सरकार ने लोकसभा में 25 मार्च को जानकारी दी है कि देश की विभिन्न अदालतों में 4|70 करोड़ से अधिक मुकदमे अटके हुए हैं| सुप्रीम
कोर्ट में ही 70,154 मुकदमे लंबित है| देश की 25 हाईकोर्ट में भी 58 लाख 94 हजार 60 केस अटके हुए हैं| इन लंबित मुकदमों की संख्या
दो मार्च तक की है| इनमें से कुछ मामले पचास साल से भी ज़्यादा पुराने हैं|भारत में जेल सुधारों की त्वरित आवश्यकता है |जिसका एक बड़ा कारण लंबित मुकदमों का बढ़ना ,न्यायाधीशों
की कमी और सभी जेलों का क्षमता से ज्यादा भरा होना है|जिसका
परिणाम कैदियों के खराब मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के रूप में आ रहा है|जेल में यंत्रणा आम है| राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो
(एनसीआरबी) की रिपोर्ट ‘जेल सांख्यिकी भारत 2020' के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, भारत की जेलों
में बंद हर चार में से तीन कैदी ऐसे हैं जिन्हें विचाराधीन कैदी के तौर पर जाना
जाता है| दूसरे शब्दों में कहें, तो इन कैदियों के ऊपर जो आरोप लगे हैं उनकी सुनवाई अदालत में चल रही है| अभी तक इनके ऊपर लगे आरोप सही साबित नहीं हुए हैं|रिपोर्ट
में यह जानकारी भी दी गई है कि देश के जिला जेलों में औसतन 136 प्रतिशत की दर से कैदी रह रहे है| इसका
मतलब यह है कि 100 कैदियों के रहने की जगह पर 136 कैदी रह रहे हैं| फिलहाल, भारत के 410 जिला जेलों में 4,88,500 से ज्यादा कैदी बंद हैं| 2020 में, जेल में बंद कैदियों में 20 हजार से
ज्यादा महिलाएं थीं जिनमें से 1,427 महिलाओं के
साथ उनके बच्चे भी थे| मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली
संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा कि भारत में विचाराधीन कैदियों की संख्या दुनिया
भर के अन्य लोकतांत्रिक देशों की तुलना में काफी ज्यादा है|
आपराधिक मुकदमों में ज्यादातर के पूरा होने में औसत रूप से तीन से दस साल का समय लगता है, हालांकि दोष सिद्धि का समय मुकदमों के लिए जेल में बिताए समय से घटा दिया जाता है, लेकिन इसकी वजह से कई निर्दोषों को बगैर किसी अपराध के जेल की सज़ा काटनी पड़ती है,पिछले दशक में विशेष अपराधों के लिए फास्ट-ट्रैक अदालतों का गठन कर इस मुद्दे को हल करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं, जिससे सुनवाई का इंतज़ार कर रहे लंबित मामलों में कमी आएगी पर फास्ट-ट्रैक अदालतों का गठन समस्या का एकमात्र हल नहीं है |इस व्यवस्था में जोर न्याय की बजाय समय पर होगा जो किसी भी दशा में उचित नहीं माना जाएगा|दोषी पाए गए अधिकतर कैदी बहुत गरीब हैं, जेलों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपेक्षित मुद्दा है| जिनके अभाव में कई बार कैदी गंभीर रोगों का शिकार हो जाते हैं खासकर एचआईवी पोसिटिव कैदियों को इलाज के लिए जिला अस्पतालों के भरोसे रहना पड़ता है| यह मानसिकता कि जो जेल में रहते हैं वे सुविधाओं के लायक नहीं हैं।समस्या को और गंभीर बना देती है |सुप्रीम कोर्ट ने जेल सुधारों की सिफारिश करने के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) अमिताभ रॉय की अध्यक्षता वाली समिति देश भर की जेलों की समस्याओं को देख रही है और उनसे निपटने के उपाय सुझा रही है।मार्च की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने इस समिति को अगले छ माह में अपनी रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया है |तब तक जेलों में बंद कैदियों का इन्तजार जारी रहने वाला है |
अमर उजाला में 01/04/2022 को प्रकाशित
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