बचपन,जवानी ,और बुढ़ापा जीवन के ये तीन हिस्से माने गए हैं ,बचपन में बेफिक्री जवानी में करियर और बुढ़ापा मतलब जिन्दगी की शाम पर जीवन में एक वक्त ऐसा आता है जब न बचपने जैसी बेफिक्री रहती है न जवानी में करियर जैसा कुछ बनाने की चिंता और न ही अभी जिन्दगी की शाम हुई होती है यानि बुढ़ापा .शायद यही है अधेड़ावस्था जब जिन्दगी में एक ठहराव होता है पर यही उम्र का वो मुकाम है जब मौत सबसे ज्यादा डराती है. उम्र के इस पड़ाव पर जो कभी हमारे बड़े थे धीरे धीरे सब जा रहे हैं और हम बड़े होते जा रहे हैं. मुझे इतना बड़प्पन नहीं चाहिए कि हमारे ऊपर कोई हो ही न .मौत किसे नहीं डराती पर जिंदगी में एक वक्त ऐसा आता है. जब मौत के वाकये से आप रोज दो चार होने लगते हैं , मुझे अच्छी तरह याद है बचपन के दिन जब मैंने होश संभाला ही था. कितने खुशनुमा थे बस थोड़ा बहुत इतना ही पता था कि कोई मर जाता है पर उसके बाद कैसा लगता है उसके अपनों को ,कितना खालीपन आता है. जीवन में इस तरह के न तो कोई सवाल जेहन में आते थे और न ही कभी ये सोचा कि एक दिन हमको और हमसे जुड़े लोगों को मर जाना है हमेशा के लिए, मम्मी पापा का साथ दादी –बाबा का सानिध्य,लगता था जिन्दगी हमेशा ऐसी ही रहेगी. हम सोचते थे कि जल्दी से बड़े हो जाएँ सबके साथ कितना मजा आएगा पर बड़ा होने की कितनी बड़ी कीमत हम सबको चुकानी पड़ेगी इसका रत्ती भर अंदाज़ा नहीं था . मौत से पहली बार वास्ता पड़ा 1989 में. बाबा जी का देहांत हुआ हालांकि वह ज्यादातर वक्त हम लोगों के साथ ही रहा करते थे पर अपनी मौत के वक्त गाँव चले गये थे. उनकी मौत की खबर आयी,गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थीं. पहली बार किसी के जाने के खालीपन को महसूस किया शायद यह मेरे बड़े होने की शुरुआत थी . जल्दी ही हम सब अपनी जिन्दगी में रम गए. तीन साल बाद फिर गर्मी की छुट्टियों में दादी की मौत देखी वह भी अपनी आँखों के सामने .उस दिन जब मैं सुबह की सैर के लिए निकल रहा था दादी अपने कमरे में आराम से सो रही थी ,मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि अगली सुबह वह अपने बिस्तर पर नहीं बर्फ की सिल्लियों पर लेटी होंगी . जिन्दगी बहुत क्रूर होती है .दादी जल्दी ही यादों का हिस्सा बन गयीं .हम भी आगे बढ़ चले .जिन्दगी खुल रही थी ,भविष्य ,करियर ,परिवार के कई पड़ाव पार करते हुए जिन्दगी को समझते हुए बीच के कुछ साल फिर ऐसे आये जब हम भूल गए कि मौत सबकी होनी है.
बाबा की मौत के बाद से किसी अपने के जाने से उपजा खालीपन लगातार बढ़ता रहा. बचपन के दिन बीते, हम जवान से अधेड़ हो गए और माता –पिता जी बूढ़े जिन्दगी थिरने लग गयी. अब नया ज्यादा कुछ नहीं जुड़ना है. अब जो है उसी को सहेजना है पर वक्त तो कम है आस –पास से अचानक मौत की ख़बरें मिलने बढ़ गईं हैं. पड़ोस के शर्मा जी हों या चाचा- मामा जिनके साथ हम खेले कूदे बड़े हुई धीरे –धीरे सब जा रहे हैं. सच कहूँ तो उम्र के इस पड़ाव पर अब मौत ज्यादा डराती है.
प्रभात खबर में 10/09/2024 को प्रकाशित
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