Friday, April 1, 2022

फैसलों का लम्बा खिंचता इन्तजार

 विधि द्वारा स्थापित व्यवस्था में जेल(कारागार) किसी भी अपराध का दंड है यानि जेलतंत्र का वो अंग है जो इस दर्शन पर आधारित है कि अपराधियों को समाज से दूर रखकर एक ऐसा वातावरण दिया जाए जहाँ वह आत्म चिंतन कर सकें ,पर  क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है

सरकार ने लोकसभा में 25 मार्च  को जानकारी दी है कि देश की विभिन्न अदालतों में 4|70 करोड़ से अधिक मुकदमे अटके हुए हैंसुप्रीम कोर्ट में ही 70,154 मुकदमे लंबित हैदेश की 25 हाईकोर्ट में भी 58 लाख 94 हजार 60 केस अटके हुए हैंइन लंबित मुकदमों की संख्या दो मार्च तक की है| इनमें से कुछ मामले पचास साल से भी ज़्यादा पुराने हैं|भारत में जेल सुधारों की  त्वरित आवश्यकता है |जिसका एक बड़ा कारण लंबित मुकदमों का बढ़ना ,न्यायाधीशों की कमी और सभी जेलों का क्षमता से ज्यादा भरा होना है|जिसका परिणाम कैदियों के खराब  मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के रूप में आ रहा है|जेल में यंत्रणा आम है| राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट  ‘जेल सांख्यिकी भारत 2020' के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिकभारत की जेलों में बंद हर चार में से तीन कैदी ऐसे हैं जिन्हें विचाराधीन कैदी के तौर पर जाना जाता हैदूसरे शब्दों में कहेंतो इन कैदियों के ऊपर जो आरोप लगे हैं उनकी सुनवाई अदालत में चल रही हैअभी तक इनके ऊपर लगे आरोप सही साबित नहीं हुए हैं|रिपोर्ट में यह जानकारी भी दी गई है कि देश के जिला जेलों में औसतन 136 प्रतिशत  की दर से कैदी रह रहे हैइसका मतलब यह है कि 100 कैदियों के रहने की जगह पर 136 कैदी रह रहे हैंफिलहालभारत के 410 जिला जेलों में 4,88,500 से ज्यादा कैदी बंद हैं| 2020 मेंजेल में बंद कैदियों में 20 हजार से ज्यादा महिलाएं थीं जिनमें से 1,427 महिलाओं के साथ उनके बच्चे भी थेमानवाधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा कि भारत में विचाराधीन कैदियों की संख्या दुनिया भर के अन्य लोकतांत्रिक देशों की तुलना में काफी ज्यादा है|

  31 दिसंबर 2021 तक सरकार के आंकड़ों के मुताबिक़ न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 21.03 है जो  आबादी के अनुपात  को देखते हुए  प्रति दस लाख में करीब 21 न्यायाधीश होता हैउच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 34 और 25 उच्च न्यायालयों में 1098 हैउच्च न्यायालयों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिकदिसंबर 2021 तक 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 898 फास्ट ट्रैक अदालतें काम कर रही हैं न्यायाधीशों की संख्या बढ़ानाउस समस्या के हल का एक पक्ष हो सकता हैजो भारत की खराब जेल व्यवस्था का एक बड़ा कारण है|जजों की संख्या कम होने से जेल में लंबित कैदियों की संख्या बढती जाती|जिस पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है । इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2020 के आंकड़ों के मुताबिक भारत की जेलों में बंद 69 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैंयानी कि भारत की जेलों में बंद हर दस  में से सात  कैदी मुकदमे की सुनवाई पूरी होने के इन्तजार में है | इस समस्या के सामाजिक आर्थिक पक्ष भी हैं |देश में गरीब व्यक्ति के लिए इंसाफ की लड़ाई ज्यादा  कठिन हैजिन्हें अच्छे और महंगे वकील मिल जाते हैं उनकी जमानत आसानी से हो जाती हैबहुत मामूली से अपराधों के लिए भी गरीब लोग लम्बे समय तक जेल में सड़ने को विवश होते हैं|स्वतंत्रता के पचहतर वर्ष के  बाद भी जेलों और कैदियों की दुर्दशा पर किसी ठोस और निर्णायक कार्रवाई का इन्तजार जारी  हैजेलों में भ्रष्टाचारगैरकानूनी गतिविधियांकमजोर और गरीब कैदियों का शोषणभेदभाव और उनसे सांठगांठ और दबंग अपराधियों के लिए सुरक्षित ठिकाने की तरह इस्तेमाल किए जाने के आरोप लगते रहते  हैं|

 आपराधिक मुकदमों  में ज्यादातर के पूरा होने में औसत रूप से तीन से दस साल का समय  लगता हैहालांकि दोष सिद्धि का समय मुकदमों के लिए जेल में बिताए समय  से घटा दिया जाता हैलेकिन इसकी वजह से कई निर्दोषों को बगैर किसी अपराध के जेल की सज़ा काटनी पड़ती है,पिछले दशक में विशेष अपराधों के लिए फास्ट-ट्रैक अदालतों का गठन कर इस मुद्दे को हल करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैंजिससे सुनवाई का इंतज़ार कर रहे लंबित मामलों में कमी आएगी पर फास्ट-ट्रैक अदालतों का गठन समस्या का एकमात्र हल नहीं है |इस व्यवस्था में जोर न्याय की बजाय समय पर होगा जो किसी भी दशा में  उचित नहीं माना जाएगा|दोषी पाए गए अधिकतर  कैदी बहुत गरीब हैंजेलों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपेक्षित मुद्दा हैजिनके अभाव में कई बार कैदी गंभीर रोगों का शिकार हो जाते हैं खासकर एचआईवी पोसिटिव कैदियों को  इलाज के लिए जिला अस्पतालों के भरोसे रहना पड़ता है| यह मानसिकता कि जो जेल में रहते हैं वे सुविधाओं के लायक नहीं हैं।समस्या को और गंभीर बना देती है |सुप्रीम कोर्ट ने जेल सुधारों की सिफारिश करने के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) अमिताभ रॉय की अध्यक्षता वाली समिति देश भर की जेलों की समस्याओं को देख रही है और उनसे निपटने के उपाय सुझा रही है।मार्च की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने इस समिति को अगले छ माह में अपनी रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया है |तब तक जेलों में बंद कैदियों का इन्तजार जारी रहने वाला है |

 अमर उजाला में 01/04/2022 को प्रकाशित 

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