अभी अब्दुल रज्जाक की ऐश्वर्या राय पर की गई टिप्पणी पर मुझे कुछ नही कहना है. पर जब इस तरह की बातें होती है तो हम भूल जाते है कि “बोली एक अमोल है जो कोई बोले जानु लिए तराजू तौल के तब मुख बाहर आन”. कबीर दास जी का यह दोहा कई सौ साल बीतने के बाद भी प्रासंगिक बना हुआ है.
हम कितने भाग्यशाली है कि हमें बोलने के लिए ‘जबान’ मिली और सुनने के लिए ‘कान’.मेरे शहर लखनऊ के एक मॉल में रेस्टोरेंट है. जहां ज्यादातर वेटर मूक बधिर है.वे बड़े प्यार से आपको भोजन कराते हैं.अपनी इशारों की भाषा में वे सबके साथ सहज होते हैं.जब आप उनके बीच में होते है तब आपको समझ आता है कि हम कितने खुशनसीब है. कुछ भी कहने के लिए आपको सिर्फ जबान हिलानी है.आपको अपनी बात समझाने के लिए मेहनत नही करनी है.जरा सोचिये मूक बधिरों को अपनी बात कहने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ती है.यही बात उन्हें जिम्मेदार बनाती है.वे शब्दों का महत्व जानते हैं. उनकी इशारों की भाषा में कुछ भी निजी नही होता है . सब कुछ सार्वजनिक और शायद इसीलिए वो हमसे ज्यादा जिम्मेदार होते है. हम कोई स्टेट्स किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर डालते हैं और देखते हैं कि अचानक उसमें कुछ ऐसे लोग स्टेट्स के सही मंतव्य को समझे बगैर टिप्पणियाँ करने लगते हैं जिनसे हमारी किसी तरह की कोई जान पहचान नहीं होती .यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया होती है जिसमें ईगो का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है . हमारा ईगो, डिजिटल युग को पसंद क्यों करता है क्योंकि यह व्यक्तिवाद को बढ़ावा देता है जिसमें शामिल है ‘आई’’ ‘मी’ और “माई” “आई-फोन”. जिसमें सामूहिकता की कहीं कोई जगह नहीं है और शायद इसलिए लोगों ज्यादा से ज्यादा लाईक्स,शेयर और दोस्त वर्चुअल दुनिया में पाना चाहते हैं .
ये स्थिति घातक भी हो सकती है. यह एक और संकट को जन्म दे रहा है जिससे लोग अपने वर्तमान का लुत्फ़ न उठाकर अपने अतीत और भविष्य के बीच झूलते रहते हैं .अपनी पसंदीदा धुन के साथ हम मानसिक रूप से अपने वर्तमान स्थिति को छोड़ सकते हैं और अपने अस्तित्व को अलग डिजिटल वास्तविकता में परिवर्तित कर सकते हैं.वैसे भी ईगो के लिए वर्तमान के कोई मायने नहीं होते हैं. ईगो मन अतीत के लिए तरसता है क्योंकि ये आपको परिभाषित करता है. ऐसे ही ईगो अपनी किसी आपूर्ति के लिए भविष्य की तलाश में रहता है. हमारे डिजिटल उपकरण वर्तमान से बचने का बहाना देते हैं और आक्रमकता को बढ़ावा देते हैं .फेसबुक,ट्विटर जैसी तमाम सोशल नेटवर्किंग साईट्स की सफलता के पीछे हमारे दिमाग की यही प्रव्रत्ति जिम्मेदार है .लोग आमतौर पर ऑनलाइन होने की तुलना में आमने-सामने ज्यादा विनम्र होते हैं।चलते चलते बोलते वक्त जिम्मेदार बनिये वो चाहे वर्चुअल दुनिया हो या रीयल.
प्रभात खबर में 30/11/2023 को प्रकाशित
No comments:
Post a Comment