मगर कुछ निर्देशक
ऐसे हैं जिन्होंने समलैंगिकता जैसे संवेदनशील मुददे पर काम किया है|खासकर युवाओं ने
जिन्हें समाज में वर्जित माने जाने वाले मुददों को दिखाने से कोई गुरेज नहीं।
फिल्मों में गे और लेस्बियन किरदारों को या तो प्रोटागोनिस्ट दोस्तों की तरह
दिखाया जाता है या फिर ड्रेस-डिजाइनर के किरदार में। समय के साथ और दर्शकों की
रुचि देखते हुए बॉलीवुड खुले तौर पर सामने आ रहा है। फायर, माई ब्रदर निखिल, दोस्ताना, फ्रेंडशिप,फैशन और
पेज ३ में समलैंगिकों के लिए समाज का नजरिया दिखाने की कोशिश की गई है।कुछ फिल्मों
ने समलैंगिकों के लिए आम आदमी का नजरिया बदला है फिर भी समाज का एक बड़ा तबका
उन्हें असामान्य ही मानता है।फिल्मों में समलैंगिक किरदारों को स्वीकार तो किया जा
रहा है लेकिन उन्हें ज्यादातर फैशन या मीडिया जगत से जुड़ा दिखाया जाता है।इस विषय
की पहली मेनस्ट्रीम हिंदी मूवी ओनीर निर्देशित माय ब्रदर निखिल रही है|फिल्म 'बॉम्बे टॉकीज़' में करण जौहर की कहानी में रणदीप हुड्डा और साकिब सलीम का प्रसंग,
'कपूर एंड सन्स' में फव्वाद ख़ान का
किरदार, कल्कि की 'मार्गरीटा
विद स्ट्रॉ' सहित कई फिल्मों में रिश्तों को गंभीरता से
दिखाया गया|
निर्देशक करण राजदान की गर्लफ्रेंड में लेस्बियन रिश्तों पर फोकस है। करण
जौहर निर्देशित दोस्ताना गे-कॉमेडी थी। यह फिल्म दर्शकों को काफी रास आई यह फिल्म
इसलिए भी चर्चित रही कि इसमें पहली बार दो पुरुषों के चुम्बन द्रश्य को दिखाया गया
। लेस्बियन लव स्टोरी 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' फिल्म में इस तरह के रिश्ते को लेकर
स्पष्टता और निडरता देखी जा सकती है | आयुष्यमान
खुराना और जितेन्द्र कुमार की 'शुभ मंगल ज्यादा सावधान' भी इसी दिशा में समाज की बदलती सोच को दिखाने में सफल रही|
बहुत से फिल्म निर्माता समलैंगिकता को केवल हास्य के रूप में इसलिए रखते
हैं ताकि उन्हें फिल्म की रिलीज के दौरान दिक्कत न हो इसलिये फिल्मों में ऐसे
चरित्र तो बढ़ रहे हैं जिनके हाव भाव समलैंगिकों वाले हैं पर उनकी यौन रूचि पर
सीधे कोई बात नहीं की जाती और फिल्मों के कथ्य में वो महज मजाक बन कर रह जाते हैं|भले ही फिल्मों का विषय और प्रस्तुति काल्पनिक हो लेकिन कोई भी फिल्म अपने
समय से निरपेक्ष नहीं रह सकती हर फिल्म पर उस समय का असर जरुर होता है जिस समय वह
निर्मित की जा रही होती है| समलैंगिक किरदारों को हास्य
के साथ प्रस्तुत करना समाज में उनके प्रति गलत छवि का निर्माण करता है |यह समलैंगिकों के साथ अन्याय भी है ।लिसा रे और शीतल सेठ की आइ कांट थिंक
स्ट्रेट स्त्री समलैंगिकता पर आधारित थी। शमीम शरीफ निर्देशित फिल्म में दोनों
अभिनेत्रियां अपनी यौन पहचान समझने की कोशिश में रहती हैं। फिल्म् “डू नो वाय... न जाने क्यों” पुरुषों के
समलैंगिक रिश्तों की कहानी है। जो विषमलैगिक ढांचे के अनुसार नहीं चलते हैं| पश्चिमी देशों में पुरुष और स्त्री को अपने सेक्स रिश्ते के चुनाव की पूरी
आजादी हैं। इसे विचार अभिव्यक्ति का ही हिस्सा माना जाता है पर भारत में स्थिति
अलग है|यहाँ सेक्स अभी भी टैबू है जिस पर बात करना वर्जित है | हम भारत से बाहर की फिल्में देखकर ऐसे बोल्ड विषयों को कहने के साहस पर
खुश होते है लेकिन वही काम अगर भारत में हो तो पचा नहीं पाते। निर्देशकों के
चरित्र उसकी प्रवृत्ति पर सवाल खड़े का कर देते हैं।साल 2015 में आई मनोज बाजपेयी की अलीगढ़ ने
समलैंगिकता पर चल रही बहस को न सिर्फ एक नया मोड़ दिया बल्कि यह इस मामले में
हिन्दी सिनेमा के गंभीर हो जाने की दिशा में बड़ा हस्तक्षेप था |
समलैंगिकों की स्थिति का काफी दस्तावेजीकरण हो रहा है| जिनसे पता चलता है कि गे ,लेस्बियन हिजडा, ट्रांसजैन्डर्ड, और बाईसेक्स्युअल लोगों की मानव प्रतिष्ठा का बार-बार किस प्रकार उल्लंघन किया जाता है। उल्लंघनों का क्षेत्र व्यापक है। किन्नरों का सेक्स रैकेट के रूप में प्रयोग और पुलिसवालों द्वारा उनके बार-बार बलात्कार की घटनाएं हैं और उनके मानवाधिकारों का हनन भी शामिल है ।बहरहाल समलैंगिकता पूरी दुनिया में हमेशा मौजूद रही है परंतु इसे हमने सामाजिक कालीन के नीचे छिपा दिया था जो अब प्रकट हो रहा है। हाल ही में ऐसी फिल्मों की बढ़ती तादाद और प्रमुख अभिनेताओं द्वारा समलैंगिक किरदारों का निभाया जाना इस ओर इशारा करता है कि बॉलीवुड भी इस गंभीर मुद्दे की ओर उन्मुख है। समलैंगिकता को देश में कानूनी मान्यता मिल गई है तो उम्मीदें भी बढ़ी हैं। अब देखना दिलचस्प होगा कि हिंदी फिल्मकार किस तरह से इसको अपने विषयों का हिस्सा बनाते हैं। क्या वह दबी आवाजें कुचले रिश्ते संबंधों की कसमसाहट और समाज की नैतिकता किस चोले में रजत पटल का हिस्सा बनेगी|
दैनिक जागरण में 07/04/2022 को प्रकाशित
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