देखें जाएँ तो उनके सफल होने की गुंजाईश ज्यादा होती है. मतलब अपनी सीमाओं को जानकर उसके हिसाब से जब योजनाएं बनाई जाती हैं तो वो निश्चित रूप से सफल होती हैं. तो मुझे तो अपनी सीमाओं  का अंदाजा है और अपनी जीवन रेखा को इसी तरह बना रहा हूँ कि मेरी जिंदगी के कुछ मायने निकले पर आप क्या कर रहे हैं यह जरुर बताइयेगा.

प्रभात खबर में 05/04/2022 को प्रकाशित 

 

Friday, April 1, 2022

फैसलों का लम्बा खिंचता इन्तजार

 विधि द्वारा स्थापित व्यवस्था में जेल(कारागार) किसी भी अपराध का दंड है यानि जेलतंत्र का वो अंग है जो इस दर्शन पर आधारित है कि अपराधियों को समाज से दूर रखकर एक ऐसा वातावरण दिया जाए जहाँ वह आत्म चिंतन कर सकें ,पर  क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है

सरकार ने लोकसभा में 25 मार्च  को जानकारी दी है कि देश की विभिन्न अदालतों में 4|70 करोड़ से अधिक मुकदमे अटके हुए हैंसुप्रीम कोर्ट में ही 70,154 मुकदमे लंबित हैदेश की 25 हाईकोर्ट में भी 58 लाख 94 हजार 60 केस अटके हुए हैंइन लंबित मुकदमों की संख्या दो मार्च तक की है| इनमें से कुछ मामले पचास साल से भी ज़्यादा पुराने हैं|भारत में जेल सुधारों की  त्वरित आवश्यकता है |जिसका एक बड़ा कारण लंबित मुकदमों का बढ़ना ,न्यायाधीशों की कमी और सभी जेलों का क्षमता से ज्यादा भरा होना है|जिसका परिणाम कैदियों के खराब  मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के रूप में आ रहा है|जेल में यंत्रणा आम है| राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट  ‘जेल सांख्यिकी भारत 2020' के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिकभारत की जेलों में बंद हर चार में से तीन कैदी ऐसे हैं जिन्हें विचाराधीन कैदी के तौर पर जाना जाता हैदूसरे शब्दों में कहेंतो इन कैदियों के ऊपर जो आरोप लगे हैं उनकी सुनवाई अदालत में चल रही हैअभी तक इनके ऊपर लगे आरोप सही साबित नहीं हुए हैं|रिपोर्ट में यह जानकारी भी दी गई है कि देश के जिला जेलों में औसतन 136 प्रतिशत  की दर से कैदी रह रहे हैइसका मतलब यह है कि 100 कैदियों के रहने की जगह पर 136 कैदी रह रहे हैंफिलहालभारत के 410 जिला जेलों में 4,88,500 से ज्यादा कैदी बंद हैं| 2020 मेंजेल में बंद कैदियों में 20 हजार से ज्यादा महिलाएं थीं जिनमें से 1,427 महिलाओं के साथ उनके बच्चे भी थेमानवाधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा कि भारत में विचाराधीन कैदियों की संख्या दुनिया भर के अन्य लोकतांत्रिक देशों की तुलना में काफी ज्यादा है|

  31 दिसंबर 2021 तक सरकार के आंकड़ों के मुताबिक़ न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 21.03 है जो  आबादी के अनुपात  को देखते हुए  प्रति दस लाख में करीब 21 न्यायाधीश होता हैउच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 34 और 25 उच्च न्यायालयों में 1098 हैउच्च न्यायालयों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिकदिसंबर 2021 तक 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 898 फास्ट ट्रैक अदालतें काम कर रही हैं न्यायाधीशों की संख्या बढ़ानाउस समस्या के हल का एक पक्ष हो सकता हैजो भारत की खराब जेल व्यवस्था का एक बड़ा कारण है|जजों की संख्या कम होने से जेल में लंबित कैदियों की संख्या बढती जाती|जिस पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है । इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2020 के आंकड़ों के मुताबिक भारत की जेलों में बंद 69 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैंयानी कि भारत की जेलों में बंद हर दस  में से सात  कैदी मुकदमे की सुनवाई पूरी होने के इन्तजार में है | इस समस्या के सामाजिक आर्थिक पक्ष भी हैं |देश में गरीब व्यक्ति के लिए इंसाफ की लड़ाई ज्यादा  कठिन हैजिन्हें अच्छे और महंगे वकील मिल जाते हैं उनकी जमानत आसानी से हो जाती हैबहुत मामूली से अपराधों के लिए भी गरीब लोग लम्बे समय तक जेल में सड़ने को विवश होते हैं|स्वतंत्रता के पचहतर वर्ष के  बाद भी जेलों और कैदियों की दुर्दशा पर किसी ठोस और निर्णायक कार्रवाई का इन्तजार जारी  हैजेलों में भ्रष्टाचारगैरकानूनी गतिविधियांकमजोर और गरीब कैदियों का शोषणभेदभाव और उनसे सांठगांठ और दबंग अपराधियों के लिए सुरक्षित ठिकाने की तरह इस्तेमाल किए जाने के आरोप लगते रहते  हैं|

 आपराधिक मुकदमों  में ज्यादातर के पूरा होने में औसत रूप से तीन से दस साल का समय  लगता हैहालांकि दोष सिद्धि का समय मुकदमों के लिए जेल में बिताए समय  से घटा दिया जाता हैलेकिन इसकी वजह से कई निर्दोषों को बगैर किसी अपराध के जेल की सज़ा काटनी पड़ती है,पिछले दशक में विशेष अपराधों के लिए फास्ट-ट्रैक अदालतों का गठन कर इस मुद्दे को हल करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैंजिससे सुनवाई का इंतज़ार कर रहे लंबित मामलों में कमी आएगी पर फास्ट-ट्रैक अदालतों का गठन समस्या का एकमात्र हल नहीं है |इस व्यवस्था में जोर न्याय की बजाय समय पर होगा जो किसी भी दशा में  उचित नहीं माना जाएगा|दोषी पाए गए अधिकतर  कैदी बहुत गरीब हैंजेलों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपेक्षित मुद्दा हैजिनके अभाव में कई बार कैदी गंभीर रोगों का शिकार हो जाते हैं खासकर एचआईवी पोसिटिव कैदियों को  इलाज के लिए जिला अस्पतालों के भरोसे रहना पड़ता है| यह मानसिकता कि जो जेल में रहते हैं वे सुविधाओं के लायक नहीं हैं।समस्या को और गंभीर बना देती है |सुप्रीम कोर्ट ने जेल सुधारों की सिफारिश करने के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) अमिताभ रॉय की अध्यक्षता वाली समिति देश भर की जेलों की समस्याओं को देख रही है और उनसे निपटने के उपाय सुझा रही है।मार्च की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने इस समिति को अगले छ माह में अपनी रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया है |तब तक जेलों में बंद कैदियों का इन्तजार जारी रहने वाला है |

 अमर उजाला में 01/04/2022 को प्रकाशित 

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